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स्थानीय निकाय चुनावों में चरित्र, चमक, चतुराई और चांदनी के साथ-साथ यह भी देखा जाएगा कि वर्तमान राज्य सरकार की नीतियां, कार्यक्रम और विकास किस करवट बैठता है। यूं तो जयराम सरकार के नाक के नीचे ये चुनाव जनता के मूड की फिरौती की तरह हो सकते हैं या स्थानीय तौर पर बिखरे समाज के भीतरी अंतरद्वंद्वों का मुआवजा हासिल करेंगे, फिर भी कमोबेश सत्ता लाभ के हर पदाधिकारी को अपनी जमीन मापने का अवसर दे रहे हैं। ऐसे में भाजपा के भीतर, कांग्रेस के बाहर और समाज के परिदृश्य में ये चुनाव आम मतदाता के चमत्कार से कम नहीं, लेकिन पहली बार दो मंत्रालयों के कामकाज को ठीक से पढ़ने का मौका इनके परिणाम जरूर देंगे। ग्रामीण विकास मंत्री वीरेंद्र कंवर और शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज की हस्ती में स्थानीय निकाय कितने सामर्थ्य के साथ पारी खेल रहे हैं, यह एक दिलचस्प पहलू होगा। बेशक ग्रामीण विकास मंत्री की हैसियत से वीरेंद्र सिंह कुछ मूल अवधारणाओं के साथ अपनी इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए गोवंश को लावारिस होने से बचा रहे हैं, लेकिन वन्य प्राणियों और खासतौर पर बंदरों से आतंकित खेत का लावारिस होना उनके दायित्व के साथ कृषि, बागबानी तथा वन मंत्रियों को भी जोड़ रहा है।
इसी तरह सिंचाई के मसलों में जल शक्ति मंत्री के प्रदर्शन की ओर देख रहा है। गांव के मसलों में सड़क, बिजली व पेयजलापूर्ति की स्थिति जब किस्सों में प्रकट होती है, तो चुनाव की दहलीज पर ही अग्निपरीक्षा हो जाती है। स्थानीय निकाय चुनावों में शहरी राजनीति को समझने की बेहद जरूरत है और इसी के केंद्र बिंदु में सुरेश भारद्वाज की कमान में आसन बिछाए चुनाव अपना राग अलाप रहे हैं। नगर निगमों से पहले नगर पंचायत व परिषदों की चुनावी फेहरिस्त से इस बार शहरीकरण कन्नी काट जाता है या कहीं अपने ठहराव पर खड़े मुद्दों को अंगीकार कर लेता है। इसमें दो राय नहीं कि मौजूदा सरकार ने शहरीकरण की तरफ कदम बढ़ाते हुए एक साथ तीन नए नगर निगम जोड़े और गांव से छीन कर कुछ नगर निकाय बढ़ा दिए, लेकिन चुनावी सरहद पर गांव और शहर की पड़ताल के मायने ही साबित करेंगे कि नागरिक भविष्य में कोशिशें कितनी ईमानदार रहीं। शहरीकरण की प्रशंसा में चुनाव अपना असर दिखाते हैं या टीसीपी जैसे कानून से पिंड छुड़वाने की जद्दोजहद में सारा प्रपंच ही नकारात्मक बिंदुओं पर होता रहेगा।
हिमाचल से गुजरते चुनाव को शायद ही पता चले कि कहां गांव और कहां से शहर शुरू हो गया, लेकिन वीरेंद्र कंवर और सुरेश भारद्वाज के बीच दो अलग हिमाचल अपनी संयुक्त कथा लिखेंगे। यानी जहां गांव की बेहतरी का सीमांकन है, वहां तक कंवर वीरेंद्र के प्रदर्शन की कहानी सुनी जाएगी। दूसरी ओर तीन नगर निगम कायम करने वाले सुरेश भारद्वाज जिन गांवों को चुनकर शहर बना सके या सारे शहरीकरण की बुनियाद पर नए कानूनों की फेहरिस्त जमा सके, उसकी परीक्षा होनी बाकी है। शहरीकरण को बतौर तोहफे में जनता कबूल कर भी ले, लेकिन टीसीपी कानून को जिस तरह भूत माना जा रहा है, उससे मुक्ति का मार्ग यह चुनाव नहीं हो सकता। चुनाव अगर केवल सियासी हस्तियां बनकर खिल भी उठें या सत्तारूढ़ दल की हैसियत चमका दें, फिर भी शहरीकरण के आधार पर हिमाचल को अपने होने का सबूत देना है। निश्चित तौर पर इन चुनावों में हिमाचल की ग्रामीण आबादी घट रही है और जब तक नगर निगमों के चुनाव हो जाएंगे, शहरी जनसंख्या का फैलाव नई अपेक्षाओं में घर कर लेगा। ऐसे में सुरेश भारद्वाज भले ही तोहफे के रूप में शहरी निकायों को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन शहरी उसूलों की रचना और उनकी सकारात्मक स्वीकारोक्ति के प्रश्न फिलहाल हल नहीं हो पाएंगे।
- क्यों रद्द करें गणतंत्र दिवस?
हम क्यों न मनाएं अपने देश का गणतंत्र दिवस..? क्यों न मनाएं ‘पूर्ण स्वराज्य’ का संकल्प-दिवस..? क्या देश की स्वतंत्रता, संविधान और लोकतंत्र से जुड़े दिवसों के समारोह खारिज किए जा सकते हैं? क्या संविधान के क्रियान्वयन का दिन देश के लिए ऐतिहासिक और गौरवपूर्ण नहीं होता? क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, अपने समारोह का साक्षी बनाने के मद्देनजर, किसी विदेशी अतिथि का मोहताज हो सकता है? क्या हाल ही के कालखंड में राष्ट्र-विरोध और राजनीतिक विरोध के बीच की मर्यादाएं खंडित होती जा रही हैं? दरअसल 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस का उत्सव भाजपा, कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी का नहीं, भारत का एक महान और गौरवान्वित अतीत और इतिहास है। गुलामी के दौर में 26 जनवरी, 1930 को रावी नदी के तट पर भारत के ‘पूर्ण स्वराज्य’ का संकल्प लिया गया था। एक सपना देखा गया था स्वतंत्र राष्ट्र का! गणतंत्र दिवस भारत के शौर्य, सम्मान और बलिदानों का महोत्सव है।
यही कारण है कि हम हर वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाते हैं। क्या ऐसे अवसर को भी रद्द किया अथवा किसी कायर की तरह घर के भीतर ही मनाया जा सकता है? यदि कोरोना वायरस की नई नस्ल के अचानक विस्तार और संक्रमित मरीजों के सैलाब तथा लॉकडाउन के मद्देनजर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने हमारा आतिथ्य स्वीकार करने में असमर्थता जताई है, अपना प्रवास रद्द करना पड़ा है, तो क्या गणतंत्र के महोत्सव को ही भुला दें और खारिज कर दें? अपने राष्ट्रीय सरोकारों को ही छोड़ दें? ऐसा नहीं है कि पहले कभी गणतंत्र दिवस विदेशी अतिथि के बिना नहीं मनाया गया। हमें याद है कि 1966 ऐसा ही साल था, लेकिन कुछ साल ऐसे भी थे, जब दो-दो विदेशी अतिथि हमारी गणतंत्र परेड के साक्षी बने। स्वतंत्र भारत के इतिहास में 1962 के भारत-चीन युद्ध और 1975 के आपातकाल को नहीं भूला जा सकता। आपातकाल में तो गणतंत्र, लोकतंत्र और न्यायपालिका तक का गला घोंट दिया गया था। इन संवैधानिक संस्थाओं को ध्वस्त करने का दुस्साहस तक किया गया, लेकिन 1963 और 1976 की 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस रद्द नहीं किए गए।
उन्हें शान और शिद्दत से मनाया गया। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आर.एस.एस. को भी आमंत्रित किया था, जिस पर उनकी सरकार ने ही प्रतिबंध लगाया था। गणतंत्र संविधान की रक्षा, संविधान की सर्वोच्चता, संविधान के क्रियान्वयन और नागरिक के मौलिक अधिकारों का दिवस है। एक लोकतंत्र में उसे न मनाने की कल्पना तक कैसे की जा सकती है? कांग्रेस सांसद शशि थरूर, दिग्विजय सिंह या शिवसेना की प्रियंका चतुर्वेदी हों, इन सभी ने संविधान की शपथ लेकर सांसदी का गौरव और दायित्व ग्रहण किए हैं। थरूर केंद्रीय मंत्री रहे हैं। दिग्विजय लगातार 10 साल तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। संविधान का पालन उनका पहला सरोकार रहा है। संविधान गणतंत्र दिवस का मुख्य पर्याय है। वे कुछ भी अनाप-शनाप बयान देते रहें, लेकिन इस बार विदेशी अतिथि के बिना ही गणतंत्र दिवस खूब शान से मनाया जाना चाहिए। संविधान 1950 से लागू हुआ और 1955 से दिल्ली के राजपथ पर गणतंत्र की परेड निकाली जाती है। उसके जरिए हम राजनीतिक, सामाजिक, सामरिक और आर्थिक सामर्थ्य का प्रदर्शन करते हैं। परेड में मिसाइल, टैंक, अस्त्र-शस्त्र और विमानों की झांकियां दिखाई जाती हैं। आसमान में हमारे विमान कलाबाजियां खाते हैं, तो हमारे जांबाज पायलटों के हुनर का देश साक्षी बनता है। तालियां बजाई जाती हैं।
बच्चे ऐसे अजूबों पर उछलते-कूदते हैं। इसी मौके पर परमवीर चक्र, अशोक चक्र, महावीर चक्र आदि सम्मान देश के राष्ट्रपति एवं सेनाओं के सुप्रीम कमांडर हमारे बहादुर, रणबांकुरे सैनिकों अथवा मरणोपरांत उनके परिजनों को देकर सम्मानित करते हैं। क्या ऐसे सम्मान समारोह भी देश के सामने न हों? ‘अमर जवान ज्योति’ पर जाकर प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, सीडीएस और तीनों सेनाओं के प्रमुख शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देकर नमन करते हैं। क्या जवानों की शहादत का एक राष्ट्रीय कार्यक्रम भी रद्द कर दिया जाए? बेशक यह दौर कोरोना का है, लेकिन लॉकडाउन का नहीं है। तमाम कार्य किए जा रहे हैं, चुनाव कराए जा रहे हैं, शादियां हो रही हैं, बाज़ार खुले हैं। यानी सब कुछ अनलॉक है, तो 26 जनवरी का महोत्सव रद्द क्यों किया जाए? परेड को लालकिले के बजाय नेशनल स्टेडियम तक सीमित किया गया है। सैनिकों की संख्या भी घटाई गई है। राजपथ पर दर्शकों की संख्या भी 25,000 कर दी गई है। परेड जैव सुरक्षा माहौल में होगी। बच्चों में 15 साल की उम्र से कम वालों को अनुमति नहीं दी गई है। क्या विदेशी अतिथि के न आने के कारण गणतंत्र परेड को खारिज किया जाए? ऐसा यह देश स्वीकार नहीं करेगा।
3.समाधान की उम्मीद
किसानों का बढ़ता आंदोलन जितना दुखद है, उतना ही चिंताजनक भी। दिल्ली की सीमाओं पर अनेक जगह जिस तरह से ट्रैक्टर रैली निकालकर किसानों ने प्रदर्शन किया है, उससे प्रशासन के कान खड़े हो जाने चाहिए। सबसे दुखद यह कि घोषित रूप से ऐसी रैली का अभ्यास 26 जनवरी के आयोजन को प्रभावित करने के लक्ष्य के साथ किया गया है। दिल्ली चलो के नाम पर 26 नवंबर को शुरू हुआ किसानों का विरोध प्रदर्शन तनाव बढ़ाने की दिशा में बढ़ चला है। किसानों को नए कृषि कानूनों की वापसी और न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी के अलावा कुछ भी मंजूर नहीं। सरकार किसानों के साथ अनेक बार वार्ता कर चुकी है, लेकिन समाधान की उम्मीद को बल नहीं मिला है। आज 8 जनवरी को किसान-सरकार वार्ता फिर प्रस्तावित है, लेकिन अफसोस, 7 जनवरी की शाम तक इस वार्ता को लेकर कोई नई उम्मीद या प्रस्ताव सामने नहीं आया। स्वाभाविक है, किसी भी लोकतंत्र में जब सरकार किसी आंदोलन की बात नहीं सुनती है, तो उस आंदोलन में शामिल लोग शक्ति प्रदर्शन करते हैं और किसान ट्रैक्टर रैली के जरिए यही करना चाहते हैं। 2,500 से भी ज्यादा ट्रैक्टर का दिल्ली की सीमा पर पहुंचना अपने आप में ऐतिहासिक है। ट्रैक्टर गांवों व खेतों में चलाया जाने वाला वाहन है, पर अगर ऐसे वाहन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में दौड़ेंगे, तो क्या होगा, सोच लेना चाहिए। नई दिल्ली में एक अनुमान के अनुसार, करीब 124 प्रवेश द्वार हैं, जिनसे होकर दोपहिया समेत करीब छह लाख वाहन रोज आते हैं। रोज इतने वाहन दिल्ली आते हैं कि ज्यादातर प्रवेश द्वारों पर गिनती भी नहीं होती। कौन नहीं जानता कि दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र उत्तर भारत का सबसे महत्वपूर्ण व्यावसायिक व शैक्षणिक केंद्र है। अगर ज्यादा दिनों तक यहां यातायात को रोका जाएगा, तो जाहिर है, व्यवसाय और रोजगार पर असर पड़ेगा, जिसका नुकसान पूरे देश को उठाना पड़ेगा। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहने वाले तीन करोड़ से ज्यादा लोगों के बारे में न केवल किसानों, बल्कि सरकार को भी सोचना चाहिए। यह तो अच्छा है कि अभी भी दिल्ली के कुछ प्रवेश द्वार खुले हैं और दिल्ली किसी तरह से चल रही है, लेकिन किसान अगर एक जगह बैठने के बजाय जगह-जगह रैलियां निकालने लगेंगे, तो फिर मुश्किलों का कारवां भी चलेगा। आज की वार्ता में सरकार को समाधान के मकसद से ही बैठना चाहिए। लोगों को ही नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट को भी आज की वार्ता से उम्मीदें हैं। ध्यान रहे, 11 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट किसान आंदोलन पर आगे सुनवाई करेगा। उसकी चिंता पहले भी सबके सामने आ चुकी है। मामले को संवाद के जरिए सुलझाने में ही सार है। जहां सरकार को जल्द समाधान के लिए काम करना चाहिए, वहीं किसानों को भी कुछ नरमी जरूर दिखानी चाहिए। देश भर में कृषि की जमीनी हकीकत, उदारीकरण और समग्र अर्थव्यवस्था के बारे में सोचना चाहिए। ज्यादा अड़ने से आंदोलन में उग्रता बढ़ने का खतरा है, जिसे झेलने की स्थिति में देश नहीं है। पहले कोरोना और अब बर्ड फ्लू से अपनी अर्थव्यवस्था को बचाना ज्यादा जरूरी है। इसके अलावा, यह आंदोलन अगर लंबा खिंचा, तो लोगों का कृषि से मोहभंग भी बढ़ेगा। अब दोनों पक्षों को समग्रता में विचार करते हुए वार्ता के लिए बैठना चाहिए।
4. हैवानियत की हद
कठघरे में योगी का रामराज का दावा
देश के अंतर्मन को झिंझोड़ती उत्तर प्रदेश के बदायूं की घटना ने एक बार फिर निर्भया कांड की याद दिला दी। मंदिर गई पचास वर्षीय महिला की पोस्टमार्टम रिपोर्ट रोंगटे खड़ी करने वाली है। रिपोर्ट हैवानियत की गवाही देती है। इससे पहले पुजारी महिला के कुएं में गिरकर घायल होने की बात करके पुलिस-प्रशासन को गुमराह करता रहा लेकिन पुलिस ने जिस तरह प्राथमिक स्तर पर कोताही बरती और परिजनों के कहने के बाद दूसरे दिन घटनास्थल पर पहुंची और घटना को गैंगरेप व हत्या मानने से इनकार करती रही, वह शर्मनाक है। यद्यपि योगी सरकार अपराधियों के प्रति शून्य सहिष्णुता का दावा करती रहती है लेकिन निचले स्तर के पुलिस वाले उसके दावों को पलीता लगाते रहते हैं। देर से ही सही, बदायूं के उघैती थाना के प्रभारी को निलंबित करके पुलिस की छवि को हुई क्षति को कम करने का प्रयास हुआ। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में क्रूरता की पुष्टि होने के बाद गैंगरेप और हत्या का मामला दर्ज किया गया है। मामले के दो अभियुक्त गिरफ्तार हुए हैं मगर मुख्य अभियुक्त अब तक फरार है। एक बार फिर इनसानियत शर्मसार हुई। यह घटना हमारी आस्था को भी खंडित करने वाली है कि मंदिर में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। इससे समाज का यह विश्वास खंडित होता है कि धार्मिक स्थल शुचिता और सुरक्षा के पर्याय हैं। समाज को अब यह तय करना होगा कि ऐसी आपराधिक सोच के लोग धर्म का चोगा पहनाकर अपनी आपराधिक प्रवृत्तियों को अंजाम न दे सकें। यह भी तथ्य सामने आता है कि कामांध लोगों की शिकार किसी भी उम्र की महिलाएं हो सकती हैं। निस्संदेह जहां यह कानून व्यवस्था की विफलता का मामला है, वहीं आस्था और विश्वास को खंडित करने का भी वाकया है। कानून का भय अपराधी मनोवृत्ति के लोगों में न होना कानून-व्यवस्था के औचित्य पर सवालिया निशान लगाता है, जिसके बाबत सत्ताधीशों को गंभीरता से सोचना होगा।
निस्संदेह बदायूं की हैवानियत हर संवेदनशील व्यक्ति के मन को लंबे समय तक उद्वेलित करती रहेगी क्योंकि इसमें आस्था स्थल की शुचिता को तार-तार किया गया है। यह भी कि इस अपराध को अंजाम देने वालों में ईश्वरीय और कानूनी मर्यादाओं का कोई भय नहीं रहा। जो इनसानियत से भी भरोसा उठाने वाली घटना है। घटनाक्रम सरकार व स्थानीय प्रशासन को सचेत करता है कि धर्मस्थलों में सदाचार व नैतिक व्यवहार सुनिश्चित किया जाये। सवाल पुलिस की कार्यप्रणाली पर भी उठता है कि निचले स्तर के पुलिसकर्मियों को पीड़ितों के प्रति संवेदनशील व्यवहार के लिये प्रशिक्षित किया जाये। जहां यौन हिंसा रोकने के लिये बने सख्त कानूनों के सही ढंग से क्रियान्वयन का प्रश्न है वहीं निचले दर्जे के अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने का भी प्रश्न है। पुलिस की ऐसी ही संवेदनहीनता हाथरस कांड में भी नजर आई थी। सवाल यह भी है कि ऐसे मुद्दे जघन्य अपराधों के वक्त ही क्यों उठते हैं। बहरहाल, महिलाओं को सशक्त करने की भी जरूरत है ताकि वे ऐसी साजिशों के खिलाफ प्रतिरोध कर सकें। शहरों ही नहीं, गांव-देहात में भी ऐसी पहल हो और ऐसी योजनाएं सिर्फ कागजों में ही नहीं, धरातल पर आकार लेती नजर आयें। अधिकारियों को ऐसे मामलों को समझने और पीड़ितों के प्रति संवेदनशील व्यवहार के लिये प्रशिक्षित करने की सख्त जरूरत है। साथ ही शासन-प्रशासन की तरफ से अपराधियों को सख्त संदेश जाना चाहिए कि हैवानियत को अंजाम देने वाले लोगों को सख्त सजा समय से पहले दी जायेगी, जिससे अपराधियों में कानून तोड़ने के प्रति भय पैदा हो सकेगा। तभी हम आदर्श सामाजिक व्यवस्था की ओर उन्मुख हो सकते हैं। सवाल योगी सरकार पर भी है कि बड़े अपराधियों के खिलाफ जीरो टॉलरेंस का दावा करने के बावजूद अखबारों के पन्ने जघन्य अपराधों की खबरों से क्यों पटे हुए हैं। लखीमपुर खीरी, बुलंदशहर, हाथरस, बदायूं की घटनाओं के अलावा कानपुर के बहुचर्चित संजीत यादव अपहरण व हत्या कांड में पुलिस की नाकामी क्यों सामने आई है। संगठित अपराधों पर नियंत्रण के दावों के बीच जघन्य अपराध थम क्यों नहीं रहे हैं।