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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.पूर्ण राज्यत्व के पचास कदम
पूर्ण राज्यत्व की आधी सदी के साहसिक मुकाम पर हिमाचल जश्न मना सकता है, लेकिन इस यात्रा के नायकों को स्मरण करने का कर्ज हमेशा रहेगा। पूर्ण राज्यत्व तक पहुंचे राज्य ने बेशक अपने मायने गढ़ लिए, लेकिन मानवीय अपेक्षाओं ने जिस राजनीति को ओढ़ लिया उसके सदके भविष्य का संघर्ष अभी पूरी तरह समझा ही नहीं गया। रियासतों से राज्य और राज्य से पूर्ण राज्यत्व तक पहुंचने का सफर महज राजनीतिक होता तो पर्वतीय हवाओं का रुख कोई शिकायत न करता, लेकिन यहां आज भी प्रदेश के अपने प्रतीक पैदा नहीं हुए। विकास की यात्रा में सियासी संबोधन ऊंचे और गहरे हो सकते हैं, लेकिन पूर्ण राज्यत्व को चित्रित करने की सांस्कृतिक ऊर्जा पैदा नहीं हुई। कई छोर आज भी उभरते हैं और जहां अपेक्षाओं की मूंछें हर बार नया क्षेत्रवाद पैदा कर देती हैं। क्षेत्रवाद हर बार उधार के चक्र में सियासी परंपराओं को पूजता है और ऐन चुनाव से पहले पिछले समीकरणों को ठुकरा देता है। किसान अपना खेत छोड़कर सरकारी नौकरी का पात्र बनना चाहता है, पार्टी कार्यकर्ता सत्ता का लाभार्थी बनने की चाह में ठेकेदार बन जाता है और छात्र पढ़ाई को मुकम्मल करने के बजाय सियासी खुशामद का हथकंडा बन जाता है।
ऐसे में करीब साठ हजार करोड़ के ऋण का बोझ उठाए प्रदेश की महत्त्वाकांक्षा को समझने के लिए सरकारी भवनों की गिनती की जाए या पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या के अनुपात में शिक्षा का औचित्य पढ़ा जाए। सरकारी नौकरी से हिमाचली युवा का द्वंद्व, राजनीतिक प्रतियोगिता सरीखा होता गया और इसलिए निजी क्षेत्र के रोजगार को अंगीकार ही नहीं किया गया। राजनीति केवल पेंच पैदा करती रही और मुगालते में रोजगार के अवसर रहे, लिहाजा हर युवा के भीतर का नायक गौण होने लगा है। बेशक हिमाचल ने पंजाब की संख्या से कहीं अधिक सरकारी कालेज खोल दिए, लेकिन शिक्षा की खोज में मंजिलें प्रदेश के बाहर ढूंढी जा रही हैं। विकास के परिप्रेक्ष्य में इंजीनियरिंग, मेडिकल कालेजों तथा निजी विश्वविद्यालयों की तादाद को देखें या यह मुआयना करें कि इस ढेर के भीतर हमारी काबिलीयत है क्या। बेशक हिमाचल ने अपने जन्म से विकास का पहाड़ा बुलंद किया और आज हम पंजाब के मुकाबले कई राष्ट्रीय सर्वेक्षणों में आगे हैं। प्रति व्यक्ति आय में आगे होना अचंभित नहीं करता, लेकिन कृषि विकास दर में पंजाब से आगे निकलना विस्मित करता है। यह इसलिए भी क्योंकि न कृषि विश्वविद्यालय के अनुसंधान प्रमाण दे रहे हैं और न ही विभागीय प्रसार से जमीन पर विज्ञान का कोई नया अवतार दिखाई दे रहा है। पर्वतीय आर्थिकी पर गंभीर चिंतन-मंथन या अनुसंधान की जरूरत है, लेकिन तमाम विश्वविद्यालय ऐसे बिंदुओं पर अपने दायित्व का बोध नहीं करवा पाए। हिमाचल का जन्म व अस्तित्व दो स्रोतों से पैदा हुआ।
पहले पहाड़ी रियासतों के गठजोड़ से समुदाय को आजादी का एहसास और लोकतांत्रिक पहचान मिली। दूसरी बार इसी लक्ष्य का विस्तार करते हुए पंजाब के पर्वतीय क्षेत्रों का मिलन फिर तसदीक कर गया कि हिमाचल आगे चलकर अपने भाषाई सरोकारों के मोती एक साथ पिरो लेगा। हैरानी यही कि वर्षों बाद और पूर्ण राज्यत्व के घुंघरू पहनकर भी हिमाचली भाषा के उद्गम पर सन्नाटा रहा है। पूर्ण राज्यत्व की प्रादेशिक शक्तियों में हिमाचल के अधिकार आज भी उपेक्षित हैं, तो पंजाब पुनर्गठन के बावजूद 7.19 प्रतिशत हिस्सेदारी का विवाद लटका है। हिमाचल के 65 फीसदी हिस्से पर जंगल का कब्जा, तो बहते पानी और उससे उत्पादित बिजली पर कर उगाही कोई रास्ता नहीं। राष्ट्रीय संसाधनों का आबंटन अब बड़े राज्यों की राजनीतिक शक्ति बन गया, इसलिए लोकसभा और राज्यसभा के कुल सात सांसदों के भरोसे यह प्रदेश केवल केंद्र सरकारों की उदारता में बजट तो बना लेता है, लेकिन आत्मनिर्भर होने की दिशा में पंगु साबित हो रहा है। देश के करीब चार दर्जन सांसद पर्वतीय राज्यों से आते हैं। ऐसे में पर्वतीय विकास के मानकों में सुधार तथा वित्तीय पोषण के लिए अलग से मंत्रालय की मांग पर हिमाचल को अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। अब वक्त आ गया है कि प्रदेश में वन संरक्षण अधिनियम के मायने बदलते हुए हिमाचल की आत्मनिर्भरता और विकास के लिए नए प्रयास शुरू किए जाएं। पहले वन क्षेत्र को घटाकर चालीस फीसदी करना, दूसरे चीड़ से निजात तथा भविष्य के वनों में कॉफी, चाय तथा केनफ जैसे पौधे उगाए जाएं।
- ‘नेताजी’ बनाम ‘जय श्रीराम’
मौका नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती का था। उनकी स्मृति, योगदान और स्वतंत्रता संग्राम के पुराने अध्याय और प्रसंग खोले गए। सवाल भी उठाए गए कि नेताजी को ‘राष्ट्रनायक’ का अधूरा सम्मान क्यों दिया जाता रहा है? आज़ाद हिंद फौज के जीवित जांबाजों को ‘स्वतंत्रता सेनानी’ का दर्जा क्यों नहीं दिया जाता रहा है? प्रधानमंत्री मोदी ने भी ऐतिहासिक प्रसंगों को दोहराया, नेताजी की स्मृति में 125 रुपए का सिक्का, डाक टिकट जारी किए, कुछ जीवित योद्धाओं का प्रतीकात्मक सम्मान भी किया गया, लेकिन ऐसी कोई घोषणा नहीं की गई कि आज़ाद हिंद फौज भी ‘स्वतंत्रता सेनानी’ का सम्मान और पेंशन हासिल कर सकें। बेशक 23 जनवरी एक ऐतिहासिक तारीख है, जब सुभाष चंद्र बोस के रूप में एक योद्धा और भारत-भक्त ने जन्म लिया। सुभाष बाबू एकमात्र नेता थे, जिन्होंने 1943 में भारत की आज़ादी की घोषणा की थी और अस्थायी सरकार भी बनाई थी। बेशक 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का आगाज महात्मा गांधी के आह्वान पर हो चुका था, लेकिन एक नेता के तौर पर सेना का गठन और प्रतीक-स्वरूप स्वतंत्र भारत की प्रथम सरकार के प्रयास वाकई क्रांतिकारी थे।
ब्रिटिश हुकूमत का कलेजा कंपा देने वाले प्रयास थे, लेकिन महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू समेत कई तत्कालीन कांग्रेस नेताओं द्वारा वैचारिक आलोचना के मद्देनजर सुभाष चंद्र बोस के स्वतंत्रता संघर्ष और विदेश में कारगर रहीं रणनीतियों को कमतर करके आंका गया। नेताजी की 125वीं जयंती के मौके पर, जर्मनी में बसीं, उनकी बेटी अनिता बोस ने भी पुराने अध्यायों को खुरचने की कोशिश की और पीड़ा भी जताई कि नेताजी की भारतीय स्वतंत्रता मान्यता बौनी रही है। नेताजी ने जेलों में यातनाएं झेलीं, अनशन किए, देश-विदेश में घूमकर समर्थन जुटाया। यहां तक कि अपनी आईसीएस की शाही सरकारी नौकरी को भी ठुकरा दिया, तो आखिर किसके लिए इतना सब कुछ कुर्बान किया? जाहिर है कि देश की आज़ादी और हम सब के लिए यह सब कुछ किया, लेकिन सवाल उठने स्वाभाविक हैं कि उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से क्यों नहीं नवाजा जा सका? हालांकि 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन से अनुशंसा की थी कि नेताजी को मरणोपरांत ‘भारत-रत्न’ से सम्मानित किया जाए। नेताजी की जयंती पर ही 23 जनवरी, 1992 को राष्ट्रपति भवन से प्रेस विज्ञप्ति जारी हुई कि सुभाष चंद्र बोस को सर्वोच्च सम्मान दिया जाएगा, लेकिन उस निर्णय के खिलाफ कोलकाता उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की गई। अंततः वह निर्णय खटाई में पड़ गया। नेताजी के नाम का ‘भारत-रत्न’ सम्मान कहां है, क्योंकि राष्ट्रपति की घोषणा के बाद उसे वापस नहीं लिया जा सकता? वह या तो गृह मंत्रालय में होगा अथवा स्मारक-संग्रहालय में सुरक्षित होगा, लेकिन आधिकारिक तौर पर नेताजी ‘भारत-रत्न’ नहीं माने जा सकते। बाद में नेताजी के परिजनों ने सम्मान स्वीकार करने से ही इंकार कर दिया, क्योंकि बहुत देर हो चुकी थी और कइयों को वह सम्मान दिया जा चुका था। सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल के दौरान 2016 में एक बार फिर ‘भारत-रत्न’ का प्रसंग छिड़ा, तो उसे अंजाम तक क्यों नहीं पहुंचाया गया और नेताजी को ‘भारत-रत्न’ की सूची में स्थान क्यों नहीं दिया गया?
बहरहाल मुद्दा सिर्फ एक भौतिक सम्मान का नहीं है, बल्कि देश की पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानसिक, वैचारिक और राष्ट्रीय मान्यता का है। यदि नेताजी की 125वीं जयंती भी राजनीतिक टकराव और वितृष्णा का शिकार हुई है, तो यह नेताजी का ही परोक्ष अपमान है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भाषण देने मंच पर खड़ी हुईं और ‘जय श्रीराम’ के नारे गूंजने लगे, तो सहज होकर ममता को नेताजी की स्मृति में अपनी बात कहनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री के सामने मांग रखनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री बगल में ही मंच पर मौजूद थे। कार्यक्रम केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने आयोजित किया था, लेकिन मुख्यमंत्री बिन बोले ही नारों के विरोध में चली गईं और सीट पर जाकर बैठ गईं। आखिर अपमान किसका हुआ? ‘जय श्रीराम’ का नारा अपमानजनक कैसे हो सकता है? वह भाजपा की बपौती भी नहीं है। श्रीराम हमारी संस्कृति की आत्मा हैं, हमारे आराध्य हैं, मर्यादा की मूरत हैं, ममता भी बुनियादी तौर पर हिंदू हैं। सवाल सांप्रदायिक भी नहीं है, लेकिन उस समारोह के बाद नेताजी पर विमर्श होने के बजाय बंगाल के चुनाव और भाजपा बनाम तृणमूल की चर्चा छिड़ गई है। जिस ‘विक्टोरिया मेमोरियल’ में नेताजी की जयंती मनाई गई, उसका नामकरण बदलने की पहल भी नहीं हो सकी है। नेताजी भारत के हैं और रहेंगे, बेशक इतिहास कुछ भी लिखता रहे।
3. टीके का असर
अनेक देशों में टीकाकरण अभियान जोर पकड़ चुका है, जिसे लेकर खुशी और कौतूहल का माहौल है। साथ ही, लोग बेसब्री से यह भी जानना चाहते हैं कि टीके कितने कारगर हैं? इंतजार कर रहे लोगों के लिए खुशखबरी है कि टीके के प्रभाव के बारे में शुरुआती संकेत मिलने लगे हैं। इजरायल में शोधकर्ताओं ने प्रारंभिक आंकड़ों का अध्ययन करके बताया है कि टीका लेने वालों के संक्रमित होने की आशंका टीका न लेने वालों की तुलना में एक तिहाई कम है। पहली खुराक के बाद के ये शुरुआती संकेत आशा जगा रहे हैं। जब व्यापक रूप से आंकड़े आएंगे, तब ज्यादा बेहतर ढंग से पता चलेगा कि टीकों की समग्र गुणवत्ता कैसी है। टीकों को और विकसित करने के लिए पुख्ता आंकड़ों का होना जरूरी है। वैक्सीन की मात्रा, प्रभावशीलता और पुनर्संक्रमण का अध्ययन बहुत जरूरी है।
यह गौर करने की बात है कि इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात टीकाकरण में दुनिया का नेतृत्व कर रहे हैं। दोनों देशों ने अपनी आबादी के लगभग एक चौथाई का टीकाकरण कर लिया है। ब्रिटेन में भी पिछले सप्ताह ही 40 लाख से अधिक लोगों का टीकाकरण हो चुका है। अभी यह ध्यान रखने की बात है कि जिन लोगों का टीकाकरण पहले हो रहा है, उनमें से ज्यादातर स्वास्थ्यकर्मी और वृद्ध या बीमार लोग हैं। ये सभी ज्यादा जोखिम वाले लोग हैं। ऐसे लोगों के आंकड़ों के अलावा आम स्वस्थ लोगों के आंकड़ों का अध्ययन ज्यादा काम आएगा। इजरायल में शोधकर्ताओं को यह संकेत मिला है कि फाइजर बायोएनटेक द्वारा विकसित टीके की दो खुराक से संक्रमण को रोका जा सकता है या टीका प्राप्त लोगों में संक्रमण की अवधि को कम किया जा सकता है। टीका पाने वाले दो लाख लोगों की तुलना टीका न पाने वाले दो लाख लोगों से की गई है। पहला टीका पाने के दो सप्ताह बाद कोरोना संक्रमण की आशंका 33 प्रतिशत कम पाई गई है। इसका कतई यह मतलब नहीं कि टीका 33 प्रतिशत ही कारगर है। तेल अवीव में इजरायल के सबसे बड़े स्वास्थ्य सेवा प्रदाता क्लैटिट हेल्थ सर्विसेज के महामारी विशेषज्ञ रैन बॉलर कहते हैं, ‘हम इस प्रारंभिक परिणाम को देखकर खुश हैं।’ वह उम्मीद करते हैं कि टीके की दूसरी खुराक के बाद अधिक निर्णायक परिणाम मिलेंगे। मतलब,पहली खुराक के दो सप्ताह बाद ही जब सकारात्मक परिणाम मिलने लगे हैं, तब पूरी संभावना है कि दो खुराक के बाद टीका 90 प्रतिशत से ज्यादा प्रभावशीलता हासिल कर लेगा। गौर करने की बात है, जो टीके इस्तेमाल किए जा रहे हैं, उनको क्लिनिकल ट्रायल में पहले ही 90 प्रतिशत तक कारगर पाया गया है। बहरहाल, टीका पाने के बाद भी लोग संक्रमण के वाहक बनेंगे या नहीं, यह जानने में अभी वक्त लगेगा, लेकिन यह संकेत तो साफ है कि टीका लोगों को सुरक्षा कवच प्रदान करने लगा है। जहां तक इजरायल का प्रश्न है, वहां 75 प्रतिशत से अधिक वृद्धों को टीका लग चुका है और डॉक्टरों व वैज्ञानिकों को उम्मीद है, आने वाले दिनों में इन वृद्धों के अस्पताल में भर्ती होने की संख्या में भारी कमी आएगी। ये शुरुआती संकेत साफ इशारा हैं कि दुनिया के तमाम देशों को टीकाकरण में तेजी लानी चाहिए। टीकाकरण अभियान को ज्यादा गंभीरता से लेना चाहिए, ताकि दुनिया फिर पहले की तरह सहज हो पाए।
4.सुलगती कीमतें
पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में बेतहाशा तेजी
देश के कई स्थानों पर पेट्रोल के दामों का उच्चतम स्तर को छूते हुए सौ रुपये के करीब तक पहुंचना उपभोक्ताओं की बेचैनी बढ़ाना वाला है। यह मुश्किल समय है। लॉकडाउन के बाद अनलॉक की प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी बाजार-कारोबार अभी रवानगी नहीं पकड़ सके हैं। आम व्यक्ति की आय कोरोना संकट से बुरी तरह प्रभावित हुई है। लाखों लोगों की नौकरियां चली गई हैं या उनकी आय का संकुचन हुआ है। ऐसे में नये साल में पेट्रोल व डीजल के दामों में कई बार हुई वृद्धि परेशान करती है। डीजल के दामों में तेजी ढुलाई भाड़े में वृद्धि करती है, जिसका सीधा असर महंगाई पर पड़ता है। हाल के दिनों में आम उपभोग की वस्तुओं की कीमत में तेजी मुश्किल बढ़ाने वाली साबित हो रही है। यह वृद्धि जहां अनाज व दालों में नजर आ रही है, वहीं सब्जियों के दामों में अप्रत्याशित वृद्धि देखी जा रही है। सरकार इस महंगाई को आर्थिकी को गति देने हेतु उत्पादकों व किसानों के लिये जरूरी बता रही है। देखना होगा, क्या वास्तव में उन्हें इसका लाभ मिल रहा है? केंद्रीय बैंक की तरफ से भी महंगाई रोकने हेतु मौद्रिक उपाय होते नजर नहीं आये। सवाल है कि जब क्रय शक्ति में तेजी से गिरावट आई हो तो क्या महंगाई आर्थिकी को विस्तार देने में सहायक साबित हो सकती है? देश में पेट्रोलियम पदार्थों के दाम उसकी लागत से तीन गुना अधिक हो चुके हैं, जिसमें उत्पाद शुल्क व राज्यों के टैक्सों की भी भूमिका है।
दरअसल, कोरोना संकट से जूझ रही सरकार के आय के स्रोत भी सिकुड़े हैं। वहीं विकास योजनाओं हेतु उसे अतिरिक्त धन की जरूरत होती है। नये कर लगाना इस मुश्किल दौर में संभव नहीं है, ऐसे में सरकार पेट्रोलियम पदार्थों से होने वाले मुनाफे को बड़े आय स्रोत के रूप में देख रही है। लॉकडाउन के दौरान मई में पेट्रोल पर भारी ड्यूटी बढ़ाई गई थी, उसे कम नहीं किया गया है। उसके बावजूद कीमतों में लगातार वृद्धि जारी है। राज्यों के वैट आदि कीमत में शामिल होने से विभिन्न राज्यों में पेट्रोल व डीजल के दामों में अलग तरीके से वृद्धि होती है। ऐसे में कच्चे तेलों में मामूली वृद्धि के बाद सार्वजनिक क्षेत्र की तेल विपणन कंपनियां कीमतों में संशोधन कर देती हैं। वैसे भी जब दुनिया में कच्चे तेल के दामों में अप्रत्याशित कमी आई तो सरकार ने उपभोक्ताओं को उसका लाभ नहीं दिया। अब जब दुनिया की आर्थिकी रवानगी पकड़ रही है तो आने वाले दिनों में कच्चे तेल के अंतर्राष्ट्रीय दामों में कमी की गुंजाइश कम ही नजर आती है। ऐसे में उत्पाद शुल्क में कटौती के बिना पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में कमी संभव नहीं है, क्योंकि पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी 32 रुपये से अधिक बतायी जाती है। फिर भी सरकार इनके दामों में राहत देने की दिशा में गंभीर नजर नहीं आती। आखिर पेट्रोल-डीजल की कीमतें कहां जाकर थमेंगी?