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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.कोशिश से करिश्मा
कोशिश से करिश्मा तक पहुंचना आधुनिक युग का सबसे बड़ा नवाचार है। रास्ते बदलने की नौबत है, मंजिलों को गिनना शुरू करें। कम से कम प्रदेश के दो बड़े मंदिर परिसरों में कोशिश का करिश्मा ख्वाब पाल रहा है, तो हकीकत के फलक पर अंतर जरूर आएगा। नयनादेवी मंदिर परिसर के साथ शीशे का पैदल पुल बनाने की योजना बिलासपुर के जिलाधीश करते हैं, तो लगता है यह कोशिश खुद-ब-खुद सातवें आसमान की बात कर रही है। चीन के पर्यटन क्षेत्र को शीशे के पुलों पर गुजरते देख बिहार और सिक्किम के बाद हिमाचल में यह प्रयोग होने जा रहा है। निश्चित रूप से श्री नयनादेवी की पर्यटन क्षमता इससे आगे बढे़गी और मनोरंजक अनुभव की दास्तान हर श्रद्धालु लिखेगा। कुछ इसी तरह चिंतपूर्णी मंदिर परिसर में तिरुपति जैसे प्रयोग करने के लिए पचास करोड़ की योजना बनाई जा रही है। खास बात यह है कि मंदिर ट्रस्ट आसपास चिन्हित 1906 हेक्टेयर भूमि खरीद कर अपनी परियोजना को आकार देगा।
जाहिर है इसी तर्ज पर अन्य मंदिर परिसर विकसित होें तो करिश्मा हो जाएगा। उदाहरण के लिए ज्वालामुखी मंदिर के विकास के लिए बस स्टैंड के साथ लगते स्वास्थ्य विभाग परिसर को कहीं अन्यत्र शिफ्ट करना होगा। इस तरह इस क्षेत्र को बस स्टैंड-पार्किंग के अलावा यात्री सुविधा केंद्र के रूप में विकसित करते हुए सीधे मंदिर के लिए रज्जु मार्ग द्वारा जोड़ा जा सकता है। कुछ वर्ष पहले शाहतलाई से दियोटसिद्ध को रोप-वे से जोड़ने की योजना बनी, लेकिन तत्संबंधी फाइल खर्राटे मार रही है। ऐसे में मंदिरों से जुडे़ शहरों के लिए मंदिर विकास प्राधिकरण की स्थापना करके यह सुनिश्चित करना होगा कि मुख्य दर्जन भर आस्था केंद्र किस तरह अपनी क्षमता की आर्थिकी में विस्तार कर सकते हैं। मंदिर व गुरुद्वारों पर केंद्रित धार्मिक पर्यटन को ब्रांड हिमाचल की तरह विकसित करने के लिए विशेष एजेंसी की जरूरत है। अतः मंदिर विकास प्राधिकरण के तहत सारी योजनाओं-परियोजनाओं की परिकल्पना तथा निगरानी जरूरी हो जाती है। बहरहाल दो मंदिर अगर ताजगी के साथ कुछ नया करने की सोच रहे हैं, तो अन्य परिसरों में भी नवाचार पैदा करना होगा। देखना यह होगा कि केंद्र से आए बीस करोड़ का इस्तेमाल ज्वालामुखी मंदिर की क्षमता में क्या-क्या जोड़ता है।
कोशिश से करिश्मा कोई अदना सा अधिकारी, राजनेता या निजी क्षेत्र भी कर सकता है। यहां शाहपुर विधानसभा क्षेत्र का उदाहरण देना इसलिए जरूरी हो जाता है कि इलाके के कांग्रेस नेता केवल सिंह पठानिया के प्रयास से पढ़े-लिखे नौजवान स्वरोजगार में करिश्मा पैदा कर रहे हैं। शाहपुर के हार बोह जैसे गांव आज ट्राउट मछली के उत्पादन में बरोट और कुल्लू घाटी से कहीं आगे इसलिए निकल रहे हैं, क्योंकि केवल सिंह पठानिया ने पप्पू राम जैसे इंजीनियर को कभी ट्रेनिंग दिलाकर ट्राउट फिश फार्मिंग की ओर मोड़ा था। यह कोशिश आज यहां के युवाओं को व्यावसायिकता के नए आधार से जोड़कर दो दर्जन से अधिक यूनिट तक फैल कर, टनों उत्पादन का एक नया आकाश खोल चुकी है। पठानिया के निजी प्रयास से धारकंडी जैसे अविकसित क्षेत्र में कैंपिंग साइट्स विकसित करके युवा ट्रैकिंग सुविधाओं के नए पथ जोड़ रहे हैं। हिमाचल में निजी तौर पर कोशिश करने के बजाय हम सरकार आश्रित सपनों के उपवन खोज रहे हैं। हर गांव और शहर कोशिश करके युवा पीढ़ी का मंजर बदल सकते हैं, तो प्रत्येक सरकारी विभाग को नवाचार के जरिए कोशिश करते हुए ऐसा ढांचा विकसित करना है, जिसके तहत आत्मनिर्भरता के लक्षण और उद्देश्य पैदा हों। हिमाचल के जनप्रतिनिधियों और राजनेताओं को अपने विजन की भूमिका में केवल सिंह पठानिया की तरह युवाओं के नाम समर्पित करना होगा।
- टीकाकरण की रणनीति बदलें
देश में कोरोना वायरस के संक्रमित मरीजों की संख्या 25,326 तक बढ़ गई है। यह बीते 84 दिनों में सर्वाधिक आंकड़ा है। मौतें भी 161 तक पहुंच गई हैं। यह बढ़ोतरी बीते 44 दिनों में सबसे ज्यादा है। ये सभी एक दिन के आंकड़े हैं। इसके समानांतर शुक्रवार को एक दिन में ही कोरोना टीके की 20.53 लाख खुराकें दी गईं। अमरीका के बाद यह भारत का विश्व कीर्तिमान है। भारत में कोरोना की नई लहर आई है। अधिकतर असर महाराष्ट्र, केरल, पंजाब, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात राज्यों में है, जहां करीब 86 फीसदी संक्रमित मरीज सामने आए हैं। फरवरी के बाद सक्रिय मरीज करीब 48 फीसदी बढ़े हैं। यह फैलाव 21 राज्यों और संघशासित क्षेत्रों में है। सक्रिय मरीजों की संख्या दो लाख को पार कर चुकी है, जो 1.5 लाख से कम हो गई थी। ऐसा बीते 53 दिनों के बाद देखा गया है। बेशक कोरोना वायरस और टीके का प्रत्यक्ष संबंध है, लेकिन अभी करीब तीन करोड़ खुराकें ही दी गई हैं।
करीब 139 करोड़ की आबादी वाले देश में यह आंकड़ा बहुत बौना है। सबसे संवेदनशील वर्ग 60 साल की उम्र पार के बुजुर्गों और 45 पार के गंभीर बीमार लोगों का है। उन्हें 60 करोड़ खुराकें जुलाई, 2021 तक दी जानी हैं। शेष 57 करोड़ खुराकें देने में 285 दिन का समय लग सकता है, यदि हररोज औसतन 20 लाख खुराकें दी जाएं। बेशक कोरोना का नया पलटवार एक चेतावनी है। बीते साल मार्च, अप्रैल और उसके बाद जो संकट देश को झेलना पड़ा था, कमोबेश अब हम उस स्थिति में नहीं हैं। अब हमारे पास वैश्विक शोध की जानकारियां हैं, विभिन्न दवाएं हैं, दो स्वदेशी टीके हैं और अस्पताल पूरी तरह चाक-चौबंद हैं। दरअसल यह वायरस का नैसर्गिक गुण है कि उसका म्यूटेशन होता रहता है। उसके नए प्रकार बनते रहते हैं, लिहाजा संक्रमण भी उसी गति से बढ़ता है। कोरोना वायरस के नए विस्तार में हमारी लापरवाहियां बुनियादी तौर पर जिम्मेदार हैं। लॉकडाउन के बाद पूरा देश खुल चुका है। आर्थिक गतिविधियां तेज हुई हैं। यह भी नैसर्गिक और मनोवैज्ञानिक है। आखिर व्यक्ति कब तक घर में नजरबंद-सा रह सकता है? उसकी रोजी-रोटी का सवाल है। हम विकसित नहीं, विकासशील देश हैं। सामाजिक सुरक्षा नाममात्र है और वह भी सीमित है। बेरोज़गारी भत्ता राष्ट्रीय स्तर पर नहीं है। औसतन भारतीय कीड़े-मकौड़े की जि़ंदगी जीने को विवश है। वैसे बाज़ार भी सजे हैं और एक वर्ग पार्टियां भी करने लगा है। हरिद्वार में कुंभ का अंतरराष्ट्रीय मेला जारी है। पांच राज्यों में चुनाव हैं, लिहाजा जन-सैलाब वाली सभाएं की जा रही हैं। विवाह आदि समारोहों में भीड़ जुटाई जा रही है। जब दो गज की दूरी और मास्क के सामान्य प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया जाएगा, तो संक्रमण को कैसे थामा जा सकता है? बेशक कुछ जिलों में लॉकडाउन और रात्रि कर्फ्यू को एक बार फिर लागू किया गया है, लेकिन यह अंतिम समाधान नहीं है। यदि कोरोना के बढ़ते आंकड़ों के मद्देनजर लॉकडाउन और कर्फ्यू का भी विस्तार किया जाता रहा, तो देश की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो सकती है।
करीब एक साल के बाद आर्थिक विकास दर सकारात्मक होना शुरू हुई है। उसे दोबारा नकारात्मक स्थिति में धकेलना हम झेल नहीं सकते। आम आदमी का अनुशासन बेहद जरूरी है। उसके अलावा, टीकाकरण अभियान की रणनीति बदल कर उसे गति दी जा सकती है। अभी टीकाकरण की रणनीति पत्थर पर लिखी इबारत की तरह है। सब कुछ केंद्र सरकार के कब्जे में है। राज्य सरकारों और निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को अनुमति दी जानी चाहिए कि वे टीका उत्पादक कंपनियों से सीधे ही मोल-भाव कर सकें और टीका खरीद सकें। केंद्र ने राज्यों को आश्वस्त किया था कि टीकों का पर्याप्त भंडारण है, लेकिन टीकों के वितरण और प्रबंधन की व्यवस्था को विमुक्त, विकेंद्रित क्यों नहीं किया जा सकता? टीके अब उम्र के आधार पर भी नहीं लगाए जाने चाहिए। जो वर्ग संक्रमित हो रहा है, उसकी उम्र कुछ भी हो, उसे टीका दिया जाना चाहिए। फिलहाल कोरोना टीका कामकाजी वर्ग तक नहीं पहुंचा है। अभी बुजुर्गों और खासकर मध्यवर्ग की लाइनें टीका केंद्र के बाहर दिखाई देती हैं। यदि कोरोना का प्रभाव समाप्त करना है, तो टीकाकरण का विकेंद्रीकरण होना चाहिए और टीका आम मज़दूर तथा कामकाजी तबके तक पहुंचना चाहिए। वे ही ज्यादातर संक्रमण के वाहक होते हैं।
- हड़ताल से सबक
बैंकों की हड़ताल पहले ही दिन चुभती हुई लगी। आखिर ऐसी नौबत क्यों आई? करीब दस लाख बैंककर्मियों की हड़ताल साफ तौर पर संकेत है कि बैंकों के निजीकरण की राह आसान नहीं है। पीएसयू बैंक संघ की हड़ताल के पहले ही दिन देश भर में बैंकिंग सेवाओं जैसे नकद निकासी, जमा, चेक और व्यापारिक लेन-देन पर असर पड़ा है। यूएफबीयू, नौ श्रमिक संघों का मिला-जुला मंच है, जिसने पिछले महीने ही 15 और 16 मार्च को हड़ताल का आह्वान कर दिया था। उन्हें मनाने की कोई ठोस कोशिश नजर नहीं आई, तो इससे निजीकरण के प्रति सरकार की दृढ़ता का पता चलता है। बैंककर्मियों को मनाने के लिए हुई तीन बैठकें बेनतीजा रही हैं। आज भी अगर बैंकों की हड़ताल जारी रही और कामकाज प्रभावित हुआ, तो सरकार को गंभीर होना पड़ेगा। आज देश जिस मोड़ पर है, वहां किसी भी तरह की हड़ताल अर्थव्यवस्था के लिए दुखदाई है। पिछले महीने पेश किए गए केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकार की विनिवेश योजना के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण की घोषणा की थी। उसके बाद से ही बैंककर्मियों में हलचल है। ज्यादातर बैंक कर्मचारियों को लगता है कि अगर वे आज चुप रहे, तो कल उनके बैंकों का भी निजीकरण होगा। बैंक कर्मचारियों का कहना है कि सरकार की नीतियों का अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ने वाला है। देश में अनेक जगह कर्मचारियों ने विरोध प्रदर्शन भी किए हैं। एक बड़ा खतरा यह भी है कि मांग न माने जाने की स्थिति में बैंककर्मी अनिश्चितकालीन हड़ताल के बारे में भी सोच रहे हैं। यह हड़ताल या आंदोलन किसान आंदोलन की तर्ज पर चलाने की चर्चा है। बैंककर्मी अपने ग्राहकों को भी यह बताना चाहते हैं कि बैंकों के निजीकरण की कोशिश कैसे सेवाओं को प्रभावित करेगी। बैंककर्मी अपनी मांग को लेकर गंभीर नजर आ रहे हैं और यह शासन-प्रशासन के लिए चिंता की वजह बने, तो ही सार है। उनकी मांग है कि सरकार निजीकरण की घोषणा वापस ले। अब सरकार के लिए सोचने वाली बात है कि हड़ताल या आंदोलन का मोर्चा खुल रहा है। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण मोर्चा है, जहां समस्याएं बढ़ीं, तो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। यह विवाद इतना सहज नहीं है, जितना लगता है। देश में विरोध का हक सबको है, लेकिन सरकारी बैंकों की हड़ताल से किसे फायदा होगा, यह भी बैंककर्मियों के संगठनों को सोचना चाहिए। लंबी हड़ताल सरकारी बैंकों के व्यवसाय पर असर डालेगी और ग्राहकों को निजी बैंकों की ओर जाने के लिए मजबूर करेगी। बैंकों को अपनी बात रखते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि जरूरतमंद ग्राहकों को ज्यादा परेशानी न हो। ग्राहक ही किसी बैंक को मजबूत करते हैं, लेकिन ऐसी हड़ताल से ग्राहकों को ही सबसे ज्यादा परेशानी होती है। इसके साथ ही, सरकार को बैंककर्मियों का विश्वास जीतना चाहिए। निजीकरण से बचना आसान नहीं है, लेकिन अगर कर्मचारियों को विश्वास दिला दिया जाए कि निजीकरण से उनके हित प्रभावित नहीं होंगे, तो वे मान जाएंगे। क्या यह संभव है? निजी क्षेत्र आखिर क्यों लोगों का विश्वास नहीं जीत पा रहा है? सरकारी नौकरी क्यों ज्यादातर लोगों की पहली पसंद है? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब हमारी सरकारें ही खोज सकती हैं।
4.संग्राम के आयाम
करवट लेती पश्चिम बंगाल की राजनीति
दस मार्च को हुए हादसे में तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी के चोटिल होने की घटना को पार्टी ने राजनीतिक हमला बताया था। अब पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट के आधार पर चुनाव आयोग ने हमले के आरोपों को खारिज किया है। तृणमूल कांग्रेस की तरफ से घटना का राजनीतिक लाभ उठाने की पुरजोर कोशिशें जारी हैं। इस घटना ने जहां भाजपा को अपनी चुनावी रणनीति बदलने के लिये बाध्य किया है, वहीं टीएमसी को आक्रामक होने का मौका दे दिया है। पार्टी ने कुछ समय पहले चुनाव आयोग द्वारा डीजीपी का तबादला करने को हादसा होने की वजह तक बता दिया। आरोप लगाये कि आयोग केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहा है। चुनाव आयोग ने इसे संवैधानिक संस्था की छवि खराब करने की कोशिश बताते हुए निंदा की है। बहरहाल, नंदीग्राम की घटना हमला हो या हादसा, इस घटना के जरिये ममता बनर्जी ने अपनी जुझारू छवि को पुख्ता करने की कोशिश जरूर की है। वैसी ही छवि, जिसके बूते वे कम्युनिस्ट सरकार से जूझीं, कांग्रेस से निकलकर नई पार्टी बनायी और 34 साल से सत्ता पर काबिज कम्युनिस्ट सरकार को उखाड़कर दस साल पश्चिम बंगाल पर राज किया। नब्बे के दशक में सीपीएम के युवा नेता के द्वारा लाठी से हमला करने के बाद वह जैसे सिर पर पट्टी बांधकर सड़कों पर उतरी थीं, उस छवि ने उन्हें घर-घर लोकप्रिय बना दिया था। ऐसे ही कई आंदोलनों व विपक्षी दलों के कथित हमलों के बाद वह अपनी जुझारू छवि बनाने में कामयाब रही थी। इसी तरह सिंगुर में अधिग्रहण विरोधी आंदोलन और नंदीग्राम के संघर्ष में वह दमखम के साथ जूझती नजर आईं। बुधवार की चोट के बाद उन्होंने इस कवायद को दोहराने की कोशिश की, जिसने पश्चिम बंगाल की राजनीति की दिशा-दशा को किसी सीमा तक प्रभावित भी किया। घटना के बाद भाजपा दुविधा में नजर आई और उसके नेता तृणमूल कांग्रेस पर आक्रामक हमलों से बचते नजर आये।
निस्संदेह, भाजपा ने सुनियोजित तरीके से पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिदृश्य बदलने के लिये आक्रामक रणनीति का सहारा लिया। इस घटनाक्रम ने भाजपा को रणनीति में बदलाव के लिये बाध्य किया। यह चुनौती तृणमूल कांग्रेस से निकलकर भाजपा में शामिल व नंदीग्राम से ममता के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले शुभेंदु अधिकारी की भी है। यद्यपि राज्य भाजपा के नेता इसे ममता की नौटंकी करार दे रहे हैं लेकिन मौके की नजाकत को भांपते हुए तल्खी से बच रहे हैं। संभव है कि हमले के प्रकरण में ज्यादा टीका-टिप्पणी करने से इसलिये बचा जा रहा हो ताकि टीएमसी को सहानुभूित के चलते लाभ न मिल जाये। भाजपा की रणनीति में बदलाव को इस तरह भी देखा जा सकता है कि उसने बाबुल सुप्रियो, लाकेट चटर्जी समेत अपने चार सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ने के लिये उतारा है। वहीं प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं कि जिस नंदीग्राम आंदोलन के जरिये ममता सत्ता में आई थी, वहां जमीन खिसकते देख भावनात्मक दोहन के लिये यह दांव चला गया है। ममता के घोर विरोधी माने जाने वाले कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने भी इस घटनाक्रम को पाखंड बताया है। बहरहाल, घटना के बाद जिस तरह टीएमसी कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन, राजमार्गों व रेलवे ट्रेक पर आंदोलन किया, उससे लगता है कि पार्टी मुद्दे को भुनाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेगी। निस्संदेह इस घटनाक्रम ने चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में चुनाव होने के बावजूद पश्चिम बंगाल को राष्ट्रीय विमर्श में ला दिया। बहरहाल, यह भारतीय लोकतंत्र की विडंबना ही है कि पश्चिम बंगाल में दो कार्यकालों का हिसाब दिये जाने के मौके पर तृणमूल कांग्रेस भावनात्मक मुद्दों को आगे करके चुनाव लड़ रही है। राज्य के वास्तविक मुद्दे हाशिये पर चले गये हैं। विडंबना ही है कि जब मतदाताओं के पास सरकारों का हिसाब-किताब मांगने का वक्त होता है तब नेता अपनी चतुराई से आभासी मुद्दों के बूते उन्हें जमीनी हकीकत से दूर ले जाने में कामयाब हो जाते हैं जो हमारी व्यवस्था की विफलता ही कही जायेगी।