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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.अगले पचास साल
अगले पचास साल का नारा बुलंद करते हिमाचल को कई दुरुस्तियां करनी होंगी। चुनौतियों, अपेक्षाओं और संभावनाओं का अगला सफर राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य में बदलाव के बिना पूरा नहीं होगा। यह एक शपथ पत्र के मानिंद अगली राह का दस्तावेज बनना चाहिए और इसके लिए स्वावलंबन की शर्तें अमल में लानी पड़ेंगी। मंजिलें गिनने का उत्साह भले ही पूर्ण राज्यत्व की पचासवीं पायदान का उद्घोष बने, लेकिन इसके मसौदे कठोर सतह की पैमाइश सरीखे होंगे। बहस अब सरकारी खजाने में बढ़ते कर्ज बोझ पर होगी, तो उन तमाम खर्चों पर भी जो सरकार के अनावश्यक विस्तार में जाया होते आर्थिक संसाधनों में समाहित हैं। पर्यावरणीय चिंताओं के बीच जल, जंगल और जमीन के बेहतर इस्तेमाल की इबारत कैसे तैयार होती है, इस पर विकास के मायने और मुहाने तय होंगे। क्या भविष्य का हिमाचल वर्तमान वनीकरण को सींच कर उपलब्ध होगा या विकास के लिए जंगल से जमीन छीनी जाएगी। वन संपदा की नई पारी में प्रजातियां कैसे बदलती हैं और जलवायु परिवर्तन की अवधारणा में प्राकृतिक स्रोत किस प्रकार संयमित व्यवहार करते हैं, देखना होगा।
पिछले पचास साल बनाम अगले पचास वर्षों के बीच व्यावहारिक अंतर देखा जाएगा और इसकी शुरुआत नीतियों, कार्यक्रमों और प्राथमिकताओं से होगी। बावजूद इसके कि भविष्य की अधोसंरचना का एक नया दौर शुरू करना होगा, लेकिन इससे पहले वर्तमान ढांचे की गुणवत्ता का औचित्य कायम करना होगा। यानी स्कूल, कालेज से विश्वविद्यालय तक के पाठ्यक्रम में आगे बढ़ने के कदम कुछ इस तरह चिन्हित हों कि पढ़ाई का मुकाम, जीवन की बैसाखी न बने। शिक्षा के महत्त्व में युवा असमर्थता के वर्तमान को भविष्य की क्षमता में साध्य कैसे बनाया जाए, इसकी नई परिपाटी अभिलषित है। यानी सरकारी नौकरी की वर्तमान फांस से कहीं दूर स्वरोजगार का किनारा तभी मिलेगा जब सार्वजनिक बनाम निजी क्षेत्र की संभावनाओं में सरकार खुद को व्यापार, बाजार और उपभोक्ता के आधार से दूर रखकर सोचेगी। इस लिहाज से वर्तमान सरकार द्वारा इन्वेस्टर मीट में प्रदर्शित इरादे अगर फलीभूत करने हैं, तो निजी दायित्व की एक बड़ी तस्वीर रेखांकित करनी होगी। परिवहन, पर्यटन, सेवा क्षेत्र, शिक्षा, चिकित्सा व अधोसंरचना के साथ-साथ अन्य अनेक क्षेत्र हैं जहां निजी निवेश के जरिए ही प्रदेश अगले पचास साल गिन पाएगा। दरअसल राज्य की तासीर में मानसिकता का सरकारीकरण रोकना होगा ताकि आम नागरिक भी यथार्थवादी बनकर सोचे कि प्रदेश के प्रति उसकी वफादारी के सबूत क्या हो सकते हैं। प्रदेश की आर्थिक क्षमता में बढ़ोतरी के लिए संसाधन कहां से आएंगे और किस तरह जवाबदेही का दायरा बढ़ाया जा सकता है।
प्रदेश को पर्यटन, औद्योगिक, फल तथा खेल राज्य या शिक्षा का हब बनना है, तो जमीनी तौर पर किस प्रकार के सुधार या कायदे-कानूनों का अवतार पैदा करना होगा। अगले पचास साल के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रभाव-दबाव के बीच, हिमाचल की अपनी संभावनाएं किस तरह विकसित हो पाएंगी, इसका एक रोडमैप तभी बन पाएगा अगर प्राकृतिक संसाधनों से जुड़कर आगे बढ़ा जाए। इसके लिए पूरे प्रदेश को नियोजित करने की सख्त जरूरत रहेगी। कृषि योग्य जमीन को बचाने के लिए ग्राम एवं नगर योजना कानून का प्रदेश व्यापी स्वरूप अगले पचास सालों की प्रमुख चुनौती होगा। इसी तरह परिवहन के नए विकल्प तथा शहरी विकास योजनाओं को दो से तीन नगरों को जोड़कर विस्तृत आकार देना होगा। भविष्य की ओर हिमाचल के कदम साहसिक हो सकते हैं, यदि पहला प्रण यह उठाया जाए कि निजी निवेश के रास्ते चौड़े और स्वरोजगार के वास्ते अधिकतम प्रयास किए जाएंगे। सुशासन की नई तफतीश शुरू करने के लिए सियासत का ढर्रा, व्यवस्था का उद्देश्य और नागरिक समुदाय की मंशा को बदलना पड़ेगा।
2.प्रश्नों के बीच संघर्ष
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने बीती वार्ता समाप्त होने के बाद गंभीर आरोप चस्पां किए थे कि किसान आंदोलन में कुछ ताकतें ऐसी हैं, जो बातचीत को सफल नहीं होने देना चाहतीं। वे आंदोलन को जिंदा रखना चाहती हैं। उनके मंसूबे कुछ और ही हैं। किसान संगठन खुद जांच-पड़ताल करें। कृषि मंत्री का वह आरोप अब यथार्थ बनकर सामने आ रहा है। गणतंत्र दिवस पर सिर्फ उपद्रवियों ने ही राजधानी दिल्ली और लालकिले के भीतर तबाही के मंजर पैदा नहीं किए, खुद किसान नेताओं ने अपने समर्थकों को उकसाया और भड़काया था। दिल्ली पुलिस ने 37 किसान नेताओं के खिलाफ हत्या का प्रयास, आपराधिक साजि़श, लूट, डकैती और दंगा भड़काने आदि की धाराओं के तहत केस दर्ज किए हैं। किसान नेताओं को नोटिस भी भेजे जा चुके हैं। इसके अलावा, 19 गिरफ्तारियां की गई हैं और 50 संदिग्ध हिरासत में हैं। पुलिस कार्रवाई को एक पक्ष मानते हुए छोड़ भी दिया जाए, तो वीडियो, विभिन्न फुटेज, पहचान की तकनीक और बयानों से स्पष्ट है कि राकेश टिकैत, गुरनाम सिंह चढ़ूनी, दर्शनपाल सिंह, पन्नू और पंढेर सरीखे किसान नेताओं ने अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को लगातार उकसाया और भड़काऊ भाषण दिए। टिकैत का यह बयान कई बार सार्वजनिक हो चुका है-‘सरकारी परेड राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट जाएगी और हमारी परेड लालकिले से इंडिया गेट तक जाएगी।
दोनों का मेल-मिलाप वहीं होगा।’ यानी साफ है कि लालकिले तक जाना रणनीति का हिस्सा था। एक अन्य बयान में टिकैत समर्थकों को लाठी, डंडे लेकर आने के निर्देश दे रहे थे और ज़मीन छिन जाने सरीखे खौफ पैदा कर रहे थे। उन्होंने टै्रक्टर रोकने पर पुलिसवालों के ‘बक्कल’ तोड़ने की धमकी भी दी थी। सवाल यह है कि टिकैत अपना तय रूट छोड़ कर लालकिले वाली सड़क पर क्यों बढ़े? किसान नेता चढ़ूनी ने समर्थकों का आह्वान किया कि 26 जनवरी फाइनल मैच है। हम बैरिकेड्स तोड़ देंगे और हमें दिल्ली में घुसना है। किसान नेता पन्नू और पंढेर टै्रक्टर परेड की पूर्व रात्रि में भड़काऊ भाषण देते रहे। उन्होंने आह्वान किए कि सुबह जल्दी ही बैरिकेड्स तोड़ कर हमें परेड शुरू करनी है और तय रूट के बजाय रिंग रोड पर चलना है। आंदोलन के घोषित माओवादी चेहरा दर्शनपाल सिंह ने भी अलग रूट पर टै्रक्टर दौड़ाने के निर्देश दिए थे। ये सभी ऐसे चेहरे हैं, जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर, पुलिस के साथ, समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन उसके खिलाफ साजि़शाना रणनीति भी तय करते रहे। इनके कारनामे तो ‘देशद्रोह’ संबंधी कानून की धाराओं के दायरे में आते हैं। इन्हें माफ कैसे किया जा सकता है? प्राथमिकी में नामजद पंजाबी फिल्मों के अभिनेता और गायक दीप सिद्धू ने भी 25 जनवरी की आधी रात तक सिंघु बॉर्डर में जमा भीड़ को उत्तेजित और उकसावे वाले अंदाज़ में संबोधित किया। किसान नेताओं ने उसकी ख़बर पुलिस को नहीं दी। क्या भड़काऊ और उकसावे की रणनीति में किसान नेता और संगठन भी हिस्सेदार थे? पंजाब का गैंगस्टर एवं सियासी चेहरा लक्खा सिधाना भी लंबे अरसे से सिंघु बॉर्डर के जमावड़े में सक्रिय था।
उस पर दो दर्जन आपराधिक केस रहे हैं और जेल भी जा चुका है। हत्या, लूट, फिरौती, अपहरण सरीखे गंभीर आरोप रहे हैं। क्या किसान आंदोलन का मुखौटा ओढ़ कर आपराधिक चेहरे अपनी मुहिम चलाते रहे हैं? क्या कृषि कानून और एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की मांगों से इन साजि़शकारों का कोई सरोकार रहा है? क्या लालकिला कांड के बाद कथित किसान नेताओं और आंदोलन के प्रति औसत भारतीय की सहानुभूति और हमदर्दी बरकरार रहेगी? हालांकि किसानों ने एक फरवरी को बजट पेश करने वाले दिन संसद परेड का ऐलान रद्द कर दिया है, लेकिन अब वे महात्मा गांधी की पुण्यतिथि, 30 जनवरी, को उनकी समाधि ‘राजघाट’ पर जाकर एक दिन का उपवास रख, अहिंसक होने का नाटक करेंगे। हमें तो केंद्रीय सूचना मंत्री प्रकाश जावडे़कर का बयान चौंकाता है कि किसानों से सरकार की बातचीत जारी रहेगी। सवाल है कि जब अधिकतर के खिलाफ हत्या के प्रयास सरीखे मामले दर्ज हो चुके हैं, तो सरकार किन किसान नेताओं के साथ बात करेगी? ऐसी विनम्रता की ज़रूरत ही क्या है? टिकैत तो गोली चलाने वाला बयान दे चुके हैं। गृह मंत्रालय ने निर्देश दिए हैं कि सवालिया और आरोपी किसान नेताओं के पासपोर्ट जब्त कर लिए जाएं, ताकि वे देश छोड़ कर विदेश की तरफ उड़ न सकें। बहरहाल अभी तो कानूनों के अमल पर सर्वोच्च न्यायालय की रोक है और तीन सदस्यीय समिति भी किसानों से संवाद कर रही है, लिहाजा सर्वोच्च अदालत के निर्णय तक बातचीत का औचित्य ही क्या है?
- पड़ोसी की मंशा
विदेश मंत्री एस जयशंकर का चीन संबंधी ताजा बयान न सिर्फ उल्लेखनीय, बल्कि गंभीरता से विचारणीय भी है। चीनी अध्ययन पर केंद्रित एक ऑनलाइन सम्मेलन में भाग लेते हुए भारतीय विदेश मंत्री ने एक तरह से अपनी पीड़ा का ही इजहार किया कि चीन ने लद्दाख सीमा पर जो किया और अब वह जिस तरह से सीमा पर सैनिकों का जमावड़ा कर रहा है, उससे उसकी मंशा साफ नहीं लगती। वाकई चीन की आक्रामकता की साफ वजह पता न होने से भारतीय पक्ष की उलझन का ऊंचा स्तर बना हुआ है। चीन ने कभी भी साफगोई का परिचय नहीं दिया है। वह चीजों को उलझाए रखने में ही अपना हित देख रहा है। ऐसे में, भारतीय राजनय के सामने बड़ी चुनौती है। एस जयशंकर ने फिर एक बार साफ किया है कि एकतरफा ढंग से लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल को बदलने की कोई भी चीनी कोशिश स्वीकार्य नहीं होगी। हम नहीं चाहते कि चीन सीमा पर वास्तविक नियंत्रण में किसी भी प्रकार का बदलाव करे, लेकिन चीन न केवल आगे बढ़कर दावे करता है, बल्कि अपने दावे को पूरा करने की दिशा में काम भी कर रहा है।
कूटनीतिक रूप से यह बोलना सही नहीं है, लेकिन यह बात एक आम भारतीय को भी समझ में आने लगी है कि चीन सच नहीं बोल रहा। चीन के सरकारी अखबार भड़काने के लिए जो कुछ छापते हैं, उससे भी चीन सरकार की मंशा सामने आ जाती है। चीन की साजिश है कि वह गलती करे, लेकिन उसका अपराध दर्ज न हो। क्या ऐसा हो सकता है? क्या चीन दुनिया के तमाम देशों को भोला समझ रहा है? अभी तो दुनिया को चीन से कोरोना का हिसाब भी लेना है। ऐसे नाजुक समय में भी चीन के इरादे समझ से परे हैं। भारत के विरोध में पाकिस्तान को आगे रखते हुए उसकी अंतरराष्ट्रीय साजिशों से दुनिया वाकिफ है, इसके बावजूद वह खुद को भारत का जिम्मेदार पड़ोसी कैसे मान सकता है? भारतीय विदेश मंत्री का इशारा बिल्कुल सही है कि भारत-चीन संबंध आज चौराहे पर हैं, जो होगा, उसका पूरी दुनिया पर गहरा असर होगा। पूर्वी लद्दाख में चीनी कार्रवाई ने सीमा पर न सिर्फ सैनिकों के स्तर को कम रखने संबंधी प्रतिबद्धताओं की अवहेलना की है, बल्कि शांति भंग करने की इच्छा भी दर्शाई है। विदेश मंत्री चाहते हैं कि एलएसी के प्रबंधन पर पहले से ही किए गए समझौतों की पूरी तरह से पालना हो। लेकिन क्या चीन ऐसा करेगा? अब वक्त आ गया है, जब भारत को चीन की मंशा को चरम पर जाकर महसूस करना होगा। चीन अधिकतम क्या कर सकता है, इसका अनुमान लगाना और उसके अनुरूप तैयारी करना समय की मांग है। किसी भोलेपन में रहना ठीक नहीं। जो देश भारत में आतंकवाद का परोक्ष समर्थन करता हो; भारत के खिलाफ जंग लड़ रहे आतंकियों को बचाने में अपनी अंतरराष्ट्रीय ताकत झोंक देता हो, उसके प्रति हमें अपनी नीतियों को साफ रखना होगा। परंपरागत भारतीय उदारता इस मोर्चे पर काम नहीं आएगी। हमें अपनी ओर से किसी भी आक्रामकता का प्रदर्शन नहीं करना है, लेकिन किसी आक्रामकता को मुंहतोड़ जवाब देने की पूरी तैयारी रखनी है। बेशक, वास्तविक नियंत्रण रेखा के प्रबंधन, आपसी सम्मान और उभरती शक्तियों के रूप में एक-दूसरे की आकांक्षाओं को पहचानने की कोशिश जारी रहनी चाहिए। पर जरूरी है कि मिलकर रहने के प्रति हमारी संवेदनशीलता एकतरफा न रहे।
- विकास की रफ्तार
हर तबके को मिले तरक्की की छांव
भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार के उम्मीद भरे संकेत मिले हैं। कहना जल्दबाजी होगी कि देश कोरोना संकट से पहले की अवस्था में शीघ्र पहुंच जायेगा, लेकिन देश-विदेश की वित्तीय निगरानी करने वाली संस्थाएं और एजेंसियां संकेत दे रही हैं कि देश आने वाले वित्तीय वर्ष में तेज आर्थिक रफ्तार पकड़ेगा। पिछले दिनों आरबीआई प्रमुख ने कहा था कि अर्थव्यवस्था महामारी के दौर से निकल रही है और जीडीपी पटरी पर लौटने को है। मंगलवार को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारतीय आर्थिकी का उत्साहजनक आकलन प्रस्तुत किया कि वर्ष 2022 में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 11.5 रहेगी। साथ ही यह भी कि दो अंकों वाली यह दुनिया की एकमात्र अर्थव्यवस्था होगी। यह आकलन कुछ समय पहले 8.8 फीसदी किया गया था। जाहिर है भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से पटरी पर लौट रही है। निस्संदेह यह आकलन देश की उम्मीद बढ़ाने वाला है लेकिन इसके बावजूद यह प्रगति इस बात पर निर्भर करेगी कि हम महामारी के प्रभाव को दूर करने वाले लक्ष्यों को किस हद तक पूरा कर पाते हैं। यह अच्छी बात कि देश की अर्थव्यवस्था उम्मीद से बेहतर परिणाम देगी, लेकिन जरूरत इस बात की भी है कि उत्साहवर्धक विकास की किरण हर आम आदमी तक भी पहुंचे। यानी विकास समाज में तेजी से बढ़ रही असमानता की खाई को भी दूर करे। हाल ही में जारी ऑक्सफैम की रिपोर्ट ने बताया था कि कोरोना संकट के दौरान जहां देश के उद्योग धंधे और विभिन्न क्षेत्र रोजगार के संकट से जूझ रहे थे, तमाम लोगों के रोजगार छिने व वेतन में कटौती की गई तो उसी दौरान देश के शीर्ष धनाढ्य वर्ग की आय में पैंतीस फीसदी की वृद्धि हुई जो हमारे विकास की विसंगति को दर्शाता है कि जहां देश का बड़ा तबका लॉकडाउन के दंश झेल रहा था तो एक वर्ग संकट में मालामाल हो रहा था।
अब देश की निगाहें सोमवार को पेश होने वाले बजट पर टिकी हैं। जाहिर है सरकार की प्राथमिकता उद्योग व कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने की होगी ताकि रोजगार के अवसर बढ़ें और निर्यात को गति मिल सके। निस्संदेह जब देश के नागरिकों की क्रय शक्ति बढ़ेगी तो मांग व खपत का चक्र बढ़ सकेगा, जिससे अर्थव्यवस्था से मंदी का साया दूर हो सकेगा। कोरोना संकट के जख्मों से उबर रहे देश में नये बजट से उम्मीद की जायेगी कि विकास का लाभ हर वर्ग को मिले। यानी अर्थव्यवस्था में उत्साहवर्धक विकास का लाभ समाज में विषमता की खाई को भी दूर करे। उम्मीद की जा रही है कि अनलॉक की प्रक्रिया के दौरान केंद्र सरकार के वित्तीय व मौद्रिक उपायों का असर अर्थव्यवस्था पर जल्दी नजर आये। निस्संदेह महामारी ने भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को झकझोरा है। अब देखना है कि कुशल वित्तीय प्रशासन से हम इस संकट से कितनी जल्दी उबर पाते हैं। भारत जैसी विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था में निवेश की अपार संभावनाएं हैं। इस दौरान विदेशी निवेश बढ़ा भी है। यह भी देखना होगा कि आत्मनिर्भर भारत की मुिहम में हम किस हद तक सफल हो पाते हैं। यह अच्छी बात है कि देश कोविड की महामारी से धीरे-धीरे मुक्त हो रहा है। देश में निर्मित दो वैक्सीनों की सफलता और सफल टीकाकरण अभियान ने देश में आत्मविश्वास जगाया है। यह आत्मविश्वास अंतत: अर्थव्यवस्था के तेज विकास में सहायक बनेगा। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना संकट के दौरान कृषि क्षेत्र ने बेहतर परिणाम दिये। ऐसे में इस क्षेत्र के तेज विकास हेतु निवेश को बढ़ाना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। बेहतर मानसून और रबी फसल की बेहतर उम्मीदें कृषि क्षेत्र में नये विश्वास को जगा रही हैं। सरकार की कोशिश हो कि कृषि सुधार कानूनों को लेकर जो देशव्यापी अविश्वास पैदा हुआ है, उसे दूर किया जाये। उम्मीद है कि सरकार आगामी बजट में कृषि क्षेत्र के लिये विशेष सौगात लेकर आयेगी। उसकी प्राथमिकता कोरोना संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित सेवा क्षेत्र और एमएसएमई को उबारने की होगी। बैंकों के क्रेडिट डिमांड में बढ़ोतरी भी अच्छा संकेत है।