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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.मेयर के प्रत्यक्ष चुनाव
हिमाचल की राजनीतिक बिरादरी के लिए आगामी नगर निगम चुनाव एक ऐसे सफर की कहानी हो सकते हैं, जो कम से कम चार शहरी विधानसभा क्षेत्रों के नक्षत्र बदल दें। अब तक स्थानीय निकाय के चुनाव परिणामों के मध्य, राजनीति अपने तथ्यों और बयानबाजी की परख में समाज को कोई तस्वीर नहीं दिखा पाई है, लेकिन इनसे उत्साहित माहौल ने नगर निगम चुनावों का पूर्ण दोहन करने की ठानी है। मुख्यमंत्री के हालिया दौरों के परिप्रेक्ष्य में सत्ता पक्ष के मंसूबों का चित्रण कुछ इस कद्र होने लगा कि नगर निगम चुनावों को पार्टी चिन्ह पर लड़ते हुए भाजपा अपना विजय चिन्ह मान रही है। यह अलग तरह का गणित हो सकता है, लेकिन चुनाव की वजह स्थानीय सुशासन की नींव को सशक्त करके ही मजबूत होगी। शहरी चुनावों को नए धरातल पर परखने के लिए नगर निगम के दायरे में वोटिंग की ऩफासत किस कद्र विकसित होती है, यह भी देखना होगा। दरअसल हिमाचल में सत्ता और विपक्ष के दरम्यान पंचायत से नगर परिषद चुनावों तक मुकाबले की जंग और आंकड़ों की हिफाजत में आम जनता की जागरूकता भी काम नहीं आती। ऐसे में कांग्रेस के युवा नेता और राष्ट्रीय संयुक्त सचिव गोकुल बुटेल का सुझाव वाजिब है।
मेयर और डिप्टी मेयर के प्रत्यक्ष चुनाव से किसी भी शहर का नैतिक आचरण, नागरिक परिचय और सुशासन का परचम ऊंचा होगा। राष्ट्रीय स्तर पर नगर निगमों की भूमिका में मेयर का पद सियासत से ऊपर इसलिए देखा गया, क्योंकि प्रत्यक्ष चुनाव से जातिवाद, परिवारवाद तथा कलुषित राजनीति काफी हद तक दरकिनार होती है। हिमाचल की वर्तमान व्यवस्था में ढाई-ढाई साल की फेरी में चमक रहा रोस्टर, मेयर पद के प्रभाव और गरिमा को ही प्रदूषित कर रहा है। समाज के भीतर हम जातियां ढूंढ कर शहरी आवाम को भी एक खाके में रखना चाहते हैं। यह विडंबना है कि नगर निगम चुनाव के बहाने सत्ता व विपक्ष अपने राजनीतिक सामर्थ्य को फलते-फूलते देखना चाहते हैं और अब तो ओबीसी श्रेणी को भी आरक्षण के जरिए महिमामंडित करने की योजना है। ऐसे में जब सारा गणित ही जातिवादी सोच से ‘मेयर’ या डिप्टी मेयर पद को चुनेगा, तो चाहकर भी शहर अपने बौद्धिक स्तर को ठिगना बना कर ही चलेगा। आश्चर्य यह कि नगर निगम चुनाव भी उन्हीं मंचों पर होंगे, जिन पर कल तक पंचायत या दूसरे चुनाव होते रहे हैं। कमोबेश हर शहर को स्वतंत्र मेयर और डिप्टी मेयर की जरूरत इसलिए भी है ताकि पिछला ढर्रा बदले। अगर पालमपुर शहर को बैसाखियां बनकर वही पुरानी राजनीतिक तस्वीर ओढ़कर चलना पड़े, तो पारदर्शिता व जवाबदेही नहीं आएगी।
जनता जिस तरह नगर परिषद के भीतर राजनीतिक टीले देखती रही है, वैसी ही स्थिति में अब कोई मेयर बनकर सज जाएगा। यह जनता की पृष्ठभूमि से जुड़ा सवाल है और नगर परिषद से नगर निगम की विशालता से जुड़ा प्रश्न भी। जाहिर है कई पंचायतों को जोड़कर निगम बनाए गए हैं और इसीलिए इस परिवर्तन को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक स्वरूप में और सशक्त करना होगा। क्या हमारी शहरी जनता भी राजनीतिक बेडि़यों में उलझकर अपने बौद्धिक व आर्थिक स्तर पर स्वतंत्र पार्षद तथा मेयर नहीं चुनना चाहेगी या राजनीति के लिए यह खतरे की घंटी है। अगर कुछ पंचायतें सर्वानुमति से गैरराजनीतिक तौर पर बिना चुनाव के अपने पदाधिकारी चुन सकती हैं, तो शहरी जनता को अपने भविष्य के निर्णायक मोड़ पर पार्टी के चिन्ह और अप्रत्यक्ष प्रणाली के कवच में क्यों लड़ाया जा रहा है। जो सवाल गोकुल बुटेल ने पूछा या जिस सुझाव की जरूरत को आम शहरी भी दिल के करीब समझता है, उसे शीघ्र अमल में लाते हुए मेयर व डिप्टी मेयर के पद पर प्रत्यक्ष चुनाव करवाने चाहिएं। प्रदेश की जनता के सामने नगर निगम चुनाव तभी आदर्श बनेंगे, यदि पारंपरिक राजनीति से हटकर तमाम शहर अपने भीतर से सुशासन की नई तहजीब जोड़ पाएं, वरना यह अवसर भी सियासी उठापटक में पार्टियां हथिया लेंगी।
2.आंदोलन के ‘परजीवी’
प्रधानमंत्री मोदी ने संसद के उच्च सदन-राज्यसभा-में किसानों को आश्वस्त किया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) था, आज भी है और आगे भी रहेगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि एपीएमसी मंडियों को आधुनिक बनाएंगे। बजट में भी इसका प्रावधान किया गया है। इन कानूनों से कृषि में सुधार होकर आधुनिकीकरण किया जा सकेगा और अंततः किसान की आमदनी बढ़ेगी। कृषि-उपज का मुनाफा भी बढ़ेगा, लेकिन प्रधानमंत्री ने स्पष्ट संदेश दिया कि अब इन कृषि-कानूनों से पीछे हटने का सवाल ही नहीं उठता। अर्थात कथित विवादास्पद कानून वापस नहीं लिए जाएंगे। किसान आंदोलन की यही बुनियादी मांगें हैं कि कानून वापस लिए जाएं और एमएसपी की कानूनी गारंटी तय की जाए। प्रधानमंत्री के कथन के बाद किसान नेताओं के जितने भी बयान आए हैं, उनसे साफ है कि आंदोलित किसानों के कान पर जूं तक नहीं रेंगी है। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट आमंत्रण दिया है कि आओ, मिल-बैठ कर बात करें और समस्या का समाधान निकालें। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि सरकार और संसद द्वारा बनाए गए कानून अंतिम सत्य नहीं हैं। गलती और कमियां संभव हैं, लिहाजा संशोधन की गुंज़ाइश है। किसान आंदोलन के संदर्भ में यह बहु-प्रतीक्षित क्षण था, जब संसद में प्रधानमंत्री ने कोई आश्वासन दिया। प्रधानमंत्री भी संसद और संविधान से बंधे हैं।
यदि संसद में दिए गए आश्वासन से प्रधानमंत्री पीछे हटते हैं अथवा कोई और बात करते हैं, तो संसद में उनके खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाया जा सकता है। प्रधानमंत्री को इस्तीफा तक देने को बाध्य किया जा सकता है, लिहाजा आंदोलित किसानों के लिए, गतिरोध तोड़ने का, यह एक बेहतर अवसर है। जब खुद किसान नेता मानते हैं कि आपसी संवाद से ही समस्याओं के समाधान मिलते हैं, तो क्यों न प्रधानमंत्री को फोन किया जाए अथवा ई-मेल पर आग्रह किया जाए कि बातचीत उनकी अध्यक्षता में होनी चाहिए? प्रधानमंत्री के फोन नंबर और ई-मेल आईडी पूरे देश के सामने सार्वजनिक हैं। राष्ट्रपति अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्रियों-चौ. चरण सिंह, एचडी देवगौड़ा और डा. मनमोहन सिंह-के बयानों को उद्धृत किया, जिनमें कृषि-उपज के मुक्त बाज़ार की पैरोकारी की गई थी। यानी पूर्व प्रधानमंत्री भी खेती और किसानों के खुले बाज़ार के पक्षधर रहे हैं। बेशक भारत में कृषि-सुधारों की बहुत जरूरत है, क्योंकि करीब 86 फीसदी किसानों के पास औसतन दो हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है। उन्हें कर्ज़ माफी का भी फायदा नहीं मिल पाता, क्योंकि बैंकों से उन्हें कर्ज़ नहीं मिलता था। आंकड़े गवाह हैं कि भारत में विश्व की 2.3 फीसदी ज़मीन और 4 फीसदी पानी है, जबकि आबादी 18 फीसदी से अधिक है। देश की 50 फीसदी आबादी कृषि पर आश्रित है। जीडीपी में कृषि का योगदान 19 फीसदी से ज्यादा का है। प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों को संवाद का न्योता दिया है, लेकिन उन्होंने एक नई व्याख्या भी की है कि ‘आंदोलनजीवी’ नाम की एक जमात, एक बिरादरी सामने आई है। यह जमात ‘परजीवी’ है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि हम ‘श्रमजीवी’ और ‘बुद्धिजीवी’ सरीखे शब्दों से तो परिचित हैं, लेकिन ‘परजीवी आंदोलनजीवी’ ऐसे हैं, जो आंदोलन के बिना जीवित नहीं रह सकते। हालांकि इन शब्दों के लिए प्रधानमंत्री की घोर आलोचना की जा रही है।
कांग्रेस ने तो उन्हें ‘पूंजीपतिजीवी’ और ‘भाषणजीवी’ करार दिया है। विरोधियों ने महात्मा गांधी और मॉर्टिन लूथर किंग तक के उदाहरण देकर सवाल किए कि क्या वे आंदोलनजीवी, परजीवी अथवा विदेशी विध्वंसकारी विचारधारा के नेता थे? देश जानता है कि प्रधानमंत्री ने नई एफडीआई अर्थात ‘विदेशी विध्वंसकारी विचारधारा’ से सावधान रहने का आह्वान किया है। हम किसान आंदोलन के संदर्भ में ही ‘परजीवी विदेशियों’ के ट्वीट पढ़-देख चुके हैं और उस दुष्प्रचार की पृष्ठभूमि भी जानते हैं। हमें खालिस्तानी साजि़शों की भी जानकारी है। प्रधानमंत्री संसद के जरिए देश को सचेत क्यों न करें? लेकिन देश में एक ऐसी जमात जरूर है, जो दूसरों के फटे में टांग अड़ा कर, ‘क्रांति’ लाने की खुशफहमी में है। बेशक आंदोलन सभी भारतीयों का लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन कोई दूसरे नागरिकों के अधिकारों पर डाका नहीं डाल सकता। देश इस जमात को जानता है और उसके देश-विरोधी अभियानों को भी देखता रहा है। कोई भी देश से ऊपर नहीं है। देश सर्वप्रथम, सर्वोच्च है, लिहाजा प्रधानमंत्री किसानों को संवाद का आमंत्रण दे रहे हैं। अडि़यल रुख से कोई भी निष्कर्ष और समाधान नहीं मिल सकता, लिहाजा किसान नेताओं को आपसी विमर्श कर सकारात्मक होना चाहिए। सरकार और प्रधानमंत्री तो झुक कर न्योता दे ही रहे हैं।
3.परंपरा से आगे
किसी भी संसदीय लोकतंत्र की इससे अधिक खूबसूरत तस्वीर और क्या होगी, जब विपक्ष के एक कद्दावर नेता की सदन से विदाई के मौके पर सत्ता पक्ष के सबसे बडे़ नेता भावुक हो जाएं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल राज्यसभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद समेत चार सदस्यों के योगदान को जिस तरह सराहा और उन्हें भावी जीवन की शुभकामनाएं देते हुए जो कुछ कहा, वह महज परंपरा का निर्वाह नहीं था, उसमें संसदीय राजनीति के उच्च मूल्यों का महत्व पढ़ा जा सकता है। दुर्योग से, ऐसी तस्वीरें आजकल दुर्लभ हो गई हैं, मगर हकीकत यही है कि भारतीय लोकतंत्र के हाल तक के सफर में तमाम राजनीतिक रंजिशों और कटु बहसों के बावजूद सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं में निजी स्तर पर रिश्ते गरमाहट भरे रहे। प्रधानमंत्री ने 2006 में श्रीनगर के आतंकी हमले में मृत गुजराती लोगों के शवों को उनके गृह प्रदेश पहुंचाने की घटना का जिक्र करके यही बताने की कोशिश की कि कैसे संवेदना के स्तर पर सत्ता और विपक्ष की दूरियां पट जानी चाहिए। गुलाम नबी आजाद का लंबा संसदीय अनुभव रहा है और सत्ता व विपक्ष के विभिन्न बड़े पदों की जिम्मेदारी को उन्होंने जिस गंभीरता से निबाहा, इसके लिए खुद संसद ने उन्हें सम्मानित किया है, पर अपने विदाई भाषण में उन्होंने जिस तरह आम भारतीय मुसलमानों की सोच को ध्वनित किया है, उसकी सराहना की जानी चाहिए। भारतीय मुसलमान हमेशा अपने हिन्दुस्तानी होने पर फख्र करते रहे हैं और जब कभी भी सरहद पार से उनकी हिमायत में कोई कुटिल आवाज उठी, उसका खरा जवाब किसी अन्य समुदाय से पहले उन्होंने ही दिया। गुलाम नबी आजाद ने उचित ही इस मौके पर नकली खैरख्वाहों को स्मरण कराया कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक आदि मुल्कों के हालात देखिए, और फिर यह आकलन कीजिए कि ‘हम’ क्यों खुशकिस्मत हैं।
यह सही है कि भारत में भी कुछ कट्टरपंथी लोग माहौल बिगाड़ने के मौके तलाशते रहते हैं, पर भारतीय समाज का ताना-बाना, उसका मिजाज ही ऐसा है कि उसमें ऐसे तत्वों की दाल नहीं गलती। फिर भी, हमारे पुरखों ने 1947 में जिस भारत की कल्पना की थी, उसके आदर्श को अभी हमें हासिल करना है, और वह आदर्श सर्वश्रेष्ठ इंसानियत व भारतीयता की बुनियाद पर खड़ा होगा। विडंबना यह है, जिस राजनीतिक वर्ग पर इसके लिए मार्ग प्रशस्त करने का सर्वाधिक जिम्मा है, वह अब सत्तावादी लक्ष्यों से ज्यादा प्रेरित होने लगा है। सामाजिक विभेद में अवसर तलाशने की प्रवृत्ति राजनीतिक दलों और नेताओं के आपसी रिश्ते को भी नुकसान पहुंचाने लगी है। हमने कई राज्यों में बदले की राजनीति को प्रश्रय पाते देखा है। यह लोकतंत्र के लिए कतई सुखद नहीं है। हम नजरअंदाज नहीं कर सकते कि पड़ोसी मुल्कों में लोकतंत्र की जमीन बेहद भुरभुरी है, और वे हमसे प्रेरणा लेकर ही खडे़ होने की कोशिश करते हैं। उनमें लोकतंत्र का होना हमारे लिए भी महत्वपूर्ण है। इसलिए देश में संसदीय लोकतंत्र की कामयाबी के वास्ते सत्ता और विपक्ष को एक-दूसरे के सम्मान और अधिकारों की चिंता करनी होगी। अनुभवी सांसदों के कार्यकाल इस बात की गवाही देते हैं कि आपसी संवाद और सहमति के बिंदुओं की ईमानदार तलाश ने उन्हें जनता की नजरों में सुर्खरू किया है। नए सांसदों को उनसे सीखना चाहिए।
4.सख्ती पर सवाल
अभिव्यक्ति के नियमन में संवेदनशीलता जरूरी
हाल ही में बिहार सरकार के नये दिशा-निर्देशों के अनुसार किसी हिंसक विरोध-प्रदर्शन में शामिल युवाओं को सरकारी व अनुबंध की नौकरी पाने के हक से वंचित होना पड़ेगा। ऐसे किसी व्यक्ति के आचरण प्रमाणपत्र में ऐसे व्यवहार को अपराध की श्रेणी में दर्ज किया जाएगा। सरकार की मंशा है कि ऐसी पहल से युवाओं को हिंसक आंदोलन में शामिल होने से रोका जा सकेगा। निस्संदेह युवाओं का हिंसक गतिविधियों में लिप्त होना देश व समाज के हित में नहीं है, लेकिन कहीं न कहीं फैसले से यह भी ध्वनि निकलती है कि यह कदम एक नागरिक के लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति के अधिकार का अतिक्रमण है। यह भी कहा जा रहा है कि यह फैसला सख्त है और यह युवाओं की रचनात्मक अभिव्यक्ति में भी बाधक बन सकता है। खासकर उन परिस्थितियों में जब युवा किसी जायज मांग को लेकर आंदोलनरत हों और राजनीतिक व असामाजिक तत्व आंदोलन को हिंसक मोड़ दे दें तो निर्दोष लोग भी दोषी साबित किये जा सकते हैं। निस्संदेह सार्वजनिक जीवन में जब हम अपनी बात कहना चाहते हैं तो तमाशाई भीड़ जुटते देर नहीं लगती। ऐसे में असामाजिक तत्व मौके का फायदा निहित स्वार्थों के लिये उठा सकते हैं। कई परिस्थितियां ऐसी हो जाती है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन किसी वजह से अचानक उग्र हो जाता है। निस्संदेह किसी सभ्य समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। युवाओं को ऐसी किसी भी गतिविधि से दूर रहना चाहिए। लेकिन यदि निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा व्यवधान उत्पन्न करके जायज मांग को लेकर आंदोलनरत लोगों को भड़का दिया जाता है तो सामूहिक जवाबदेही में कई निर्दोष लोगों के फंसने की संभावना बनी रहेगी। ऐसे में बिहार सरकार की नई पहल कई तरह की चिंताओं को जन्म देती है।
ऐसा नहीं है कि पहले से ऐसे कोई कानून नहीं हैं, जिसमें हिंसा करने वालों व व्यवस्था विरोधी कार्यों में लिप्त लोगों को सरकारी नौकरियों के अयोग्य ठहराने का प्रावधान हो। लेकिन अब प्रदर्शन में हुई हिंसा में भागीदारी के लिये अयोग्य ठहराने की व्यवस्था की गई है। लेकिन सवाल यह भी है कि विभिन्न हिंसक राजनीतिक आंदोलनों में शामिल लोगों पर भी कोई ऐसा शिकंजा कसा जायेगा। देखने में आता है कि गंभीर हिंसक घटनाओं में लिप्त राजनेता और उनके पिछलग्गू बड़े-बड़े पदों पर काबिज होने में सफल हो जाते हैं। ऐसे में किसी व्यवस्था में दो तरह के कायदे-कानून तो नहीं हो सकते। इतना ही नहीं, ऐसे राजनीतिक आंदोलनों में दर्ज आपराधिक मामलों में लिप्त लोगों को सरकारों पर दबाव बनाकर निर्दोष साबित करने का प्रयास भी होता रहा है। यहां सवाल ऐसे मामलों को देखने वाली एजेंसियों व पुलिस के निरंकुश व्यवहार का भी है जो राजनीतिक व आर्थिक प्रलोभन में किसी निर्दोष को भी नाप सकती हैं। फिलहाल पुलिस से ऐसे संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद कम ही की जा सकती है कि वह केवल दोषियों को ही गिरफ्त में लेगी। कई घटनाक्रमों में पुलिस का निरंकुश व्यवहार सामने आता रहा है। हमारा स्वतंत्रता आंदोलन और आजादी के बाद संपूर्ण क्रांति के दौर में हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने कई निर्णायक आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिसमें युवाओं की निर्णायक भूमिका रही है। भले ही सरकार की मंशा गलत न हो मगर यहां क्रियान्वयन करने वाली एजेंसियों की संवेदनशीलता, विवेक व निष्पक्षता का प्रश्न उठता रहेगा। यह भी कि हम दूसरे विकल्पों पर विचार कर सकते हैं? वहीं दूसरी ओर उत्तराखंड पुलिस की उस घोषणा को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं, जिसमें कहा गया है कि पासपोर्ट व शस्त्र लाइसेंस के लिये आवेदन पर व्यक्ति के सोशल मीडिया रिकॉर्ड को खंगाला जायेगा। जिसकी पोस्ट व टिप्पणी नकारात्मक पायी जायेगी, उसका आवेदन निरस्त कर दिया जायेगा। पुलिस का कहना है कि पहले ही पासपोर्ट के आवेदन में ऐसे नियमों का प्रावधान रहा है, अब उन्हें लागू किया जा रहा है क्योंकि हाल ही में सोशल मीडिया का दुरुपयोग बढ़ा है। अभिव्यक्ति की आजादी के इस अतिक्रमण से इसे राजनीतिक दुराग्रह का अस्त्र भी बनाया जा सकता है।