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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.ममता तक कोयले की आंच
क्या केंद्रीय जांच एजेंसियां भारत सरकार की ‘तोता’ होती हैं? ‘तोता’ भी ऐसा, जो पिंजरे में बंद हो। न तो खुले आसमान में उड़ सके और न ही स्वच्छंद होकर सोच सके! हमें ऐसा सवाल नहीं करना चाहिए, क्योंकि 2013 में यूपीए सरकार के दौरान सर्वोच्च न्यायालय, सीबीआई के संदर्भ में, ऐसी टिप्पणी कर चुका है। बेशक सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो सरीखी एजेंसियां अपने-अपने क्षेत्र में प्रमुख हैं। इनकी जांच-पड़ताल की अपेक्षा और तटस्थता देश करता रहा है, लेकिन खासकर सीबीआई और ईडी की औसत सजा-दर एक फीसदी से भी कम है। यह अपने आप में सवालिया है। पश्चिम बंगाल में चुनाव करीब हैं और सीबीआई को अचानक कोयले के अवैध खनन और तस्करी का एक बड़ा घोटाला याद आ गया है। बंगाल में कोयले की कई खदानें लंबे वक्त से बंद पड़ी हैं, लेकिन उनमें खनन जारी रहा है और कोयले की चोरी की जा रही है।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सांसद-भतीजे अभिषेक बनर्जी, उनकी पत्नी रुजिरा और साली मेनका गंभीर की उस घोटाले में संलिप्त आपराधिकता इतनी संवेदनशील लगी कि सीबीआई ने चुनाव संपन्न होने की प्रतीक्षा तक नहीं की या नवंबर, 2020 में जब कुछ माफियाजनों की धरपकड़ की गई थी और घोटाले की प्राथमिकी भी दर्ज की गई थी, तब आरोपों की संवेदन-सुई ने ममता बनर्जी के घर की ओर संकेत नहीं किया था। सवाल है कि कोयला घोटाले का सरगना लाला अनूप मांझी और विनय मिश्रा आज भी कहां हैं? सीबीआई और अदालत को उन्हें ‘भगोड़ा’ क्यों घोषित करना पड़ा? ममता के भतीजे और बहू के नाम आज भी प्राथमिकी में नहीं हैं, जबकि बंगाल भाजपा के प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय दावा कर रहे हैं कि उन्होंने कुछ गंभीर दस्तावेज और साक्ष्य सीबीआई को दिए हैं। अब उनकी जांच जारी है। बेशक घोटालों की जांच अनिवार्य है, लेकिन सवाल है कि क्या राजनीतिक दल सीबीआई की प्रमाणिकता की पुष्टि कर सकते हैं? यदि ऐसा ही है, तो प्रमुख जांच एजेंसियों की तटस्थता पर भरोसा कैसे किया जा सकता है? हमने बीते 40 सालों के दौरान बड़े-बड़े घोटाले और सीबीआई जांच का विश्लेषण किया है। बेशक निष्कर्ष वही हैं, जिनके आधार पर सर्वोच्च अदालत ने नामकरण किया था। यकीनन भ्रष्टाचार और घोटालों की जांच होनी चाहिए, बेशक आरोपित की शख्सियत कुछ भी हो। लेकिन टाइमिंग का भी महत्त्व होता है।
राजनीति और चुनाव के दौरान यह महत्त्व बढ़ जाता है। कोयले को लेकर बेहद गंभीर घोटाले हुए हैं। सर्वोच्च अदालत को कोयला खदानों के आवंटन, जो भारत सरकार ने तय किए थे, के करीब 250 मामले खारिज करने पड़े थे। क्या यह महत्त्वपूर्ण सवाल नहीं है? मौजूदा संदर्भ में आरोप बताए गए हैं कि अभिषेक की पत्नी रुजिरा के लंदन और बैंकॉक स्थित बैंक खातों के जरिए करोड़ों रुपए का लेन-देन किया गया। वह कोयला तस्करी का ‘काला धन’ हो सकता है। मनी लॉन्डिं्रग का मामला भी संभव है। ये लेन-देन फर्जी कंपनियों के जरिए किए गए। यानी आरोप हैं कि बड़ा भ्रष्टाचार और उसकी आंच मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के घर तक पहुंच चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी सोमवार को एक जनसभा में कटमनी, सिंडिकेट, तोलाबाजी के आरोप मढ़ते हुए ममता की घेराबंदी करने की कोशिश की। भाजपा चुनाव प्रचार में बुआ-भतीजे के कथित भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बनाए हुए है, लिहाजा सीबीआई की यह जांच चुनाव को भी प्रभावित कर सकती है। बेशक देश के बहुमूल्य संसाधनों को लूटा जा रहा है, तो सीबीआई जांच जरूर करे और एक निश्चित निष्कर्ष देश के सामने रखे। ऐसा नहीं होना चाहिए कि मायावती, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरीखे विपक्षी नेताओं के खिलाफ सालों से आपराधिक मामलों की जांच जारी है, तो दूसरी तरफ नारायण राणे, रमेश पोखरियाल, शिवराज सिंह चौहान, येदियुरप्पा, मुकुल रॉय और हेमंत बिस्व सरमा सरीखे भाजपा के दिग्गज नेताओं के खिलाफ जांच ठप है अथवा बेहद मंथर गति से चल रही है। इस विरोधाभास के मद्देनजर ही सीबीआई को ‘तोता’ नामकरण दिया गया था। मौजूदा संदर्भ में भी सीबीआई या कोई अन्य जांच एजेंसी अपना संवैधानिक दायित्व निभाए, क्योंकि वही उसका असल किरदार है।
2.टॉप थर्टी से धरती तक
राजनीतिक स्पंदन और कंपन तो शुरू हुआ, अब देखना यह है कि हिमाचल सरकार के मिशन रिपीट में कांग्रेस कैसे खलल डालती है। अमूमन राजनीति से हटकर हिमाचली जनता की जागरूकता के कारण मुद्दे तल्ख और तख्ता पलट होता रहा है, लेकिन इस बार प्रदेश कांग्रेस का पाला ऐसी भाजपा से पड़ रहा है जिसने अभी-अभी पुड्डुचेरी में सत्ता छीनी है या इससे पूर्व मध्यप्रदेश समेत कुछ राज्यों में सत्ता की सियासत को नया नाम, नया मुकाम दिया है। बहरहाल कांग्रेस के सामने न हाथी के दांत हैं और न ही भाजपा के दांतों में फंसी सियासत को छीनने का पुराना रास्ता। पार्टी को सर्वप्रथम यह अंगीकार करना होगा कि सामने एक ऐसा पहलवान है जो जीत और जश्न के सारे नियम, सिंद्धात और राजनीति बदल चुका है। स्थानीय निकाय चुनावों का प्रबंधन रहा हो या कार्यसमिति बैठक का हुंकार, भाजपा अपनी संगठनात्मक शक्ति से दांव खेलते हुए प्रहारक है।
ऐसे में मुद्दों के दर्पण हर नागरिक के सामने खड़े करने पड़ेंगे और इसकी पहली बिसात चार नगर निगमों के चुनाव में बिछ चुकी है। ऐसे में कसौली में बैठक कर रही कांग्रेस का सुपर थर्टी क्लब अगर मंथन के बाहर निकलकर कारवां बनाने की ओर अग्रसर नहीं होता है, तो खुले आसमान में भाजपा को पकड़ना आसान नहीं। कांग्रेस का सामना भाजपा के संवाद की स्पष्टता और कार्यकर्ताओं के प्रतिबद्ध हुजूम से है। यह दीगर है कि देश में भाजपा की नीतियां मध्यम वर्ग को पीछे धकेल रही हैं, बुद्धिजीवी वर्ग के तर्कों को आफत में फंसा रही हैं और यहीं से बढ़ती महंगाई और उठते पेट्रोल-डीजल के दाम आहत कर रहे हैं। सत्ता की भागीदारी में भाजपा ने विभिन्न पार्टियों से नेता छीनने का अभियान जिस मुकाम पर पहुंचाने का तंत्र बुना है, उसका असर अगर आज पश्चिम बंगाल में दिखाई दे रहा है, तो कल हिमाचल में भी यह संभव है। राजनीति में नेताओं की अभिलाषा या स्वार्थ का मक्का बन रही भाजपा के पास, केंद्रीय सत्ता की ताकत का इजहार हर चुनाव की कसौटियां बढ़ा देता है। पिछले विधानसभा चुनाव में हुई छापेमारी के दंश वीरभद्र सिंह तक पहुंचे, तो इस कीचड़ का हिसाब नगर निगम चुनावों में होगा। नगर निगमों से जुड़े विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस के विधायक कितना आक्रमण झेल पाएंगे या नए स्तर भी राजनीति का पारा बढ़ा पाएंगे, इसे भांप और माप रही भाजपा सोलन, पालमपुर और मंडी की किश्ती में अपने नए नाविक भी देख रही है। धर्मशाला नगर निगम का उदय और स्मार्ट सिटी के अस्तित्व के बीच में भाजपा के दो विधायक अपने-अपने तौर तरीकों की फांस में रहे, तो वहां कांग्रेस और खासतौर पर वीरभद्र के रणनीतिक कौशल के पदचिन्ह कैसे सुर्ख होते हैं, देखना होगा।
भाजपा सरकारों में पहले धूमल की सत्ता ने हिमाचल भवन से क्षेत्रीय सम्मान का झंडा उतारा था, तो अब की बार दूसरी राजधानी का तमगा फाड़ते हुए वर्तमान सरकार ने तीन साल गुजार दिए। स्मार्ट सिटी जैसे मुद्दों पर कांग्रेस अपने विरोधी पक्ष के गाल लाल कर पाती है, इसमें दर्ज किंतु परंतु हैं। मंडी की बादशाहत में भले ही सुखराम खुद को सुबह का भूला बता कर कांग्रेस में लौट आए हैं, लेकिन अनिल शर्मा अपना मंत्री पद गंवा कर भी कहां चिपके हैं, उन्हें मालूम नहीं। इससे पहले कि भाजपा उन्हें और हलाल करे, कांगेस में दम है तो इस विधायक से इस्तीफा दिला कर अपनी विरासत का नया तिलक धारण करे। मंडी नगर निगम के चुनावों में शहर की संवेदना या सहानुभूति का प्रश्न मुंहबाये खड़ा है। वहां मंडी को हासिल मुख्यमंत्री का पदक है और सामने वर्षों से पंडित सुख राम की सलतनत भी है। शिमला में सत्ता की ताकत के बावजूद वीरभद्र सिंह की अपील और कामरेडों के सियासी थीम का असर देखा जाएगा। नगर निगम चुनावों तक भाजपा की सत्ता के सबसे अहम फैसले रूपांतरित होंगे और एक नई पृष्ठभूमि से मुलाकात भी होगी। अपनी विडंबनाओं से बाहर निकलने की एक कोशिश कांगे्रस कसौली में कर रही है। पार्टी की सुपर-30 लीग में प्रदेश के प्रभारी राजीव शुक्ला कितनी क्रिकेट आजमा पाते हैं, लेकिन यहां उनका सामना भाजपा के प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना से है जो प्रदेश में प्रत्यक्ष मौजूद हैं। कांगे्रस के कदमताल में अगले मुख्यमंत्री का चेहरा, चमक और सबब कैसे बनता है, यह कई नेताओं की आरजू और जुस्तजू की तरह मौजूद है। अतः असली ललकार के लिए टॉप थर्टी के जमावड़े को धरती पर हजारों कदम जोड़ने होंगे।
3.सतर्कता का समय
महाराष्ट्र समेत कुछ राज्यों में कोरोना संक्रमण के नए मामले गंभीर चिंता के विषय हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कई दिनों पहले राज्य के लोगों को आगाह किया था कि वे लापरवाही न बरतें, और अगर उन्होंने कोरोना दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया, तो फिर मजबूरन सरकार को सख्त कदम उठाने पड़ेंगे। मुख्यमंत्री की चिंता की तस्दीक यह तथ्य कर देता है कि राज्य में 10 फरवरी से संक्रमण के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं और 22 फरवरी तक ही लगभग 60 हजार नए लोग इस घातक वायरस की चपेट में आ चुके हैं। जाहिर है, अमरावती में लॉकडाउन की वापसी हो चुकी है। कई अन्य जिलों में भी नियम सख्त कर दिए गए हैं। इधर दिल्ली, पंजाब में भी कुछ एहतियाती कदम उठाए गए हैं। महाराष्ट्र के अलावा मध्य प्रदेश, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, छत्तीसगढ़ और हरियाणा में संक्रमण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। यह बढ़ोतरी 11 प्रतिशत से लेकर 81 फीसदी तक दर्ज की गई है। साफ है, देश में महामारी की नई लहर का खतरा मंडराने लगा है और किसी तरह की उदासीनता हालात को एक बार फिर गंभीर मोड़ पर ले जा सकती है। पिछले दिनों जब केरल में मामले तेजी से बढ़े थे, तब यह आशंका जताई गई थी कि कहीं इसके पीछे वायरस के नए वेरिएंट का योगदान तो नहीं है। इस बात की जांच अभी की जा रही है। मुंबई, केरल, पंजाब और बेंगलुरु के एकत्र सैंपल के जीनोम एनालिसिस के बाद ही विशेषज्ञ किसी नतीजे पर पहुंचेंगे। हालांकि, यह संतोष की बात है कि देश में टीकाकरण अभियान तेजी से आगे बढ़ रहा है और सोमवार तक एक करोड़, 14 लाख से अधिक लोगों को टीके लगाए जा चुके हैं। अगले चरण में 27 करोड़ लोगों को टीके लगाने का लक्ष्य है। इस कार्य में तेजी लाने के लिए निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सुखद यह है कि कुछ परोपकारी उद्यमियों ने सहयोग का भरोसा भी दिया है। दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत भी एक बेहद मुश्किल दौर से निकलकर यहां तक पहुंचा है। लेकिन इसकी चुनौतियां कहीं बड़ी हैं, क्योंकि न सिर्फ इस पर अपनी विशाल जनसंख्या का भार है, बल्कि कोरोना से जंग में 70 से भी अधिक देश इसकी तरफ टकटकी लगाए बैठे हैं। भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को भी पटरी पर वापस लाना है। अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्षण तो दिखाई दे रहे हैं, और इसकी मुनादी तमाम प्रतिष्ठित रेटिंग एजेंसियां भी कर रही हैं। मगर कोरोना को लेकर कोई भी नकारात्मक खबर इसकी आर्थिक प्रगति को बाधित कर सकती है। कोरोना के खिलाफ अब तक की जंग में तमाम उपलब्धियों के बावजूद कुछ चूक ऐसी हैं, जो लंबे समय तक इंतजामिया को चिढ़ाती रहेंगी। ये चूक नागरिकों के स्तर पर नहीं, बल्कि सरकारों के स्तर पर हुई हैं। खासकर बिहार और मध्य प्रदेश से कोरोना जांच में जैसी गड़बड़ियां उजागर हुई हैं, वे बताती हैं कि इतने गंभीर मामले में भी प्रशासनिक अमले का रवैया नहीं बदलता। यकीनन, आबादी और स्वास्थ्य सुविधाओं के मुकाबले भारत को महामारी से कम नुकसान हुआ, फिर भी देश इस तथ्य को नहीं बदल सकता कि उसके 1,56,400 से अधिक नागरिक अब तक इस महामारी की भेंट चढ़ चुके हैं। इसलिए प्रशासनिक तंत्र से लेकर नागरिक स्तर पर अभी पूरी सतर्कता बरती जानी चाहिए। किसी चूक के लिए कहीं कोई गुंजाइश न रहे।
4.राजनीति का पराभव
निष्ठाओं के फेर में सरकार की विदाई
पुडुचेरी में कांग्रेस गठबंधन सरकार के गिरने से पहले राज्य में जो राजनीतिक उलटफेर हुआ वह हमारी राजनीतिक विद्रूपताओं का आईना ही कहा जायेगा। यूं तो उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच टकराव की लंबी दास्तां कई वर्षों से उजागर हो रही थी। लेकिन उपराज्यपाल और सरकार की विदाई एक साथ होने के समीकरणों ने आम आदमी को चौंकाया है। बहरहाल, विश्वासमत में हार जाने के बाद मुख्यमंत्री वी. नारायणसामी, कांग्रेस-द्रुमुक व निर्दलीय विधायकों के इस्तीफे के बाद तय हो गया है कि आसन्न चुनाव उपराज्यपाल की देखरेख में ही होंगे। वहीं नारायणसामी ने मनोनीत तीन विधायकों को स्पीकर द्वारा मतदान का अधिकार देने को लोकतंत्र की हत्या बताया, जिसके लिए पुडुचेरी की जनता आसन्न चुनावों में भाजपा व उसके सहयोगी दलों को सबक सिखायेगी। दरअसल, कांग्रेस-डीएमके गठबंधन के कई विधायकों के इस्तीफे के बाद सरकार अल्पमत में आ गई थी। बल्कि विपक्ष में सरकार से ज्यादा विधायक थे। वहीं नारायणसामी आरोप लगाते रहे हैं कि केंद्र सरकार ने पूर्व उपराज्यपाल तथा विपक्षी दलों के साथ मिलकर उनकी सरकार को लगातार अस्थिर किया है। इसके बावजूद कांग्रेस के विधायक पांच साल तक पार्टी में एकजुट रहे तथा इस दौरान हुए सभी उपचुनाव भी जीते, जिसका निष्कर्ष यही है कि पुडुचेरी की जनता हमारे साथ है। केंद्र ने राज्य की विकास योजनाओं के लिए धन न उपलब्ध करा पुडुचेरी की जनता से छल किया है। दरअसल, वी. नारायणसामी सरकार का संकट उस वक्त शुरू हुआ जब विश्वास मत से एक दिन पूर्व रविवार को सत्ताधारी कांग्रेस व डीएमके गठबंधन के दो विधायकों ने इस्तीफा दे दिया, जिससे सदन में सत्तारूढ़ गठबंधन में विधायकों की संख्या ग्यारह रह गई थी जबकि विपक्ष के पास चौदह विधायक थे। इससे पूर्व कांग्रेस के चार विधायक पहले ही इस्तीफे दे चुके थे। इसी राजनीतिक उथल-पुथल के बीच उपराज्यपाल किरण बेदी की विदाई ने सबको हैरत में डाला।
हालांकि, किरण बेदी अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा कर चुकी थीं, लेकिन उनको हटाये जाने की टाइमिंग ने कई सवालों को जन्म दिया। उनके जाने के बाद तेलंगाना की राज्यपाल डॉ. तमिलिसाई सुंदरराजन को पुडुचेरी का उपराज्यपाल बनाया गया। नारायणसामी लगातार आरोप लगाते रहे थे कि किरण बेदी चुनी गई सरकार को काम नहीं करने दे रही हैं। उन्होंने किरण बेदी की मनमानी के खिलाफ उपराज्यपाल भवन के सामने वर्ष 2019 में छह दिनों तक धरना दिया था। यहां तक कि पिछले दिनों जब वे उपराज्यपाल को हटाने के लिये राष्ट्रपति को ज्ञापन देने गये तो उन्होंने उससे पहले उपराज्यपाल भवन के सामने धरना दिया। बेदी की विदाई पर उन्होंने कहा कि उन्होंने राष्ट्रपति से कहकर उन्हें हटाया है। राजनीतिक पंडित कहते हैं कि भाजपा ने किरण बेदी को अप्रैल-मई में तमिलनाडु में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर हटाया है ताकि यह संदेश न जाये कि सरकार गिराने के खेल में केंद्र व किरण बेदी शामिल रहे हैं। कुल मिलाकर पुडुचेरी में पांच साल चले उपराज्यपाल व मुख्यमंत्री के बीच टकराव से लोगों में केंद्र के प्रति जो नकारात्मक धारणा बनी, उसे दूर करने के प्रयास के रूप में उनकी विदाई को देखा जा रहा है। बहरहाल, पुडुचेरी का राजनीतिक घटनाक्रम हमारी राजनीति में सिद्धांतों के पराभव की हकीकत को दर्शाता है कि क्यों कुछ विधायकों ने सरकार में रहने के बावजूद सरकार गिराने में भूमिका निभाई। क्यों उनकी राजनीतिक निष्ठाएं सरकार के अंतिम वर्ष में बदलती नजर आईं। क्यों उन्होंने उस जनादेश से छल किया जो उन्हें सरकार में बैठने के लिये एक राजनीतिक दल के विधायक के रूप में मिला था। क्या उनके निजी हित जनविश्वास और पार्टी हित से बड़े हो गये थे कि उन्होंने सरकार गिराने को प्राथमिकता दी? वे कौन से कारण थे जिन्होंने उन्हें पाला बदलने के लिये बाध्य किया? सही मायनों में ये सैद्धांतिक राजनीति के मूल्यों में गिरावट का भी परिचायक है कि वोट किसी और पार्टी के नाम पर लिया और भला किसी और पार्टी का किया।