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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.टीकों पर भरोसा जरूरी
कोरोना वायरस और उसके टीके को लेकर कुछ प्रलोभन, गैर-कानूनी गतिविधियां और अंततः त्रासदियां सामने आई हैं। भोपाल में भीषण गैस कांड के चार दशकों के बाद भी पीडि़त लोग परिणति झेल रहे हैं। वे अछूतों की तरह, भोपाल के एक हाशिए वाले इलाके में, एक बस्ती में रहने को विवश हैं। वे बेहद गरीब हैं, क्योंकि उपयुक्त रोज़गार या नौकरियां बेहद कम हैं। आम अवधारणा है कि उनसे अब भी संक्रमण फैल सकता है, लिहाजा उन्हें अछूत-सा व्यवहार झेलना पड़ता है। ऐसे में एक वाहन उस बस्ती में आता है, जो घोषणा करता है कि आपके शहर में कोरोना का टीका लगाया जा रहा है। टीका लगवाने वाले को 750 रुपए दिए जाएंगे। यह घोषणा टीके का परीक्षण करने वाली कंपनी की तरफ से कराई गई थी अथवा कोई फर्जी, भ्रामक जाल बिछाया गया था, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन टीका लगने के कुछ दिन बाद दो गरीब व्यक्तियों की मौत हो गई। किसी भी संस्थान ने फॉलोअप नहीं किया, कोई करारनामा मृतकों के घर से नहीं मिला, निरक्षर होने के कारण वे डायरी में कोई रिकॉर्ड दर्ज नहीं कर पाए। शवों के पोस्टमॉर्टम में निष्कर्ष थे कि शरीर में ज़हर की मौजूदगी के कारण मौत हुई। आनन-फानन में दोष कोरोना टीके का परीक्षण करने वाली कंपनी पर मढ़ा नहीं जा सकता और न ही संपूर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिकता को नकारा जा सकता है।
व्यवस्था को नाकाम और संवेदनहीन भी करार नहीं दे सकते, लेकिन कुछ सवाल, आशंकाएं और प्रभाव जरूर हैं, जो कोरोना टीके के साथ जुड़े हैं। चूंकि टीकाकरण की घड़ी आ गई है, लिहाजा उसका मकसद, रणनीति, प्रभावशीलता और संक्रमण की स्थिति आदि बेहद स्पष्ट किए जाने चाहिए। अब देशभर में कोरोना टीके लगाए जाएंगे, लिहाजा संक्रमण रोकने, मौजूदा संक्रमण की कड़ी को तोड़ने, मृत्यु-दर को खत्म करने के बजाय नगण्य और वायरस के भविष्य आदि के राष्ट्रीय मकसद भी सामने आने चाहिए। देश में फिलहाल कोविशील्ड और को-वैक्सीन टीकों का ही इस्तेमाल किया जाना है, लेकिन दोनों की प्रभावशीलता के डाटा सार्वजनिक नहीं हैं। दलील दी गई है कि ये डाटा सार्वजनिक नहीं किए जा सकते। अलबत्ता विशेषज्ञ समूह ने डाटा का गंभीरता से आकलन किया है। तभी दोनों टीकों को आपात मंजूरी दी गई है। विशेषज्ञों के अन्य वर्ग का दावा है कि ऐसा डाटा हासिल करने के लिए कमोबेश तीन साल की अवधि चाहिए। कुछ ही महीनों में यह डाटा संपूर्ण और सटीक नहीं माना जा सकता। दोनों ही टीकों के तीन साल तक मानवीय और क्लीनिकल परीक्षण नहीं किए गए हैं। को-वैक्सीन के तीसरे चरण का परीक्षण अभी जारी है। करीब 25,000 इनसानों पर ये परीक्षण किए जाएंगे, ऐसा कंपनी ने दावा किया है। फिलहाल दो चरणों के परीक्षण के डाटा को ही विशेषज्ञों ने ‘भरोसेमंद’ पाया है।
बहरहाल अब टीकाकरण शुरू होने को है, लिहाजा टीकों से मानवीय सुरक्षा और उनकी प्रभावशीलता कसौटी पर होगी। कुछ अनहोनियों से विशेषज्ञ और टीके का अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक, चिकित्सक भी इंकार नहीं करते, क्योंकि दोनों टीकों की सफलता-दर औसतन 70 फीसदी है। अब टीके देश के अधिकतर हिस्सों तक पहुंच चुके हैं, लिहाजा टीकाकरण से पहले लोगों का भरोसा जीतना जरूरी है। कुछ ‘काली भेड़ें’ इस मानवीय अभियान को भी ‘तारपीडो’ करने की कोशिशें जरूर करेंगी। पश्चिम बंगाल में जिस तरह टीके के वाहन को रोका गया, ऐसे उदाहरण अन्य राज्यों में भी देखे जा सकेंगे। दुर्घटनाएं और त्रासदियां भी जिंदगी की अहम हिस्सा हैं। टीकाकरण अभियान भारत के लिए पहला प्रयास नहीं है। बीते 30 सालों से हम ‘यूनिवर्सल टीकाकरण कार्यक्रम’ चलाते रहे हैं। उसमें 14 बीमारियों को निर्मूल करने की सफल कोशिश हुई है और 75 फीसदी से ज्यादा बच्चों की जिंदगी बचाई गई है। कोरोना के संदर्भ में भी लक्ष्य बहुत बड़ा है और जुलाई, 2021 तक 30 करोड़ लोगों में टीकाकरण किया जाना है। उसके लिए स्वास्थ्य समेत करीब 20 विभागों और मंत्रालयों में बुनियादी ढांचे के अलावा समन्वय बहुत जरूरी है। हमारी व्यवस्था में कई दरारें और कमियां भी हैं। मानव संसाधन के अलावा कमजोर निजी क्षेत्र, सुरक्षा और स्वच्छता के कमजोर मानक, क्रियान्वयन की धीमी गति, गुणवत्ता और टीकाकरण से प्रभावित होने वाली अन्य बीमारियों से जुड़ी स्वास्थ्य सेवा आदि ऐसे सवाल हैं, जो टीकाकरण के दौरान उभर कर सामने आ सकते हैं। फिर भी कोरोना के खिलाफ जंग तो लड़नी ही है, उसके लिए देशवासियों का भरोसा जीतना पहली जरूरत है। दुष्प्रचार किसी भी तरह के रोड़े अटका सकता है।
- इन इमारतों को संस्थान बनाएं
इमारतों के जंगल में विकास की निगरानी और विकास की शक्ल में हिमाचल की व्यवस्था को परखते सरकार के सरोकार अपनी संवेदना दर्ज करते रहे हैं। ताजा उदाहरण मेडिकल कालेज भवनों की निर्माण गति पर न केवल तवज्जो दे रहा है, बल्कि यह भी सुनिश्चित हो रहा है कि इनका निर्माण गुणवत्ता के आधार पर हो। जाहिर है सरकार जब ऐसे प्रयास करती है, तो परियोजनाओं का चेहरा बन कर इमारतें खिल उठती हैं, लेकिन सवाल इससे बड़ा और भविष्य की मांग पर केंद्रित है। क्या इमारतों के जंगल में व्यवस्था की गुणवत्ता और गुणवत्ता की शैली में फर्क पड़ता है। कुछ दिन पहले ही हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री एवं केंद्रीय मंत्री रह चुके शांता कुमार के बयान पर गौर करें, तो उनके जीवन में पत्नी खो देने की रिक्तता का सबसे कसूरवार चेहरा ऐसी ही इमारतों का विकास है। टीएमसी में पत्नी खोने और चंडीगढ़ के निजी अस्पताल में खुद को बचाने के बाद शांता कुमार को सुना जाए, तो पता चल जाएगा ये मेडिकल कालेज किस तरह की अक्षम व्यवस्था के बंधक बन चुके हैं। क्या हम इमारतें चुनने के बजाय व्यवस्था में गुणवत्ता चुनने का माहौल बना पाएंगे या राजनीतिक इश्तिहारों में ईंटें निहारते रहेंगे।
आज भी समाज के लिए बेहतर शिक्षा-बेहतर चिकित्सा के लिए निजी संस्थान ही कामयाब हो रहे हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं कि उनकी इमारतें मजबूत हैं। टीएमसी की इमारतों के आगे चंडीगढ़ का निजी अस्पताल बौना रहा होगा, लेकिन व्यवस्था, प्रबंधन और सेवाभाव में अपने लक्ष्यों को सदा पारंगत करता है। बेशक हिमाचल अपनी औकात से अधिक मेडिकल कालेज स्थापित करने का श्रेय ले सकता है, लेकिन यहां सवाल तो चिकित्सकीय सेवाओं की औकात का है। शांता कह रहे हैं कि टांडा मेडिकल कालेज से कहीं चंडीगढ़ अस्पताल की औकात है, तो इसके अर्थों में हिमाचल को अपनी सुध लेनी होगी। सवाल इमारतों के भीतर औकात का है। उदाहरण के लिए बागबानी विभाग को ही लें, तो इसकी इमारतों और संपत्तियों में दर्ज शानोशौकत का सीधा मुकाबला निजी नर्सरियों से है। किसी बागबान के उस भरोसे को क्या कहेंगे जो निजी नर्सरियों से पौधे खरीदकर अपने बागीचे की चमक बचा रहा है। खेत के सवाल जब ऊंची इमारतों की औकात से पूछे जाएंगे, तो मिट्टी जवाब नहीं दे पाएगी। पिछले एक दशक में प्रदेश में निजी नर्सरियों का प्रसार यह साबित कर रहा है कि हिमाचली घर फूलों की अहमियत बढ़ा रहे हैं, लेकिन इस ख्वाहिश से दूर विभागीय लक्ष्य केवल राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पोषण की बैसाखियां पहन कर केवल इमारतों के नक्शे बना रहे हैं।
चारों तरफ इमारतों की पेशकश में कमोबेश हर विभाग जरूरत से अधिक फैलकर भी व्यवस्था की गुणवत्ता में सिमट रहे हैं। एक अजीब वित्तीय परिक्रमा में हिमाचल की जिस तस्वीर को हम प्रगतिशील मान रहे हैं, वह दरअसल रेत-बजरी, सीमेंट और सरिये का खेल है। राजनीति के दर्पण में सत्ता के अर्थ इमारतें पूरी कर रही हैं। कार्यकर्ता, समर्थक या प्रशंसक केवल अवसर की तलाश में ठेकेदारी खोज रहे हैं और नेता नए भवनों की कतार में अपने पक्ष के लोगों को सशक्त कर रहे हैं। नागरिक इस इंतजार में कि हर इमारत बच्चों को नौकरी देगी,यह भूल रहे हैं कि हम इस तरह केवल व्यवस्था के खंडहर बसा रहे हैं। विडंबना यह भी कि हिमाचल का विकास सीधे वन संरक्षण अधिनियम के कब्जे में या धारा 118 के आगे निजी निवेश की तालाबंदी जारी है। ये दोनों हथियार हमेशा से सियासत की चिडि़या को चुगने का मौका देते हैं। ऐसे में सरकारी संपत्तियों का ऑडिट जरूरी हो जाता है ताकि पता चले कि इनकी उपयोगिता किस तरह बढ़ाई जा सके। किसी इमारत को परिसर बना देने के बजाय पार्किंग के लिए जमीन छोड़ देने का लाभ होगा, तो किसी अस्पताल में नए भवन के बजाय एक्सरे मशीन चलाने भर से संस्थान बनाया जा सकता है। इमारतों को संस्थान बनाने की पैरवी जिस तरह निजी क्षेत्र करता है, उसी तरह के जज्बात तथा अनुशासन सार्वजनिक क्षेत्र में भी पैदा हो तो अंतर आएगा, वरना इमारतें तो केवल सियासी शेखियों में पैदा होकर भी सरकारी फर्ज की सिसकियां ही बनी रहेंगी। सार्वजनिक क्षेत्र में वास्तविक गुणवत्ता उन आदर्शों से आएगी, जिनका निर्वहन करते हुए प्राइवेट सेक्टर तमाम अड़चनों के बावजूद श्रेष्ठ साबित होता है।
3.हाड़ कंपाती ठंड
देश के उत्तर और पश्चिमी भाग में हाड़ कंपा देने वाली ठंड पड़ रही है, जिससे जनजीवन पर भी असर पड़ने लगा है। यह सतर्क और तैयार रहने का समय है। जगह-जगह कोहरे की वजह से भी यातायात पर असर पड़ा है, जिससे आने वाले दिनों में बाजार पर असर पड़ने की आशंका है। पहाड़ों में बर्फ का आलम है, तो कल राष्ट्रीय राजधानी में न्यूनतम तापमान 3.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। ऐसे अनेक स्थान हैं, जहां कोहरे की वजह से पचास मीटर दूर की चीजें भी नहीं दिखाई पड़ रही हैं। पश्चिमी राजस्थान में भी ठंड से बुरा हाल है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, गंगानगर में न्यूनतम तापमान 0.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है। मौसम विभाग ने यह भी साफ कर दिया है कि आगामी तीन-चार दिनों तक ऐसी ही सर्दी रहेगी। मौसम शुष्क है और उत्तर-पश्चिमी हवाओं का दौर जारी है, जिससे देश के मैदानी इलाकों में पारा अभी चढ़ने का नाम नहीं लेगा। पहाड़ों में न्यूनतम तापमान शून्य से नीचे चला गया है। श्रीनगर में भी सर्दी से बुरा हाल है। जम्मू-कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में पिछले तीस साल का सबसे कम न्यूनतम तापमान दर्ज किया गया है। मौसम विज्ञान विभाग के मुताबिक, बुधवार को श्रीनगर में तापमान शून्य से 8.4 डिग्री सेल्सियस नीचे दर्ज किया गया। 1995 में श्रीनगर में शून्य से 8.3 डिग्री सेल्सियस कम तापमान दर्ज किया गया था और 1991 में तापमान शून्य से 11.3 डिग्री सेल्सियस नीचे रहा था। कश्मीर की प्रसिद्ध डल झील का जमना शुरू हो चुका है। जिस झील में नावें चलती हैं, उसका पानी ठहरने लगा है। जमी हुई झील को देखने लोग निकलने लगे हैं, लेकिन यहां चहलकदमी खतरनाक हो सकती है। आमतौर पर पानी की ऊपरी सतह ही पहले जमती है, जबकि नीचे पानी अपने तरल रूप में ही रहता है। हां, तापमान अगर निरंतर शून्य से नीचे बना रहे, तो जल स्रोत पूरी तरह से जमने लगते हैं। डल झील का जमना संकेत हो सकता है कि इस बार सर्दी कुछ ज्यादा दिनों तक रहेगी।
उत्तर भारत के राज्यों में सावधान रहना जरूरी है। टीकाकरण के लिए यह मौसम भले ही मुफीद लग रहा हो, लेकिन खुद को ठंड के प्रकोप से बचाना भी जरूरी है। बच्चों, बुजुर्गों, बीमार लोगों और जिनको सांस की समस्या है, उन्हें विशेष रूप से सावधान रहना होगा। अस्पतालों में विशेष रूप से नजर रखने की जरूरत है, मौसमी बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ सकता है। ऐसे मौसम में स्कूल या कॉलेज खोलने की योजना पर पुनर्विचार कर लेना चाहिए। ऐसे में, स्कूल खोलना भारी पड़ सकता है। बिहार सरकार ने छोटे बच्चों के लिए स्कूल खोलने के फैसले को टालकर अच्छा फैसला किया है, जबकि राजस्थान और दिल्ली बड़े बच्चों के लिए स्कूल खोलने के पक्ष में लग रहे हैं। मौसम विभाग के अनुसार, पारा और गिरेगा, अत: विशेष रूप से अभावग्रस्त लोगों और बस्तियों पर नजर रखना जरूरी है। यह वक्त है, जब भोजन व समाज कल्याण की योजनाओं के साथ विशेष सक्रियता कायम रहनी चाहिए। जहां भी अलाव या रैन बसेरों जैसे इंतजाम जरूरी हैं, वहां प्रशासन को मुस्तैदी से आगे आना होगा, जिम्मेदारी तय करनी पड़ेगी। लोग यही चाहेंगे कि सर्दियों का कहर किसी पर न टूटे, यह देश पहले ही कोरोना, नए कोरोना और अब बर्ड फ्लू के चलते खतरे झेल रहा है।
- सभ्यता की कसौटी
समानता की संवेदना इंसानियत का तकाजा
निस्संदेह किसी सभ्य समाज में किसी भी किस्म के नस्लवाद का का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। खासकर खेल की दुनिया में तो कतई नहीं, जो मनुष्य के उदात्त जीवन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। आज 21वीं सदी में किसी समाज के लिये ऐसी सोच का होना शर्मनाक है। पिछले दिनों सिडनी में भारत व आस्ट्रेलिया के बीच तीसरे टेस्ट मैच के दौरान जो कुछ भी अप्रिय घटा, वह बताने वाला था कि खुद को सभ्य बताने वाले विकसित देशों के कुछ लोग आज भी मानसिक दुराग्रहों से मुक्त नहीं हो पाये हैं। निस्संदेह दर्शक दीर्घा में अच्छे खेल को प्रोत्साहन देने वाले क्रिकेट प्रशंसक भी होंगे लेकिन कुछ बिगड़ैलों ने जिस तरह से भारतीय खिलाड़ियों को लेकर नस्लवादी टिप्पणियां कीं, वह दुखद ही कही जायेंगी। कहीं न कहीं ऐसे लोग विपक्षी टीम का मनोबल गिराने का कुत्सित प्रयास ही करते हैं ताकि खिलाड़ियों की मानसिक एकाग्रता भंग करके अपनी टीम को बढ़त दिलायी जा सके। ऐसी अभद्रता कई खिलाड़ियों को फिल्डिंग के दौरान सहनी पड़ी। नस्लभेदी टिप्पणी करने वाले अपनी टीम के प्रति इतनी उम्मीदें पाले होते हैं कि हर मैच में अपनी टीम को जीतता देखना चाहते हैं जो कि किसी भी खेल में संभव नहीं है। यही मानसिक ग्रंथि उन्हें विपक्षी टीम के खिलाफ अनाप-शनाप बकने को उकसाती है। विडंबना यह है कि इन असामाजिक तत्वों ने दूसरा मैच खेल रहे मोहम्मद सिराज और जसप्रीत बुमराह को निशाना बनाया, जो आस्ट्रेलिया टीम को चुनौती दे रहे थे। कहीं न कहीं ऐसी कुत्सित कोशिशें विपक्षी टीम की जीत की कोशिशों की लय को भंग करने के ही मकसद से की जाती हैं। हालांकि खिलाड़ियों द्वारा टीम कप्तान को विकट स्थिति की जानकारी देने और मैच अधिकारियों द्वारा कार्रवाई के बाद बदतमीज दर्शकों को स्टेडियम से बाहर का रास्ता दिखाया गया, लेकिन ऐसी कड़वाहट इतनी जल्दी कहां दूर होती है। उसकी कसक लंबे समय तक बनी रहती है।
हालांकि, क्रिकेट आस्ट्रेलिया ने इस घटनाक्रम पर खेद जताया है। यह अच्छी बात है कि ऐसी कुत्सित मानसिकता को संस्थागत संरक्षण नहीं मिलना चाहिए। मामले की पड़ताल की जा रही है। विगत में खिलाड़ी, आप्रवासी भारतीय व अल्पकालिक प्रवास पर गये लोग शिकायत करते रहे हैं कि कुछ आस्ट्रेलियाई नस्लवादी व्यवहार करते हैं। हालांकि, आस्ट्रेलिया में ऐसे अपशब्दों को प्रतिबंधित किया गया है और आस्ट्रेलिया एक बहुसांस्कृतिक देश के रूप में देखा जाता रहा है। श्वेत आस्ट्रेलिया की नीति को 1970 के दशक में अलविदा कह दिया गया था। पिछले दशकों में बड़ी संख्या में अश्वेत बड़े शहरों का हिस्सा बने हैं। लेकिन इसके बावजूद एक तबका इसे स्वीकृति प्रदान और सभी लोगों को अपने समाज में आत्मसात् नहीं कर पा रहा है। खासकर जब खेल की बात आती है तो वे आक्रामक राष्ट्रवादी बन जाते हैं। खेल अधिकारियों ने दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाई करके सकारात्मक संदेश ही दिया है। लेकिन इसके बावजूद कई सवाल अनुत्तरित ही हैं कि सभ्यता के विकास क्रम में ऐसी संकीर्ण सोच के लोग क्यों नस्लवाद का पोषण करते हैं। अवांछित पूर्वाग्रहों से ग्रस्त ऐसे लोग सामुदायिक पहचान के जरिये अपने अतीत के वर्चस्व से आत्ममुग्ध रहते हैं। यह ठीक है कि विकसित समाजों ने ऐसी धारणा को दूर करने में खासी कामयाबी पायी है। लेकिन इसके बावजूद नस्लभेदी पूर्वाग्रहों का विद्यमान रहना हैरानी का ही विषय है। ऐसी दुर्भावना का पाया जाना किसी भी सभ्य समाज के लिये शर्म की बात है। खासकर दूसरे देश से खेल जैसे उत्कृष्ट मानवीय व्यवहार का हिस्सा बनने वाले खिलाड़ियों के साथ ऐसा व्यवहार किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं हो सकता। संस्थागत स्तर पर तो ऐसी सोच को पनपने का किसी भी हाल में मौका नहीं देना चाहिए। ऐसी सोच को दूर करने के लिये सकारात्मक सामाजिक प्रशिक्षण दिये जाने की भी जरूरत है ताकि उनमें आलोचनात्मक विवेक पैदा किया जा सके। तभी वे सभ्य होने की कसौटी पर खरे उतर सकेंगे। मानव के भीतर मानव के लिये संवेदना जगाना जरूरी है।