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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.पर्यटन में हाथी का पांव
मंडी में शिवधाम का नक्शा व संकल्प बता रहा है कि यही है हिमाचली पर्यटन के हाथी का पांव। परियोजना अपने भीतर पर्यटन का एक विशाल इतिहास लिखने को आतुर है और इसके पीछे मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी पूरी तरह आश्वस्त व सशक्त हैं। कांगनीधार पहाड़ी पर बारह ज्योतिर्लिंगों के समूह के बीच विशाल मूर्तियां, संग्रहालय, हर्बल गार्डन, नक्षत्र बाटिका, एम्फी थियेटर और प्राकृतिक छटा का अद्भुत नजारा भी दर्शन देगा। पर्यटन क्षेत्र में यह अपनी तरह की अनूठी परियोजना साबित होगी और मंडी की सांस्कृतिक व धार्मिक पृष्ठभूमि को अलंकृत करेगी। करीब डेढ़ सौ करोड़ की महत्त्वाकांक्षी परियोजना से यह संभावना खुलती है कि आइंदा यह प्रदेश ऐसी परिकल्पनाओं के द्वार पर पर्यटकों का अन्यत्र भी स्वागत करेगा। मंडी के विकास को लेकर ब्यास नदी के तट पर घाट, कृत्रिम झील तथा रज्जु मार्गों की स्थापना के परिप्रेक्ष्य में 1892 करोड़ के प्रस्ताव एशियन विकास बैंक की हरी झंडी का इंतजार कर रहे हैं। इससे पहले भी पर्यटन की संकल्प यात्राओं में मनाली का स्की विलेज तथा पौंग पर्यटन विकास परियोजनाएं बनीं, लेकिन सत्ता बदलते ही हिमाचल के विकास का नक्शा भी बदल जाता है। हमें याद करना होगा कि कांग्रेस सरकार में बतौर पर्यटन मंत्री जीएस बाली ने विदेशी निवेश के तहत जिस स्की विलेज का नक्शा बनाया था, उसे भाजपा ने ही विरोध ने खुर्द-बुर्द किया था।
यहां तक कि देव समाज को भी इसके विरोध में उतार दिया था और आज मंडी अपनी धार्मिक विरासत के ऊपर एक नए धार्मिक अनुष्ठान की परत चढ़ते हुए देख रहा है। हम अतीत के मंडी के सामने भविष्य का पर्यटन तो देख सकते हैं, लेकिन उस प्ररिक्रमा का संरक्षण भी जरूरी है, जिससे मंडी की धरोहर चलती है। चंबा, मंडी व भरमौर में हिमाचल का धार्मिक पक्ष अपने दर्शन को धरोहर बनाता है, तो इसके संरक्षण की निरंतर प्रक्रिया से यह प्रदेश अक्षम क्यों है। एक हजार साल से भी अधिक काल खंड में चंबा हिमाचल का सबसे प्राचीनतम धरोहर शहर है, लेकिन सत्ता के संघर्ष या चमक ने इस नगीने को अंगीकार ही नहीं किया। क्या चंबा को हिमाचल का धरोहर शहर घोषित करने की पहल में पर्यटन का मौजूदा दौर और विकसित नहीं होगा या जिस शहर में एक साथ कई कलाएं व जीवित कलाकार आज भी संरक्षण की सक्रियता में हिमाचल का कलात्मक ताज बरकरार रखते हैं, उसे राज्य के प्रश्रय में नहीं देखा जाए। हिमाचल के सबसे बड़े ऐतिहासिक दस्तावेज आज भी सुजानपुर, नूरपुर, मसरूर मंदिर व पुराना कांगड़ा में विविध परियोजनाओं का इंतजार करते हुए उपेक्षित हैं, तो सरकारों की नीतियों व प्राथमिकताओं पर संदेह होना स्वाभाविक है। पर्यटन विकास ने ही अपने भीतर ऐसा अतीत जोड़ लिया है, जो सियासी तौर पर उपेक्षित व प्रताडि़त है। प्रदेश का हर अंदाज अपने भीतर पर्यटन की महक रखता है, लेकिन योजनाओं में इसकी व्याख्या नहीं होती। बहुत पहले गरली-परागपुर धरोहर गांव घोषित हुए, लेकिन राज्य स्तरीय लोहड़ी समारोह सिमट गया। अजंता-एलोरा की तरह इतराता मसरूर मंदिर कभी मसरूर फेस्टिवल की उड़ान पर था, लेकिन इसकी क्षमता का दोहन ही नहीं हुआ। पर्यटन विकास निगम के कम से कम एक दर्जन कैफे या दूसरे यूनिट बर्बाद हो गए, लेकिन किसी सरकार ने यह पूछने की जुर्रत नहीं की कि अतीत में क्या-क्या गुम हुआ।
क्या यही सवाल मंडी का अतीत नहीं पूछ रहा कि शिवधाम की भव्यता में कहीं भूतनाथ गली क्यों उदास नजर आती है। बेशक हमें पर्यटन के हाथी का पांव चाहिए, लेकिन अछूते इतिहास व धरोहर को खोकर नहीं, जो हिमाचल की कंद्राओं में उपेक्षित, अपाहिज और असम्मानित महसूस हो रहा है। शिवरात्रि की परिक्रमा में घूमते शहर की आंखें आज भी एक ऐसे ठौर को देखना चाहती हैं, जहां धार्मिक-सांस्कृतिक मिलन के एहसास को शहर की पलकें सोने न दें। सरकार किसी की भी रही हो या योजना-परियोजना कभी भी बनी हो, इसके पन्नों की लाली बरकरार रहनी चाहिए। प्रदेश के कई मंदिरों की दीवारों पर आज भी भीत्ति चित्र अपने साथ गुणात्मक शक्ति का इजहार करते हैं, लेकिन सुजानपुर, डाडासीबा या डमटाल के मंदिरों की निगरानी कौन करेगा। इसी सरकार के आगमन से पूर्व धर्मशाला में निर्मित हो चुका युद्ध संग्रहालय आज भी ताले में बंद है, तो इसका अर्थ जानना होगा। पर्यटक कहीं आते हैं, कहीं लाने पड़ेंगे। पर्यटन आकर्षण के सूचना पट्ट तो तैयार हो सकते हैं, लेकिन पर्यटकों के आगमन पर ही राहें नहीं बिछाई जा सकतीं। प्रदेश में पर्यटक अधिक दिन ठहरें इसके लिए शिवधाम उन्हें व्यस्त रखेगा, लेकिन मंडी शहर में उनके रुकने की व्यवस्था के लिए प्राचीन मूल्यों, खान-पान, सांस्कृतिक उजास व धार्मिक धरोहर को करीने से पेश करने की उत्कंठा का एहसास भी तो चाहिए।
2.गांधी-23 की कांग्रेस!
देश के एक हिस्से में चुनावों का मौसम है। असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी और केरल राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। चुनाव आयोग तारीखें घोषित कर चुका है और राजनीतिक गतिविधियां उफान पर हैं। कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है, लिहाजा उसकी चुनावी चुनौतियां ज्यादा धारदार और आक्रामक होनी चाहिए। एक तथ्य स्पष्ट कर दें कि हम उस कांग्रेस का उल्लेख नहीं कर रहे हैं, जिसका गठन 1885 में हुआ था। वह कांग्रेस 1967-69 के दौर में बंट चुकी है, लिहाजा उसके बाद की कांग्रेस (इंदिरा) ही भारतीय राजनीति में सक्रिय रही है। चुनावी माहौल में कांग्रेस का संदर्भ कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है, लेकिन फिलहाल उसके बिखराव और विभाजन की ही चर्चा करेंगे। पार्टी के जिन 23 वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा था, अब वे जम्मू में एक अलग मंच पर सक्रिय दिखे। उनमें गुलाम नबी आज़ाद वरिष्ठतम हैं, जिन्होंने कांग्रेस को 51 लंबे सालों की सेवाएं दी हैं। वह कांग्रेस की लगभग सभी सरकारों में केंद्रीय मंत्री रहे, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री भी बने, संसद के दोनों सदनों में रहे और अंततः राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता रहते हुए कांग्रेस सांसद के तौर पर सेवानिवृत्त हुए।
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि उन्हें जिंदगी भर सांसदी नसीब हो। गौरतलब और सवालिया यह है कि जम्मू के जिस मंच पर गुलाम नबी, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, मुकुल वासनिक, राज बब्बर आदि वरिष्ठ कांग्रेसी जमा हुए थे, वहां सोनिया-राहुल गांधी या विरासत के किसी बड़े चेहरे के चित्र मौजूद नहीं थे। सभी नेता खुद को ‘कांग्रेसी’ कहलाने पर गौरवान्वित महसूस करते रहे, लेकिन 23 नेताओं के असंतुष्ट, नाखुश समूह को उन्होंने ‘गांधी-23’ का नाम दिया। अभिप्रायः महात्मा गांधी की विरासत का है। उन्होंने कांग्रेस पार्टी के अधिकृत नाम और चुनाव चिह्न का इस्तेमाल नहीं किया। सभी कांग्रेसी नेता सार्वजनिक मंच से स्वीकार करते रहे कि बीते 10 सालों में कांग्रेस कमज़ोर हुई है। पार्टी कमज़ोर क्यों हुई और उसमें बिखराव के कारण क्या हैं? इन सवालों को लेकर इन नेताओं ने खुद को कठघरों में कैद नहीं किया। आनंद शर्मा आज भी राज्यसभा में विपक्ष के उपनेता एवं कांग्रेस सांसद हैं। गुलाम नबी के अलावा भूपेंद्र सिंह हुड्डा और राजिंदर कौर भट्टल ने मुख्यमंत्री पद हासिल किए हैं। सांसद तो सभी रहे हैं और आज भी हैं। प्रदाय दोतरफा है। यदि गांधी-23 के नेताओं ने कांग्रेस को लंबी सेवाएं दी हैं, तो पार्टी ने भी केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, पार्टी पदाधिकारी और प्रदेश अध्यक्ष के पदों से नवाजा है। आज यह सवाल मौजू है कि अलग मंच क्यों सजाना पड़ा? क्या यह कांग्रेस से बगावत की शुरुआत है? क्या पार्टी के नए अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी इन नेताओं को स्वीकार्य नहीं हैं? क्या ये मुद्दे पार्टी के भीतर नहीं उठाए जा सकते थे?
यदि ये नेतागण कांग्रेस के पुराने, ताकतवर दिन लौटाना चाहते हैं, तो उन्हें किसने रोका है? अलग मंच सजाकर क्या कांग्रेस को मजबूत किया जा सकता है? गुलाम नबी चाहें, तो कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ सकते हैं। ‘गांधी-23’ के कई नेता आज भी प्रासंगिक और ताकतवर हैं। इनमें से अधिकतर कांग्रेस के भीतरी रणनीतिकार रहे हैं, लिहाजा पार्टी के पतन में उनकी भी भूमिका है। चुनावों के मौजूदा मौसम में वे कांग्रेस के लिए प्रचार क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या सोनिया-राहुल गांधी ने उन्हें यह भूमिका नहीं दी है, तो उसे भी सार्वजनिक करें कि पार्टी में वे अप्रासंगिक कर दिए गए हैं। इनसान की जिंदगी में ऐसा वक्त भी आता है, जब युवा पीढ़ी को कमान सौंपनी पड़ती है। तो ये नेतागण कांग्रेस में वरिष्ठ बनाम नौजवान की राजनीति क्यों खेल रहे हैं? ऐसे कई सवाल देश की जनता के मन में भी हैं और अलग-अलग मौकों पर पूछे भी जाएंगे कि आखिर कांग्रेस कमज़ोर क्यों होती जा रही है? लोकतंत्र में अंतिम निर्णय तो जनता ही करेगी और यह भी जानना चाहेगी कि अब प्रधानमंत्री मोदी, गुलाम नबी की सेवानिवृत्ति के दिन से, ‘सच्चे इनसान’ क्यों लगने लगे हैं? प्रधानमंत्री ने अपने जीवन का अतीत और बचपन 2013 से ही देश के सामने रखा है। यथार्थ कबूलने वाले नेता वह आज तो नहीं बने हैं, लिहाजा देश की जिज्ञासा रहेगी कि क्या भाजपा से कोई सांठगांठ हो गई है? राजनीति करने की स्वतंत्रता है, लेकिन लंबे सालों की प्रतिबद्धता को एक झटके में तोड़ने की कोशिश करने का भी स्पष्टीकरण देना होगा।
3.ऊर्जा तंत्र में सेंध
अमेरिका से आई एक रिपोर्ट ने चीन के प्रति भारत को आगाह किया है, तो कोई आश्चर्य नहीं। साइबरस्पेस कंपनी, रिकॉर्डेड फ्यूचर ने भारत सरकार को चीन से जुड़े खतरे की सूचना दी है। रिपोर्ट में यह आशंका जताई गई है कि चीन का एक साइबर समूह रेड इको मुंबई में बिजली फेल होने के लिए जिम्मेदार हो सकता है। यह आरोप लगाते हुए रिकॉर्डेड फ्यूचर ने ठोस प्रमाण तो नहीं पेश किए हैं, पर परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के जरिए यह समझाने की कोशिश की है कि चीन खतरा बन सकता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पावर ग्रिड नेटवर्क का संचालन साइबर आधारित होता जा रहा है। जिस इंटरनेट प्रोग्राम के जरिए पावर ग्रिड को संभाला जाता है, अगर उसमें कोई देश घुसपैठ कर ले, तो वाकई किसी भी देश में बिजली की व्यवस्था को बाधित कर सकता है। अमेरिकी रिपोर्ट ने बताया है कि 12 अक्तूबर, 2020 को मुंबई में बिजली व्यवस्था ठप हो गई थी, यह कारस्तानी चीन के हैकरों की हो सकती है। इस रिपोर्ट के बाद भारत सरकार को पूरी गंभीरता से इस कथित घुसपैठ की जांच करनी चाहिए। संभव है, यह जांच पहले से ही जारी हो और भारतीय साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों ने इस तकनीकी आपदा का इलाज खोज लिया हो।
वाकई यह चिंता की बात है, अगर चीन भारतीय बिजली व्यवस्था में घुसपैठ में सक्षम हो चुका है। क्या भारत में ऐसा करने में सक्षम है? विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसी ही घुसपैठ रूस ने अमेरिकी पावर ग्रिड में की थी, लेकिन तब अमेरिकी विशेषज्ञों ने भी रूसी पावर ग्रिड में सेंध मारकर रूसियों को सचेत कर दिया था। भारत को आगाह करते हुए रिपोर्ट ने यह स्पष्ट संकेत कर दिया है कि साइबर सेंध से बचने में वही देश कामयाब होगा, जो साइबर सेंध मारने की क्षमता रखेगा। भारत को ऐसे साइबर युद्ध से बचने में पूरी तरह सक्षम होना चाहिए और इसके साथ ही उसको निशाना बनाने वाले दुश्मनों को भी पता होना चाहिए कि सेंधमारी करके वह भी नहीं बचेंगे। दुश्मन आप से उसी हथियार से लड़ना चाहता है, जिसमें वह आपको कमजोर मानता है। हमें देखना होगा कि साइबर सुरक्षा के मामले में अगर चीन हमें कमजोर मान रहा है, तो हम अपनी कमजोरी कैसे दूर करेंगे। एक सवाल यह भी है कि क्या अमेरिका इन दिनों भारत के लिए अतिरिक्त रूप से सचेत है। अमेरिका के भी अनेक पहलू हैं, वहां अनेक तरह की संस्थाएं हैं, जो अपने-अपने ढंग से विश्लेषण करती रहती हैं। हमें अपने स्तर पर भला-बुरा सोचते हुए चलना है। चीन और अमेरिका के बीच बहुत भौगोलिक दूरी है, लेकिन चीन हमारा पड़ोसी है। हम न तो अत्यधिक उदार हो सकते हैं और न अत्यधिक आक्रामक। हमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक संतुलन बनाकर चलना होगा। अपनी बिजली व्यवस्था को ही नहीं, अपने पूरे तंत्र को चाक-चौबंद बनाना होगा। प्रौद्योगिकी के स्तर पर किसी भी तरह की सेंध की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए। बिजली, पानी की आपूर्ति ही नहीं, बल्कि किसी भी तरह की सार्वजनिक सेवा भी साइबर हमले में बाधित नहीं होनी चाहिए। दुनिया के तमाम विकसित देश अपनी-अपनी साइबर सुरक्षा मजबूत करने में लगे हैं, चीन तो खासतौर पर सक्रिय है। हमें मानकर चलना चाहिए कि साइबर मैदान में युद्ध अब निरंतर जारी रहेगा। लुटने से वही बचेगा, जिसके ताले अकाट्य होंगे।
4.वक्त की रणनीति
बदले हालात में टीकाकरण
ऐसे वक्त में जब देश कोरोना संक्रमण खत्म होने को लेकर निश्चिंत होने लगा था, संक्रमण की नई चुनौती सामने खड़ी हो गई। लगने लगा कि आने वाले वर्षों में यही न्यू नॉर्मल होने जा रहा है और बचाव के लिए चौकसी लगातार करनी ही होगी। यह सुखद ही है कि मार्च महीने की शुरुआत आम लोगों के टीकाकरण अभियान से हो रही है। यूं तो देश में टीकाकरण अभियान की शुरुआत 16 जनवरी से हो चुकी थी, लेकिन जैसा कि अपेक्षित था, कोरोना योद्धाओं को सबसे पहले टीका लगा। शुरुआत में तो टीकाकरण तेजी से चला, मगर बाद में यह अभियान अपेक्षित गति नहीं पकड़ पाया। सभी स्वास्थ्यकर्मियों को टीके की दोनों डोज देने का लक्ष्य फिलहाल पूरा नहीं हो पाया है। शायद यही वजह है कि एक मार्च से साठ साल से अधिक और 45 से 59 वर्ष के उन लोगों को टीकाकरण अभियान में शामिल कर लिया गया, जो गंभीर रोगों व सर्जरी से गुजरे हैं। देशकाल परिस्थिति के हिसाब से बदली रणनीति वक्त की जरूरत भी है। शायद तभी जुलाई तक तीस करोड़ लोगों को वैक्सीन लगाने का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा। पहली मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी वैक्सीन लगवाकर कई संदेश देने का प्रयास किया है। राजनीतिक रूप से जो कहा जा रहा था कि स्वदेशी वैक्सीन पहले शीर्ष राजनेताओं को लगानी चाहिए, उसका भी उन्होंने जवाब दिया। वहीं कोरोना योद्धाओं, खासकर चिकित्सा बिरादरी से जुड़े लोगों में स्वदेशी वैक्सीन को लेकर जो दुविधाएं थी, प्रधानमंत्री की पहल के बाद उसे दूर करने में मदद मिलेगी। सामान्य-सी बात है कि किसी भी वैक्सीन को लगाने के बाद कुछ प्रभाव शरीर में नजर आते हैं। ऐसा यदि कोरोना वैक्सीन को लेकर होता तो कोई असामान्य बात नहीं है। निस्संदेह प्रधानमंत्री की पहल से देश के लोगों में वैक्सीन लगाने को लेकर उत्साह बढ़ेगा। इसी बीच देश के कई राज्यों में कोरोना संक्रमण के मामलों में तेजी आने से चिंताएं जरूर बढ़ी हैं।
निस्संदेह, महामारी की नई लहर की आशंकाओं के बीच वैक्सीनेशन की जरूरत और बढ़ जाती है। अन्यथा जनजीवन सामान्य होने में लंबा वक्त लग सकता है। देश लॉकडाउन की स्थितियों से अब आगे निकल चुका है। ऐसे में जहां लोगों को फिर से पुराने सुरक्षा उपाय अपनाने की जरूरत है तो वहीं सरकार को भी टीकाकरण अभियान को लेकर रणनीति में बदलाव लाने की जरूरत है। सरकार ने नये वर्ग के लिए टीकाकरण जल्दी शुरू करके एक संवेदनशील आबादी को सुरक्षा कवच देने का सार्थक प्रयास किया है। इससे एक ओर जहां संवेदनशील आबादी सुरक्षित होगी, वहीं कोरोना संक्रमण की कड़ी को तोड़ने में भी मदद मिलेगी। बदलाव की रणनीति के तहत सरकारी अस्पतालों में मुफ्त टीका लगाने के साथ ही निजी अस्पतालों में निर्धारित राशि देकर टीकाकरण की पहल भी सार्थक है। इससे जहां टीकाकरण में गति आएगी, वहीं उन लोगों को सुविधा हो सकेगी जो लंबी कतारों से बचना चाहते हैं। वहीं सरकारी अस्पतालों में टीकाकरण अभियान पर दबाव कम होगा, साथ ही सरकार के लिए मुफ्त टीका उपलब्ध कराने का खर्च भी घटेगा। इसके अलावा कम समय में अधिक लोगों को टीका लगाया जा सकेगा। जो लोग सक्षम हैं उन्हें टीके का मूल्य चुकाना चाहिए। निजी अस्पतालों का भी दायित्व बनता है कि इस संकट की घड़ी में टीकाकरण में पारदर्शिता लायें। सरकार द्वारा निजी अस्पतालों में टीके की कीमत निर्धारित किये जाने से मनमाना दाम वसूले जाने की आशंकाएं भी दूर होंगी। देश-दुनिया में जिस तरह कोरोना संक्रमण रह-रह कर सिर उठा रहा है और नये-नये स्ट्रेन सामने आ रहे हैं, उसे देखते हुए टीकाकरण ही अंतिम उपाय हो सकता है। बहरहाल, एक सवाल जरूर आम आदमी को मथ रहा है कि वैक्सीन से इम्यूनिटी कितने समय तक हासिल होगी। हम इस मायने में खुशकिस्मत हैं कि स्वदेश में निर्मित वैक्सीन हमें सहज उपलब्ध है और दुनिया के तमाम देश उम्मीदों से हमारी ओर देख रहे हैं।