News & Events
Editorial Today (Hindi)
- February 8, 2021
- Posted by: Maya
- Category: Daily Current Affairs Hindi Editorial

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.आंदोलन का आर्थिक जाम
किसान आंदोलन के ‘चक्का जाम’ का असर सीमित और क्षेत्रीय रहा। पंजाब और हरियाणा में असर स्वाभाविक था, क्योंकि आंदोलन बुनियादी तौर पर इन दो राज्यों के किसानों का ही है। यदि 75 दिन पुराने आंदोलन के पक्ष में देश की ज्यादातर जनता के दावे न्यायसंगत हैं, तो ‘चक्का जाम’ राष्ट्रीय क्यों नहीं हो पाया? दुखी और तल्ख जनता की प्रतिक्रियाएं टीवी चैनलों पर छाई रहीं। कई किसान नेताओं ने कथित विवादास्पद कानूनों का समर्थन क्यों किया? राजस्थान के 4-5 जिलों तक ही सिमटा रहा चक्का जाम! छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार है और महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी-शिवसेना की साझा सत्ता है। वहां की सड़कों पर परिवहन क्यों जारी रहा? जाम के अपवादस्वरूप कुछ छितरे हुए प्रदर्शन जरूर हुए। तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में भाजपा की विपक्षी सरकारें हैं। वहां चक्का जाम फ्लॉप क्यों रहा? मप्र, गुजरात, कर्नाटक आदि राज्यों में भाजपा सरकारें हैं, लिहाजा दलील दी जा सकती है कि किसानों को सड़क और राजमार्गों पर उतरने से जबरन रोका गया। इन राज्यों में कांग्रेस की अच्छी-खासी राजनीतिक ताकत है। केरल में तो लाल झंडे वालों की सरकार है, वहां चक्का जाम अपेक्षाकृत व्यापक और असरदार क्यों नहीं दिखा? दरअसल हमारा मकसद आंदोलन और चक्का जाम की कामयाबी अथवा नाकामी की मीमांसा करना नहीं है, लेकिन अहम सवाल यह है कि आखिर किसान आंदोलन कब तक जारी रहेगा?
क्या कोई भी आंदोलन महज एक जिद के आधार पर अनिश्चितकाल तक चलाया जा सकता है? इस संदर्भ में राज्यसभा में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का यह सवाल हमें उचित लगा कि कमोबेश किसान या कांग्रेस-वामपंथी नेतृत्व का विपक्ष यह तो बिंदुवार बताएं कि कानूनों में ‘काला’ क्या है? हम आंदोलित किसानों की मेधा और समझ को भी चुनौती नहीं दे रहे हैं, लेकिन केंद्र सरकार और किसानों के बीच 11 दौर की बातचीत और किसान नेताओं की विभिन्न चर्चाओं में भागीदारी के बावजूद हम यह नहीं जान पाए हैं कि कानून में आपत्तिजनक क्या है? कौन से प्रावधान किसान को मज़दूर बना सकते हैं? जहां तक ठेके की खेती का सवाल है, तो पंजाब समेत 20 से ज्यादा राज्यों में यह व्यवस्था जारी है। गन्ना पैदा करने वाले किसानों का गन्ना-मिलों के साथ क्या व्यवस्था है? जाहिर है कि करारों के तहत दोनों पक्ष काम कर रहे हैं। पंजाब के किसान कानून में तो 5 साल की जेल का प्रावधान किसानों के लिए है, जबकि केंद्रीय कानूनों में तमाम प्रावधान किसानोन्मुखी हैं। यदि 75 दिन के आंदोलन के बावजूद आपसी मतभेद के बिंदु देश के सामने स्पष्ट नहीं हैं, तो हमें लगता है कि आंदोलन पूरी तरह ‘राजनीतिक’ है। यहां उल्लेख कर दें कि चक्का जाम के दौरान भी एटक, सीटू, एसएफआई और जनवादी महिला समिति आदि के बैनर और झंडे दिखाई दिए। देश जानता है कि ये संगठन वामपंथी दलों के सहयोगी हैं। जाम के दौरान इन संगठनों के कार्यकर्ताओं द्वारा दिल्ली में विरोध-प्रदर्शन करने पर उन्हें हिरासत में भी लिया गया था।
दरअसल हमारी सोच है कि कोई भी संगठन और आंदोलन शेष राष्ट्र से ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं आंका जा सकता। किसानों की मांगें एक पक्ष हैं, तो देश की अर्थव्यवस्था और आर्थिक गतिविधियों पर चस्पा जाम दूसरा पक्ष है। औद्योगिक संगठनों के बार-बार आकलन सामने आए हैं कि किसान आंदोलन से अर्थव्यवस्था संकट के दौर में पहुंच रही है। अभी तो कोरोना महामारी और लॉकडाउन के ‘ग्रहण’ ही नहीं छंटे हैं। एक आकलन के मुताबिक, औसतन 50,000 ट्रक हररोज़ दिल्ली में आते रहे हैं और करीब 30,000 ट्रक माल ढोकर दिल्ली से अन्य राज्यों को जाते रहे हैं। यह आवाजाही करीब 20 फीसदी रह गई है। आंदोलन के कारण जिन टोल पर टैक्स नहीं लिया जा सका, उसका नुकसान 600 करोड़ रुपए बताया गया है। करीब 9300 करोड़ रुपए के किसान कर्ज़ खतरे में पड़ गए हैं। औद्योगिक उत्पादन, खाद्य, कपड़ा, फर्नीचर, परिवहन, पर्यटन और होटल आदि उद्योगों पर बुरा असर पड़ा है। उनकी सप्लाई चेन ही टूट गई है। औद्योगिक संगठनों-फिक्की, एसोचैम, सीआईआई-का आकलन है कि करीब 4000 करोड़ रुपए रोज़ाना का औसतन नुकसान हो रहा है। किसान इन दलीलों को नहीं मानते, जबकि यह पूरी दुनिया के सामने है कि आंदोलन के कारण सड़कें और राजमार्ग किस कदर अवरुद्ध हैं। बेशक इनमें पुलिस की किलेबंदी और कीलबंदी का भी योगदान है, लेकिन चिंता तो यह होनी चाहिए कि अब आंदोलन का कोई निष्कर्ष सामने आना चाहिए। यह सरकार और किसान संगठनों को ही तय करना है।
2. समाज को देखना होगा
एक वक्त था जब हिमाचल में देव संस्कृति के फलक पर इनसानी फितरत अपनी जवाबदेही तय करती थी, लेकिन अब प्रदेश की हवाओं का घर्षण महसूस करने से भी समाज कतराता है। प्रदेश के सामने भ्रष्टाचार, नशे, अपराध व सड़क दुर्घटनाओं के दैत्य खड़े हैं, लेकिन हम इन्हें घटनाकम्र की तरह देख रहे हैं। उदाहरण के लिए छात्रवृत्ति घोटाले के अनावृत्त सफों पर बिछी कालिख ने बता दिया कि जो कुछ हमारे सामने हो गया, वह अपराध से घृणित प्रवृत्ति का सामना है। हम चले तो हिमाचल को शिक्षा हब बनाने, लेकिन शिक्षा ही श्मशान की यात्रा पर निकल गई। प्रदेश में स्थापित एक निजी विश्वविद्यालय की स्थापना से निकली 36 हजार फर्जी डिग्रियां क्या साबित करती हैं और इसका असर हमारे तामझाम पर नहीं होगा, नामुमकिन है। माहौल कलंकित होता है, तो समाज की भूमिका पर प्रश्न चिन्ह लगता है। यह असंभव है कि हिमाचल में लगातार नशे की खेप उतरती रहे और लोग अभिशप्त न हों या यह राज्य की छवि से जुड़ा मसला नहीं। वर्षों से मलाना क्रीम के नाम पर नशे का जितना व्यापार हो रहा है, वहां हिमाचल के आचरण की रसीद पर सदा गंदे हस्ताक्षर सामने आ रहे हैं। क्या हमने इसके खिलाफ कोई सामाजिक आंदोलन शुरू किया या जो अभिभावक अपने बच्चों को रोक नहीं पाए, वही दोषी मान लिए जाएं।
आज कमोबेश हर गांव से शहर तक की गलियां नशे के कारण बदनाम हैं, लेकिन समाज अपने कंधों पर इसके खिलाफ जनांदोलन का बोझ नहीं उठाता। नशे की बिक्री के खिलाफ हमारी अपेक्षाएं सिर्फ उस सुर्खी को ढूंढती हैं जो पुलिस कार्रवाई के किसी टीले पर नज़्ार आती है। कुछ इसी तरह हर दिन किसी न किसी सड़क पर मौत का बिछौना बनकर दुर्घटना हो जाती है, लेकिन वहां सिसकते आवरण के पीछे कहीं समाज दिखाई नहीं देता। सामाजिक प्रगति के आईने में जो प्रतिस्पर्धा हमें वाहन खरीदने के योग्य बना रही, क्या उसके करीब जीने की शर्तें तय होती हैं। हिमाचली समाज तेजी से उपभोक्ता बन रहा है, लेकिन समाज के भीतर समाज की तलाशी नहीं हो रही। नतीजतन समाज अपने आसपास के घटनाक्रम का मूकदर्शक बना है और यह सोच रहा है कि व्यवस्था खुद ही उसके परिवेश को साफ-सुथरा बना देगी। आश्चर्य के खुलासे में हम स्थानीय निकाय चुनावों की रंगत देख सकते हैं। सरेआम समाज के नुमाइंदे अपनी खाल बदल रहे हैं और जश्न की फिराक में घटनाक्रम जारी है। हर बार हिमाचल की सरकारें अगर समाज के चौखट पर राजनीतिक नाकामयाबी का दंश झेलती हैं, तो यह सामाजिक असफलता क्यों नहीं। हम कहने भर के लिए नए नगर निगम बना सकते हैं या स्मार्ट सिटी के चयन में दो शहर डाल सकते हैं, लेकिन स्मार्ट शहरी होने की हमारी मर्यादा क्या है।
राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षणों में हमारे शहर अगर औसतन दस से पंद्रह हजार की आबादी को तहजीब नहीं सिखा पाए, तो समाज ही आस्तीन में छिपा सांप क्यों न माना जाए। विकास की नजरों का हिमाचल आंकड़े गिन सकता है, लेकिन समाज की आंखों में गिरा कचरा नहीं हटा सकता। समाज जब देखने लगेगा, तो व्यवस्था को भी आंखें मिलेंगी। सामाजिक दृष्टिकोण जब निजी उपलब्धियों से आगे निकल कर राज्य का दृष्टिकोण बनेगा, तो वास्तविक परिवर्तन आएगा, वरना प्रगति के कदमों में बची खुची नैतिकता भी कुचली जाएगी। विडंबना यह है कि समाज ने अपने सारे कर्म, फर्ज और ताज राजनीति को पहना दिए, नतीजतन सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रश्न पर राजनीतिक उपलब्धियां श्रेष्ठ मानी जाने लगीं। इसी दौड़ में हम गांव की पंचायत में ऐसे लोग चुन रहे हैं, जो समाज के बीच नहीं राजनीति के ढीठ अभिप्राय में पारंगत सिद्ध होते हैं। समाज की असमर्थता देखें कि हर तीज-त्योहार या सार्वजनिक मंच पर राजनीतिक चेहरा आसीन करने की शर्त का पालन हो रहा है। क्यों नहीं स्कूल-कालेजों के समारोहों में समाज के नगीने या हिमाचल की चर्चित सामाजिक-सांस्कृतिक हस्तियों को मंच मिले। हिमाचल के सामाजिक आदर्शों को राजनीति से बड़ा मंच चाहिए और इसके लिए समाज को हर अच्छे-बुरे घटनाक्रम में अपनी प्रासंगिकता बढ़ानी होगी ताकि प्रदेश का नजरिया एक सरीखा और जवाबदेह बने।
3.ग्लेशियर का टूटना
उत्तराखंड के चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने से भारी तबाही जितनी दुखद है, उतनी ही चिंताजनक भी। शुरुआती रिपोर्ट से पता चलता है कि नुकसान ज्यादा हुआ है। तबाही का समग्र आकलन आने वाले दिनों में होगा, लेकिन जो शुरुआती सूचनाएं प्राप्त हो रही हैं, उनसे पता चलता है कि सैकड़ों लोग लापता हो गए हैं। कितने बड़े इलाके को क्षति पहुंची है, इसका पता आने वाले एक-दो दिनों में ज्यादा बेहतर ढंग से चलेगा। इस हादसे के चलते अलकनंदा और धौली गंगा उफान पर हैं। पानी के तेज बहाव में मानव बस्तियों के बहने की आशंका है। जिन इलाकों पर असर पड़ सकता है, उन्हें खाली कराया जा रहा है। आने वाले दिनों में मौसम प्रतिकूल नहीं रहेगा, लेकिन जो हादसा हो चुका है, उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी। बड़ा सवाल है कि क्या मौसम विभाग ने इस हादसे की पूर्व सूचना दी थी। अगर ऐसे हादसों की पूर्व सूचना नहीं मिल सकती, तो फिर बचाव के उपाय क्या हैं? लोगों से सुरक्षित इलाकों में पहुंचने की अपील जारी है। इस आपदा में सौ से ज्यादा लोगों के मारे जाने की आशंका जताई जा रही है। प्रधानमंत्री अगर इस घटना की निगरानी कर रहे हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं। सरकार की ओर से हर संभव मदद उन लोगों तक पहुंचनी चाहिए, जो इस हादसे से प्रभावित हैं। वैज्ञानिक इस हादसे की पड़ताल करेंगे, लेकिन इस हादसे से जुड़ी कुछ बातें बहुत स्पष्ट हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ऐसे प्राकृतिक हादसों की आशंका पहले भी जताई गई थी, लेकिन यह अपने आप में अचरज की बात है कि जाड़े के मौसम में ग्लेशियर टूटा है। जब पहाड़ों पर कड़ाके की ठंड पड़ रही है, बर्फबारी का आलम है, तब ग्लेशियर का टूटना किसी गंभीर संकट का संकेत है।
हमें इस दुखद घड़ी में फिर एक बार प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ पर विचार करना चाहिए। यह बार-बार कहा जाता रहा है कि धरती गर्म हो रही है। ग्रीन हाउस गैसों का बढ़ता उत्सर्जन हमें चुनौती दे रहा है। हिमालय को वैसे भी बहुत सुरक्षित पर्वतों में नहीं गिना जाता। पिछले दशकों में यहां ग्लेशियर तेजी से पिघलते चले जा रहे हैं। नदियों के अस्तित्व पर सवाल खड़े होने लगे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि ग्लेशियर को पिघलने से रोकने के लिए जितनी कोशिश होनी चाहिए, नहीं हो पा रही है। इतना ही नहीं, पहाड़ों पर उत्खनन और कटाई का सिलसिला लगातार जारी है। पहाड़ों पर लगातार निर्माण और मूलभूत ढांचे, जैसे सड़क, सुविधा निर्माण से खतरा बढ़ता चला जा रहा है। बहुत दुर्गम जगहों पर मकान-भवन निर्माण से जोखिम का बढ़ना तय है। जब पहाड़ों पर सुविधा बढ़ रही है, तब वहां रहने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। हमने मैदानों का परिवेश बिगाड़ दिया है, तो लोग पहाड़ों पर बसने को लालायित हैं। इसका असर पहाड़ों पर साफ तौर पर दिखने लगा है। जहां पहाड़ों पर हरियाली हुआ करती थी, वहां कंक्रीट के जंगल नजर आने लगे हैं, नतीजा सामने है। समय-समय पर पहाड़ और ग्लेशियर हमें रुलाने लगे हैं। इस हादसे के बाद हमें विशेष रूप से पहाड़ों और प्रकृति के बारे में ईमानदारी से सोचने की शुरुआत करनी चाहिए। पर्यावरण रक्षा के नाम पर दिखावा अब छोड़ देना चाहिए। ग्लेशियर को बचाने के लिए जमीन पर उतर कर काम करना होगा, तभी हम ऐसे प्राकृतिक, लेकिन दर्दनाक हादसों से बचे रहेंगे।
4. कुदरत के सबक
हिमखंड टूटने से ऋषिगंगा में तबाही
उत्तराखंड के चमोली जनपद स्थित ऋषिगंगा में ग्लेशियर खिसकने से बनी झील के टूटने से आई तबाही ने फिर इस संवेदनशील इलाके में मानवीय हस्तक्षेप के बाबत चेताया है। इस आपदा में जहां मानवीय क्षति हुई, वहीं ऋषिगंगा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट तबाह हो गया और एनटीपीसी के तपोवन हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट को भारी नुकसान पहुंचा है। केंद्र व राज्य सरकार की तात्कालिक सक्रियता के बाद शाम तक कुछ शव बरामद करने की बात आईटीबीपी के अधिकारियों ने कही है। वहीं तपोवन बांध के पास निर्माणाधीन टनल में फंसे बीस लोगों को निकालने के प्रयासों में एनडीआरएफ, एसडीआरएफ व आईटीबीपी की टीम लगी हुई थी। स्थानीय सड़कों की तबाही के साथ ही चीन सीमा को जोड़ने वाला एक पुल भी तबाह हुआ है। बहरहाल, तबाही के भयावह वीडियो वायरल होने के बाद उत्तराखंड में हरिद्वार से लेकर उत्तर प्रदेश के संवदेनशील जिलों में खासी सतर्कता बरती गई। अलकनंदा और गंगा तट पर रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया। कुंभ मेले की तैयारी में जुटा हरिद्वार का प्रशासन सकते में आ गया और तीर्थयात्रियों में भय व असुरक्षा देखी गई। बताया जा रहा है कि रैणी गांव के करीब ऋषिगंगा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट में तकरीबन डेढ़ सौ श्रमिक काम कर रहे थे। जंाच के बाद ही जीवित और मरने वालों की पुष्टि होगी। बहरहाल, नंदा देवी नेशनल पार्क के करीब हुए हादसे का सबक यह भी है कि संवेदनशील इलाकों में ऐसे निर्माण से बचा जाना चाहिए।
बहरहाल, ऐसा नहीं है कि इस इलाके में ऐसी प्राकृतिक आपदा पहली बार आई है। ब्रिटिश काल में कई बड़ी ऐसी घटनाओं का उल्लेख मिलता है। लेकिन प्रकृति की संवेदनशीलता को नजरअंदाज करके हमने नदी विस्तार क्षेत्र में जो हाइड्रो प्रोजेक्ट बनाने शुरू किये, उससे पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ा है। कुछ समय पहले देहरादून स्थित प्रतिष्ठित वाडिया भू-वैज्ञानिक संस्थान के वैज्ञानिकों ने चेताया था कि जम्मू-कश्मीर के काराकोरम समेत संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर नदियों के प्रवाह को रोक रहे हैं। इससे बनने वाली झीलों के टूटने से नदियों में तबाही आ सकती है। बीते जून-जुलाई में अध्ययन के बाद जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि बर्फ से बनने वाली झील से तेज वेग से पानी नीचे की ओर बहकर रौद्र रूप धारण कर सकता है। इस अध्ययन में ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों का सहारा लिया गया था और इसमें क्षेत्रीय अध्ययन को शामिल किया गया था। इस अध्ययन में ऐसी डेढ़ सौ घटनाओं का जिक्र था, जिसमें हिमखंडों से बनी झीलों के टूटने का जिक्र था। रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग के चलते तेजी से पिघलते ग्लेशियरों का भी जिक्र था। ग्लेशियरों के ऊपरी हिस्सों से बर्फ तेजी से नीचे आती है और नदियों का मार्ग अवरुद्ध करती है। कालांतर ये झीलें टूटकर तबाही का सबब बनती हैं। ऐसे में इन संवेदनशील इलाकों में बांधों के निर्माण से परहेज करने की जरूरत है ताकि भविष्य में झील के फटने से पानी को निकलने को प्राकृतिक मार्ग मिल सके।