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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.सिर्फ तारे तोड़ना बाकी
हिमाचली राजनीति के सांता क्लाज इस समय अपने सबसे नरम कालीन पर चल रहे हैं। जिम्मेदारियों के अहम पड़ाव में चार नगर निगम चुनावों की फेहरिस्त में हिमाचल की सत्ता और सत्ता के सिपाही। ऐसा प्रतीत होता है कि पूरा प्रदेश केवल चार शहरों में सिमट गया हो और यह भी कि सरकार की ओर से राकेश पठानिया, बिक्रम सिंह, महेंद्र सिंह और डा. राजीव बिंदल इस वक्त ऐसे सेनापति बनाए गए हैं जिनके भीतर राजनीतिक सांता क्लाज जन्म ले रहा है। नए कर्म की भूमि पर सौहार्द उगाने की महफिलों में सिर्फ तारे तोड़ना ही बाकी है, वरना बजट से इतर मंडी, पालमपुर, सोलन व धर्मशाला में सत्ता का प्रभाव तमाम घोषणाओं के ढक्कन हटाकर ‘मुंह दिखाई’ कर रहा है। पालमपुर में चुनाव का चेहरा बिक्रम सिंह व उनके परिवहन क्षेत्र को दिखा रहा है, तो धर्मशाला में राकेश पठानिया का खेल विभाग उतर आया है। कभी धूमल सरकार में जिस खेल नगरी का तमगा पहनाया गया था, आज उसे उठा कर पठानिया फिर जोश में हैं।
हालांकि एक सत्य यह भी है कि राष्ट्रीय खेल प्राधिकरण के उच्च प्रशिक्षण खेल छात्रावास के लिए वर्षों से मंजूर छब्बीस करोड़ की राशि कहीं खुर्द-बुर्द हुई है। पठानिया शहर में देश की बेस्ट स्मार्ट सिटी देख रहे हैं, लेकिन हकीकत यह भी कि वेस्ट मैनेजमेंट की फाइल न जाने किस कूड़ेदान में पड़ी है। स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के उखडे़ तंबू के बीच राकेश पठानिया अपनी मीठी गोलियों से चकित कर रहे हैं और अगर यही उनकी कसौटी है, तो चुनाव के गोल गप्पे काफी रोचक रहेंगे। बेशक महेंद्र सिंह की वसीहत में मंडी का दरबार सजेगा और सरकार की सबसे बड़ी पेशकश में मुख्यमंत्री का ताज भी सजेगा। यहां फैसला जनता की श्रद्धा का है। जिला से मुख्यमंत्री का पद और शहर से नगर निगम का कद अगर स्थायी हो जाए, तो इसकी बुनियाद में महेंद्र सिंह के मोती भी चुने जाएंगे। यह किसी से छिपा नहीं कि अपने विभागीय वजन से महेंद्र सिंह वास्तव में प्रदेश के उपमुख्यमंत्री ही माने जाते हैं। इस लिहाज से मंडी शहर केवल नगर निगम का फैसला नहीं करेगा, बल्कि सत्ता के वजूद में मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री के प्रभाव का मूल्यांकन, समर्पण और स्थायित्व का नया परिचय भी देगा। प्रदेश की शहरी भूमिका में सोलन अपने तेवरों का ऐसा शहर है जो विकास की हर पारी में अव्वल हस्तियों का जमावड़ा रहा है। राजनीतिक तौर पर सोलन की बिसात पर हर सरकार की अग्र्रणी भूमिका रही है। वाईएस परमार ने परवाणू, वीरभद्र ने बीबीएन, धूमल ने निजी विश्वविद्यालय, तो जयराम ने नगर निगम का ताज पहनाकर पूरे जिला की हस्ती को अंगीकार किया है।
ऐसे में अपने विभिन्न सेतुओं पर चलता यह शहर उस मांझी को फिर देख रहा है, जिसका नाम डा. राजीव बिंदल है। अपनी मुख्य भूमिका और प्रमुख धारा से छिटक चुके डा. राजीव बिंदल की होनहार शख्सियत में नगर निगम चुनाव कमोबेश उसी पिच पर हैं जहां यह नेता बतौर नगर परिषद अध्यक्ष के चिन्हित और आरोपित रहा है। सोलन शहर डा. बिंदल के प्रति कृतज्ञता भरा अंदाज रखता है और इसलिए यह भाजपा की रणनीति में उनके प्रति जनता का आभार और आदर देखा जाएगा। कुछ इसी तरह की कृतज्ञता मंडी शहर की परिक्रमा में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का किस तरह धन्यवाद करती है या महेंद्र सिंह की वर्षों की सियासत का रुतबा उनके ‘धर्मपुर’ से बाहर निकल कर मंडी नगर निगम चुनाव का शंखनाद करता है, देखना होगा। यहां यह भी गौरतलब है कि न बिक्रम सिंह के प्रति पालमपुर में कृतज्ञता दर्ज करने का कोई स्पष्ट कारण है और न ही राकेश पठानिया के प्रति धर्मशाला को आभार प्रकट करने का कोई बकाया उतारना है, इसलिए नगर निगम की फसल कांगड़ा में आकर अलग गोटियां फेंट रही है। यहां सरकार को हर मोड़ पर बताना होगा कि पिछले साढ़े तीन साल में कितने कोस चली। धर्मशाला में पूर्व विधायकों क्रमशः किशन कपूर व सुधीर शर्मा के बीच भाजपा खुद को निहार सकती है। क्या किशन कपूर की विरासत को ओढ़कर वर्तमान भाजपा विधायक उबर पाएंगे या इस शहर के प्रगति प्रतीकों से चस्पां सुधीर शर्मा के नाम को भाजपा अपने भोलेपन से धो पाएगी। बहरहाल इतना जरूर है कि इस बहाने गाहे-बगाहे राकेश पठानिया अपनी भूमिका का एक ऐसा दुर्ग बना रहे हैं, जो कल उन्हें निजी तौर पर बढ़त दे सकता है।
2.आरक्षण-सीमा पर विमर्श
आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी रहे अथवा इसे बढ़ाया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने इस साझा राय में सभी राज्यों को शामिल करने की महत्त्वपूर्ण पहल की है, लेकिन यह बर्र के छत्ते में हाथ लगाने जैसा साबित हो सकता है। आरक्षण बेहद संवेदनशील और राजनीतिक मुद्दा है। हमारे पुरखों ने संविधान बनाते हुए समाज और समय की विषमताओं को समझा था, लिहाजा आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक असमानताओं के मद्देनजर आरक्षण की व्यवस्था तय की थी। शुरुआत 10 साल के लिए की गई थी, लेकिन आज़ादी के 73 साल बीतने के बावजूद आरक्षण जारी है। उसे जारी रखने की कई विवशताएं हैं। उसे अब समाप्त करना असंभव-सा लगता है। आरक्षण को चुनावी मुद्दा बनाया जाता रहा है। आरक्षण अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के समुदायों को हासिल है। ओबीसी के तहत कई जातियों को थोड़ा-थोड़ा आरक्षण देने के राजनीतिक फैसले किए जाते रहे हैं, लिहाजा आरक्षण 50 फीसदी से अधिक हो गया है। यह स्थिति कई राज्यों में है और सर्वोच्च अदालत के आदेश का स्पष्ट उल्लंघन किया जाता रहा है। 16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी फैसले में शीर्ष अदालत की 9-सदस्यीय संविधान पीठ ने व्यवस्था दी थी कि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए।
हालांकि संविधान में किसी भी आरक्षण-सीमा का प्रावधान नहीं किया गया है, फिर भी इस फैसले को ‘ऐतिहासिक’ करार दिया गया। अब सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों के साथ विमर्श का निर्णय लिया है कि क्या आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा भी हो सकती है? तो उसके मानदंड क्या रखे जाएं? शीर्ष अदालत ने राज्यों को चेताया भी है कि सर्वोच्च अदालत का अब जो फैसला होगा, सभी राज्यों पर उसके व्यापक असर होंगे, लिहाजा सभी राज्यों की राय लेना जरूरी समझा गया। अहम सवाल यह है कि इस मुद्दे पर क्या सभी राज्यों में सहमति बन सकेगी? या सभी राज्य 50 फीसदी की सीमा को नहीं लांघने का भरोसा देंगे? क्या सभी राज्य समय-सीमा में नोटिस का जवाब शीर्ष अदालत को भेज देंगे? चूंकि राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें हैं, लिहाजा इस विषय पर वे एकमत कैसे हो सकती हैं? गौरतलब यह भी है कि 1992 का फैसला 9-सदस्यीय पीठ का था, लिहाजा अब उससे बड़ी संविधान पीठ का गठन अनिवार्य समझा जा रहा है। कमोबेश संविधान पीठ 9-सदस्यीय तो होनी ही चाहिए और उसे कुछ अतिरिक्त विशेषाधिकार दिए जाएं। आरक्षण की सीमा लांघने वाले राज्यों में असम, गुजरात, तमिलनाडु, तेलंगाना, महाराष्ट्र, झारखंड, छत्तीसगढ़ और लक्षद्वीप आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। लक्षद्वीप में तो 100 फीसदी आरक्षण है। अरुणाचल, मेघालय, नगालैंड, मिजोरम में अनुसूचित जनजाति के लिए 80 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। इन कोटों को कम या सीमित कैसे किया जा सकता है? दिलचस्प है कि आरक्षित लोग अनारक्षित श्रेणी का लाभ भी ले सकते हैं। महाराष्ट्र में मराठा वर्ग को नौकरी और उच्च शिक्षा में 16 फीसदी आरक्षण तय किया गया था, नतीजतन आरक्षण 50 फीसदी की सीमा को लांघ गया। अब यह मामला सर्वोच्च अदालत के सामने है।
उसी की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की सीमा पर सभी राज्यों की राय लेने की घोषणा की और राज्यों को नोटिस भिजवाए। मराठा की तर्ज पर जाट, गुर्जर आदि समुदायों को आरक्षण बांटा गया है। यदि गंभीर और सूक्ष्म विश्लेषण करें, तो इन वर्गों को आरक्षण की कोई ज़रूरत नहीं है। अब मीणा सरीखे कई आरक्षित जातियां हैं, जिनमें आईएएस पैदा करने की खास गुणवत्ता है। अब इनकी नई और सम्पन्न पीढ़ी को आरक्षण देने की जरूरत क्या है? क्या उनकी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक विषमताएं समाप्त नहीं हुईं? यदि सर्वोच्च अदालत के नेतृत्व में विमर्श हो रहा है, तो इस पहलू पर भी होना चाहिए कि अब वाकई किन जातियों को आरक्षण की बुनियादी जरूरत है? और अब किन्हें अनारक्षित वर्ग में डाल दिया जाना चाहिए? इस मामले में संविधान के 102वें संशोधन पर पुनर्विचार करने से भ्रम और पेचीदगी की स्थितियां बनेंगी। सवाल यह भी उठेगा कि संसद में पारित संशोधन पर अब अदालत कोई विमर्श कर सकती है अथवा नहीं? कुछ भी हो, हमें यह निर्णय और पहल स्वागतयोग्य लगती है, क्योंकि आरक्षण की सीमा और अवधि दोनों ही संवैधानिक तौर पर तय किए जाने चाहिए।
3.नंदीग्राम का संग्राम
विधानसभा चुनाव वैसे तो पांच राज्यों में हो रहे हैं, लेकिन जिस एक विधानसभा सीट पर न सिर्फ पूरे देश, बल्कि भारतीय लोकतंत्र में दिलचस्पी रखने वाले बाहर के लोगों की निगाहें भी केंद्रित हो गई हैं, वह है पश्चिम बंगाल की नंदीग्राम सीट। तृणमूल कांगे्रस की मुखिया और राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आज यहां से अपना नामांकन दाखिल कर रही हैं, जबकि उनके मुकाबले में भाजपा ने हाल ही में तृणमूल छोड़कर आए शुभेंदु अधिकारी को उतारा है। शुभेंदु इस इलाके से लंबे समय से संसद व विधानसभा में पहुंचते रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने 80 हजार से भी अधिक वोटों से वाम मोर्चे के प्रत्याशी को हराया था। इसके बावजूद ममता बनर्जी ने नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का फैसला करके शायद अपने कार्यकर्ताओं को यह संदेश देने का काम किया है कि वह जोखिम से घबराने वाली नेता नहीं हैं। ममता बनर्जी के राजनीतिक उत्थान में सिंगूर और नंदीग्राम का काफी महत्व है। वाम मोर्चे की साढे़ तीन दशक पुरानी सत्ता को खत्म करने में नंदीग्राम आंदोलन ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई थी, यह देश जानता है। पिछले एक दशक से यह तृणमूल का गढ़ रहा है। ऐसे में, इस पर किसी अन्य दल को पांव जमाने से रोकने के लिए ममता के पास इससे बेहतर और कोई दांव हो भी नहीं सकता था। इस चुनावी संग्राम को जैसे उन्होंने तृणमूल के वजूद से जोड़ दिया है। लेकिन इस बार उनके सामने वह भाजपा है, जो प्रचुर संसाधनों, धारदार प्रचार अभियानों के साथ-साथ ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ की रणनीति पर हर चुनाव लड़ने में यकीन रखती है। पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव किस तरह विकास के स्थानीय मुद्दों के बजाय ध्रुवीकरण के खेल में उलझ गया है, इसको नंदीग्राम बता रहा है। इस विधानसभा क्षेत्र में बहुसंख्यक मतदाता अधिक हैं, और भाजपा ‘जय श्रीराम’ के नारे के साथ उन्हें अपने पाले में करने के लिए काफी प्रखर चुनाव अभियान चला रही है। ममता बनर्जी ने कल नंदीग्राम की जनसभा में जिस तरह से ‘चंडी पाठ’ किया और लोगों से कहा कि वह ‘शिवरात्रि’ भी उनके बीच ही मनाएंगी, यह उजागर करता है कि धार्मिक धु्रवीकरण की चुनौती उनके लिए कितनी अहम हो चली है।
भारतीय राजनीति के लिए यह चिंता की बात है कि जब मतदाताओं के पास हिसाब-किताब का मौका आता है, तब हमारा राजनीतिक वर्ग उन्हें जमीनी मुद्दों से दूर करने में कामयाब हो जाता हैै और अक्सर भावनात्मक, धार्मिक मसले निर्णायक भूमिका अख्तियार कर लेते हैं! पिछले एक दशक से जो पार्टी सूबे की तरक्की और खुशहाली के वादे पर राज कर रही है, उसके शासन की खामियों व कमियों को निर्णायक मुद्दा न बना पाना न सिर्फ विपक्ष, बल्कि पूरे राजनीतिक तंत्र की विफलता है। चुनाव गंभीर विमर्श की जगह यदि आज ‘खेला’ बन रहे हैं, तो इसके लिए राजनीतिक-व्यवस्था के सभी पक्ष जिम्मेदार हैं। क्या चुनाव सिर्फ सत्ता का खेल है? नहीं! ये बेहतर कल के सपनों-इरादों की बुनियाद हैं और इनकी शुचिता व गंभीरता को हास्यास्पद नारों, जुमलों और प्रलोभनों की भेंट नहीं चढ़ने दिया जा सकता। नंदीग्राम का चुनाव धार्मिक धु्रवीकरण के बजाय यदि जमीनी मुद्दों पर कोई परिणाम गढ़ता है, तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए कहीं अधिक आश्वस्तकारी होगा। फिर ‘खेला हौबे’ जैसे नारों की जरूरत भी नहीं पडे़गी।
- चुनावी बजट
खस्ता आर्थिक हालात में उपकारों की बौछार
निस्संदेह पंजाब के वित्तमंत्री मनप्रीत सिंह बादल द्वारा सोमवार को विधानसभा में पेश बजट में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह के चुनावी चक्रव्यूह की छाया स्पष्ट नजर आती है। लक्षित समूहों को ध्यान में रखते हुए रियायत, लाभ व उपहार दिये गये हैं। वैसे भी आगामी वर्ष में होने वाले पंजाब विधानसभा चुनावों से पहले राज्य की कांग्रेस सरकार का यह आखिरी बजट है। स्वाभाविक है कि बजट मीठा-मीठा होना ही था। किसान आंदोलन की तपिश को पार्टी की ऊर्जा में तब्दील करने की सुनियोजित कोशिश भी हुई है। कैप्टन को पता है कि पंजाब के किसान केंद्र द्वारा लागू किये कृषि सुधार कानूनों की खिलाफत में अगुआ हैं। इसके चलते इस बड़े वोट बैंक को आकर्षित करने के लिये कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान केंद्रित किया गया है। वित्तमंत्री मनप्रीत बादल ने करीब 1.13 लाख किसानों का 1,186 करोड़ रुपये का ऋण माफ करने की घोषणा की है। इसके अलावा भूमिहीन किसानों को 526 करोड़ रुपये का कर्ज नहीं चुकाना पड़ेगा। कमोबेश यह दांव वर्ष 2017 में घोषित उस फसली ऋण माफी योजना का ही विस्तार है, जिसके बूते कांग्रेस अकाली भारतीय जनता पार्टी गठबंधन सरकार से सत्ता छीनने में कामयाब हुई थी। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि ऋणमाफी जैसे लोकलुभावन कदम इस समस्या का फौरी उपचार तो दे सकते हैं, लेकिन यह पूर्णरूप से स्थायी समाधान नहीं है। सही मायनों में ऋण माफी का राजनीतिक उपक्रम ऋण लेने की नई शृंखला को ही विस्तार देता है। कालांतर में राज्य की अर्थव्यवस्था को बीमार करने में इनकी बड़ी भूमिका भी होती है। ऐसी ही लोकलुभावनी राजनीति के कारण पंजाब की कृषि समस्याओं के समाधान की दिशा में कारगर पहल नहीं हो पायी है। अलाभकारी खेती, गिरता जलस्तर, भूमि की उर्वरता में गिरावट तथा फसलों की कटाई में होने वाली समस्याएं ऐसी ही लोकलुभावन राजनीति हथकंडों की वजह से विकट हुई हैं जिस पर दीर्घकालीन लक्ष्यों के अनुरूप विमर्श की जरूरत है।
इन तमाम लोकलुभावन वादों-इरादों के बीच यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि राज्य की आर्थिक हालत खस्ता है। बजट पेश करने के दौरान वित्तमंत्री मनप्रीत बादल लगातार बढ़ते वित्तीय संकट के प्रति चिंता तो जताते हैं लेकिन उससे उबरने के लिये कोई ठोस रणनीति का जिक्र नहीं करते। यह सार्वजनिक तथ्य है कि पंजाब के सिर पर कर्ज 2,73,730 करोड़ रुपये हो गया है। वर्ष 2016-17 में यह लगभग 1,53773 करोड़ रुपये था। इसके बावजूद सरकार ने किसानों को मुफ्त बिजली देने के लिये 7180 करोड़ रुपये आवंटित किये हैं। राज्य सरकारों के लिये इस तरह की सब्सिडी अपना जनाधार बढ़ाने का हथियार रहा है। इसके बावजूद कि नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग इसे राज्य की चरमराती अर्थव्यवस्था के कारकों में मुख्य घटक बताते रहे हैं। कैग राज्य सरकार को इस स्थिति से उबरने को कहता रहा है। बहरहाल, इसके बावजूद वित्तमंत्री ने फसलों के विविधीकरण को प्रोत्साहित करने और बागवानी को बढ़ावा देने के लिये कतिपय योजनाओं की भी घोषणा अपने बजट में की है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि इन योजनाओं को व्यावहारिक व दीर्घकालीन दृष्टि से लाभदायक बनाया जाये। लक्षित समूहों को ध्यान में रखते हुए कैप्टन अमरेंद्र सरकार ने बड़े समूहों को कुछ न कुछ देने का प्रयास किया है। अब चाहे वे सरकारी कर्मचारी हों, वृद्धावस्था पेंशन पाने वाले लोग हों या कारोबारी लोग। इसके बावजूद कि राज्य सरकार संसाधनों के संकुचन के चलते आर्थिक तंगी से गुजर रही है। राज्य की अर्थव्यवस्था के सुचारु संचालन के लिये नये वित्तीय संसाधन जुटाने और राजकोषीय अनुशासन लागू करने की जरूरत है। यह जानते हुए भी कि सामाजिक क्षेत्र के लिये वित्तीय संसाधन जुटाने की अनदेखी होती रही है। साथ ही कर चोरी पर भी लगाम लगाने की जरूरत है जो राज्य के राजस्व में बड़ी सेंध लगा रही है। इसके अलावा सब्सिडी को तर्कसंगत बनाकर वित्तीय भार को कम करने की कोशिश तो की ही जा सकती है। यह मानते हुए कि राज्य के हित चुनावी लाभ से महत्वपूर्ण हैं।