News & Events
इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.आंदोलन की कीलबंदी
किसान आंदोलन की कीलबंदी भी हमारे वक्त का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। उसे भी इतिहास में दर्ज किया जाएगा। वैसे तो हम स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत के नागरिक हैं, लेकिन दिल्ली पुलिस और परोक्ष रूप से भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने सुरक्षा के नाम पर जो बंदोबस्त किए हैं, वे मध्यकालीन सोच की उपज हैं। कमोबेश एक पेशेवर और सामाजिक आंदोलन के खिलाफ ऐसे हथियार इस्तेमाल नहीं करने चाहिए। किसानों को मानसिक तौर पर तोड़ने और उन्हें शेष जनता और देश से अलग-थलग करने के मंसूबों के तहत जिस तरह कीलें बिछाई गई हैं, लोहे के सरिए खड़े किए गए हैं, कंकरीट की मोटी और ऊंची दीवारें चिनी गई हैं और खाइयां खोदी गई हैं, उनसे किसान आंदोलन दम तोड़ता दिखाई नहीं देता। उसने हांफना भी शुरू नहीं किया है, हालांकि आंदोलन की बिजली, पानी काटी जा रही है। पानी की आपूर्ति बंद करा दी गई है। न नहाने को पानी है, न शौच के लिए और न ही लंगर बनाने के लिए पानी है। फिर भी आंदोलन का जोश और जुनून टूटता दिखाई नहीं देता। अलबत्ता कीलबंदी दबावों ने सरकार और किसानों के बीच फासले चौड़े कर दिए हैं।
ऐसे में प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री के, संवाद को लेकर बयान, बेमानी लगते हैं। बिजली, पानी, शौचालय, आवाजाही, इंटरनेट, सामाजिक और आर्थिक मदद तो किसी भी आंदोलन अथवा विरोध-प्रदर्शन के बुनियादी अधिकार हैं। पुलिस की दलील है कि 26 जनवरी को जिस तरह उपद्रव और हिंसा देखी गई, करीब 500 पुलिसवाले घायल हुए, गणतंत्र और तिरंगे का अपमान किया गया, उस परिदृश्य के विश्लेषण के मद्देनजर सुरक्षा-व्यवस्था को मजबूत किया गया है। क्या आंदोलनकारी और उनके समर्थक किसान इतने खतरनाक और देश-विरोधी हैं कि राजधानी दिल्ली की महत्त्वपूर्ण सीमाओं पर, किसान आंदोलन के धरना-स्थल के चारों ओर, अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण-रेखा सरीखी मोर्चेबंदी की गई है? क्या सरकार किसानों के खिलाफ युद्ध में उतरने की तैयारी कर रही है? सिंघु, गाज़ीपुर और टीकरी, तीनों बॉर्डर पर 10 या 12 लेयर की सुरक्षा-व्यवस्था…! सरकार को किससे खौफ है? क्या किसान आतंकवादी या बाहरी दुश्मन हैं? अपने ही किसान और अपने ही नागरिकों से खौफ…! सुरक्षा-घेरे के नाम पर जो गहरी खाइयां खोदी गई हैं, उनसे आम और तटस्थ आदमी भी बेहद परेशान है। मुख्य सड़कों से दिल्ली में आना-जाना असंभव-सा बना दिया गया है। नौकरीपेशा, कारोबारी, दिहाड़ीदार, छात्र और अन्य नागरिक समाज का क्या दोष है कि उनकी राहें कंटीली और जानलेवा कर दी गई हैं? जो नुकसान होगा, नौकरी जाएगी या दिहाड़ी खत्म हो जाएगी, उसकी भरपाई कौन करेगा? भारत सरकार ने तो ऐसी कोई घोषणा नहीं की है। अघोषित लॉकडाउन…! सड़क से संसद तक हंगामा बरपा है। सरकार को मजबूरन संसद में साढ़े 14 घंटे किसान कानूनों पर बहस और संशोधन के लिए तय करने पड़े हैं। किसान नेता राकेश टिकैत और अन्य ने हरियाणा में महापंचायत को संबोधित किया है।
2.कितना कृषि योग्य हिमाचल
जब हिमाचल ने कृषि तथा बागबानी विश्वविद्यालयों के ताज पहने थे, तो उम्मीद थी कि पर्वतीय खेती और बागबानी की तासीर बदलेगी, लेकिन अध्ययन कक्ष से जमीन की दूरी बढ़ गई। जाहिर तौर पर कृषि एवं बागबानी से संबंधित वैज्ञानिक बढ़ गए, लेकिन पिछले दशकों में किसान घट गए। पढ़े लिखे नौजवान खेत में तो नहीं लौटे, अलबत्ता जमीन से जुड़ा किसान भी सरकारी नौकरी की परिक्रमा करने लगा है। हिमाचल में कृषि से जुड़ी आर्थिकी के मायने गांव की आबादी का दस्तूर तब तक जरूर थे, जब तक मेहनत का मूल्यांकन नहीं होता था। अब स्थिति और परिस्थिति ने विकास के नाम पर खेतों की बोली लगा दी, प्राकृतिक जल संसाधनों की उपयोगिता एवं उपलब्धता घटा दी और खेत बार-बार बंट कर इतना सिकुड़ गया कि अदालत में पैरवी की खेती होने लग पड़ी। ऐसे में वर्षों बाद भी भू-राजस्व से जुड़ी प्रक्रियाओं में न कोई सुधार लाने की चेष्टा हुई और न ही किसी ने सोचा कि हर सड़क के आने से खेत पर कितनी बजरी, रेत व सीमेंट चढ़ गया। पिछले एक दशक में कितने खेत बिके, अगर हिसाब लगाया जाए तो मालूम हो जाएगा कि कृषि विश्वविद्यालय का औचित्य कितना कमजोर व विवश है। हैरानी तो यह है कि भूमि रहित गरीबों को किसानी के लिए जो नौ तोड़ जमीन दी गई थी, वह कब से बिक चुकी है।
लैंड सीलिंग एक्ट ने जो जमीन मुजारों को अर्पित की, उसका काफी हिस्सा बिक कर कालोनियों में तबदील हो चुका है। सामाजिक उथल-पुथल ने खेती और खेती में शिक्षा के महत्त्व को ही गौण कर दिया है। बेशक हिमाचल में विभागीय व विश्वविद्यालय स्तर पर कृषि के नाम पर आंकड़े बेशुमार हैं और किसान से ज्यादा यही कसरतें सरकारी नौकरी में परिवर्तित आजीविका का साधन बन रही हैं। यह दीगर है कि समूचे परिवर्तन के बावजूद कृषि व बागबानी अपनाने की जिद्द में कुछ प्रगतिशील चेहरे सामने आए हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश पूर्व सैनिक, सेवानिवृत्त कर्मचारी या अधिकारी हैं। कृषि विश्वविद्यालय ने इनके ऊपर पुस्तिका छाप कर एक सुखद अनुभव का एहसास कराया है, लेकिन एक और वर्ग है जो हिमाचल में खेत और बागान को उत्साहित करता है। यह एक सर्वेक्षण का विषय भी है कि पिछले दस सालों में निजी नर्सरियों के विस्तार ने कृषि, बागबानी एवं फूलोत्पादन में प्रशंसनीय योगदान नहीं किया, बल्कि इस क्षेत्र में नवाचार बढ़ा दिया। आज किसान खेत में अधिक उत्पादन के लिए विभिन्न बीजों की तलाश कर पा रहा है, तो यह निजी तौर पर संभव हुआ। फूल उत्पादन में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के बाजार, व्यापार या अवसर पैदा हो रहे हैं, तो एक श्रृंखलाबद्ध प्रयास हो रहे हैं, जबकि विश्वविद्यालय के प्रदर्शनी खेत से उत्साहित होने की तो वजह भी दिखाई नहीं देती। बागबानी विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला से बाहर हरिमन शर्मा जैसे व्यक्ति अगर सेब उत्पादन से गर्म इलाकों को जोड़ पाया, तो कहीं वैज्ञानिक अध्ययन को जमीन पर चलना सीखना होगा।
यही वजह है कि चिलगोजा पर हुए आज तक के अध्ययन व शोध ने एक नया पौधा नहीं उगाया। कांगड़ा चाय की झाडि़यां आज भी सवा सौ साल पुरानी अंग्रेजों की जड़ों पर ही खड़ी हैं। इस दौरान चाय के बागीचे बिके या अब भी बेचने की अनुमति का इंतजार है, तो कल इसके तहत मापी गई भूमि का क्या होगा। कृषि विश्वविद्यालय के नए कुलपति डा. एच के चौधरी कुछ पुरानी फाइलों पर नई योजनाएं बना रहे हैं, तो जाहिर तौर पर उत्साह के झौंके पैदा होंगे। किसान गैलरी की स्थापना से अध्ययन के नए शिलालेख लिखे जा सकते हैं तथा ट्राउट या भेड़ पर फिर से शोध सवार हो जाएगा, यह जानकर अच्छा लगता है। कृषि विश्वविद्यालय अब कहीं जाकर अपने सामुदायिक रेडियों के लिए सुंदरनगर में जमीन पैदा कर पाया है, जबकि यह वर्षों से लटकी परियोजना रही है। बेशक कृषि विश्वविद्यालय में नए संकल्पों का प्रारूप बन रहा है और इस बहाने किसान परिसर में आ सकता है, लेकिन खेती के हिसाब से विज्ञानी जब तक खेत में श्रम नहीं करेगा, सारे उद्देश्य कागज़ी बने रहेंगे। हिमाचल को फिर अपनी योजनाओं व नीतियों पर गौर करते हुए यह देखना होगा कि कब तक वन क्षेत्र को बढ़ा कर हम कृषि योग्य जमीन का आधार कम करते रहेंगे। क्या हिमाचल की पैदावार में कल का जंगल अपनी प्राकृतिक जड़ी-बूटियां उगाने के साथ-साथ चाय-कॉफी की खेती भी कर पाएगा या खाद्य पदार्थों की नई पौध उगा कर वन की परिभाषा बदल जाएगी।
3.जल्दी हो समाधान
भारत में पिछले वर्ष से ही चल रहा किसान आंदोलन दुनिया का ध्यान अगर अपनी ओर खींचने लगा है, तो यह न केवल विचारणीय, बल्कि चिंताजनक भी है। दुनिया की तमाम सरकारें जानती हैं कि भारत में कृषि कानून संसद में बहस के बाद बहुमत से पारित हुए हैं। इसलिए कुछेक देशों की सरकारों या जिम्मेदार नेताओं के अलावा किसी की टिप्पणी देखने में नहीं आई थी, पर जब चर्चित गायिका रिहाना, पर्यावरणविद् ग्रेटा थनबर्ग और अमेरिकी उपराष्ट्रपति की एक रिश्तेदार की टिप्पणी किसान आंदोलन के समर्थन में आई, तब भारतीय विदेश मंत्रालय का चौंकना वाजिब था। ये ऐसी हस्तियां हैं, जिनकी टिप्पणी करोड़ों लोगों के बीच चर्चा की वजह बनती हैं। ऐसे में, आंदोलन के समर्थकों को जरूर अच्छा लगा होगा, लेकिन विदेश मंत्रालय की तीखी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। विदेश मंत्रालय ने साफ कहा है कि सोशल मीडिया पर सनसनीखेज टिप्पणी से लुभाने का तरीका, खासकर जब टिप्पणी मशहूर हस्तियों और अन्य लोगों द्वारा की गई हो, न तो सटीक है और न ही जिम्मेदाराना। विदेश मंत्रालय ने ऐसी टिप्पणी करने वालों को सावधान करते हुए कहा है कि इस तरह के मामलों में टिप्पणी करने से पहले हम आग्रह करते हैं, तथ्यों का ढंग से पता लगाया जाए और मुद्दों को सही ढंग से समझा जाए। चिंता की बात यह है कि किसान आंदोलन के जरिए केंद्र सरकार की आलोचना कहीं पूरे भारत की आलोचना में न बदल जाए। ऐसा अक्सर देखने में आता है कि किसी देश में घटने वाली एक घटना का खामियाजा उस पूरे देश को भुगतना पड़ता है। भारत सरकार इसी वजह से ज्यादा गंभीर दिख रही है, तो आश्चर्य नहीं। पिछले दिनों कुछ देशों से ऐसी सूचनाएं आई हैं कि महात्मा गांधी की मूर्तियों को भी नुकसान पहुंचाया गया है। अगर भारत सरकार का विरोध दुनिया के सोशल मंचों पर तेज होता है, तो यह एक तरह से भारत का भी विरोध होगा। हमें समझना-समझाना होगा, भारत के किसानों के साथ दुनिया के अनेक देशों के किसानों की तुलना वाजिब नहीं है। बहुत सारी सुविधाएं और सम्मान हैं, जो भारत में किसानों को नसीब हैं। जो कृषि सुधार भारत अब कर रहा है, वैसे सुधार दुनिया के कई देश पहले ही कर चुके हैं। ऐसे देशों में अमेरिका भी शामिल है। अत: कृषि कानूनों, वार्ता की कोशिशों और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को समझने के बाद ही किसी को टिप्पणी करनी चाहिए। हालांकि, सोशल मीडिया की भेड़चाल में हर किसी के पढे़-लिखे होने की उम्मीद कैसे की जाए? भारतीय कर्णधारों को तैयार रहना चाहिए, आने वाले दिनों में सोशल मीडिया तकलीफ दे सकता है। कुल मिलाकर, किसान आंदोलन को मिल रहा अंतरराष्ट्रीय वांछित-अवांछित समर्थन और उस पर विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया कोई ऐसी बात नहीं, जिससे हमारा गौरव बढे़। समस्या का समाधान मिल बैठकर जल्द से जल्द करना होगा। लंबे समय तक लड़ने की तैयारी दर्शाना न किसानों के लिए ठीक है, न सरकार के लिए। दोनों की लड़ाई में देश के सम्मान की फिक्र सबसे ऊपर रहनी चाहिए। विदेश से आने वाली प्रतिक्रियाओं की परंपरा मजबूत हुई, तो विपक्षी दलों पर भी भारी पड़ेगी। सोशल मीडिया में जो पूंजी निवेश दुनिया की तमाम कंपनियों, पार्टियों ने किया है, उसका खामियाजा कमोबेश सबको भुगतना पड़ेगा। परिवेश के और प्रदूषित होने से पहले ही समाधान निकाल लेना चाहिए।
4.देर न हो जाए
आंदोलन की गंभीरता को समझें
किसान आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में बुधवार का घटनाक्रम इतनी तेजी से घूमा कि राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गाहे-बगाहे इसकी चर्चा होती रही। संसद में हंगामा हुआ, राज्यसभा से आप के तीन सांसदों का निष्कासन हुआ और राहुल गांधी ने प्रेस कानफ्रेंस करके कृषि सुधारों के मुद्दे पर सरकार पर तीखे हमले बोले। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने 26 जनवरी को किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा की जांच की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई से इनकार कर दिया। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं को अपनी मांग सरकार के सामने रखने को कहा। मीडिया में सबसे ज्यादा ध्यान हरियाणा के जींद में होने वाली महापंचायत ने खींचा, जिसमें आंदोलन के अगुवा किसान यूनियन प्रवक्ता राकेश टिकैत ने भाग लिया। कंडेला खाप द्वारा आयोजित इस महापंचायत को अन्य खापों ने भी सहयोग दिया। दो दशक पहले भी कंडेला खाप ने बड़े किसान आंदोलन की अगुवाई की थी। दरअसल, राकेश टिकैत की आंसुओं की कसक ने इस आंदोलन को फिर से सींच दिया है। आंसू प्रकरण के बाद हरियाणा में सबसे पहले प्रतिक्रिया कंडेला गांव में हुई थी। किसानों ने इसके तुरंत बाद जींद-चंडीगढ़ हाईवे जाम कर दिया था। बहरहाल, कंडेला में पंचायत का मंच टूटा और टिकैत समेत कई किसान चपेट में भी आये लेकिन टिकैत ने इसे आंदोलन के लिये शुभ बताया। टिकैत ने सरकार को चेताया कि यह आंदोलन धीमा नहीं होगा। इस आंदोलन का कोई नेता नहीं है, किसान ही आंदोलन का नेता है। फिलहाल जिन किसान प्रतिनिधियों से सरकार बात कर रही थी, उन्हीं से बात करे। यह भी कि लड़ाई जमीन बचाने की है और हम तिजोरी में अनाज बंद नहीं होने देंगे। वहीं राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि किसान आंदोलन से निपटने की केंद्र की नीति से देश की छवि खराब हुई है। वहीं दूसरी ओर हॉलीवुड की सेलिब्रिटी रिहाना, पर्यावरण योद्धा ग्रेटा थनबर्ग, पूर्व पॉर्न स्टार मिया खलीफा व अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भांजी मीना हैरिस के ट्वीट पर दिन भर घमासान मचा रहा।
इसके बाद विदेश मंत्रालय की टिप्पणी आई और बॉलीवुड से भी आक्रामक जवाब आये। विदेश मंत्रालय ने कहा कि सोशल मीडिया पर अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों को तथ्यों को समझकर जिम्मेदारी से व्यवहार करना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय टिप्पणीकारों के विरुद्ध बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत, अजय देवगन, सुनील शेट्टी, करण जौहर व कैलाश खेर की टिप्पणियां सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी रही। निस्संदेह, राकेश टिकैत के द्रवित होने के बाद किसान आंदोलन में एक नयी जान आई है। सरकार दबाव में आई है। दिल्ली की सीमा पर आंदोलन स्थलों से दिल्ली जाने वाले मार्गों पर जिस तरह किलेबंदी सुरक्षा बलों की तरफ से की जा रही है, उसको लेकर सवाल उठाये जा रहे हैं कि कंक्रीट के अवरोधक, कंटीले तार तथा कीलें किस मकसद से लगायी जा रही हैं? निस्संदेह 26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली के बाद जिस तरह से हिंसा हुई और लाल किले का जो अप्रिय घटनाक्रम घटा, उसने पुलिस को अतिरिक्त सुरक्षा करने को बाध्य किया। लेकिन सवाल उठ रहा है कि ये कवायदें समस्या के समाधान की तरफ तो कदापि नहीं ले जाती। आखिर सरकार ये क्यों नहीं सोच रही है कि सुधार कानूनों की तार्किकता किसानों के गले नहीं उतर रही है। जब जिनके लिये सुधारों का दावा किया जा रहा है, वे ही स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं तो फिर राजहठ का क्या औचित्य है? खेती-किसानी आम किसान के लिये महज कारोबार ही नहीं है, उसके लिये भावनात्मक विषय है। जिसके चलते किसान सुधार कानूनों के चलते खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है। सही मायनो में सरकार सुधारों को लेकर किसानों को विश्वास में नहीं ले पा रही है। किसान आंदोलन की हताशा समाज में नकारात्मक प्रवृत्तियों को प्रश्रय दे सकती है। लोकतंत्र में लोक की आवाज को नजरअंदाज करके नहीं चला जा सकता, इस तथ्य के बावजूद भी कि आंदोलन से तमाम राजनीतिक दल अपने हित साधने की कवायद में जुटे हैं।