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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.पहाड़ को समझें
उफान पर सदी के बेरहम पंजे, निशान अपने मिटाने को विकास से दोस्ती कर ली। पर्वत जब ढहता है, सारा दोष परिवेश के हवाले हो जाता है। यही चमोली त्रासदी का निष्कर्ष बन कर उभरेगा और सांसें रोक कर पहाड़ खुद को निहारता रह जाएगा। बेशक पहाड़ का टूटना, वजूद का टूटना है और इसके लिए इनसानी फितरत काफी हद तक दोषी है। कभी जिस रैणी गांव से चिपको आंदोलन निकला, आज उसी के दायरे में ऋषि गंगा ने अपने सब्र का बांध तोड़ दिया। पर्वतीय रहस्यों में हिम स्खलन या टूटते ग्लेशियरों की रसीद जब इनसान तक पहुंचती है, तब तक विज्ञान के पन्ने और संवेदना के लफ्ज गुम हो चुके होते हैं। हम कारणों पर जा सकते हैं, लेकिन तैयारियों के बीच पहाड़ भी राष्ट्रीय योजनाओं के फलक पर सियासी गिनती में फंस जाता है। बजट तो पर्वतीय राज्य को भी बनाना है तथा आर्थिकी के रास्ते खोजने हैं। आगे बढ़ने के रास्ते पर कब तक पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी को सिर्फ अभिशप्त व्याख्या में पर्वतीय दर्द का एहसास करना होगा। जिसे देश के सिर का ताज कहते हैं, उसे पहनने वाले पहाड़ी राज्यों के लिए राष्ट्रीय मंतव्य अकसर मैदानी इलाकों से उलझ जाता है। कभी वित्तीय अधिकार मिलते हैं, तो फिर सियासी कारणों से सिमट जाते हैं। ऐसे में कब यह देश जागेगा और सोचेगा कि एक खास परिवेश के लिए अलग से ‘पर्वतीय विकास मंत्रालय’ का गठन करके उन रास्तों, तकनीक, विकास, आर्थिकी और वित्तीय व्यवस्था को आगे बढ़ाया जाए ताकि प्रकृति का खनन व स्खलन न हो।
जब शोर होता है या खतरा भयावह मंजर को चुन लेता है, तो देश पहाड़ और पहाड़ी जीवन से जुड़े विकास पर सारा दोष मढ़ देता है, लेकिन क्या पर्वतीय राज्यों की प्राथमिकताओं पर कभी विचार हुआ। क्या कभी पर्वतीय अधिकारों पर राष्ट्र ने अपनी सियासी मजबूरियों को दरकिनार किया। पहाड़ी राज्यों के लिए विकास के अलग मानक भले ही दिखाई दिए, लेकिन संसाधनों का आबंटन नहीं हुआ। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, तो समूचे देश में हो रहे परिवर्तन भी तो दोषी हैं। वे बड़े बांध जिनके कारण पहाड़ की जमीन अस्थिर हुई या मैदान ने हवा के आदान-प्रदान में जो प्रदूषण भेजा, उसकी कीमत भी पहाड़ में तय हुई। बेशक पहाड़ में गूंजते विस्फोट, भीतर से निकलती सुरंग और नदी के तट पर विद्युत परियोजनाओं की खुराक बनकर दरकता पहाड़ कराहता है, लेकिन रिमोट सेंसिंग के मुहावरों पर अंतरिक्ष में हमारा विज्ञान क्या कर रहा है। क्यों नहीं ग्लेशियरों के वजूद पर उभरती शंकाएं या प्राकृतिक हलचलों में आ रहा बिखराव, हमारे आपदा प्रबंधन को सचेत करता है। करीब बीस-इक्कीस साल पहले सतलुज विध्वंस के तमाम सबक हिमाचल के सीने पर चस्पां हैं, लेकिन एनडीआरएफ का सेंटर बनाने में सियासत ने आज तक दृढ़ प्रतिज्ञ होना नहीं सीखा।
पर्वतीय जीवन की प्रतिज्ञाओं में खलल डालते विकास की कहानी का एक विद्रूप रूप खनन का है, तो इसी के साथ प्राकृतिक जल स्रोतों या जल निकासी को रोकते अतिक्रमण का भी एक बड़ा हाथ है। ऐसे में लाहुल-स्पीति के समाज ने जिस तरह रोहतांग सुरंग के कपाट खुलने को सयंमित व्यवहार की शर्तों से जोड़ा या आगामी कदमों में चंद्रभागा नदी पर प्रस्तावित तमाम जल विद्युत परियोजनाओं को विराम देने का संकल्प लिया है, तो इसे प्रशंसनीय माना जाएगा। हिमाचल जैसे राज्य की बनावट को हम केवल जंगल की कैद में प्रासंगिक नहीं बना सकते, बल्कि भविष्य संरक्षण के लिए वन भूमि का आचरण भी तो बदलना होगा। देश को शायद मालूम भी नहीं होगा कि चीड़ के दरख्त हर साल किस तरह बारूद बनकर मानव बस्तियों को डराते हैं या जंगली जानवरों के आतंक से खेत के खेत बंजर हो गए। यह नामुमकिन है कि वर्तमान जंगल की शोभा में खेत बर्बाद और इनसान एहतियात में रहे। पर्वतीय राज्यों की एक तस्वीर में ऋषिगंगा और धौलीगंगा की बाढ़ जैसी स्थिति है, लेकिन यथार्थ का चित्रण तो राष्ट्रीय संकल्प से ही सामने आएगा। पराछू झील के खतरे हर साल हिमाचल के जल स्रोतों को कफन पहनाते हैं, लेकिन पहाड़ की शांति बरकरार रखने के लिए राष्ट्रीय दृष्टि दिखाई नहीं देती। इस सारे दर्द और जख्मों पर मरहम लगाने के लिए ‘पर्वतीय विकास मंत्रालय’ का औचित्य बढ़ जाता है।
2.जल-प्रलय के ग्लेशियर
उत्तराखंड में एक और जल-प्रलय…! कुदरत और इनसानी जलजले का एक अत्यंत भयावह बिम्ब…! इस बार चमोली का वह रैणी गांव और उसके आसपास का इलाका प्रलय की चपेट में आया है, जहां दशकों पहले ‘चिपको आंदोलन’ का आगाज हुआ था। पर्यावरण अब भी छीला जा रहा है। कुदरती संसाधनों से खिलवाड़ किया जा रहा है। त्रासदियों से सबक नहीं सीखे जाते, बल्कि नए प्रलय को आमंत्रण दिया जाता रहा है। करीब 8 साल पहले 2013 में केदारनाथ मंदिर के क्षेत्र में बादल फटने से जल-प्रलय आया था। तब खूब बारिश हुई थी। वह बेहद खौफनाक और संहारी त्रासदी थी। इस बार चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने से कयामत आई है। हालांकि अचरज यह है कि पहाड़ों पर अब भी बर्फबारी हो रही है। फिलहाल सर्दियों का ठंडा मौसम है, लेकिन बरसात नहीं है। ऐसे मौसम में अक्सर ग्लेशियर नहीं टूटते, तो इस प्रलय का बुनियादी कारण क्या है? क्या ग्लेशियर के साथ बनी कृत्रिम झील भी टूटी है? पर्यावरणविद और आपदा प्रबंधन के विशेषज्ञ वैज्ञानिक मान रहे हैं कि वह ऐसा हिमखंड हो सकता है, जो पहाड़ पर जमकर स्थिर नहीं हो सका और अलग ग्लेशियर के तौर पर टूट पड़ा और 200-300 किलोमीटर प्रति घंटे के वेग से जल-प्रलय फूट पड़ा! यह वेग बहुत तेज और बिजलीमय होता है, लिहाजा न जाने कितने पेड़-पौधे, पुल, सड़कें, भेड़-बकरियां, बस्तियां और छोटे बांध बह गए होंगे! पनबिजली परियोजनाओं में काम करने वाले कर्मचारी और मजदूरों में 200 से अधिक चेहरे अब भी लापता हैं।
यह सूचना खुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने साझा की है। मुख्यमंत्री का मानना था कि मरने वालों की संख्या करीब 125 तक हो सकती है। ऐसे प्रलय में आईटीबीपी के ‘देवदूत जांबाजों’ के हुनर और हौसले को सलाम करने का मन करता है, जिन्होंने एक सुरंग में मलबे, गाद और दलदल में फंसे 16 मजदूरों को नई जिंदगी दी। सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और स्थानीय प्रशासन के आपदा-देवदूतों की तुरंत उपस्थिति और हरकत में आने से कई जिंदगियां बची होंगी! सोमवार सुबह तक तपोवन बांध की करीब 2.5 किमी लंबी एक अन्य सुरंग में 30 और जीवन फंसे थे। बचाने का सिलसिला जारी था। स्थितियां इतनी विपरीत हैं कि भगवान भरोसे ही छोड़ देना चाहिए। बहरहाल सरकार हिसाब-किताब कर रही है, लेकिन बुनियादी चिंता यह है कि हिमालयी क्षेत्र में पहाड़ की शाश्वत नियति को टाला नहीं जा सका है। जिस ऋषिगंगा नदी पर सिर्फ 13.2 मेगावाट की पनबिजली परियोजना बनाई गई थी, दरअसल वह बफर क्षेत्र है। पर्यावरणविदों ने पॉवर प्रोजेक्ट बनाने से मनाही की थी। 2016 में भी इसी परियोजना को नुकसान पहुंचा था। अब एक निजी कंपनी के स्वामित्व में जून, 2020 में यह प्रोजेक्ट नए सिरे से शुरू किया गया था, लेकिन कहर और जलजले ने फिर ध्वस्त कर दिया। सब कुछ बहकर चला गया। बुनियाद तक तबाह हो गई। तपोवन-विष्णुगाड़ पनबिजली परियोजना 520 मेगावाट की थी और केंद्रीय कंपनी एनटीपीसी की 3500 करोड़ रुपए की परियोजना का 80 फीसदी काम पूरा हो चुका था। वह भी जल-प्रलय की बुरी तरह शिकार हुई है। दरअसल पर्यावरणविद लगातार कहते रहे हैं कि पहाड़ में कंकरीट के जंगल खड़े मत करो, पेड़ों को मत काटो, निर्माण-कार्य ही विकास नहीं है, चौड़े राजमार्गों के निर्माण भी रोके जाएं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बावजूद त्रासदियां लगातार होती रही हैं। पहाड़ के साथ खिलवाड़ की इनसानी फितरत अब भी जारी है।
गौरतलब है कि हिमालयी क्षेत्र में 3000 से ज्यादा ग्लेशियर हैं, जो नेपाल, भूटान, चीन में करीब 2000 किमी तक फैले हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान बढ़ रहा है, नतीजतन ग्लेशियर पिघल रहे हैं और टूट रहे हैं। एक शोधात्मक आकलन के मुताबिक, करीब 8 अरब टन पानी का हर साल नुकसान ग्लेशियर पिघलने से हो रहा है। एक विख्यात पर्यावरणविद ने चेतावनीपूर्ण भविष्यवाणी की है कि अरुणाचल प्रदेश में भी भीषण त्रासदी आने वाली है। केदारनाथ जल-प्रलय के बाद एक सरकारी संस्थान ने भारत सरकार को 25 सिफारिशें भेजी थीं। उनमें पर्यावरण और ग्लेशियर संबंधी विशेषज्ञों की राय थी कि ग्लेशियर की मैपिंग की जाए और उनमें होते परिवर्तनों पर लगातार निगरानी रखी जाए। तापमान कितना बढ़ रहा है? बर्फबारी कितनी है? भू-स्खलन और भू-गर्भीय हरकतें किस तरह चल रही हैं? इन तमाम पहलुओं पर लगातार निगाह रखी जानी चाहिए थी। कई अन्य पक्षों का भी अध्ययन करके नीतियां तय की जाएं। कमोबेश पहाड़ को पनबिजली परियोजनाओं और उससे प्राप्त धन के बारे पुनर्विचार करना चाहिए। बांध होंगे, तो विस्फोट भी किए जाएंगे। विस्फोट से पहाड़ भी टूटेगा और ग्लेशियरों में दरारें भी पड़ेंगी। ऐसा नहीं है कि पहाड़ों की सरकारें और उद्योगपति इस कटु यथार्थ को नहीं जानते। सवाल यह है कि क्या सबक सीखने के लिए जलजले और त्रासदियां ही जरूरी हैं?
3.बातचीत की पहल
पहले भरोसा कायम करना जरूरी
मौजूदा कृषि सुधारों के गतिरोध पर राज्यसभा में चर्चा का उत्तर देते हुए प्रधानमंत्री ने किसानों से प्रदर्शन खत्म करने का आह्वान करते हुए मिल-बैठकर बात करने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि मैं सदन से किसानों को निमंत्रण देता हूं। उन्होंने किसानों को भरोसा दिया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पहले भी था, एमएसपी है और भविष्य में भी रहेगा। इसको लेकर भ्रम नहीं फैलाया जाना चाहिए। निस्संदेह लंबे गतिरोध के बाद जब दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलनकारी किसान दो महीने से अधिक समय से जमे हुए हैं और पीछे हटने को तैयार नजर नहीं आते, तब सरकार की तरफ से बातचीत की पहल की उम्मीद तो की ही जा रही थी। तब भी जब किसान आंदोलन का मुद्दा देश की सीमाओं से निकलकर अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य तक जा पहुंचा है। जिसको लेकर कई देशों, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं व चर्चित हस्तियों की प्रतिक्रिया सामने आई है। राज्यसभा में प्रधानमंत्री ने बातचीत की जरूरत बतायी और आंदोलन को किसानों का हक बताते हुए धरने पर बैठे बुजुर्गों को घर भेजने जैसी बात कही, लेकिन आगे बातचीत का आधार क्या होगा, इसका खुलासा नहीं किया। बल्कि कृषि सुधार कानूनों को जरूरी बताते हुए इन्हें लागू करने का सही समय भी बताया। साथ ही कृषि मंत्री की सक्रियता का जिक्र करते हुए एक-दूसरे को समझने पर भी जोर दिया। साथ ही यह भी कहा कि हमें एक बार जरूर देखना चाहिए कि कृषि परिवर्तन से बदलाव होता है या नहीं। कोई कमी हो तो उसे ठीक करेंगे, कोई ढिलाई हो तो उसे कसेंगे। साथ ही विश्वास दिलाया कि मंडियां और अधिक आधुनिक बनेंगी। हम अच्छे सुझावों के साथ अच्छे सुधारों की दिशा में बढ़ेंगे। उन्होंने जिक्र किया कि चौधरी चरण सिंह भी मानते थे कि छोटे किसानों के हालात मुश्किल हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि 1971 में जहां एक हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों की संख्या 51 फीसदी थी, आज वह 68 फीसदी हो गई है। आज देश में 86 फीसदी किसान ऐसे हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है। इन बारह करोड़ किसानों के प्रति हमारी जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा कि लाल बहादुर शास्त्री को भी कृषि सुधारों का विरोध झेलना पड़ा था।
बहरहाल, इस मौके का उपयोग प्रधानमंत्री ने विपक्ष के हमलों के जवाब देने, विगत में हुई कृषि सुधारों की विभिन्न राजनीतिक दलों की कोशिश, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सुधारों की वकालत तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विरोध की मुहिम का जवाब देने के लिये भी किया। साथ ही विभिन्न राजनीतिक दलों की राज्य सरकारों के सुधार के प्रयासों का जिक्र किया। बहरहाल, अभी यह कहना कठिन है कि आंदोलनरत किसान प्रधानमंत्री की पहल को किस तरह लेते हैं। यह भी कि क्या सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अमलीजामा पहनाने की दिशा में आगे बढ़ेगी। बहरहाल, प्रधानमंत्री की अपील के बाद भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने आंदोलन को जाट आंदोलन कहने पर नाराजगी जताई। उन्होंने कहा कि पहले यह पंजाब, हरियाणा के किसानों का आंदोलन था, फिर इसमें जाट किसान जरूर जुटे, मगर अब यह छोटे किसानों का आंदोलन है। उन्होंने सरकार पर मसले को उलझाने का भी आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि हमने कब कहा कि एमएसपी खत्म हो जायेगी, हम तो कह रहे हैं कि कानून के जरिये एमएसपी को अनिवार्य बनाया जाये। एमएसपी कानून न होने से व्यापारी किसानों को लूटते हैं। यदि प्रधानमंत्री बात करना चाहते हैं तो किसान मोर्चा उनसे बातचीत करेगा। टिकैत ने यह भी कहा कि देश में भूख पर व्यापार नहीं होने दिया जायेगा। साथ ही कहा कि देश में पानी से सस्ता दूध बिक रहा है, उसका भी रेट तय होना चाहिए। आज जिस भाव किसानों का दूध बिक रहा है, उसमें उनकी लागत भी नहीं आती। दरअसल वे प्रधानमंत्री के उस बयान पर टिप्पणी कर रहे थे, जिसमें कहा गया था कि दुग्ध कारोबार में सहकारी व निजी क्षेत्र बेहतर ढंग से काम कर रहे हैं, खाद्यान्न उत्पादन में भी ऐसी ही आजादी छोटे सीमांत किसान को मिलनी चाहिए। उन्होंने साथ ही आश्वासन दिया कि किसानों के मंच पर राजनीतिक दलों को कोई इजाजत नहीं मिलेगी।
4.कोरोना पर काबू
कोरोना वायरस से लड़ने में भारत की दिखती कामयाबी जितनी सुखद लग रही है, उतनी ही उत्साहजनक भी है। भारत में अभी 60 लाख लोगों को भी कोरोना टीका नहीं लगा है, लेकिन तब भी कोरोना संक्रमण का काबू में आते दिखना अनायास ही आकर्षण का केंद्र बन रहा है। पिछले साल सितंबर के महीने में एक समय वह भी था, जब लगभग हर दिन देश में एक लाख से ज्यादा कोरोना मामले मिल रहे थे। अब प्रतिदिन करीब दस हजार मामलों का सामने आना एक महत्वपूर्ण संकेत है। आंकड़ों के हिसाब से देखें, तो 130 करोड़ की आबादी वाला विशाल भारत कोरोना मामलों को न्यूनतम स्तर पर ले आया है। सितंबर के बाद गिरावट का क्रम शुरू हुआ और अब जो स्थिति है, वह वैज्ञानिकों को हैरान कर रही है। भारत में जब कोरोना ने गति पकड़ी थी, तब पूरी दुनिया में चिंता थी कि भारत अपने कमजोर स्वास्थ्य ढांचे के साथ कैसे मुकाबला करेगा। हम कोरोना संक्रमण में लगभग शीर्ष पर पहुंच गए थे, लेकिन आखिर क्या हुआ कि यहां कोरोना सिमटने लगा? अब देखना है कि जैसे कोरोना परिवार की अन्य बीमारियां सार्स और मर्स अचानक गायब हो गईं, क्या कोरोना भी अचानक गायब हो सकता है? वैज्ञानिक अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में न तो कोरोना जांच कम हुई है और न सार्वजनिक स्थानों पर सावधानी। फिर भी मरीजों की संख्या कम हुई है और अब अस्पताल भी दबाव में नहीं हैं। ऐसी स्थिति में सामान्य मरीजों का भी इलाज शुरू हो गया है। ऐसे अनेक संस्थान और वैज्ञानिक हैं, जो भारत में कोरोना की पड़ताल कर रहे हैं, इसमें यह जानने की कोशिश भी शामिल है कि भारत ने कोरोना को काबू में करने के लिए क्या-क्या किया? यह बिल्कुल सही है कि भारत में ऐसे बहुत से इलाके हैं, जहां कोरोना दिशा-निर्देशों की पालना कड़ाई से की गई है, लेकिन बहुत विशाल क्षेत्र ऐसा भी है, जहां पर लोगों ने कोरोना को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। गनीमत रही कि महानगरों की तरह कोरोना गांवों में नहीं फैला। सवाल है कि क्या शहर में रहने वाले लोगों की तुलना में गांव में रहने वालों की रोग प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा बेहतर होती है? क्या उन इलाकों में कोरोना ने ज्यादा आतंक फैलाया, जो तुलनात्मक रूप से विकसित या कुछ संपन्न थे? कोरोना के अनुभवों के बाद भारत में सुरक्षित जीवन शैली को लेकर भी अध्ययन जरूरी हैं। जिन इलाकों में कोरोना नहीं फैला और जिन इलाकों में खूब फैला, दोनों ही जगह गहराई से अध्ययन करने की जरूरत है। भारत की जलवायु को भी एक बड़ी वजह माना जा रहा है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि ठंडी और शुष्क जगहों पर वायरस हवा में ज्यादा देर तक सक्रिय रहता है। गरम हवा और नमी वाली जगहों पर वायरस ज्यादा सक्रिय नहीं रह पाता। बंद जगहों की अपेक्षा खुली जगह ज्यादा सुरक्षित है। एक बड़ी वजह भारत में युवाओं की आबादी भी है। भारत में आधी से ज्यादा आबादी 25 साल से कम उम्र की है और महज छह प्रतिशत आबादी 65 साल से ज्यादा उम्र के लोगों की है। तो भारत की अच्छी भौगोलिक स्थिति और आबादी, दोनों पर अध्ययन जरूरी है, ताकि भारत को सेहतमंद बनाया जा सके। कुछ और दिन की सावधानी से भारत कोरोना को काबू में कर लेगा और शायद ज्यादातर लोगों को टीकाकरण की जरूरत भी नहीं पड़ेगी।