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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.बुरा दौर नहीं गुजरा
एक बार फिर कोरोना की शर्तों में इनसानी जिंदगी का रखरखाव शुरू हो रहा है, तो एहतियाती कदमों को चिन्हित करना पड़ेगा। राष्ट्रीय स्तर पर जो राज्य फिर कोरोना की सीमा से बाहर हुए हैं, उनमें पड़ोसी पंजाब की स्थिति हिमाचल के लिए चेतावनी देती हुई प्रतीत हो रही है। सतर्कता के नए आलम में दिल्ली जैसे राज्य ने सुरक्षा की कुछ दीवारें चुनी हैं तो हिमाचल को भी चिकित्सा खतरों को अंगीकार करना ही पड़ेगा। हिमाचल जिस तरह व्यापार, बाजार, सामाजिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक समारोहों के लिए खुल चुका है या प्रशासनिक व राजनीतिक गतिविधियों के आगमन को स्वीकार कर रहा है, उसके कारण बाहरी व आंतरिक परिवेश की चुनौतियां निरंतर बढ़ रही हैं या आने वाला समय इसकी इतलाह दे रहा है। कोरोना की गलियों में भले ही हिमाचल का रिकार्ड सुधरा है, लेकिन सुरक्षित आवरण की तैयारियों को छोड़ा नहीं जा सकता। स्कूल-कालेजों के बाद विश्वविद्यालयों में छात्र आगमन के साथ जो बहारें देखी जाएंगी, उनमें अभी से खामियां व छूट बढ़ती जा रही है।
इसी तरह पर्यटन के लिए खुला प्रदेश अपने आमंत्रण में इस कद्र फिदा है कि युवा सैलानी माहौल को खुशमिजाज बनाते हुए, यह भूल रहे हैं कि देश के कई अन्य भागों में कर्फ्यू जैसी नौबत इसलिए आई क्योंकि मनोरंजन की बाध्यता में, कोरोना काल की शर्तें नहीं निभाई गईं। ऐसे में पर्यटन के आगामी सीजन को अगर बचाना है, तो तमाम डेस्टिनेशन तक चौकसी, सतर्कता के साथ-साथ पुलिस बंदोबस्त बढ़ाने पड़ेंगे। ट्रैवल व टूरिज्म उद्योग को पूर्व निर्देशित आचार संहिता के भीतर यह सुनिश्चित करना है कि व्यापार को बचाते-बचाते कहीं फिर से पर्यटन के किवाड़ बंद न हो जाएं। ऐसा देखा जा रहा है कि परिवहन की गति बढ़ते ही बसों के भीतर आवश्यक सेनेटाइजेशन की शर्त भी कहीं गुम हो गई और धीरे-धीरे पटरी पर लौटती जिंदगी ने बाहरी खाद्य पदार्थों या रेहड़ी-फड़ी पर बिकते एहसास को निरंकुश बना दिया। इन्हीं उमंगों का ताज पहन कर उत्सव व महोत्सव लौट रहे हैं। शिवरात्रि आगमन की घंटियां बज उठी हैं, तो हिमाचल का शैव पक्ष अपने भीतर की देवभूमि का प्रकटीकरण किस हद तक करेगा, यह आवश्यक चुनौती की तरह है। मंडी शिवरात्रि अपने महोत्सव की रौनक का कितना विस्तार कर सकती है, यह सोचना आवश्यक हो जाता है। इसी के साथ ग्रामीण मेलों का आगाज आगे चलकर जिस सांस्कृतिक फलक पर होने जा रहा है, वह होली के रंगों सरीखा होगा या तमाम वर्जनाओं के पीछे छिंजों के झंडे फहराए जाएंगे। हिमाचल के लिए नगर निगम चुनाव असली अग्नि परीक्षा इसलिए भी पैदा करते हैं, क्योंकि इससे पूर्व स्थानीय निकाय चुनावों के परिणामों पर चर्चा हुई है, लेकिन कोरोना परीक्षण अभी तक सामने नहीं आए हैं।
शहरी परिवेश में चुनाव की पगडंडियां अब जिस तरह राजनीतिक चिन्हों से सजनी शुरू हुई हैं, उससे मानवीय फितरत के बिगड़ैल होने के खतरे बढ़ेंगे। हर जमावड़ा अपने साथ बंदिशें नहीं जोड़ना चाहता, लिहाजा नगर निगम चुनाव वक्त की कठोरता पर चलते हुए खतरे पैदा कर सकते हैं। पंजाब का हर रिकार्ड हिमाचल को छूता है और इसीलिए प्रदेश के व्यापारिक, पारिवारिक व सांस्कृतिक रिश्तों का स्पर्श अगर सीमांकित नहीं किया, तो अतीत के अध्याय खुल सकते। सरकारी मशीनरी में आई शिथिलता तथा आर्थिक बेचैनी के कारण, जनता यह नहीं चाहेगी कि फिर से लॉकडाउन जैसे उपाय थोपे जाएं। ऐसे में फिर से बचाव के मूल मंत्र अपनाने का सहयोग अगर जनता को दिखाना है, तो सरकार को पहरेदारी का एक नया दौर शुरू करना होगा। भीड़ को सबसे अधिक प्रश्रय राजनीतिक मंशा दे रही है या मनोरंजन की परंपराओं में लौटते समाज को अब यह लगने लगा है कि बुरा दौर गुजर गया। इस परीक्षा में कोई भी परिणाम स्थायी तौर पर आत्मसंतोष पैदा नहीं कर सकता, बल्कि हर किसी के सामने खुद को बचाने की नित नई चुनौती सामने आ रही है। जब तक वैक्सीन के लक्ष्यों में अधिकतम आबादी सूत्रधार नहीं बनती, चहल-पहल की हर सतह पर शैतान कोरोना के कदम बिना सुराग के भी अनुभव करने होंगे।
2.कैसे थमेगा यह कोरोना विस्तार?
कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण की बुनियादी वजह गलतफहमी और आम लापरवाही है। चूंकि देश में संक्रमण सिकुड़ रहा था। संक्रमित मरीजों और मौतों की संख्या घट रही थी। अस्पतालों में कोविड बिस्तर खाली पड़े थे और उपचाराधीन मरीजों की संख्या 10 लाख से घटकर करीब 1.47 लाख तक लुढ़क आई थी, लिहाजा आम सोच पुख्ता होने लगी कि कोरोना का अवसान हो रहा है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी और जिम्मेदार चिकित्सक आगाह करते रहे, लेकिन सार्वजनिक तौर पर भीड़ जमा होने लगी, दो गज की दूरी बेमानी हो गई और चेहरों से रहे-सहे मास्क भी खिसकने लगे। यही लापरवाही थी और गलतफहमी भी थी, लिहाजा ‘वार्निंग सिग्नल’ साबित हुआ। अमरीका और यूरोपीय देश आज तक इस गलतफहमी को झेल रहे हैं। कई देशों में दोबारा लॉकडाउन लागू करने पड़े हैं। फिर भी संक्रमण और मौतों का सिलसिला जारी है। भारत में भी लापरवाही के नतीजे भयानक होते जा रहे हैं।
करीब 86 फीसदी संक्रमित मामले महाराष्ट्र, केरल, पंजाब, तमिलनाडु, कर्नाटक और गुजरात राज्यों में ही दर्ज किए गए हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा आदि में भी संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं। करीब 82 फीसदी मौतें सिर्फ पांच राज्यों में ही हुई हैं। मौत का राष्ट्रीय औसत अब भी 1.42 फीसदी है। कोरोना को पराजित कर घर लौटने वालों की दर भी 97 फीसदी से अधिक है। संक्रमण की दर भी 1.33 फीसदी है। आंकड़े और औसत राहत देने वाले हैं, लेकिन सबसे बड़ी चिंता महाराष्ट्र से थी और मौजूदा हालात में भी है, जहां वासिम जिले के एक स्कूल में 229 छात्र एक साथ संक्रमित पाए गए हैं। राज्य में संक्रमण की रफ्तार 132 फीसदी से बढ़ रही है। बुधवार को अकेले महाराष्ट्र से एक ही दिन में 8800 से ज्यादा संक्रमित मरीज सामने आए। बीते 24 घंटों में देश भर में कोरोना से 104 मौतें हुई हैं, जबकि महाराष्ट्र में ही 51 मौतें दर्ज की गईं। अर्थात करीब 50 फीसदी…! चिकित्सक कोरोना संक्रमण के इस विस्तार को नैसर्गिक प्रक्रिया मानते हैं। यह वायरस के अस्तित्व का सवाल है। प्रख्यात चिकित्सकों का मानना है कि कोरोना एक भयानक, बहरूपिया और शातिर वायरस है, जो मानव-देह में घुसने के बाद हजारों-लाखों विषाणुओं को फैलाता है। वे मरते हैं, लेकिन फिर भी सक्रिय रहते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में 7000 से अधिक कोरोना वायरस की नस्लें पैदा हो चुकी हैं, लिहाजा साउथ अफ्रीका और ब्राजील के नए प्रकार ही इतना बड़ा खतरा नहीं हैं। कोरोना का खात्मा इतना आसान नहीं है। अब जो संक्रमण फैल रहा है, वह कितना भयानक साबित होगा, फिलहाल उस पर अध्ययन किए जा रहे हैं। कोरोना का नया विस्तार सरकारों के लिए चिंता का नया सबब है। प्रधानमंत्री दफ्तर ने शीर्ष नौकरशाहों के साथ आपात बैठक की। उसी के बाद केंद्रीय टीमें 10 राज्यों में भेजी जा रही हैं।
वे आकलन करेंगी कि प्रभावित राज्यों में नए सिरे से कोरोना संक्रमण बढ़ने के कारण क्या हैं और इन स्थितियों पर कैसे काबू पाया जा सकता है? आखिर यह संक्रमण कैसे थम सकेगा? इसी संदर्भ में टीकाकरण की गति को तेज करने के लिए अब निजी क्षेत्र को भी जोड़ने का फैसला किया गया है। फिलहाल देश में कोरोना टीकाकरण की औसत गति 0.8 फीसदी ही है। हम कई देशों से पिछड़े हैं। बहरहाल अब एक मार्च से 50-60 साल और उससे ज्यादा उम्र के आम नागरिकों को टीका देने का अभियान शुरू हो रहा है। उसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी भी है। टीका हमारे लिए ‘संजीवनी’ समान है। यह अनुभव दुनिया के कई देश कर चुके हैं। यदि टीका लगेगा, तो मानव-देह में रोग प्रतिरोधक क्षमता बनने लगेगी। उसका भी वक्त तय है, लेकिन इलाज की शुरुआत तो होनी चाहिए। टीका लेने से परहेज या संकोच क्यों सामने आ रहे हैं? यह विष का इंजेक्शन नहीं है। हम चेचक, खसरा, हेपेटाइटिस, पोलियो आदि की रोकथाम के लिए टीके लेते रहे हैं। सिलसिले अब भी जारी हैं, लेकिन यह वयस्क टीकाकरण का हमारा पहला प्रयोग है, लिहाजा चुनौतीपूर्ण भी है। कोरोना टीकों का उत्पादन भारत में ही हो रहा है। आगामी तीन-चार महीनों में कुछ और टीके हमारे सामने उपलब्ध होंगे। फिलहाल यह टीकाकरण और मास्क पहनने की अनिवार्यता ही हमें कोरोना के नए हमले से बचा सकती है।
3.शालीनता के लिए
सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्मों पर बढ़ती अराजकता, अभद्रता व अश्लीलता को लेकर लगातार यह मांग की जा रही थी कि भारत सरकार इनके नियमन व निगरानी को लेकर हस्तक्षेप करे। केंद्र सरकार ने इस संदर्भ में दिशा-निर्देश जारी करते हुए अब एक कानून लाने का फैसला किया है। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावडे़कर ने कल संवाददाता सम्मेलन में साफ किया कि सरकार अगले तीन महीनों में यह कानून लागू करने जा रही है। दिशा-निर्देशों के मुताबिक, अब सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर प्रसारित-प्रकाशित किसी भी आपत्तिजनक सामग्री को शिकायत मिलने के 24 घंटे के अंदर हटाना होगा। गौरतलब है, पिछले महीने ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम पर प्रसारित शृंखला तांडव को लेकर विवाद खड़ा हुआ था और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया था। तब आला अदालत ने इसके निर्माताओं को गिरफ्तारी से बचने के मामले में राहत देने से इनकार करते हुए टिप्पणी की थी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं है। इसमें कोई दोराय नहीं कि सोशल मीडिया ने लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी का वास्तविक एहसास कराया और अब तो इसके विभिन्न मंच जनमत-निर्माण में प्रभावशाली भूमिका निभाने लगे हैं। भारत में इनकी पहुंच कितनी बड़ी है, इसकी तस्दीक केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद द्वारा पेश किए गए आंकडे़ ही करते हैं। देश में इस समय वाट्सएप का इस्तेमाल करने वालों की संख्या जहां करीब 53 करोड़ तक पहुंच गई है, तो वहीं फेसबुक के उपयोगकर्ताओं की तादाद 40 करोड़ से अधिक हो चुकी है। इसी तरह, ट्विटर पर भी एक करोड़ से अधिक भारतीय सक्रिय हैं। इस विशाल संख्या को देखते हुए ही राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने यहां आईटी सेल का गठन किया और उनकी बड़ी-बड़ी टीमें इन दिनों काफी सक्रिय हैं। कई बार तो भ्रामक खबरें फैलाने और अशालीन सामग्रियां तैयार करने के आरोप इन टीमों पर भी लगे हैं। विडंबना यह है कि सोशल मीडिया कंपनियों को ऐसे विवादों से व्यावसायिक लाभ होता है। इसलिए वे इसकी अनदेखी करती रहती हैं। वे लाख दावे करें, मगर उनकी कार्यवाइयां पक्षपातपूर्ण रही हैं। अमेरिका और यूरोप में तो वे काफी चौकसी बरतती हैं, मगर भारत में शिकायत के बावजूद कदम उठाने से कतराती हैं। ऐसे में, हरेक महीने शिकायतों की संख्या और उन पर कार्रवाई के ब्योरे उजागर करने से पारदर्शिता सुनिश्चित होगी। बहरहाल, सरकार की मंशा एक साफ-सुथरा, निष्पक्ष डिजिटल मैदान तैयार करने की भले हो, उसे प्रस्तावित कानून में इस बात का पूरा ख्याल रखना होगा कि इसके किसी प्रावधान से अभिव्यक्ति की आजादी को कोई आंच न पहुंचे। चूंकि यह लोकतंत्र का बुनियादी गुण है, इसलिए इसमें कोई कमी गंभीर नुकसान की वजह बन सकती है। एक आदर्श लोकतंत्र को कायदे-कानूनों की कम से कम जरूरत होनी चाहिए, और उसे स्थापित स्वस्थ मूल्यों व परंपराओं से ही अधिक संचालित होना चाहिए, पर यदि कानून बनाने की बाध्यता आ ही जाए, तो उसके दीर्घकालिक परिणामों पर गंभीर मंथन जरूरी है। इन डिजिटल प्लेटफॉर्मों के लिए स्व-नियमन की व्यवस्था सही है। इसके पीछे यही संदेश है कि भारत लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति जागरूक देश है और सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा व नागरिक-हितों की रक्षा उसकी चिंता के मूल में है।
4.अमन की राह
भारत-पाक संघर्ष विराम को तैयार
यह सुखद ही है कि भारत व पाकिस्तान के बीच सीमा पर सख्ती से संघर्ष विराम लागू करने पर न केवल सहमति ही बनी बल्कि लागू भी हो गई। साथ ही यह भी कि पिछले समझौतों को भी गंभीरता से लेकर पालन किया जायेगा। दरअसल, दोनों सेनाओं के सैन्य अभियानों के महानिदेशक यानी डीजीएमओ के मध्य एलओसी पर लगातार जारी गोलाबारी की बड़ी घटनाओं के बाद यह बातचीत बुधवार को हुई और बृहस्पतिवार से यह संघर्ष विराम जमीनी हकीकत भी बन गया। यह सहमति केवल एलओसी पर ही नहीं बल्कि अन्य सेक्टरों पर भी लागू होगी। इसके अंतर्गत चौबीस व पच्चीस फरवरी की मध्यरात्रि से ही गोलाबारी रोकने का फैसला हुआ। निस्संदेह सीमा पर लगातार जारी संघर्ष विराम न केवल सेना के स्तर पर बल्कि निकटवर्ती ग्रामीणों के स्तर पर भी घातक साबित हो रहा था। अक्सर जवानों के शहीद होने की खबरें आ रही थीं। साथ ही एलओसी के निकट के गांव के लोग भय व असुरक्षा में जी रहे थे। कई बार ग्रामीणों को विस्थापित होना पड़ रहा था। वे अपने खेतों में फसलों की देखभाल तक नहीं कर पा रहे थे। सबसे ज्यादा स्कूली बच्चों को सहना पड़ रहा था, जो स्कूल जाने में इसलिए असमर्थ थे कि न जाने कब गोलाबारी शुरू हो जाये। इस सहमति के बाद संयुक्त बयान में कहा गया कि दोनों ही पक्ष नियंत्रण रेखा और दूसरे सेक्टरों में सभी समझौतों, परस्पर समझ और संघर्ष विराम का सख्ती से पालन करेंगे। इससे पहले हॉटलाइन के जरिये दोनों डीजीएमओ ने नियंत्रण रेखा की स्थितियों की समीक्षा की और एक-दूसरे के आंतरिक मुद्दों और चिंताओं को समझते हुए सहमत हुए कि कैसे शांति भंग करने वाले कारकों को टाला जा सकता है, जिससे क्षेत्र में शांति स्थापित करने में मदद मिल सके। वहीं दूसरी ओर भारतीय सेना ने साफ किया है कि वह जम्मू-कश्मीर के आंतरिक हिस्से में आतंकवादियों से निपटने के लिए तथा सीमा पर घुसपैठ के खिलाफ सख्त कदम उठाती रहेगी।
वहीं सैन्य अभियानों के महानिदेशकों के बीच हुई बातचीत में इस बात पर भी सहमति बनी कि उन तमाम पुराने समझौतों को भी फिर से क्रियान्वित किया जायेगा जो समय-समय पर दोनों देशों के बीच किये गये थे। निस्संदेह जब एलओसी पर स्थिति बेहद संवेदनशील बनी हुई थी और दोनों ओर की सेनाओं को लगातार क्षति उठानी पड़ रही थी, यह समझौता सुकून की बयार की तरह ही है। इतना ही नहीं, दोनों डीजीएमओ एक-दूसरे के जरूरी मुद्दों और चिंताओं को स्वीकारने पर सहमत हुए कि हिंसा भड़काने और शांति भंग करने के कारकों से कैसे बचा जाये। साथ ही यह भी कि समय-समय पर गलतफहमी और अनदेखे हालातों के निस्तारण के लिए हॉटलाइन के जरिये समाधान निकाला जायेगा। अभी कहना जल्दबाजी होगी कि पाक का यह हृदय परिवर्तन परिस्थितियों के अनुरूप है या भविष्य की रणनीति बनाने के लिए वह कुछ समय ले रहा है। या फिर किसी अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते यह कदम उठा रहा है। बहरहाल, हाल में पूर्वी लद्दाख से चीनी सेना की वापसी के बाद पाक का एलओसी पर संघर्ष विराम के लिए सहमत होना भारतीय नजरिये से सुखद ही है। दोनों सीमाओं पर तनाव का मुकाबला करना भारतीय सेना के लिए असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। सेना पर आने वाला कोई दबाव कालांतर में पूरे देश पर पड़ता है। साथ ही हमारी अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करता है। देश में कोरोना संकट के बीच आर्थिक विकास को पटरी पर लाने के लिए सीमाओं पर शांति बेहद जरूरी है। इसके बावजूद कहना कठिन है कि पाक अपनी बात पर कब तक कायम रहता है। वर्ष 2003 में भारत और पाक के बीज सीजफायर समझौता हुआ था, जिसमें सीमा पर एक-दूसरे की सेनाओं पर गोलाबारी न करने का संकल्प दोहराया गया था। लेकिन तीन साल तक स्थिति सामान्य रहने के बाद वर्ष 2006 में पाक ने फिर एलओसी पर गोलाबारी शुरू कर दी। बल्कि बीते साल तो संघर्ष विराम उल्लंघन की घटनाओं में रिकॉर्ड तेजी आई है।