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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
- ‘संजीवनी’ पर साइबर हमला
केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आर.के.सिंह चीनी हैकर्स के साइबर अतिक्रमण और हमले को, अधिकृत तौर पर, स्वीकार करें अथवा न करें, लेकिन अमरीकी संस्था की रपट को हम यूं ही नकार नहीं सकते। अमरीका हमारा रणनीतिक साझेदार है और उसने अपनी भूमिका निभाते हुए हमें आगाह किया है। चीन के सरकारी या सरकार-समर्थित हैकर्स हम पर साइबर हमले करते आए हैं, साजि़शें रचते रहे हैं। यानी व्यवस्था को ठप कर देने की ‘काली छाया’ हम पर मंडराती रही है। बीते साल 12 अक्तूबर को देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के एक हिस्से की बिजली किसी मानवीय गलती से गुल नहीं हुई थी, बल्कि साइबर सिस्टम के जरिए बिजली उत्पादन और प्रसारण के ग्रिड को एकदम फेल करने की साजि़श थी। अमरीकी रपट में भी यही आशंका जताई गई है कि वह साजि़शाना हरकत चीनी हैकर्स ने की थी। बेशक रपट का आधार ठोस साक्ष्यों पर नहीं है, लेकिन ऐसे आकलन और आशंकाओं के साक्ष्य सार्वजनिक नहीं किए जाते।
बल्कि भारत का पॉवर ग्रिड फेल करने के खतरे मंडरा रहे हैं, ऐसा साइबर विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है। भारत के अलावा अमरीका, जापान, ब्रिटेन, ऑस्टे्रलिया और स्पेन सरीखे देशों को भी चीनी हैकर्स निशाना बनाने की रणनीति तैयार कर रहे हैं। हमारे देश में प्रधानमंत्री दफ्तर, गृह और विदेश मंत्रालयों की वेबसाइट्स को निशाना बनाया जा चुका है। डीआरडीओ, पॉवर ग्रिड, एनआईसी और सर्बर पर हमले किए जा चुके हैं। ओएनजीसी, रेलवे निगम, सरकारी बैंकों, सरकारी डाटा सेंटर और निजी कंपनियों को भी निशाना बनाया जा चुका है। उसके बावजूद हमारे पास न तो साइबर कानून की ठोस व्यवस्था है और न ही कारगर, आक्रामक रणनीति है। साइबर का महत्त्वपूर्ण ढांचा सरकार और निजी क्षेत्र दोनों के पास है। मामला सिर्फ मुंबई की बत्ती गुल होने का नहीं है। साइबर हमलों के साये सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटैक सरीखी कंपनियों पर मंडराने की सूचनाएं साझा की गई हैं। ये दोनों कंपनियां ही कोरोना टीके का उत्पादन कर रही हैं। साफ है कि चीन भारत के व्यापक टीकाकरण अभियान को ठप करना चाहता है। इन कंपनियों के आईटी सिस्टम में सेंध लगाकर टीकों का फॉर्मूला चुराने के मंसूबे भी होंगे! यकीनन यह बिल्कुल भी आसान नहीं है।
हालांकि भारत सरकार ने इन दोनों कंपनियों पर साइबर हमले की संभावनाओं को खारिज किया है, लेकिन यह कल्पना जरूर करनी चाहिए कि यदि हमारी ‘संजीवनी’ पर साइबर हमला करना या आईटी सिस्टम में अतिक्रमण कर गड़बड़ी पैदा करना, किसी भी स्तर पर, संभव होता है, तो महामारी के खिलाफ हमारी लड़ाई अधबीच में ही लटक सकती है। मुंबई का उदाहरण याद रखना चाहिए कि अचानक बत्ती गुल हो जाने से एक चीत्कार के साथ रेलगाड़ी रुक गई होगी, आर्थिक बाज़ार में अंधेरा छा जाने से गतिविधियां एकदम रुक गई होंगी और अस्पतालों में हाथ-पांव मार कर जेनरेटर की व्यवस्था करनी पड़ी होगी! साफ है कि बिजली के ढांचे को, साइबर तौर पर तोड़ने-काटने से, कितना बड़ा और गंभीर आर्थिक नुकसान हो सकता है! आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बाबा रामदेव की ‘पतंजलि योगपीठ’ और दिल्ली का ‘एम्स’ अस्पताल भी निशाने पर बताए जा रहे हैं। चीन एलएसी पर तो भारत के सैनिकों को पराजित नहीं कर सका, लेकिन अब इस नई मोर्चेबंदी पर साजि़शें रच रहा है। साइबर हमलों की संभावनाओं के मद्देनजर भारतीय सेनाओं में भी मंथन जारी रहा है और शीघ्र ही साइबर कमान की स्थापना का ऐलान किया जाएगा, यह रक्षा विशेषज्ञों का कहना है। बहरहाल साइबर खतरों के मद्देनजर हमारी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियां सतर्क हो गई हैं। खासकर अस्पतालों और टीका कंपनियों में कई परतों की साइबर सुरक्षा निश्चित की गई है, जिन्हें भेदना असंभव-सा है। सरकार के स्तर पर क्या किया जा रहा है और कैसी रणनीति बनाई जा रही है, फिलहाल कुछ भी सामने नहीं है। अलबत्ता ‘सतर्कता’ की बात कही जा रही है।
2.गतिरोध बनाम गतिरोध
राजनीतिक खेल अब गतिरोध पैदा कर रहा है या हिमाचल का विमर्श अब अपनी नई हैसियत का खुद ही चश्मदीद गवाह है। केवल दिन आगे धकेले जा रहे हैं या विधानसभा की कार्यवाही का मंजर चौराहे पर घसीटा जा रहा है। इस अपमान का गवाह कोई एक पक्ष नहीं हो सकता और सारा दोष विपक्ष पर मढ़ कर सत्ता पक्ष भी मदहोश नहीं हो सकता। सवाल सत्ता पक्ष की परिपक्वता और संयम का है तथा विपक्ष के आचरण का भी। क्या बजट सत्र के सामने प्रश्न भी सत्ता और विपक्ष में बंट जाएंगे या जो हंगामा बरपा है, उसके सामने जनता का विवेक डर जाएगा। बात को बतंगड़ बनने से रोका जा सकता था अगर दोनों तरफ से मोर्चे न खुलते और फिर यह हिमाचल की परंपराओं से जुड़ा विषय भी तो है, जहां इससे पूर्व सरकारें थीं, तो विपक्ष भी रहा, लेकिन अहंकार की चारपाइयों पर मुद्दों को इस तरह गर्म नहीं किया गया। यह गतिरोध अगर आगे बढ़ता है, तो सदन तक पहुंचे जनप्रतिनिधियों की ढीठ प्रवृत्तियों से आजिज होती जनता के सामने टूटने का एक ऐसा मंजर भी खड़ा होगा, जो अविश्वास की खाइयों में खोटे सिक्के चलाने की अनिवार्यता सरीखा है।
वरिष्ठ सदस्य दोनों तरफ से सदन के आगाज को आगे बढ़ाने की कूवत रखते हैं, लेकिन यहां तो लांछित होने की सजा में अगर नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री दिखाई दे रहे हैं, तो संसदीय मामलों के मंत्री सुरेश भारद्वाज तथा विधानसभा उपाध्यक्ष हंसराज भी आरोपों के कर्णधार माने जा रहे हैं। अगर सदन की ऊर्जा में कांग्रेस के विक्रमादित्य व विधानसभा उपाध्यक्ष हंसराज के बीच माहौल की तल्खी को मापा जाए, तो साधनविहीन प्रदेश को क्या मिला। अपनी-अपनी ऐंठ की गांठ खोलते विधायक यह कैसे भूल सकते हैं कि कोविड काल की मनहूस घडि़यों ने हजारों हिमाचलियों से रोजगार छीन लिया है। प्रदेश के लिए यह वक्त इतना भी सरल नहीं कि राजनीतिक वक्रता में दोनों पक्ष सदन का वक्त जाया करें। अगर यह मेहनत एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए जायज है, तो प्रदेश हार रहा है, यहां के संसाधन हार रहे हैं। सदन चलाने के लिए जनता हर पांच साल के बही खाते जोड़ती है और सत्ता को ताज पहनाकर अपने भविष्य की राहें खोजती है। जाहिर है इसी जवाबदेही से बंधी सरकार को विपक्ष को निरुत्तर करना है या ऐसे संकल्प प्रदर्शित करने हैं जिनके प्रारूप में विपक्ष कहीं अपने छोर पर असहज हो सके, लेकिन यहां तो प्रतिपक्ष को खुड्डे लाइन लगाने की भाषाई खुन्नस का सवाल पैदा हो गया। विपक्ष की ओर से आशा कुमारी, ठाकुर राम लाल व सुखविंदर सुक्खू ने जो स्पष्टीकरण दिए हैं, उन्हें सोशल मीडिया में घूम रहे वीडियो पूरी तरह खारिज नहीं करते,फिर भी जिद्द यह है कि अपनी-अपनी पगड़ी सलामत रहे। अब यह गतिरोध हिमाचल की पगड़ी को हिलाने लगा है। उस रिवायत को प्रश्नांकित कर रहा है, जहां तर्क-वितर्क भी सहज संप्रेषण की भाषा में अंगीकार होते थे। ऐसे में बार-बार सदन का बहिष्कार करते हुए बाहर निकल रही कांग्रेस का लोकतांत्रिक पक्ष भी समझना होगा। कांगे्रस महज इसलिए आफत में नहीं कि उसके पांच विधायक निलंबित हैं, बल्कि इसलिए भी है कि विषय की भूमिका में ‘प्वाइंट आफ आर्डर’ पर चर्चा नहीं हो रही।
जाहिर है बजट सत्र के पहले दिन कुछ परंपराएं टूटीं और इस लिहाज से एकतरफा होकर संविधान की परिभाषा मजबूत नहीं होगी। विपक्ष उस एसएमएस की खुराफात से विचलित है, जिसका तथाकथित रूप से इस्तेमाल करते हुए सदन ने एकतरफा चलना सीखा। यानी जब अभिभाषण की मर्यादा पर विपक्ष सदन से बाहर निकल कर प्रश्न उठा रहा था, तो भीतर सत्तापक्ष की मौजूदगी में उनके खिलाफ संवैधानिक फैसला आ रहा था। अब सवाल निलंबन के पेंच में बड़ा दिखाया जा रहा है या राज्यपाल की गरिमा के हिसाब से देखा जाएगा। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने स्पष्ट किया है कि जो विधानसभा परिसर में हुआ, उसके लिए राज्यपाल के सामने विपक्ष को नैतिक आधार पर माफी मांगनी चाहिए। यह एक पैगाम की तरह असरदार हो सकता है, लेकिन एक घटना ने न जाने कितने अर्थ पैदा किए हैं। पांच विपक्षी विधायकों का निलंबन न्याय करेगा या राज्यपाल की माफी उपकार करेगी, लेकिन इसके साथ उस एफआईआर का ताल्लुक भी है जो निलंबित विधायकों के खिलाफ सुरक्षा अधिकारी के नाम से दर्ज हुई है। गतिरोध बढ़ाने के लिए सदन में कोई पक्ष, तो कोई विपक्ष हो सकता है, लेकिन इस सारे माजरे में जनता की अपने प्रतिनिधियों से अपेक्षाओं का जायका फीका ही नहीं, बल्कि कड़वा हो रहा है। कड़वाहट से गतिरोध नहीं रुकेगा, अपितु प्रदेश के समय की बर्बादी में यह नजारा अपराधी है।
3.शालीनता के साथ
देश की सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया कि सरकार से अलग विचार रखना देशद्रोह नहीं है। अदालत ने बुधवार को जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के खिलाफ दायर याचिका को न केवल खारिज कर दिया, बल्कि याचिकाकर्ता पर 50 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया है। याचिका में मांग की गई थी कि अनुच्छेद 370 को लेकर अब्दुल्ला ने जो टिप्पणी की है, वह देशद्रोह है, इसलिए उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए। गौर करने की बात है, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और हेमंत गुप्ता की पीठ ने इस याचिका को सुनवाई लायक भी नहीं माना। अदालत का इशारा दोटूक है कि देशद्रोह एक बहुत संगीन आरोप है, जिसे बहुत सोच-समझकर ही किसी पर लगाना चाहिए। अपने देश में ज्यादातर देशद्रोह के मामले पुलिस स्वयं दर्ज कर लेती है, पर फारूक अब्दुल्ला के मामले में ऐसी जरूरत महसूस नहीं की गई थी, फिर भी याचिकाकर्ता ने सर्वोच्च अदालत का सहारा लिया और उसे उचित ही हार नसीब हुई। जिस देश में करोड़ों मामले अदालतों में लंबित हैं, वहां किसी अदालत के समय को ऐसे बर्बाद करने की गुस्ताखी से पहले देश के बारे में जरूर सोच लेना चाहिए। किसी भी सभ्य देश के नागरिक समाज को ही नहीं, बल्कि सरकारों को भी विपरीत विचार या विरोध के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। इसी से लोकतंत्र की खूबसूरती बढ़ती है। यह देश आपातकाल के दौर को बार-बार याद करता है, क्योंकि तब भी अभिव्यक्ति का अनादर हुआ था। तत्कालीन सरकार ने विरोधियों के खिलाफ बहुत कड़ी कार्रवाई की थी। आज अगर कांग्रेस नेता राहुल गांधी आपातकाल के बारे में पूछे गए सवाल पर कहते हैं कि वाकई, वह एक गलती थी, जो हुआ था, गलत हुआ था, तो इसके निहितार्थ गहरे हैं। अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने आपातकाल को लेकर यदि सवाल पूछा, तो कोई अचरज नहीं। उस दौर में सरकार ने जैसी असहिष्णुता का परिचय दिया था, उसके लिए उसके उत्तराधिकारियों को आज भी घेरा जाता है। तत्कालीन सरकार की अनुदारता को देश आज 43-44 साल बाद भी नहीं भूल पा रहा है, तो यह देश की तमाम सरकारों के लिए सबक है। सत्ता में बहुत ताकत होती है, मनमानी या बहुमत से कड़े से कड़ा फैसला संभव हो जाता है, लेकिन आम लोग ऐसी सत्ताओं के बारे में क्या सोचते हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण और जानने योग्य है। यदि आपातकाल न होता, तो इंदिरा गांधी और कांग्रेस का दामन आज कितना चमकदार होता, इस पर हर पार्टी को विचार करना ही चाहिए। सूचना माध्यमों के जोर पर देश में अभिव्यक्तियां बहुत मुखर और आक्रामक होने लगी हैं। हमारी सरकारों को बहुत सोच-समझकर देश को आगे ले जाना चाहिए। विशेष रूप से बड़े नेताओं को अपनी टिप्पणियों के प्रति ज्यादा सावधान हो जाना चाहिए। अपने आवेश और भावनाओं को नियंत्रण में रखकर की गई शालीन अभिव्यक्ति आज समाज व देश की सेवा से कम नहीं है। जो लोग छोटी-छोटी बातों पर भी उग्रता दर्शाने लगे हैं, उनका मार्गदर्शन करना जरूरी हो गया है। किस हद तक विरोध संभव है और कहां से देशद्रोह शुरू होता है, इसके बारे में लोगों को शिक्षित करने की कोशिशें लगातार होनी चाहिए। देश में सबको अभिव्यक्ति की आजादी हासिल है, पर उसकी सार्थकता तभी है, जब समाज व देश के प्रति अपने कर्तव्यों का भी पूरा एहसास हो।
- यौन हिंसा को मिल सकता है बढ़ावा
यह बात विचलित करती है कि यदि किसी नाबालिग लड़की के साथ ज्यादती करने वाले व्यक्ति को पीड़िता के साथ विवाह करने का अवसर न्यायिक व्यवस्था द्वारा दिया जाये। कहा जा रहा है कि यह प्रस्ताव शीर्ष अदालत के स्तर पर लैंगिक संवेदनशीलता को नहीं दर्शाता। हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया है कि आरोपी को पीड़िता के साथ शादी के लिये मजबूर नहीं किया जा रहा है, लेकिन यह विचार फिर भी अमान्य व असंवेदनशील है। सही मायनो में अदालत की यह टिप्पणी न केवल अपराधियों का हौसला बढ़ाती है बल्कि महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को कमतर दर्शाती है। कई मायनो में इस तरह का प्रस्ताव देना मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के वर्ष 2020 में दिये गये उस आदेश से भी बदतर है कि इस शर्त पर छेड़छाड़ के आरोपी को जमानत देना कि वह पीड़ित युवती को राखी बांधने का अनुरोध करेगा। दरअसल, यह पहला अवसर नहीं है कि महिलाओं से जुड़े किसी मामले में ऐसा सुझाव आया हो, कई अन्य सुझाव भी लैंगिक संवेदनशीलता की दृष्टि में खरे नहीं उतरे हैं। गत वर्ष जुलाई में भी उड़ीसा उच्च न्यायालय ने नाबालिग से बलात्कार के आरोपी व्यक्ति को उस समय शादी के लिये जमानत दे दी थी, जो उस समय तक वयस्क हो चुका था। दरअसल, जबरन या सहमति से शारीरिक संबंध बनाने के मामले में सख्त दंड के प्रावधान हैं। यदि पीड़िता नाबालिग है तो अपराध और गंभीर हो जाता है, क्योंकि वह कानूनन वैध सहमति नहीं। लेकिन अक्सर पीड़िताओं को कथित सामाजिक कलंक के दबाव में कई तरह के अनैतिक समझौते करने के लिये बाध्य किया जाता रहा है। कई बार लोकलाज की दुहाई देकर समाज के दबाव व डर के चलते यौन उत्पीड़न करने वाले व्यक्ति से शादी करने के लिये मजबूर किया जाता रहा है। यह विडंबना है कि कथित सामाजिक दबाव के चलते ऐसे विवाह को मान्यता दे दी जाती है। विडंबना यह है कि न्यायिक व्यवस्था भी ऐसे विवाह को मंजूरी दे देती है।
दरअसल, बदलते वक्त के साथ रिश्तों में कई तरह की जटिलताएं सामने आ रही हैं। शादी करने के झूठे आश्वासन देकर जबरन रिश्ते बनाने या लिव इन पार्टनर के मामलों में इस तरह के आरोप सामने आते रहे हैं। पीड़िता लिव पार्टनर रहने पर इस तरह के आरोप लगाये तो यह रिश्तों में खटास के मामले हो सकते हैं। लेकिन एक सभ्य समाज की मान्यताओं का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। किसी भी समाज में बलात्कार अपराध का सबसे घृणित रूप है जो किसी भी स्त्री के शरीर, मन और आत्मा को रौंदता है। ऐसे में अपराधी सख्त सजा का हकदार होता है। ऐसी स्थिति में किसी अपराधी को उसके वीभत्स कृत्य को कानूनी मंजूरी देकर इस तरह के अपराधों को प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए। अपने ऐतिहासिक न्यायिक फैसलों के बावजूद भारतीय न्यायपालिका की लैंगिक संवेदनशीलता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। उसे पुरुषों के वर्चस्व वाली बताया जाता रहा है। शीर्ष अदालत में महिला न्यायाधीशों की संख्या बेहद कम है। शीर्ष अदालत में 34 स्वीकृत पदों के मुकाबले दो महिला न्यायाधीश ही हैं। एक सितंबर, 2020 तक 25 उच्च न्यायालयों में स्वीकृत 1079 पदों के मुकाबले केवल 78 महिला न्यायाधीश ही थीं। इस तरह के विवादित प्रकरणों को टालने के लिये जरूरी है कि देश की अदालतों में पर्याप्त संख्या में महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति हो। दरअसल, यदि महिलाओं के साथ यौन हिंसा के मामलों में ऐसे अंसवेदनशील सुझाव हकीकत बनें तो इससे अपराधियों के हौसले बुलंद होंगे। सही मायनो में इस तरह के सुझाव जब अदालत से होकर आते हैं तो समाज में इसका असर व्यापक हो जाता है। अदालत ने जिस अभियुक्त को पीड़िता से विवाह करने का विकल्प दिया, वह पहले से ही शादीशुदा है। ऐसे सुझाव न केवल चौंकाने वाले हैं बल्कि परेशान करने वाले भी हैं। यह न केवल पीड़िता की तौहीन है बल्कि इससे उसके साथ हुए अपराध की भी अनदेखी होती है जो मानवता की कसौटी पर अन्याय जैसा ही है।