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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.सपनों की धुंध में रेल
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हिमाचल की औकात का घूंघट जब भी उठता है, राष्ट्रीय संसाधनों के आबंटन में पर्वतीय राज्य फिसड्डी हो जाता है। वैसे तो केंद्रीय रेल मंत्री पीयूष गोयल अपने हिसाब की खुशफहमी में हिमाचल को रेल-रेल बांटना चाहते हैं, लेकिन हकीकत की पर्ची न तो लेह रेल और न ही पठानकोट-मंडी ब्रॉडगेज होने की संभावना को पुष्ट करती है। अलबत्ता अब यह फिर रसीद हो रहा है कि हिमाचल के पर्वतीय योगदान में केंद्र सिर्फ सपनों की धुंध में जीना सिखाना चाहता है। हिमाचल अपने तौर पर केंद्र की फिजिबिलिटी से लड़ रहा है या कई बार वन संरक्षण अधिनियम की राजनीतिक कंजूसी में हमारी परियोजनाएं तड़प जाती हैं, वरना हमारे पड़ोस में जिस चार धाम सड़क परियोजना का कार्य चल रहा है, उसके बारे में यहां तो सोचा ही नहीं जा सकता था। लगभग बारह हजार करोड़ की लागत से चार धाम राज मार्ग परियोजना को अमल में लाने के लिए अगर केंद्र एड़ी चोटी का प्रयास कर सकता है, तो यही संकल्प हिमाचल के भाग्य में क्यों नहीं। बहरहाल हिमाचल के उन भौंपुओं को विराम देना होगा, जो बार-बार लेह रेल के ख्वाबों में न जाने किस विकास का जिक्र करते नहीं अघाते या पठानकोट को मंडी से जोड़ते ब्रॉडगेज रेल परियोजना में ऐसा सब कुछ गूंथ देते हैं, जो सपनों से आगे हकीकत सा लगता है। विडंबना यह भी है कि आजतक प्रदेश अपनी परियोजनाओं की प्राथमिकता तय नहीं कर पाया और हर बार की सत्ता एक त्योहार की तरह व्यवहार करते हुए नया क्षेत्रवाद पैदा कर देती है।
हिमाचल की अधोसंरचना निर्माण की समीक्षा करते हुए एक व्यापक रोड मैप बनाना होगा। कनेक्टिविटी के हिसाब से यह स्पष्ट है कि तमाम परियोजनाओं के केंद्र बिंदु में हमीरपुर की परिधि से सभी मार्ग जोड़ने होंगे, रेलवे विस्तार के लिए तलवाड़ा या लेह छूने के बजाय ऊना रेल को मध्य हिमाचल यानी मंदिरों से जोड़ना होगा। अंब तक पहुंची पटरियों को ज्वालामुखी की ओर दिशा दी जाए, तो कल आसानी से चिंतपूर्णी, ज्वालाजी, दियोटसिद्ध, नयनादेवी, कांगड़ा, चामुंडा, बैजनाथ और मंदिरों का शहर मंडी अपने महत्त्व की फिजिबिलिटी को साबित करेगा। इसी तरह हिमाचल की एयर कनेक्टिविटी का सबसे बड़ा आकाश कांगड़ा एयरपोर्ट के रास्ते अगर खुलता है, तो राष्ट्रीय उड़ानों की कई मंजिलें हिमाचल को जोड़ पाएंगी। उत्तर भारत की सर्दियों में कमोबेश हर एयरपोर्ट की परीक्षा इस लिहाज से भी होती है कि वहां ‘धुंधबाधा’ के कारण कितनी उड़ानें रद्द होती हैं, लेकिन यह भी एक प्रमाणित तथ्य है कि इस बार के सर्वेक्षण में ‘कांगड़ा हवाई अड्डा’ इस मामले में निर्बाधित उड़ानों के कारण श्रेष्ठ सिद्ध हुआ है। हिमाचल में प्रमाण को झुठलाती राजनीति की प्राथमिकताएं अकसर बहकने लगती हैं और यही वजह है कि केंद्र सरकार फिजिबिलिटी की नागफनी में उलझा कर कम से कम हिमाचल की सामान्य वृद्धि को भी ठेंगा दिखा देती है। बेशक प्रदेश के सियासतदानों ने तरक्की के ऐसे पैमाने खड़े किए, जो सत्ता के प्रभाव का परिणाम हो सकते हैं, लेकिन केंद्र की आंखें इस वजूद से अलग भी देखती हैं। क्या हम चार धाम राजमार्ग परियोजना की तर्ज पर प्रदेश के प्रमुख करीब आधा दर्जन मंदिरों को जोड़ते हुए ‘मंदिर रेल परियोजना’ आगे नहीं बढ़ा सकते। यह मंदिर आय के वर्तमान ढांचे को वर्तमान दो-तीन सौ करोड़ से कम से कम पांच हजार करोड़ के धार्मिक पर्यटन तक पहुंचा सकती है, बशर्ते प्रादेशिक सरोकारों से सत्ता का क्षेत्रवाद दूर रहे। सत्ता का क्षेत्रवाद अगर इस जिद पर अड़ा रहेगा कि बल्ह में ही हवाई जहाज उतारना है, तो जहां विमान उतरना चाहते हैं, वह संभावना भी लील दी जाएंगी।
बल्ह के संकल्प को जाहू के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो पाएंगे कि मध्य हिमाचल पर हवाई अड्डे की सौगात से एक साथ कई पक्ष व क्षेत्र लाभान्वित होंगे। इसी तरह अब लेह और पठानकोट-मंडी ब्रॉडगेज रेल परियोजना के चैप्टर बंद करके प्रदेश को ऊना रेल की दिशा ज्वालामुखी की तरफ मोड़नी चाहिए। हमीरपुर से पूरे हिमाचल को जोड़ती सड़कों के विस्तृत दायरे को विशालतम आधार तक ले जाएंगे तो एक दिन चंबा से शिमला की दूरी भी महज पांच घंटे हो सकती है या ऊना से मनाली का सफर आधा हो सकता है। धर्मशाला से दिल्ली का सफर अगर चार घंटे कम करना है तो हमीरपुर के रास्ते और आगे भाखड़ा बांध से गुजरने का नया सर्वेक्षण चाहिए। हिमाचल की परियोजनाओं को केंद्रीय हिसाब से फिजीबल बनाने के लिए एक बड़े संकल्प व आदर्श की जरूरत है। क्यों नहीं सेब, सीमेंट और सब्जियों की ढुलाई के लिए हम अलग से गलियारा बना पा रहे हैं या कम से कम दक्षिण, पूर्व और पश्चिम राज्यों से आती रेल माल गाडि़यों में ऐसी व्यवस्था की मांग करते हैं, जिसके तहत माल सहित हिमाचल के ट्रक लाद कर सीधे मंजिल पर उतार दिए जाएं। भारतीय रेल अपने नजदीकी रेलवे स्टेशनों से माल सहित हिमाचली ट्रकों को कोलकाता, मुंबई, अहमदाबाद या चेन्नई पहुंचा दे, तो किराए में उल्लेखनीय कमी आएगी। इसी तरह वापसी में हिमाचल तक ढुलाई भी सस्ती दरों में हो जाएगी।
2.कोरोना-मुक्ति का टीका
अब बुजुर्गों और गंभीर बीमारों की बारी शुरू हो गई है। उसके तहत करीब 1.28 लाख 60 पार के उम्रदराजों को और करीब 20 हजार गंभीर बीमारों तथा 45 पार की उम्र वालों को कोरोना वायरस का टीका लगाया गया। विश्व में सबसे बड़े और व्यापक टीकाकरण का यह दूसरा दौर है, जो बेहद चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि लक्ष्य जुलाई, 2021 तक कुल 30 करोड़ लोगों के टीकाकरण का है। फिलहाल गति एक फीसदी से भी कम है। यदि यही औसत रहा, तो भारत की 75 फीसदी आबादी के टीकाकरण में कमोबेश 10 साल लगेंगे। यह असंभव अवधि होगी, क्योंकि इतनी आबादी के टीकाकरण के बाद ही ‘हर्ड इम्युनिटी’ की कल्पना की जा सकती है। ‘हर्ड इम्युनिटी’ के साफ मायने हैं कि देश के नागरिकों में रोग प्रतिरोधक क्षमता बन चुकी है और वे कोरोना जैसी महामारी से लड़ने में सक्षम हैं। टीकाकरण के दूसरे दौर की शुरुआत में ही देश के उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, विदेश मंत्री और कुछ मुख्यमंत्रियों ने स्वदेशी ‘कोवैक्सीन’ टीका लगवाया है, जिसके सकारात्मक और प्रेरक संदेश देशभर में जाएंगे और जो आबादी कोरोना टीका के प्रति संदेहास्पद रही है, उसके भ्रम खंडित होंगे।
देश के स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन ने भी ‘कोवैक्सीन’ टीका लगवाया है और 250 रुपए का भुगतान भी किया है। यही प्रवृत्ति देशभर में होनी चाहिए। जो सक्षम हैं, वे निजी अस्पताल में जाकर टीका लगवाएं और 250 रुपए का भुगतान करें। जो गरीब हैं, उनके लिए सरकार ने व्यवस्था की ही है, लिहाजा टीकाकरण में अमीर-गरीब के सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए। बहरहाल ‘कोवैक्सीन’ भारत बायोटैक कंपनी का उत्पादन है, जो पूर्णतः स्वदेशी है। दूसरे टीके ‘कोविशील्ड’ का उत्पादन भी भारत की ही कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट कर रही है। फर्क इतना-सा है कि टीके का शोध ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और एस्ट्राजेनेका कंपनी ने किया है, लेकिन मानवीय परीक्षण भारत में भी किए गए हैं। यानी भारत कोरोना वायरस का टीका बनाने और उसके पर्याप्त उत्पादन में भी आत्मनिर्भर राष्ट्र बन गया है। भारत में न केवल करीब 1.50 करोड़ लोगों का टीकाकरण हो चुका है, बल्कि हमने 15 देशों को टीके की करीब 3.62 करोड़ खुराकें सप्लाई भी की हैं और 25 अन्य देशों ने भी टीके की मांग की है। बेशक कुछ पड़ोसी और मित्र देशों को भारत ने मुफ्त टीका मुहैया कराया है, अलबत्ता ज्यादातर देशों को टीका बेचा जा रहा है। यकीनन अर्थव्यवस्था की एक ठोस बुनियाद का रास्ता खुला है। बहरहाल हमारी प्राथमिकता देश के नागरिकों को लेकर है। उनमें टीकाकरण (दो खुराकें) संभव कराया जाए, ताकि यह कोरोना-मुक्ति का टीका साबित हो सके। चिंताजनक तथ्य सामने आया है कि करीब 10 लाख स्वास्थ्यकर्मियों ने टीके की दूसरी खुराक नहीं ली है। बल्कि उससे कन्नी काट ली है।
संदेह, सवाल और टीके के असर अब भी मौजूद हैं। दुर्भाग्य है कि राजनीति ने इन परिस्थितियों को अधिक सुलगाया है। राजनेताओं की एक जमात ने कोरोना टीकों को ‘भाजपाई’ करार दिया और इसे लगवाने से इंकार कर दिया। कांग्रेस के बड़े नेताओं ने भी परोक्ष रूप से टीके का बहिष्कार किया है। विपक्ष में शरद पवार को एक उदाहरण माना जा सकता है कि उन्होंने और सांसद-बेटी सुप्रिया सुले ने टीका लगवाया है। देश में टीकाकरण की प्रक्रिया में अभी तक एक भी मौत दर्ज नहीं की गई है। इससे अधिक सत्यापित प्रमाण और क्या हो सकता है? विपक्ष विश्वास करे अथवा न करे, उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। विपक्ष की सियासत अपनी जगह है। हम लोकतांत्रिक देश हैं, तो ऐसे विरोध भी झेलने पड़ेंगे, लेकिन टीकाकरण से विमुख रहने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। ऐसे लोग कोरोना के लगातार संक्रमण के वाहक हो सकते हैं या सशक्त एंटीबॉडी न होने के कारण किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने से बीमार हो सकते हैं। सवाल है कि ऐसी स्थिति में देश कोरोना-मुक्त कैसे हो सकेगा? गौरतलब यह है कि भारत के सबसे बड़े अनुसंधान संस्थान ‘वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद’ (सीएसआईआर) के महानिदेशक ने चेताया है कि अभी कोरोना खत्म नहीं हुआ है। उसकी तीसरी लहर आ सकती है, जो पहले से अधिक खतरनाक साबित हो सकती है, लिहाजा टीका लेने के बावजूद एहतियात मत छोड़ें।
3.ज्यादा सताएगी गरमी
भारतीय मौसम विभाग का इस वर्ष अधिक गरमी पड़ने का आकलन हैरान भले न करता हो, मगर चिंतित करने वाला जरूर है। पिछले साल भी भारी गरमी का रिकॉर्ड बना था, बल्कि 2020 को भारतीय रिकॉर्ड में आठवां सबसे गरम साल बताया गया था। विशेषज्ञ काफी पहले से हमें आगाह करते रहे हैं कि इस उपमहाद्वीप में बसंत का दौर छोटा होता जा रहा है और हम सीधे सर्दियों से गरमी में पहुंचने लगे हैं। जाहिर है, इन सबका असर पूरे जीवन-चक्र पर पड़ रहा है। सूचना है कि पिछले महीने तापमान बढ़ने के कारण पूर्वी ओडिशा से प्रवासी पक्षी वक्त से पहले ही लौट गए। जानकारों के मुताबिक, दीर्घकाल में फसलों की उत्पादकता भी इससे प्रभावित हो सकती है। भारतीय मौसम विभाग ने इस बार अधिक गरमी पड़ने के पीछे जो तर्क दिए हैं, उसके मुताबिक, उत्तर भारत के मौसम का मिजाज पश्चिमी विक्षोभ से तय होता है। आम तौर पर फरवरी महीने में छह बार ये विक्षोभ आते हैं, लेकिन इस बार ऐसी एक ही स्थिति बन सकी। मौसम में हो रहे इस बदलाव को महसूस करने के लिए अब हम ऐसी सूचनाओं पर बहुत निर्भर नहीं हैं, क्योंकि बेमौसम बारिश, वर्षा-पैटर्न में तब्दीली, सर्दियों में ग्लेशियरों का टूटना और प्रलय के दृश्य साल-दर-साल बढ़ते जा रहे हैं। हां! मौसम विभाग के आकलनों का महत्व भविष्य की तैयारियों के लिहाज से काफी है। प्रशासनिक तंत्र को बगैर वक्त गंवाए इस दिशा में सक्रिय हो जाना चाहिए। यह बेहद स्वाभाविक है कि भीषण गरमी की स्थिति में न सिर्फ विद्युत आपूर्ति की मांग बढ़ेगी, बल्कि पानी की कमी के हालात से भी दो-चार होना पड़ सकता है। इसलिए एक सुविचारित योजना के लिए यही माकूल समय है। मौसम के ये बदलाव सिर्फ भारत तक सीमित नहीं हैं, बल्कि प्रकृति किसी के साथ कोई मुरव्वत नहीं बरतती। इसके पीछे ग्लोबल वार्मिंग की मुख्य भूमिका से भी पूरी दुनिया अवगत है, लेकिन वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन को थामने के लिए जिस दूरदर्शिता की दरकार है, उसे दिखाने में विश्व बिरादरी नाकाम रही है। खासकर विकसित देशों से जिस अक्लमंदी की अपेक्षा की जाती है, अपने आर्थिक हितों के कारण वे उससे कतरा जाते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने पेश किया, जब उसने पेरिस समझौते से अलग होने का अविवेकी फैसला किया था। वह भी तब, जब सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जित करने वाले पांच देशों में एक अमेरिका भी है। यह संतोष की बात है कि राष्ट्रपति बाइडन ने पर्यावरण संबंधी वैश्विक चिंताओं को समझा है। कुदरत तो धूप, हवा, पानी धरती के हरेक इंसान को नैसर्गिक रूप से बगैर किसी भेदभाव के सौंपती है, लेकिन नागरिक व्यवस्थाओं ने इनकी उपलब्धता को लेकर आदमी-आदमी में काफी अंतर पैदा कर दिया। विडंबना यह है कि कार्बन उत्सर्जन के लिए सुविधा संपन्न तबका सबसे अधिक जिम्मेदार होता है, मगर दुर्योग से इसका खामियाजा हाशिए के लोगों को अधिक भुगतना पड़ता है। सूरज की तपिश और लू के थपेड़ों के शिकार इसी तबके के लोग अधिक बनते हैं। मौसम विभाग की ताजा सूचनाओं के आलोक में सूखा रहने वाले इलाकों, बेघर आबादी, मवेशियों और जीवों के लिए पहले से मौजूद कार्यक्रमों को सक्रिय करने का वक्त आ गया है।
- जहर पर प्रहार
जहरीली शराब बेचने पर मृत्युदंड
ऐसा कोई साल नहीं जाता जब देश में जहरीली-मिलावटी शराब पीने से सैकड़ों लोग न मरते हों। कईयों की आंख की रोशनी चली जाती है और कुछ जीवनभर के लिये अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य हो जाते हैं। विडंबना है कि इन हादसों का शिकार गरीब व मजदूर तबका ही होता है। हादसा होने पर तो सरकार व पुिलस सख्ती करते नजर आते हैं। कुछ गिरफ्तारियां होती हैं, कुछ शराब की भट्टियां नष्ट की जाती हैं, लेकिन फिर जहरीली शराब का कारोबार बदस्तूर शुरू हो जाता है। ऐसा संभव नहीं कि जिन लोगों की जिम्मेदारी इस जहरीले कारोबार को रोकने की होती है, उनकी व पुलिस की जानकारी के बिना यह जहरीला धंधा फल-फूल सके। सिस्टम में लगे घुन को दूर करने की ईमानदार कोशिशें होती नजर नहीं आतीं। बहरहाल अब पंजाब सरकार ने इस दिशा में कदम उठाते हुए आबकारी अधिनियम में कड़े प्रावधान जोड़े हैं। अब पंजाब में अवैध व मिलावटी शराब बेचने से हुई मौतों के लिये दोषियों को उम्रकैद से लेकर मृत्युदंड तक की सजा दी जा सकेगी। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह की अध्यक्षता में कैबिनेट की मीटिंग में लिये गये फैसले के अनुसार पंजाब एक्साइज अधिनियम में संशोधन के बाद अदालतों को धारा 61-ए के तहत कार्रवाई करने का अधिकार होगा तथा धारा 61 व 63 में संशोधन किया जायेगा। इसके लिये मौजूदा बजट सत्र के दौरान बिल लाया जायेगा। अवैध व मिलावटी शराब का व्यवसाय अब गैर जमानती अपराध होगा। दरअसल, बीते वर्ष जुलाई में गुरदासपुर, अमृतसर व तरनतारन में जहरीली शराब से सौ से अधिक मौतों के बाद राज्य में आबकारी कानून सख्त करने की मांग उठी थी। सरकार उसी दिशा में आगे बढ़ी है। अब धारा 61-ए के तहत जहरीली शराब से मौत की पुष्टि होने पर अदालत निर्माता व विक्रेता को पीड़ित परिवार को पांच लाख तथा गंभीर क्षति होने पर तीन लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दे सकती है।
सरकार के प्रस्तावित प्रावधानों में जहरीली शराब से मौत होने पर दोषी को उम्रकैद से लेकर मृत्युदंड तक की सजा और बीस लाख तक का जुर्माना हो सकता है। अपाहिज होने पर छह साल की सजा और दस लाख तक का जुर्माना हो सकता है। वहीं गंभीर नुकसान पर दोषी को एक साल तक की कैद और पांच लाख तक का जुर्माना हो सकता है। नुकसान न भी हुआ हो मगर मिलावटी शराब का आरोप साबित होने पर छह माह की कैद और ढाई लाख तक का जुर्माना हो सकता है। यदि मिलावटी शराब लाइसेंसशुदा ठेके पर बेची जाती है तो मुआवजा देने की जिम्मेदारी लाइसेंसधारक की होगी। जब तक आरोपी अदालत द्वारा तय जुर्माना नहीं देता तब तक वह कोई अपील भी दायर नहीं कर सकता। दरअसल, यह रोग केवल पंजाब का ही नहीं है। देश के विभिन्न भागों से जहरीली मौत से मरने की खबरें लगातार आती रहती हैं। गत नवंबर में सोनीपत व पानीपत में जहरीली शराब से 31 लोगों की मौत हो गई थी। हरियाणा सरकार ने जांच के लिये विशेष दल भी बनाया था, लेकिन समस्या की गहराई तक पहुंचने की कवायद किस हद तक सफल रही, कहना मुश्किल है। जरूरत इस कारोबार के फलने-फूलने के कारण और इसके स्रोत का पता लगाने की है। इस साल जनवरी में मध्य प्रदेश के मुरैना में जहरीली शराब से बीस से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। राजस्थान के भरतपुर से भी ऐसे मामले सामने आये। आखिर जहरीली शराब के तांडव व मौतों के कोहराम के बावजूद सरकारें सतर्क क्यों नहीं होतीं। क्यों इस कारोबार व तस्करी पर रोक नहीं लगती। वर्ष 2019 फरवरी में यूपी व उत्तराखंड के चार जनपदों में जहरीली शराब से सौ से अधिक लोगों की मौत हुई थी। उ.प्र. सरकार ने भी तब आबकारी अधिनियम में संशोधन किया था। आम धारणा है कि यह खेल नेताओं, अफसरों व शराब माफिया की मिलीभगत के नहीं चल सकता। वैसे भी हादसों में पुलिस-प्रशासन के अधिकारी तो बदलते हैं मगर आबकारी विभाग के अधिकारियों पर कम ही कार्रवाई होती है।