News & Events
इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.नारी सशक्तिकरण
संस्कृत में श्लोक है : ‘यत्र पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवताः।’ अर्थात, जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। नारी यानी दिव्य स्वरूप, प्रेम, करुणा, दया की प्रतिमूर्ति, दिव्य शक्ति व शुभ का सूचक…इत्यादि। मनुष्य के जीवन में नारी कई रूपों में मौजूद है। माता, बहन, बेटी, पत्नी मतलब सृष्टि की कल्पना नारी के बिना अधूरी है। शायद यही कारण है कि नारी सृजनात्मक शक्ति का प्रतीक होने के साथ ही सनातन संस्कृति एवं परंपराओं की संवाहक कही गई है। 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा और प्यार प्रकट करते हुए इस दिन को महिलाओं की आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। वैसे तो महिलाओें को प्रेरित करने के लिए ख़ास दिन की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए, लेकिन देश व दुनिया में जो परंपराएं रही हैं, उसमें महिलाओं को क्षमता रहित समझकर नारी की सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता से वंचित होना पड़ता है।
जबकि इसमें कोई सच्चाई नहीं है। इतिहास गवाह है कि नारी ने हमेशा से परिवार संचालन का उत्तरदायित्व संभालते हुए समाज निर्माण में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। राष्ट्र की प्रगति व सामाजिक स्वतंत्रता में शिक्षित महिलाओं की भूमिका उतनी ही अहम है जितनी कि पुरुषों की। लेकिन, महिला दिवस पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों के माध्यम से समाज के विकास में महिलाओं की सच्ची महत्ता और अधिकार के बारे में जनजागरूकता लाने का प्रयास किया जाता है। भारत की सभ्यता व संस्कृति में हमेशा से नारी सम्मान को प्रमुखता दी गई। प्राचीन ग्रंथ स्पष्ट करते हैं कि प्राचीन भारत में महिलाओं को ज्यादा आजादी थी। अध्ययनों के अनुसार मध्यकाल में महिलाओं की स्थिति में गिरावट आनी शुरू हो गई और मुगलों व बाद में गुलामी के दौर में महिलाओं की आजादी और अधिकारों को सीमित कर दिया। माना जाता है कि बाल विवाह की प्रथा छठी शताब्दी के आसपास शुरू हुई थी। भारत पर विदेशी आक्रांताओं के बाद तो हालात बद से बदतर हो गए। इसी समय पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, सती-प्रथा, जौहर और देवदासी जैसी घृणित धार्मिक रूढि़यां प्रचलन में आईं।
अंग्रेजी शासन ने अपनी तरफ से महिलाओं की स्थिति को सुधारने के कोई विशेष प्रयास नहीं किए, लेकिन 19वीं शताब्दी के मध्य में उपजे अनेक धार्मिक सुधारवादी आंदोलनों ने महिलाओं के हित में कार्य किया। समय के साथ मानवीय विचारों में बदलाव आया है। कई पुरानी परंपराओं, रूढि़वादिता एवं अज्ञान का समापन हुआ है। घर के चौके-चूल्हे से बाहर महिलाएं अब कदम से कदम मिलाकर सभी क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही हैं। अंतरिक्ष हो या प्रशासनिक सेवा, शिक्षा, राजनीति, खेल, व्यवसाय, साहित्य, सेना, मीडिया सहित विविध क्षेत्रों में महिला अपनी गुणवत्ता सिद्ध कर कुशलता से प्रत्येक जिम्मेदारी के पद को संभालने लगी है। पिछले छह वर्षों में सेना में महिलाओं की लगभग तीन गुना वृद्धि हुई है और उनके लिए एक स्थिर गति से अधिक रास्ते खोले जा रहे हैं। बावजूद इसके, आज भी सामाजिक सोच और अपराध के आंकड़े विचलित करते हैं। पिछला वर्ष कोरोना काल में बीत गया। हैरानी की बात है कि इस दौरान महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के आंकड़े बढ़े हैं। महिलाओं पर होने वाले यह अत्याचार समाज पर कलंक हैं। जब महिलाओं पर इस तरह के अत्याचार बढ़ते हैं तो समाज का सिर झुकता है। महिलाओं के प्रति यह घोर अन्याय है, जिसे सहन नहीं किया जा सकता है। इस पर केंद्र व राज्य सरकारों को कड़े निर्णय लेने चाहिए। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सबसे महत्त्वपूर्ण है महिला सशक्तिकरण। उसके पश्चात शिक्षा के माध्यम से उन्हें और सशक्त बनाना। तभी महिलाओं की स्थिति में सुधार आ पाएगा।
2.कितने फरलांग का बजट
आर्थिक सर्वेक्षण की मिट्टी को अछूत छोड़ दें, तो हिमाचली बजट के आसपास कहकहे बहुतेरे हैं। बजट में घबराहट नहीं है और जिंदगी के बागीचे में कुछ पेड़ लगाने की कोशिश करते मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, सामाजिक सुरक्षा के अपने मुहावरों को सलीके से सजा देते हैं। एक लंबी फेहरिस्त बनाने की कोशिश में कम से कम कर्मचारियों के करीब दर्जन भर ऐसे अस्थायी पद हैं, जो अपनी मानदेय की पलकों पर चंद खुशियां आबाद कर लेते हैं। खासतौर पर आशा वर्कर के मानदेय में साढ़े सात सौ रुपए की बढ़ोतरी से यह राज्य उनका कर्ज उतारता हुआ दिखाई देता है। बजट में घोषणाओं की सियाही न सूखे, इसके लिए वित्तीय प्रबंधन से कशमकश और गिरती अर्थ व्यवस्था के माइनस 6.2 हो जाने का सदमा बर्दाश्त करने का साहस बटोरना काफी रोमांचित करता है। कभी-कभी लगता है कि बजट अपने भीतर कई बाजू जोड़ लेता है। इनमें केंद्रीय योजनाओं का सम्मिश्रण, केंद्रीय सहयोग की गति, डबल इंजन सरकार की पेशगी, स्मार्ट शहरों की अदायगी और इन्वेस्टर मीट के चिराग जलाए गए हैं। गैर राजनीतिक यथार्थवाद को एक तरफ छोड़ दें, तो लगता है भविष्य कुछ फरलांग दूर हमारा इंतजार कर रहा है।
उदाहरण के लिए ऊना में बल्क ड्रग, नालागढ़ में प्लास्टिक व मेडिकल डिवाइस पार्कों का प्रस्ताव अगर इसी बजट की मूंछें उगा दे, तो हजारों करोड़ का निवेश ही नहीं, पच्चीस हजार युवाओं को रोजगार का तमगा भी हासिल होगा। कथनी के अनुसार मंडी एयरपोर्ट के साथ-साथ बाकी पुराने तमाम हवाई अड्डों का विस्तार होना शुरू हो जाए, तो पर्यटकों की 81.33 फीसदी घट चुकी आमद की पुनः बहाली हो जाएगी। सरकार जनता को ऐसे गीत सुनाना चाहती है, जो पिछले साल के कोविड दुष्प्रभाव में गिरी हुई आशाओं को जागृत कर दें। करीब तीस हजार नौकरियों का वादा करके बजट अपने भीतर के उत्साह को बरकरार रखता है और यह राजनीतिक विधा का अति पारंगत चेहरा भी है, जिसे हर सरकार नए आकार-प्रकार में पेश करती है। वास्तव में अब हिमाचल की रौनक व मेले या तो अधीनस्थ सेवा चयन आयोग या पब्लिक सर्विस कमीशन मुख्यालय में देखे जाएंगे। पिछले साल जीडीपी में हुई गिरावट ने कृषि एवं बागबानी का दामन ठुकराया, तो मुख्यमंत्री ने यह कह कर चुनौती स्वीकार की है, ‘किसान का बेटा हूं, खेती करना मेरा कर्म है, अपने साथ दूसरों का पेट भरना मेरा धर्म है’। प्राकृतिक खेती के प्रति समर्पित बजट मधुमक्खी पालन बोर्ड के गठन का वादा करके शहद घोल रहा है। अधोसंरचना निर्माण की कवायदों में बढ़ोतरी की महक लेकर बजट ग्रामीण सड़कों की तस्वीर बदलने का इच्छुक है, तो एक हजार किलोमीटर विस्तार की भूमिका में नए आश्वासन जोड़ रहा है। इनमें ‘पर्यटक सड़कों’ की अवधारणा से ग्रामीण पर्यटन की बांछें खिल सकती हैं। नई बसों की खेप तथा इलेक्ट्रिक बसों के संचालन पर दरियादिली का आलम यह कि परिवहन निगम के उजड़े खातों में सरकार 377 करोड़ डाल देगी। सरकार स्वास्थ्य व शिक्षा विभाग को परवान चढ़ाते हुए कितनी गुणवत्ता ला पाएगी, यह नसीहत भरा सौदा फिर बजट का खर्चीला पहलू बन कर दर्ज है। सरकार अपने बजटीय संकल्पों में भले ही शिमला, धर्मशाला व मंडी इत्यादि शहरों की फाइव स्टार रैंकिंग की बात करती है, लेकिन नए नगर निगमों को वित्तीय समर्थन की दरकार अभी पूरी नहीं हो रही।
कम से कम धर्मशाला व शिमला की स्मार्ट सिटी परियोजनाओं में बजट का तात्पर्य और मूल प्रस्तावों की व्याख्या के बजाय कुछ घुसपैठ है। धर्मशाला का प्रस्तावित कमांड एरिया फिर क्यों शिमला स्थानांतरित हो रहा है, इसकी कोई वजह नहीं मिलती। यह दीगर है कि अटल टनल से झांकते पर्यटन के काबिल लाहुल-स्पीति को नए नजरिए से देखा जा रहा है। पंचायतों में एक छत के नीचे 2982 कॉमन सर्विस सेंटर तथा 364 पंचवटी पार्क बनाने का वादा किया जा रहा है। स्कूली खिलाडि़यों की डाइट मनी में इजाफे के साथ-साथ सोलन-सुंदरनगर में इनडोर स्टेडियम और माजरा में एस्ट्रोटर्फ का प्रस्ताव प्रशंसनीय है। इसी के साथ मुख्यमंत्री के अपने और खेल मंत्री के क्षेत्र में इनडोर खेलों का आधार विकसित होगा। करवटों और करामात के बीच बजट को सौगात की तरह पेश करने का हर शब्द चुना गया और यह कार्य इतने करीने से किया गया कि आर्थिक सर्वेक्षण की खाली अंजुली से भी जैसे कोई घी चुरा कर ले गया हो। साठ हजार पांच सौ करोड़ के कर्ज तले बजट ने पहली बार पचास हजार एक सौ बानवे करोड़ का दीया जलाया है। यह सारी कसौटियां पुनः 8960 करोड़ के ऋण को निमंत्रण दे रही हैं। बेशक बजट के प्रारूप में कई वर्गों को लाभान्वित किया जा रहा है, लेकिन हर तरह के घाटे के बजट में जल रहे घी के दीपक कुछ तो शिकायत करते हैं।
3.चांद की सैर
चांद हम इंसानों केलिए न केवल गहरे लगाव, बल्कि रोमांच का भी विषय है। आम तौर पर वैज्ञानिक और अंतरिक्ष यात्री ही बहुत प्रशिक्षण के बाद चांद तक पहुंच पाते हैं, बाकी लोगों के लिए ऐसी कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। अब आम लोगों के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं कि उनके लिए भी चांद तक पहुंचने का मौका उपलब्ध हो गया है। जापानी उद्यमी युसाकु मेजावा, जिन्होंने आठ लोगों को डियर मून मिशन के लिए ले जाने की घोषणा की थी, उन्हें महज तीन दिन में तीन लाख से अधिक आवेदन मिल चुके हैं। दिलचस्प यह कि उन्हें सबसे ज्यादा आवेदन भारतीयों की ओर से मिले हैं। यह पहला नागरिक चंद्रमा मिशन है, जिसकी आठ सीटों को मेजावा ने खरीद रखा है। पहले उनकी इच्छा केवल कलाकारों को सैर कराने की थी, लेकिन अब उन्होंने कलाकार की परिभाषा का विस्तार कर दिया है। उनका कहना है, जीवन में जो भी व्यक्ति कुछ नया सृजन कर रहा है, वह कलाकार है। जाहिर है, अब आम आवेदकों के सपनों को भी मानो पंख लग गए हैं। भारत ही नहीं, दुनिया के 237 से अधिक देशों-क्षेत्रों से चंद्र मिशन के लिए लालायित लोगों की संख्या चर्चा का विषय बन गई है। भारत के बाद अमेरिका, जापान, फ्रांस व ब्रिटेन के लोग भी चांद पर जाने को ज्यादा इच्छुक हैं। दरअसल, इस डियर मून प्रोजेक्ट को विख्यात उद्यमी और दुनिया के सबसे अमीर इंसानों में शुमार एलन मस्क की कंपनी स्पेसएक्स ने वर्ष 2018 में पेश किया था। इस प्रोजेक्ट के तहत ही जापानी अरबपति मेजावा ने पहले यात्री के रूप में अपना नाम लिखवाया था। इतना ही नहीं, मेजावा ने इस मिशन की आठ सीटों को बाकायदे पैसे देकर खरीद रखा है। उन्होंने इसके लिए कितने पैसे खर्च किए हैं, इसका पता नहीं, लेकिन अरबों डॉलर में भुुगतान हुआ हो, तो आश्चर्य नहीं। आम लोगों के लिए खास यह कि उन्हें मुफ्त में ही चांद की सैर का मजा मिलेगा। इस मिशन के तहत चांद तक पहुंचने और लौटने में तीन-तीन दिन लगेंगे व एक दिन चांद के पास रहना संभव होगा। ऐसे में, पूरे सप्ताह भर का ऐतिहासिक रोमांच पूरी दुनिया में छाया रहेगा। यदि स्पेसएक्स के अभियान में कोई अड़चन न आए, तो यह सपना वर्ष 2023 में साकार हो जाएगा। मेजावा की इच्छा स्वागतयोग्य है, वह चाहते हैं कि जो भी लोग इस मिशन पर जाएं, वे लौटकर दुनिया को बहुत अच्छी तरह से बताएं कि उन्होंने चांद के पास क्या देखा।
यह अपने आप में बहुत उत्साह जगाने वाली बात है कि जो काम सरकारें नहीं कर पा रही हैं, उन्हें पूरा करने का बीड़ा दुनिया के एक-दो अमीर उद्यमी उठा रहे हैं। चांद के प्रति सरकारों का लगाव 40 साल पहले ही कम हो गया था। शीतयुद्ध के खत्म होने के बाद तो चांद पर पहुंचकर खुद को सिद्ध करने की जरूरत ही नहीं रही। फिर भी इस सदी में अंतरिक्ष पर्यटन की चर्चा लगातार होती रही है और उसमें भी एलन मस्क का सपना सबसे ज्यादा चर्चित है। एलन मंगल पर बस्ती बसाना चाहते हैं। आम लोगों को चांद पर पहुंचाना चाहते हैं, लेकिन यह काम कतई आसान नहीं है। अफसोस, इन दिनों स्पेसएक्स को अपने अभियानों में नाकामी ज्यादा मिल रही है। फिर भी तय है, एक दिन आम लोग भी चांद पर जरूर पहुंच सकेंगे, लेकिन इसके लिए कई उद्यमियों और वैज्ञानिकों को मिलकर काम करना पड़ेगा।
- सौ दिन की टीस
अभिभावक की भूमिका में दिखे सरकार
केंद्र सरकार के नये तीन कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ दिल्ली की दहलीज पर आंदोलनरत किसानों ने आंदोलन के सौवें दिन कुंडली-मानेसर-पलवल एक्सप्रेस वे पर चक्का जाम कर अपना विरोध जताया। यह विडंबना ही है कि कोरोना संकट और विषम मौसम की परिस्िथतियों में किसान आंदोलनरत हैं। निस्संदेह न राज हठ जायज है, न किसान हठ। सरकार की कई दौर की बातचीत, सुप्रीम कोर्ट के प्रस्ताव तथा डेढ़ साल तक कृषि कानूनों को स्थगित करने के सरकार के प्रस्ताव को आंदोलनरत किसानों ने स्वीकार नहीं किया। बहरहाल, बीच का रास्ता निकालने की जरूरत है। थोड़ी और उदारता सरकार को भी दिखानी चाहिए और किसानों को भी सरकार के आश्वासनों पर विश्वास करते हुए बातचीत के जरिये किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयास करना चाहिए। सरकार के स्तर पर यह कमी मानी जानी चाहिए कि जिस किसान के हित के लिये कृषि सुधारों की पहल की गई, कम से कम उसकी समझ में सुधार के निहितार्थ आने चाहिए थे। निस्संदेह किसान आंदोलन के साथ कुछ राजनीतिक दल, किसानों के मुद्दों पर राजनीति करने वाले संगठन भी सक्रिय हैं, जिसको लेकर सरकार की कुछ आशंकाएं भी हैं। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में किसी आंदोलन का इतना लंबे समय तक चलना किसी के भी हित में नहीं कहा जा सकता। कतिपय संगठन और कुछ देश इस मुद्दे को भारत के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।
निस्संदेह, किसानों की अपनी समस्याएं हैं और उन्हें किसान के संदर्भों में नहीं देखा गया। किसान को एक वोट की तरह इस्तेमाल किया गया। किसानों को लोकलुभावने नारों से तो भरमाया गया लेकिन भविष्य की चुनौतियों के मद्देनजर प्रगति में किसान की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की गई। स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करने में भी तमाम तरह के किंतु-परंतु होते रहे हैं। कृषि से जुड़े अंतर्विरोध यह भी हैं कि गेहूं-चावल को एमएसपी के दायरे में लाने से इन्हीं फसलों को किसान तरजीह देने लगे। बफर स्टॉक बढ़ने और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अन्न का उत्पादन बढ़ने तथा उत्पादन के मुकाबले खपत कम होने से भी सरकार के सामने एक ही तरह के अन्न उत्पादन की समस्याएं सामने आईं। सरकार नये प्रयासों से उन्हीं समस्याओं के समाधान तलाशने का दावा कर रही है। ऐसा भी नहीं है कि कृषि सुधारों को सिरे से खारिज कर दिया जाये। आईएमएफ, अमेरिका समेत कई संगठनों ने सुधारों की सकारात्मकता पर बात की है। लेकिन सवाल यही है कि क्यों सरकार इन लाभों के बाबत किसानों का विश्वास हासिल करने में चूकी है। बहरहाल, यह समय राज हठ और किसान हठ से ऊपर उठने का है। किसान हित भी देखा जाये और देश हित भी। कम से कम संवाद की प्रक्रिया तो शुरू होनी चाहिए, इस कथन के बाबत कि सरकार एक कॉल की दूरी पर तैयार है। किसान आंदोलन का लंबा खिंचना न तो किसानों के हित में है और न ही देश के हित में। यह गतिरोध को खत्म करने का वक्त है।