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1.गणतंत्र की ‘ट्रैक्टर परेड’
गणतंत्र में संविधान देश के नागरिकों को विशेष मौलिक अधिकार प्रदान करता है, तो उनके साथ कर्त्तव्य और राष्ट्रीय हित भी नत्थी होते हैं। किसी भी पक्ष को अकेला नहीं देखा जा सकता। मौलिक नागरिक अधिकार हैं, तो कानून-व्यवस्था, जन-संतुलन, नैतिकता, मर्यादा और सबसे अहम देश के प्रति एकता, अखंडता की निष्ठा भी उतनी ही संवैधानिक है। यकीनन आंदोलन करना और गणतंत्र-स्वतंत्रता दिवस सरीखे राष्ट्रीय पर्वों को मनाना प्रत्येक भारतीय का अधिकार है, लेकिन सरकार और व्यवस्था के समानांतर आज़ादी का जश्न मनाना ‘अराजकता’ और ‘देश-विरोध’ है। यह टकराव का स्पष्ट संकेत है। यह कानूनहीनता है। इसके मायने हैं कि राजपथ पर जो राष्ट्रीय झांकियां और परेड के आयोजन किए जाएंगे, एक वर्ग उनके समानांतर अपनी खिचड़ी अलग पकाने पर आमादा है। यह निरंकुशता और उच्छृंखलता भी है। बेशक सर्वोच्च न्यायालय ने देश के आम नागरिक को यह अधिकार दिया है कि वह राष्ट्रीय ध्वज ‘तिरंगा’ अपने घर, छत, संस्थान, वाहन पर फहरा सकता है, लेकिन उसकी भी कुछ शर्तें हैं। यह नहीं हो सकता कि तिरंगा शोभित करना और अपनी निजी परेड निकालना भी किसी का बेलगाम अधिकार है। अंततः देश भर में जन-व्यवस्था, अनुशासन और राष्ट्रीय पर्व की मर्यादा, गरिमा बनाए रखना भी औसत नागरिक का संवैधानिक दायित्व है।
दरअसल प्रसंगवश सवाल यह है कि किसान संगठन गणतंत्र दिवस के अवसर पर 25-26 जनवरी को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में समानांतर ‘टै्रक्टर परेड या रैली’ के आयोजन पर आमादा क्यों हैं? यह तो किसान आंदोलन के अधिकृत मांग-पत्र का हिस्सा ही नहीं है। किसानों की मांग रही है कि कृषि के तीन विवादास्पद कानून रद्द किए जाएं और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी दर्जा दिया जाए। बिजली का प्रस्तावित कानून और पराली, डीजल के दाम आदि अन्य मुद्दे हैं। उन पर भारत सरकार के साथ संवाद के दौर जारी हैं। ‘टै्रक्टर रैली’ में हज़ारों वाहन और किसान शामिल होंगे, तो इसका प्रतीकात्मक अर्थ क्या होगा? परेड दिल्ली की बाहरी रिंग रोड से गुज़रें अथवा किसी अन्य क्षेत्र से जाएं, उसका सीधा प्रभाव जन-व्यवस्था पर पड़ना तय है। जो पक्ष बाधित होगा, उसके भी संवैधानिक मौलिक अधिकार हैं। आंदोलन के कारण जो फैक्ट्रियां, कारखाने बंद हो चुके हैं अथवा उत्पादन बंदी के कगार पर आ चुका है, उनके संवैधानिक अधिकारों को क्यों कुचला जा रहा है? राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस के समारोह पर दुनिया की निगाहें भारत पर चिपकी होती हैं, अनेक राजनयिक और अतिविशिष्ट अतिथि भी मौजूद रहते हैं।
किसानों के समानांतर आयोजन का प्रभाव क्या भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि पर नहीं पड़ेगा? समानांतर शक्ति-प्रदर्शन कर किसान क्या सरकार को दबाव में लाना चाहते हैं? उनके 55 दिन पुराने धरने, प्रदर्शन को सरकार ने लगातार अनुमति दी है, तो इसलिए कि यह किसानों का लोकतांत्रिक अधिकार है। यदि अब लक्ष्मण-रेखा और देश की मर्यादा को ही लांघने की कोशिश की जाएगी, तो फलितार्थ कुछ भी हो सकते हैं। जिन जगहों पर किसानों ने धरने दे रखे हैं, वे वहीं गणतंत्र दिवस मनाएं, तिरंगा फहराएं, उसे सलामी दें और अंततः सरकार के साथ बातचीत की रणनीति को कुछ बदलने का प्रयास करें। फिलहाल संपूर्ण राष्ट्र मानसिक और वैचारिक स्तर पर किसानों के समर्थन में है, लेकिन ‘टै्रक्टर रैली’ के दौरान कुछ अराजक, अनिष्ट हो गया, तो भाव बदलते एक मिनट लगेगा। बल्कि सवालों और शंकाओं की बौछार होने लगेगी। बहरहाल इस संदर्भ में सर्वोच्च अदालत ने सुनवाई टाल दी है और इसे कानून-व्यवस्था का मुद्दा करार दिया है। यह दिल्ली पुलिस का संवैधानिक अधिकार और दायित्व है कि वह तय करे कि 26 जनवरी के मौके पर कौन दिल्ली में प्रवेश करे और कौन न कर सके। लिहाजा पुलिस अधिकारियों और संयुक्त किसान मोर्चा के बीच संवाद तो हुआ है, लेकिन यह लिखे जाने तक कोई फैसला सामने नहीं आया था। पुलिस और प्रशासन कोई निर्णय लेते हैं, तो उस पर सुनवाई बुधवार 20 जनवरी को शीर्ष अदालत में हो सकती है। उसी दिन सरकार और किसानों के बीच एक और दौर की बातचीत होनी है। फिलहाल संकट देश की संप्रभुता और अखंडता पर है, जिसे नागरिक ही चुनौती दे रहे हैं।
2.हिमाचल खुद से सीखे
तहजीब से विकास तक हिमाचल के सारथी भले ही आगे निकल गए और छोटे से प्रदेश ने राष्ट्र के उल्लेख हासिल कर लिए, लेकिन आंतरिक यात्रा के मील पत्थर भटक गए। यानी प्रदेश ने अपने तजुर्बों को राष्ट्र से इतना जोड़ लिया कि अतीत के शंखनाद भूल गया। विकास का हर कदम या मॉडल, पर्वतीय कसौटियों और अनुभव के बाहर निकल गया, लेकिन अपने भीतर की उपलब्धियां खारिज होती गईं। इसे हम एक हद तक विकास एवं प्रगति की महत्त्वकांक्षा कह सकते हैं, लेकिन जहां तहजीब भी फिसल जाए उसे गंभीरता से लेना होगा। मसलन हिमाचल के गठन और उसके विस्तार में शरीक होते गए इलाकों के बीच जिस भाषाई संगम का उदय होना था, उसे भूल कर भाषा की ऐसी चोटी पकड़ने की कोशिश हुई जो अस्वाभाविक या बनावटी मानी जा सकती है। यही वजह है कि पर्वतीय अंचल की मिठास को हिमाचली भाषा के कंठ से जोड़ा नहीं जा सका। अतीत में लाल चंद प्रार्थी या नारायण चंद पराशर जैसे सियासी प्रयास आज के सियासी वातावरण में अछूते हो गए, तो दूसरी ओर लेखक समुदाय भी बोलियों के क्षेत्रवाद में अछूता हो गया। कला, भाषा एवं संस्कृति विभाग को यही मालूम नहीं कि वह दायित्व के किस ढेर पर बैठा है। इसी तरह जन समुदाय भी वैयाक्तिक होड़ में आचरण का कुछ ऐसा विकास कर रहा है, जो प्रदेश के वास्तविक मुद्दों से कहीं अलग दिखाई देता है। अतीत के त्योहार, आज के मधुवन में गुम हैं। कभी मिंजर, शिवरात्रि, दशहरा, होली जैसे उत्सव हमारी परंपराओं को सामुदायिक विशिष्टता का तमगा पहना देते थे, लेकिन आज नए त्योहारों की श्रृंखला में बाजार के अनुयायी बनकर हिमाचली तसदीक हो रहे हैं। हिमाचल अगर खुद से सीखता, तो शिमला में न्यू शिमला का हाल इस तरह न होता। आश्चर्य यह कि वर्षों से माल रोड की गरिमा से हम यह सीख नहीं पाए कि हर शहर के मुख्य बाजार को वाहन वर्जित करना चाहिए। हमीरपुर में प्रबुद्ध नागरिकों ने कोशिश की, लेकिन मुंह की खानी पड़ी। कुछ यही हाल गेयटी थियेटर की परंपराओं को लेकर भी रहा। आज तक इतना सामर्थ्य पैदा नहीं हुआ कि सांस्कृतिक थियेटरों का निर्माण करके यह प्रदेश खुद को साबित कर पाता। मंडी शहर की गंदगी को अलविदा कहने के लिए इंदिरा मार्केट का निर्माण एक सौगात बनकर आया, लेकिन इसके बाकी अवतार पैदा नहीं हुए।
हर शहर को ऐसी मार्केट मिल जाए, तो तस्वीर बहुत कुछ कहेगी। पूरे प्रदेश में शिमला के रिज की तरह नागरिक सैरगाहें उपलब्ध हो सकती हैं, लेकिन इस अतीत से कौन सीखे। सीखे होते तो प्रदेश में अब तक नए हिल स्टेशन बन चुके होते। चंबा के कलात्मक पक्ष से ही सीखें, तो शहर-शहर, गांव-गांव, हिमाचल की धरोहर दिखाई देगी। जहां कभी सामुदायिक भावना से चौगान विकसित हुए, वहां अब सरकारी खूंटे से बंधी इमारतों ने हस्तक्षेप कर दिया। चंबा-सुजानपुर जैसे शहरों में चौगानों की हत्या के बजाय इनके संरक्षण तथा विस्तार की ओर कदम उठाते, तो हमीरपुर जैसे शहर को भी एक अदद सामुदायिक मैदान हासिल होता। जिस पालमपुर को नगर निगम के तगमे से अलंकृत किया जा चुका है, उसके आंगन में उजड़े चाय के बागीचों को बचाने की पहल कब शुरू होगी। विडंबना यह कि अंग्रजों ने जिस शिद्दत से कांगड़ा में चाय की खेती शुरू की, उसे हम लगातार उजाड़ रहे हैं। कृषि विश्वविद्यालय के अपने परिसर में ही अगर चाय की तीन पत्तियां उदास हो गईं, तो इस स्थिति का अंजाम क्या होगा। नई सिंचाई परियोजनाओं का बजट डकारते जल शक्ति विभाग अगर प्राचीन कूहलों से ही सीख लेता, तो बिना लिफ्ट किए ही खड्ड का पानी खेत में पहुंच जाता। प्रदेश की योजना पद्धति को एक बार मुड़कर हिमाचल के अतीत से सीखना होगा, ताकि विकास के विलुप्त हो रहे आदर्श बच जाएं और सही अर्थ में जरूरतें भी पूरी हो सकें।
3.बल्ले से बल्ले-बल्ले
आस्ट्रेलिया से जीत छीनी युवा तुर्कों ने
ऐसे वक्त में जब टीम में रेगुलर कप्तान न हो, आधे खिलाड़ी चोटिल हों, शृंखला के पहले मैच में भारतीय क्रिकेट इतिहास के सबसे न्यूनतम स्कोर पर टीम हारी हो, टीम की कोशिश मैच बचाने की हो और टीम परदेश की तूफानी पिचों पर जीत छीन ले तो निस्संदेह यह चमत्कार जैसा ही है। चमत्कार किया ऐसे खिलाड़ियों ने, जिन्हें मुख्य खिलाड़ियों के चोटिल होने के कारण टीम में जगह मिली थी। सही मायनों में यह जीत संयत होकर धैर्य के साथ आस्ट्रेलिया के खिलाड़ियों की उछाल लेती गेंदों और लगातार गाली-गलौज करते दर्शकों को झेलते हुए हासिल की गई। एक हारी हुई बाजी को दूसरा मैच जीत कर बराबर करना, फिर तीसरा मैच ड्रा करके चौथा मैच जीत लेना असंभव को संभव बना लेने जैसा ही था। क्रिकेट को सभ्य लोगों का खेल कहा जाता है, लेकिन सभ्यता न आस्ट्रेलिया के दर्शकों ने दिखायी और न ही खिलाड़ियों ने। खिलाड़ी लगातार नये खिलाड़ियों पर चोट पहुंचाने वाली बाउंसर गेंदें फेंकते रहे। लेकिन भारतीय खिलाड़ियों ने लगातार धैर्य और संयम से भद्रपुरुषों का खेल खेला, एकाग्रता भंग नहीं होने दी और जीत की नई परिभाषा लिख दी। इसका श्रेय वैकल्पिक कप्तान अजिंक्य रहाणे को भी जाता है जिन्होंने अपनी टीम के खिलाड़ियों का बेहतर ढंग से उपयोग किया और उन्हें जरूरत के हिसाब से मैदान सजाने की अनुमति दी। बहरहाल, भारतीय खिलाड़ियों ने बॉल और बल्ले से टीम की बल्ले-बल्ले करा दी। इस शृंखला की बड़ी उपलब्धि ऋषभ पंत के रूप में विकेटकीपर बल्लेबाज की शानदार पारी भी रही, जिसने न केवल महेंद्र सिंह धोनी की कमी को पूरा किया बल्कि मुश्किल वक्त में शानदार पारी खेलकर टीम में जीत की भूख को बरकरार रखा। निस्संदेह, चौथे टेस्ट में उदीयमान शुभमन गिल की शुभंकर पारी, ऋषभ पंत की तूफानी पारी और चेतेश्वर पुजारा की धैर्य से खेली गई पारी की जीत में निर्णायक भूमिका रही। तभी टीम आस्ट्रेलिया को उसी की धरती पर बढ़त वाले मैच में हार का स्वाद चखाने में कामयाब हुए।
बहरहाल, ब्रिसबेन टैस्ट मैच में जीत के साथ ही भारत ने यह शृंखला 2-1 से जीत ली और बॉर्डर-गावस्कर ट्राफी आस्ट्रेलिया को लौटाने की नौबत नहीं आयी। इस जीत ने एडिलेड टैस्ट की उस शर्मनाक पराजय का दाग भी धोया है, जिसमें पूरी भारतीय टेस्ट क्रिकेट इतिहास के सबसे न्यूनतम स्कोर 36 पर आउट हो गई थी। उस बेहद अपमानजनक हार से उबरना, दूसरा मैच विराट कोहली की अनुपस्थिति में जीतना, तीसरा मैच ड्रा करवाना और फिर ब्रिसबेन में आस्ट्रेलिया के पाले में गये मैच को ड्रा कराने रक्षात्मक खेल के बीच आस्ट्रेलिया से जीत छीन लेना एक नई भारतीय क्रिकेट टीम के उदय होने की कहानी है। वह भी विदेश की धरती पर, उस आस्ट्रेलिया में जहां तेज पिचें स्वदेशी खिलाड़ियों की तूफानी गेंदबाजी के अनुरूप बनती हैं। फिर आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी बाउंसरों और शरीर को चोट पहुंचाने वाली तेज गेंदों से मेहमान खिलाड़ियों का मनोबल तोड़ने का भरसक प्रयास करते हैं। दरअसल, आस्ट्रेलिया के खिलाड़ी पिच के अलावा दिमागी गेम विपक्षी टीम का मनोबल गिराने के लिये लगातार खेलते हैं। इतनी विषम परिस्थितियों में भारतीय टीम का जीतना कई मायनों में उपलब्धियों भरा है। वह भी ऐसे वक्त में, जब पूरा देश कोरोना संकट से जूझ रहा था और टीम आईपीएल की लंबी और थकाऊ शृंखला खेलकर आस्ट्रेलिया पहुंची थी। खिलाड़ियों को न तो अभ्यास के लिये पर्याप्त समय मिल पाया और न ही फिटनेस की तैयारी हो पायी। यही वजह है कि आधी टीम चोटिल हुई। बहरहाल, चौथे मैच में हार बचाने की कवायद यदि जीत दिला दे तो टीम के युवा तुर्कों की मुक्तकंठ से प्रशंसा करनी ही चाहिए। इस शृंखला में आम भारतीयों से बेहद कम परिचित और जख्मी खिलाड़ियों की जगह खेलने आये नवोदित खिलाड़ियों मोहम्मद सिराज, शार्दुल ठाकुर, नटराजन और वॉशिंगटन सुंदर जैसे खिलाड़ियों ने संकट को अवसर में बदलकर जीत की इबारत लिखने में बड़ी भूमिका निभायी।
4.अभियान में सावधानी
भारत जैसे देश में टीकाकरण अभियान की सफल शुरुआत की जितनी तारीफ की जाए कम होगी। इतना विशाल देश इतने बडे़ पैमाने पर कोई अभियान चला रहा है, तो उसमें कुछ शिकायतों का सामने आना लाजिमी है। और यह आम लोगों के लिए घबराहट का नहीं, बल्कि वैज्ञानिकों के लिए विचार का विषय होना चाहिए। किसी भी दवा का जब प्रयोग किया जाता है, तो उसके प्रभाव के साथ-साथ कुछ दुष्प्रभाव भी सामने आते हैं। चूंकि रिकॉर्ड समय में कोरोना वैक्सीन तैयार हुई हैं, इसलिए किसी-किसी पर उनके दुष्प्रभाव दिखाई पड़ सकते हैं। इतिहास गवाह है, ज्यादातर टीकों के निर्माण में दशकों लगे हैं, लेकिन कोरोना ने हमें उतना समय नहीं दिया। कोरोना टीके के चंद दुष्प्रभाव को ध्यान में रखते हुए इस पृष्ठभूमि को भी ध्यान में लाना चाहिए कि कोरोना वायरस हर किसी पर समान रूप से प्रभाव नहीं छोड़ता है। किसी पर कोरोना का बहुत घातक असर होता है और किसी पर बहुत मामूली। इसका अर्थ यह हुआ कि शरीर-दर-शरीर कोरोना वायरस के प्रभाव में भी अंतर आ जाता है। कुछ लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता तुलनात्मक रूप से बहुत अच्छी होती है। आंकड़ों को अगर देखें, तो अच्छी रोग प्रतिरोधक क्षमता वालों को कोरोना ने न्यूनतम परेशान किया है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जब वायरस का दुष्प्रभाव समान नहीं है, तब वायरस के लिए बनी दवा का प्रभाव समान कैसे हो सकता है?
दवा की दुनिया के जानकार यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि शायद ही कोई ऐसी दवा है, जिसका कोई दुष्प्रभाव न हो। एलोपैथी में ऐसी दवाओं की भरमार है, जो नाना प्रकार के रसायनों या रासायनिक समीकरणों से तैयार होती हैं और बहुत स्थापित दवाओं के भी दुष्प्रभाव चिकित्सा विज्ञान के लिए नए नहीं हैं। अत: कोरोना टीके पर भी हमें पूरे विश्वास के साथ चलना चाहिए। विशेष रूप से चिकित्सा समुदाय को टीके का स्वागत करना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि इस टीकाकरण अभियान में दुष्प्रभावों के प्रति पहले से ही सचेत रहते हुए तमाम व्यवस्थाएं की गई हैं। जो लोग टीकाकरण के लिए सामने आ रहे हैं, उनके स्वास्थ्य की रक्षा सरकार के लिए प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। टीका लेने के तत्काल बाद ही नहीं, बल्कि उसके प्रभाव के पुष्ट होने तक हर एक टीका प्राप्त व्यक्ति की खबर या निगरानी जरूरी है। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि टीके के जो भी प्रभाव या दुष्प्रभाव सामने आएं, उन्हें सही रूप में दर्ज किया जाए और उसकी जानकारी लोगों तक पहुंचाई जाए। टीकाकरण अभियान की बुनियाद ईमानदारी और पारदर्शिता पर टिकी होनी चाहिए, ताकि लोगों का विश्वास कायम रहे और टीकाकरण को आगे बढ़ाने में हमें सहूलियत हो। वैसे दो दिन के टीकाकरण अभियान के दौरान बहुत कम शिकायतें सामने आई हैं और केवल एक व्यक्ति के मरने की आशंका व्यक्त की जा रही है। इस एक मौत की भी गहराई से पड़ताल होनी चाहिए। यदि एक व्यक्ति की भी टीके की वजह से जान गई है, तो उसके तमाम चिकित्सकीय व वैज्ञानिक पहलुओं की पड़ताल सबके सामने रखने की जरूरत है। किसी भी तरह की सनसनी या अफवाहों से सावधान रहने की जरूरत है। आज हम सूचनाओं के दौर में जी रहे हैं। जितनी ज्यादा सूचना लोगों तक पहुंचेगी, उनका विश्वास टीकाकरण अभियान पर उतना ही बढ़ेगा।