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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.थाली में पेट
हिमाचल की थाली ने कई रोगों को निमंत्रण दिया है और इसका ताजा साक्ष्य, आईसीएमआर के सर्वेक्षण से जाहिर हुआ। करीब चार हजार लोगों पर किए गए सर्वेक्षण से पता चला है कि पच्चीस से पैंतीस साल की उम्र में ही प्रदेश के 55 प्रतिशत लोग मोटापे की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। मधुमेह रोग ने प्रदेश को राष्ट्र की सातवीं पायदान पर बैठा दिया और मोटापे की वजह से हिमाचल देश की रैंकिंग में चौथा बन गया। ये तमाम लक्षण आगे चलकर कई असाध्य रोगों की चेतावनी दे रहे हैं, जबकि आरंभिक सूचनाएं बता रही हैं कि पर्वतीय जीवन शैली ने खुद को बीमारियों का मोहरा बना लिया। खास पहलू यह कि मोटापे की जद में ट्राइबल इलाके भी समाहित हैं। पहाड़ पर दौड़ते करीब अठारह लाख पंजीकृत वाहन, बेशक हमारी सुख सुविधाओं को ढो रहे हैं, लेकिन इस ढर्रे में कहीं दिनचर्या के पांव उखड़ रहे हैं। यह स्थिति शिक्षा के वर्तमान औचित्य से दूर हो रही खेलों की स्थिति में भी देखी जा सकती है।
हमने स्कूली छात्रों को शिक्षा की मंडी में उतार कर जीवन की अहमियत बदल दी। खासतौर पर निजी स्कूलों में शिक्षा की छत तो मिली,फिजिकल फिटनेस के लिए न मैदान और न ही खुला आसमान मिला। आश्चर्य यह भी कि हिमाचल में आज तक सामुदायिक मैदानों के विस्तार और उपयोगिता पर सोचा ही नहीं गया। विकास के चबूतरे पर इनसानी फितरत का हाल जांचें, तो हिमाचल का सामाजिक परिदृश्य सिमट कर कहीं अकेला पड़ गया है। यह शहरी परिवर्तन नहीं, गांव की विरासत से भी जीवन का श्रम गायब हो गया। सबसे अधिक आवारा पशु पैदा कर रहा हिमाचल अपने खेत को भी चरागाह बनाने पर आमादा है। किसानी घट रही है, तो घराट की गति भी रुक गई। छाछ अब पैकेट में पड़ोस के पंजाब से आती है। दूध की बिक्री गांव तक पैकेट में समा गई, तो साग-भाजी की जगह गांव तक मोमो से लेकर फास्ट फूड तक बिकने लगा। हिमाचल में खाद्य पदार्थों की बिक्री में आया उछाल भले ही प्रति व्यक्ति आय में हो रही निरंतर वृद्धि का नतीजा है, लेकिन खाने की सामग्री में दोष उभर आया। यानी आटे की जगह मैदे का उपयोग बढ़ गया और खाने की थाली में नया फैशन दिखने लगा। आश्चर्य यह भी कि सस्ते अनाज ने हिमाचल की आत्मनिर्भरता को इतना सियासी चाटुकार बना दिया कि खेत के बजाय राशन डिपो की कतार में किसान खड़ा हो रहा है। हिमाचल में अब बीपीएल परिवार होना ऐसी सुविधा है जो मेहनत के सारे रास्ते कुर्बान कर रही है। तरक्की के जिस फलक पर हिमाचल में सामाजिक सुरक्षा के आंकड़े मजबूत हो रहे हैं, उसके कारण यह प्रदेश अब श्रम आयात करने वाला एक प्रमुख राज्य बन चुका है। गांव की दिहाड़ी अगर बाहरी मजदूर लगा रहा है, तो हिमाचली इनसान के पास चर्बी घटाने लायक श्रम भी तो नहीं। इस पर तुर्रा यह कि अब हिमाचली धाम में उफनते घी-तेल और मसाले भी प्रदर्शन करने लगे हैं। ऐसे में कल तक पर्वतीय शैली में जिस तरह कैलरी कंज्यूम की जा रही थी, आज सुविधाओं के आलोक में जी का जंजाल बन रही है। यह इसलिए भी कि खेत से हमारा नाता टूट रहा है और इसलिए भी कि कबायली लोग अब भरमौर, पांगी, लाहुल-स्पीति और किन्नौर को छोड़कर कांगड़ा, कुल्लू, सोलन, शिमला और चंडीगढ़ में दौलत और अवसर कमा रहे हैं। ऐसे में हिमाचल के शिक्षा विभाग को पहल करते हुए बच्चों की फिटनेस पर विशेष कार्यक्रम शुरू करना होगा और साथ ही साथ गांव-देहात से शहर तक सामुदायिक व्यवहार में परिवर्तन की दिशा में समाज को भी सोचना होगा।
2.ट्विटर का खेत
साजि़शों का पिटारा खुल चुका है। साइबर भाषा में इसे ‘टूलकिट’ कहा जाता है। ट्विटर के जरिए ही यह बेनकाब हुआ है। इसे गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी और उससे पहले के घटनाक्रम की ‘प्रतिलिपि’ (कॉपीकैट) भी करार दिया जा रहा है, क्योंकि साजि़शें, उपद्रव और हिंसा तय कार्यक्रमों के मुताबिक ही किए गए। अभी तो 13-14 फरवरी को दूतावासों के बाहर प्रदर्शन, कुछ मीडिया हाउस, कुछ उद्योगपतियों और सरकारी दफ्तरों पर ‘ज़मीनी कार्रवाई’ शेष है। तभी परिभाषित होगी कि ‘ज़मीनी कार्रवाई’ के मायने क्या हैं? साजि़श बहुत बड़ी थी और पिटारे में 8, 10, 13, 17, 20 और 23 जनवरी की तारीखों का जि़क्र भी है कि इस दिन क्या करना है और क्या किया जा चुका है। किसान आंदोलन और टै्रक्टर परेड में किस तरह शामिल होना है, उसके तरीके भी सुझाए गए थे। विभिन्न चक्रव्यूहों के लिए अभिमन्यु तैयार किए जा रहे थे। साजि़शें सिर्फ रिहाना, ग्रेटा, मिया खलीफा और कुछ खिलाडि़यों तक ही सीमित नहीं थीं। उनकी लोकप्रियता और शख्सियत का इस्तेमाल किया गया। साजि़शें व्यापक थीं और उनके सूत्रधार संगठन थे-सिख्स फॉर जस्टिस, पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन और उनके पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई। बाकायदा एक वेबसाइट तैयार की गई-‘आस्क इंडिया व्हाई डॉट कॉम।’ यह वेबसाइट कनाडा में तैयार की गई और वहीं पंजीकृत है। हंगरी के बड़े उद्योगपति जॉर्ज सोरोस ने इन साजि़शों के लिए 10 करोड़ डॉलर का योगदान दिया है।
उन पर भारत और इजरायल विरोधी अभियान चलाने के गंभीर आरोप हैं। सोशल मीडिया पर जमकर झूठ प्रचारित किया गया कि भारत सरकार बर्बरता कर रही है। लोगों को मार रही है। राजनीतिक विरोधियों को जेल में कैद किया जा रहा है। 26 जनवरी को पुलिस ने पेट्रोल बमों का इस्तेमाल किया। साजि़शों के पिटारे में यह भी स्पष्ट किया गया था कि आपको संसाधन मुहैया कराए जाएंगे। यूपीए के सांसदों और नेताओं से भी बात हो चुकी है। संसाधन का अर्थ है-पैसा। तो पैसा कौन जुटा रहा था और फंडिंग किस-किस ने की? भारत के संदर्भ में यह साफ होना भी बेहद जरूरी है। बेशक 26 जनवरी को दिल्ली पुलिस द्वारा लाठीचार्ज और आंसू गैस आदि के इस्तेमाल की बात कबूल की जा सकती है, लेकिन 394 पुलिसवाले ही घायल हुए थे। कथित किसानों और दंगाइयों की बेलगाम अराजकता देश ने देखी है। साजि़श का पिटारा खुलते ही एक आह्वान सामने आता है कि हम मानव-इतिहास के सबसे बड़े विरोध और विद्रोह का हिस्सा बनेंगे, लिहाजा सोशल मीडिया पर प्रदर्शनों के वीडियो मैसेज अपलोड करें और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएं। ‘टूलकिट’ में साजि़शों के अंबार हैं, लेकिन सवाल है कि भारत का विरोध करने, उसे बदनाम करने और मोदी सरकार को अस्थिर करने या संसद में हंगामा बरपाने की साजि़शें क्यों रची गईं और किसान आंदोलन को उनसे क्या फायदा होगा? दिलचस्प है कि राकेश टिकैत सरीखे किसान नेताओं को विदेशी हस्तियों के दुष्प्रचार की जानकारी तक नहीं है। वह यह भी नहीं जानते अथवा असलियत छिपा रहे हैं कि किसानों के समर्थन में तमाम साजि़शें रची गईं! चूंकि इस षड्यंत्र में ‘सिख्स फॉर जस्टिस’ और ‘पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन’ आदि संगठनों के नाम उभर कर सामने आए हैं और दोनों को खालिस्तान-समर्थक माना जाता है, तो क्या रिहाना, ग्रेटा, मिया और मीना हैरिस सरीखी अंतरराष्ट्रीय हस्तियां भी खालिस्तान की हमदर्द हैं और उनके एजेंडे का समर्थन करती हैं? क्या वे जानती हैं कि भारत के संदर्भ में खालिस्तान के मायने क्या हैं? बहरहाल ये दोनों संगठन भारत में प्रतिबंधित हैं।
गुरमीत सिंह पन्नू और परमजीत सिंह पम्मा जैसे खालिस्तानी खाड़कुओं पर हमारी एजेंसियों की लगातार निगाहें हैं, तो क्या ट्वीट के साजि़शाना खेल में जुड़ीं रिहाना, ग्रेटा आदि के खिलाफ आतंकवाद की कानूनी धाराओं में भी केस दर्ज किए जाएंगे? वैसे दिल्ली पुलिस ने आईपीसी की धाराओं-153, 153-ए, 120-बी और 124-ए आदि-के तहत साजि़शों के गिरोह के खिलाफ केस दर्ज किए हैं। उनमें आपराधिक साजि़श, सामाजिक वैमनस्य फैलाने और देशद्रोह सरीखे अपराध कवर होते हैं। बेशक एफआईआर में किसी भी हस्ती का नाम नहीं है। सवाल है कि अंतरराष्ट्रीय लड़ाई के लिए क्या इतना ही पर्याप्त होगा? सवाल यह नहीं है कि ट्वीट की साजि़शें भारत जैसे संप्रभु और ताकतवर देश को कमजोर कर सकती हैं या नहीं, देश में सामाजिक विभाजन के हालात पैदा हो सकते हैं अथवा नहीं, रिहाना और ग्रेटा जैसी हस्तियां खालिस्तानी संगठनों के चंगुल में कैसे आईं? सवाल यह है कि इस दुष्प्रचार का मुंहतोड़ जवाब कैसे दिया जाए और उग्रवादियों के साजि़शाना चक्रव्यूह कैसे तोड़े जाएं? आपराधिक केस दर्ज होने के बावजूद स्थानीय दंगई आज भी गिरफ्त से बाहर हैं। कनाडा, ब्रिटेन और अमरीका में राजनयिक पहल के बिना किसी को भी कटघरे तक लाना नामुमकिन है।
3.आतंकवाद के खिलाफ
यह सूचना बहुत नहीं चौंकाती कि ईरानी सेना के जवान पाकिस्तान से अपने दो साथियों को छुड़ा ले गए हैं। पाकिस्तान चूंकि आतंकवादियों की पनाहगाह बना हुआ है, इसलिए उस पर पड़ोसी देशों द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक कतई चिंता की बात नहीं। ईरान की ओर से यह खबर चली है, लेकिन पाकिस्तान शायद इस पर चुप्पी बरतते हुए आलोचना और निंदा से बचना चाहता है। ईरान भी शायद अभियान पूरा होने के बाद हो-हल्ले से बचेगा, क्योंकि इमरान खान के समय ईरान के साथ पाकिस्तान के संबंध कुछ ठीक बताए जाते हैं। ऐसे में, इस सैन्य अभियान की पूरी सच्चाई शायद ही सामने आएगी। बहरहाल, ईरान के रेवॉल्यूशनरी गाड्र्स पाकिस्तान में आतंकियों के कब्जे से अपने दो साथियों को मुक्त करा ले गए हैं, तो उनकी इस कार्रवाई को गलत नहीं ठहराया जा सकता। ईरान के 12 सैनिकों का 2018 में अपहरण किया गया था। 12 में से कम से कम नौ सैनिकों की रिहाई हो गई थी और अपने बाकी जवानों को बचाने के लिए ईरान आतंकी संगठन जैश उल-अदल को काफी समय से चेतावनी देता आ रहा था, लेकिन जब पानी सिर के ऊपर से निकलने लगा, तब ईरान ने मंगलवार रात सैन्य कार्रवाई को अंजाम दिया। अगर ईरान के गाड्र्स ने वाकई पाकिस्तान में घुसकर इस सैन्य कार्रवाई को अंजाम दिया है, तो यह इस पूरे क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण घटना है। पाकिस्तान को अपने यहां ऐसी घटनाओं या अपनी बेइज्जती पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। ओसामा बिन लादेन जैसे खूंखार आतंकी को अमेरिका ने पाकिस्तान में ही मार गिराया था, लेकिन उसके बावजूद पाकिस्तान आतंकवादियों की पनाहगाह बना हुआ है। जैश उल-अदल या जैश अल-अदल एक आतंकी संगठन है, जो मुख्यत: दक्षिणी-पूर्वी ईरान में सक्रिय है, लेकिन इसका आधार पाकिस्तान में है। आदर्श स्थिति तो यही थी कि ऐसे आतंकी शिविरों का पाकिस्तान खुद खात्मा करता, लेकिन पाकिस्तान जब आतंकियों के खिलाफ वाजिब कदम नहीं उठाता है, तब अमेरिका, भारत या ईरान जैसे देशों को आगे बढ़कर सही फैसला करना पड़ता है। पाकिस्तान अगर अपनी जमीन का दुरुपयोग नहीं रोकेगा, तो उसे आने वाले दिनों में ऐसे ही शर्मसार होने से कोई बचा नहीं पाएगा? हालांकि, सवाल यह भी है कि क्या पाकिस्तान को ऐसी घटनाओं पर शर्म आती है? अगर आतंकी गतिविधियों को बढ़ाते हुए शर्म का एहसास नहीं होता, तो जाहिर है, दूसरे देशों की सैन्य कार्रवाई पर गुस्सा जरूर आता होगा, लेकिन शायद शर्म नहीं। यही पाकिस्तान में गिरावट की मूल वजह है। आज जैसी दुनिया है, कोई भी देश अपने किसी पड़ोसी की आतंकी कार्रवाई को नहीं झेलेगा। क्या चीन अपने ‘आयरन ब्रदर’ पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों को अपने यहां बर्दाश्त करेगा? पाकिस्तान को आज नहीं कल सुधरना ही पड़ेगा। पत्रकार डेनियल पर्ल के हत्यारे को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने रिहा कर दिया, इससे दुनिया में क्या संदेश गया है? जो देश घोषित आतंकवादियों और अपने असली दुश्मनों को पहचानने में नाकाम हो रहा है, उसे राह दिखाने की पहल दुनिया को करनी चाहिए। चीन आतंकवाद का दर्द नहीं जानता या अनजान बने रहने में अपना फायदा देखता है, पर अमेरिका भुक्तभोगी है, उसे आगे आकर पाकिस्तान में सुधार की चौतरफा कोशिशें करनी चाहिए।
4.सैन्य आधुनिकीकरण
स्वदेशी मुहिम में प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण जरूरी
ऐसे मौके पर जब साम्राज्यवादी चीन के खतरनाक मंसूबे लगातार उजागर हो रहे हैं और पाक दशकों से घात लगाये बैठा है, देश की सुरक्षा के लिए चाक-चौबंद आधुनिक प्रतिरक्षातंत्र विकसित करना जरूरी है। इसके लिए सेना को आधुनिक हथियारों व युद्धक तकनीक से लैस करना वक्त की जरूरत है। पिछले कई दशकों से भारत की गिनती दुनिया में सबसे बड़े हथियार खरीदारों में होती रही है। साथ ही खरीद में होने वाले तमाम घोटाले भी गाहे-बगाहे उजागर होते रहे हैं। यहां तक कि ये हथियार दुश्मन के खिलाफ काम आये न आये हों, मगर सरकार पर हमले हेतु विपक्ष का हथियार जरूर बनते रहे हैं। बहरहाल, राजग सरकार ने सेना को आधुनिक हथियारों की आपूर्ति की दिशा में सार्थक पहल की है। वर्षों से लंबित खरीद के मामलों में तेजी आई है। लद्दाख में चीनी अतिक्रमण, खासकर गलवान घाटी में दोनों देशों के बीच हुए संघर्ष के बाद हथियार खरीद में तेजी आई है। उच्चस्तरीय सैन्य तैयारियों को गति मिली है। निस्संदेह अत्याधुनिक हथियारों के बिना सीमाओं को मजबूती दे पाना संभव नहीं है क्योंकि मौजूदा दौर में युद्धक तकनीकों में तेजी से बदलाव आया है। थल सेना के स्थान पर वायु सेना और ड्रोन तकनीकों का वर्चस्व बढ़ा है। हालांकि, कहा जाता रहा है कि वर्ष 2021-22 के बजट में मौजूदा चुनौतियों के मद्देनजर रक्षा बजट में करीब 1.4 फीसदी की वृद्धि पर्याप्त नहीं है, लेकिन वहीं दूसरी ओर सैन्य आधुनिकीकरण के लिए पूंजीगत परिव्यय को पर्याप्त बढ़ाया गया है ताकि तात्कालिक रक्षा चुनौतियों का मुकाबला करने में परेशानी न आये। यह राशि करीब बाईस हजार करोड़ बतायी जाती है। दरअसल, अगले सात-आठ वर्षों में रक्षा सामान के आधुनिकीकरण पर नौ लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च करने का प्रावधान किया गया है। निस्संदेह, यह स्वागतयोग्य कदम उस धारणा को तोड़ने का प्रयास करेगा, जिसमें कहा जाता था कि भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है।
इसमें दो राय नहीं कि रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता समय की सबसे बड़ी जरूरत है। यह कदम जहां दुर्लभ विदेशी मुद्रा की बचत करेगा, वहीं देश में रक्षा उत्पादन संबंधी उद्योगों के विस्तार से कालांतर में हम हथियारों के निर्यातक भी बन सकते हैं। महत्वपूर्ण यह भी कि देश में रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी। निस्संदेह जब देश में हवाई जहाज या बड़े अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण होगा तो उसके लिए आवश्यक कलपुर्जे व जरूरी सामग्री उपलब्ध कराने वाले छोटे, लघु व मध्यम दर्जे के उद्योगों के विकास को भी मदद मिलेगी। फिर आत्मनिर्भरता की एक नई शृंखला तैयार होगी। लेकिन जब हम रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की बात करते हैं तो प्रश्न उभरता है कि क्या हम शोध-अनुसंधान व गुणवत्ता के स्तर पर निर्माण के लिए अनुकूल वातावरण तैयार कर पायेंगे। निस्संदेह मेक इन इंडिया मुहिम के लिए कारगरतंत्र विकसित करने के लिए व्यापक पैमाने पर तैयारी करनी होगी। यह सुखद ही है कि हाल ही में रक्षा मंत्रालय ने देश की प्रमुख स्वदेशी कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स से 83 हल्के लड़ाकू विमान तेजस खरीदने के लिये 48000 करोड़ रुपये के समझौते पर मोहर लगायी है। लेकिन यह भी हकीकत है कि बड़े पैमाने पर स्वदेशीकरण रातों-रात नहीं हो सकता। इसके लिए निजी क्षेत्र की अग्रणी भूमिका, प्रमुख तकनीकी विशेषज्ञों तथा विज्ञान व प्रौद्योगिकी के शीर्ष संस्थानों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। साथ ही रक्षा उत्पादन से जुड़े पब्लिक सेक्टर यूनिटों की कार्यशैली व शोध-अनुसंधान की गुणवत्ता में व्यापक सुधार की जरूरत भी है, जिसकी अनुशंसा रक्षा मामलों की स्थायी संसदीय समिति ने भी की है। वहीं गुणवत्ता के साथ जरूरी है कि रक्षा उपकरण सेना की जरूरतों के अनुरूप समय से मिल सकें। सरकार ने रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी पूंजी के निवेश के मापदंडों में छूट दी है। यह भी जरूरी है कि विदेशों से हथियारों की खरीद के साथ अंतर्राष्ट्रीय निर्माताओं तथा भारतीय फर्मों के बीच प्रौद्योगिकी हस्तांतरण भी सुनिश्चित किया जाये। कोशिश हो कि देश में अनुसंधान व नवाचार के लिए अनुकूल वातावरण बने।