News & Events
इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.हिमाचल में झगड़ालू पानी
पानी की उल्फत में हिमाचल में नए सीमा क्षेत्र उभर रहे हैं। बैजनाथ की पंचायत को मंजूर नहीं कि भटवाली खड्ड से पानी उठाकर मंडी के गांववासियों को पीने को मिल जाए। इससे पूर्व कांगड़ा की तीन पंचायतों ने अपने अस्तित्व की अनूठी लड़ाई शुरू की है। स्पैड, ननाहर और नैन पंचायतों के सुर एक साथ इसलिए उठे ताकि इलाके में बहती आवा खड्ड का पानी थोड़ा आगे निकलकर बैजनाथ की पंचायत के गले तर न कर दे। नदी अब कितनी बहती है, इससे कहीं आगे निकल कर अपने लिए कितना बहती है, यह हिसाब हो रहा है। हम अगर 23000 मेगावाट जल विद्युत पैदा करने की संभावना में अपनी आर्थिकी के सपने देख रहे हैं, तो यह हिसाब भी लगा लें कि प्रदेश की करीब साढ़े तीन लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई को कितना पानी चाहिए। आबादी के हिसाब से हिमाचल ने अपनी मांग को जिस तरह बढ़ाया है, उसका खामियाजा केवल आवा खड्ड के जल बंटवारे पर आक्रोश पैदा नहीं कर रहा, बल्कि पेय जलापूर्ति परियोजनाओं की खामियां भी बता रहा है।
कहने को धूमल सरकार ने 2011 में अपने समय की सबसे बड़ी परियोजना का खाका खींचते हुए, 35 ग्राम पंचायतों को प्रति व्यक्ति 70 लीटर पानी मुहैया कराने का प्रयत्न किया, लेकिन उद्देश्य की पतझड़ में एक दौर गुजर गया। इसी तरह 2019 में सिराज क्षेत्र के लिए वर्तमान सरकार ने 215 करोड़ से तैंतीस पंचायतों के गले तर करने का महायज्ञ शुरू किया, लेकिन जलवायु परिवर्तन में खाक होते उम्मीदों के बादल, अब सूखे की आहट में भी गुम हो रहे हैं। हैरानी यह कि दिल्ली की प्यास बुझाने के लिए हिमाचल रेणुका जी बांध परियोजना के तहत 23 क्यूसिक्स पानी प्रति सेकंड भेज देगा, लेकिन अपने लिए ऐसी किसी योजना पर गौर नहीं। शिमला जैसे शहर के लिए आज भी हिमाचल की बड़ी बांध परियोजनाएं शरमा रही हैं। वाकनाघाट सेटेलाइट टाउन की रूपरेखा में पेयजल की अनुपलब्धता की बाधा अगर तोड़ पाए होते, तो आज वहां शिमला के बोझ को उठाने की क्षमता होती। हिमाचल से गुजरता पानी या तो बड़े बांध की शक्ल में अन्य राज्यों की बंजर जमीन को सींचता है या जलवायु परिवर्तन के दंश सहता प्रदेश सूखे नदी-नालों और खड्डों के सहारे सामाजिक रंजिश पैदा करता।
पालमपुर की तीन पंचायतें केवल आवा खड्ड के किनारे पर अपना भविष्य देख रही हैं, क्योंकि हिमाचल ने जल संसाधनों का प्रबंधन जरूरत के मुताबिक नहीं किया। पर्वतीय शहरों की जल वितरण व्यवस्था का आलम यह है कि प्राकृतिक स्रोत खाली करके, नीचे की तरफ जाती खड्डों के बहाव सुखा दिए गए। धर्मशाला के प्राकृतिक जल प्रपात का मुकुट पहनकर जो चरान खड्ड कभी आगे बढ़कर जल वितरण का योगदान करती थी, वह अब साल में चंद महीने ही जिंदा रहती है। यह इसलिए कि वाटरफाल के मुहाने से अवैज्ञानिक ढंग से पानी खींच कर छावनी क्षेत्र तो तर हो गया, लेकिन प्राकृतिक बहाव रोकने से कई जल स्रोत तबाह हो गए। इतना ही नहीं पूरे प्रदेश में सड़कों पर बिछता कंकरीट, मनरेगा की दिहाड़ी में उजड़ते पारंपरिक तौर तरीके, जेसीबी मशीनों से दफन होते पहाड़ और विद्युत परियोजनाओं के तहत जल धाराओं को चुराने की छूट ने कई असंतुलन पैदा किए हैं। इस बीच पानी के इस्तेमाल की जरूरत बढ़ रही है, लेकिन इंतजाम करने की कोई नीति नहीं। बेशक हिमाचल अब शहरी नजर आ रहा है या पूरी तरह खुले में शौच से मुक्त होकर राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान का पैगंबर बन गया, लेकिन इसके साथ पानी के बेहतर व जरूरत के अनुसार इस्तेमाल की कोई रूपरेखा आज भी तैयार नहीं। इसका सबसे व्यापक विवरण चार नगर निगम के चुनावों में भी देखा जा रहा है और एक किस्सा हिमाचल विधानसभा की बहस में अनिल शर्मा बनाम मंत्री महेंद्र सिंह के बीच भी हो चुका है। बेशक मंत्री ने विधायक की आपत्तियों को खारिज कर दिया, लेकिन गांव को शहर की ओर ले जाने के मायनों में उनके विभाग के खाके बदलने पड़ेंगे।
2.सरकारी फिजूलखर्ची का माफिया
मसले जहां सवाल से बड़े होते हैं, वहां बहस के मजमून जरूर पुख्ता होने चाहिएं। हिमाचल विधानसभा में ऐसे अनेक प्रश्न उठते हैं जिन्हें राज्य के सापेक्ष समझना व भावना के अनुरूप उनके समाधान का दायरा व्यापक होना चाहिए। ऐस ही एक सवाल कुल्लू के विधायक सुंदर सिंह ने भले ही अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा के आय-व्यय के गणित में ढूंढा, लेकिन इसकी व्यापकता में प्रदेश के हर सांस्कृतिक मंच व सार्वजनिक मेलों के आयोजन को समझना होगा। विधायक सुरेंद्र सिंह ने कुल्लू दशहरा उत्सव के दौरान डोम माफिया का जिक्र ही नहीं किया, बल्कि अपव्यय के सीधे आरोप भी लगाए। बेशक आरोपों को झाड़ते हुए शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह ठाकुर ने आइंदा ऑडिट कराने की इच्छाशक्ति जाहिर की, लेकिन यह मसला प्रादेशिक नीति की गुजारिश में समाधान टटोलने की दरख्वास्त कर रहा है। अपव्यय के लिए कई प्रशासनिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक स्रोत बाकायदा पैदा किए जाते हैं और विपक्ष भी इनके खिलाफ केवल एक सीमित एतराज तक ही विरोध की कहावत गढ़ देता है। प्रदेश में छोटे-बड़े डेढ़ सौ के करीब मेले, आयोजन या सांस्कृतिक समारोह होते हैं, जहां सार्वजनिक धन की उगाही और मलाई का इस्तेमाल राजनीतिक शान-ए-शौकत के लिए होता है। ये न केवल अपव्यय का रास्ता, बल्कि आय के स्रोतों में उगाही की जबरिया वसूली का माध्यम भी बनता है। ऐसे समारोहों में केवल आय-व्यय पर सवाल नहीं, बल्कि आयोजनों की गरिमा, निरंतरता, उद्देश्यपूर्णतः तथा पद्धति से जुड़े विषय भी रहते हैं। एक वार्षिक समारोह केवल रौनक, सत्ता का जोश, प्रशासनिक फरमांबरदारी का आतिथेय नहीं हो सकता और न ही एक ही तरह की परिपाटी का राजनीतिक दोहन बनाया जा सकता है। धीरे-धीरे परंपराएं खारिज होकर चांडाल चौकड़ी न बन जाएं, इस पर कौन गौर करेगा।
सबसे अनुशासनहीन पहलू तो उस सांस्कृतिक मंच का दिखाई देता है, जिसके ऊपर शिकायत और सदमे हैं। शिकायत इसलिए कि स्थानीय कला के नाम पर राजनीतिक सिफारिशें परोसी जाती हैं और सदमा इसलिए कि कला का प्रदर्शन अकसर फूहड़ता में विलीन हो जाता है। ये तमाम समारोह अगर हिमाचली कला, संस्कृति व कलाकारों के प्रदर्शन का मुख्य मंच बनाने हैं, तो एक राज्य स्तरीय सोच पैदा करनी होगी। कोई ऐसी सूचना या जानकारी नहीं जो यह बता सके कि अमुक साल में ऐसे समारोहों, मेलों व आयोजनों के लिए कितनी धनराशि एकत्रित हुई तथा इससे कितने कलाकार लाभान्वित हुए। ऐसे में अगर राज्य स्तर पर मेला विकास एवं सांस्कृतिक आयोजन प्राधिकरण का गठन किया जाए, तो हर आयोजन का उद्देश्य निखर जाएगा। इससे साल भर के ब्यौरों में यह भी दर्ज होगा कि हिमाचल के किस कलाकार को कितने अवसर मिले तथा उसकी राज्य स्तरीय रैंकिंग कहां ठहरती है। प्रतिभा चयन में भी बहुत कुछ किया जा सकता है, जबकि तमाम ग्रामीण मेलों के परिदृश्य में पारंपरिक छिंजों को राज्य स्तरीय कुश्ती आयोजन के प्रशिक्षण स्तर तक स्थापित किया जा सकता है। पूरे प्रदेश के तमाम प्रकार के बैंड, टमक, संगीत उपकरणों के प्रदर्शन के साथ-साथ ऐसे कलाकारों व बजंतरियों को भी पूरे प्रदेश में प्रश्रय मिलेगा।
अपव्यय की दूसरी सबसे अहम सतह पर हिमाचल के आस्था केंद्र रहे हैं। मंदिरों का राष्ट्रीयकरण तो हुआ, लेकिन इनका प्रबंधन, राजनीतिक उद्देश्यों की चाकरी बन गया। देखने में मंदिरों की आय आंखें खोलती हैं, लेकिन व्यय के तरीके अनुचित या औचित्यहीन इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि इस तरह मंदिर किसी विधानसभा क्षेत्र की बपौती बन जाते हैं। आय से अधिक व्यवस्था का पतन निरंतरता से हो रहा है, लेकिन आजतक विधानसभा की चर्चाओं में नई प्रबंधकीय प्रणाली पर न कोई सवाल और न ही जवाब ढूंढा गया। मंदिरों की आय को धार्मिक पर्यटन के विस्तार में लगाया होता, तो प्रमुख आधा दर्जन श्रद्धा केंद्रों के जरिए अब तक करीब दो हजार करोड़ की आर्थिकी खड़ी हो सकती थी। इसके लिए तमाम मंदिरों की कार्यप्रणाली में सुधार लाने के लिए एक केंद्रीय ट्रस्ट व मंदिर विकास प्राधिकरण की स्थापना करनी होगी। यह प्राधिकरण मंदिरों की आय में बढ़ोतरी के अलावा धार्मिक शहरों का सुनियोजित विकास तथा एक विशेष कॉडर के तहत इनका कुशल संचालन करते हुए पूरे प्रदेश के धार्मिक पर्यटन का नेतृत्व भी कर पाएगा। हिमाचल में एक तीसरा अपव्यय नए भवनों के बिना सोचे समझे निर्माण से हो रहा है। पूरे प्रदेश में विकास की गति ने कई इमारतों को जर्जर, इस्तेमाल से गैर जरूरी तथा भविष्य की योजनाओं से दूर कर दिया है। ऐसे में जब नए नगर निगम बनाए जा रहे हैं, तो शहरों की सार्वजनिक संपत्तियों के सही व नए संदर्भों में इस्तेमाल के लिए राज्य एस्टेट प्राधिकरण बनाने की आवश्यकता है ताकि एक ही एजेंसी के तहत कई दफ्तर कॉमन बिल्ंिडग का इस्तेमाल करें और जमीन तथा पैसे की फिजूलखर्ची न हो।
- एक साल बाद
पिछले साल इन्हीं दिनों जिस लॉकडाउन की शुरुआत हुई थी, उससे हम आज तक आजाद नहीं हुए हैं। भूलना कठिन है, संपूर्ण लॉकडाउन की अवधि चार बार बढ़ाई गई थी और उसके बाद से अब तक अनलॉक होने का सिलसिला चल रहा है। फिलहाल देश अनलॉक 10 से गुजर रहा है, मगर देश के करीब एक तिहाई हिस्से में फिर से लॉकडाउन का खतरा मंडरा रहा है। चिंता कायम है, सिर्फ यह महारोग ही मुसीबत नहीं है, उसके साथ समस्याओं का पूरा गिरोह सा चल रहा है। एक लाख साठ हजार से ज्यादा लोगों की मौत कोरोना से हुई है, लेकिन उससे कई गुना ज्यादा लोग अपनी माली हालत से बेहाल हुए हैं। कोरोना से हानि के अनेक आंकडे़ सामने आते रहते हैं और दिल केवल यही चाहता है कि जल्द से जल्द इससे मुक्ति मिले और इस चाह में लॉकडाउन से मुक्ति भी शामिल है। यह बहस तो अनंतकाल तक जारी रहेगी कि कोरोना ने ज्यादा नुकसान पहुंचाया या लॉकडाउन ने? यह बहस भी हमेशा रहेगी कि क्या लॉकडाउन ही बचाव का एकमात्र विकल्प था?
इसी दुनिया में ताइवान जैसे देश भी हैं, जहां एक दिन भी लॉकडाउन नहीं लगा और बीमारी को भी पांव पसारने नहीं दिया गया। ताइवान का अध्ययन और अनुभव हमारे लिए उपयोगी हो सकता है। ऐसे तमाम देशों से हमें युद्ध स्तर पर सीखना चाहिए, जो बगैर लॉकडाउन के महामारी से लड़ गए। विशाल आबादी वाले भारत जैसे देश को यह सोचना और परखना होगा कि ऐसी संक्रामक बीमारियों की स्थिति में क्या हमारे पास लॉकडाउन ही एकमात्र विकल्प है? क्या हम अपना काम करते हुए, सामान्य जीवन जीते हुए किसी महामारी से नहीं लड़ सकते? यहां यह विवेचना भी महत्वपूर्ण है कि लॉकडाउन का हमने कितना आदर किया है? लॉकडाउन तोड़ने वाले कितने लोगों को जेल भेजा गया? हमारी स्वच्छंदता और तंत्र की उदारता कई बार विचलित कर देती है। लॉकडाउन ने जहां समाज के धैर्य की परीक्षा ली है, वहीं कोरोना ने हमें नई जीवनशैली के बारे में सोचने पर विवश किया है। शारीरिक दूरी बरतना एक स्वभाव है। पर चौराहे से धर्मस्थल तक परस्पर शारीरिक दूरी बनाए रखना क्या हमारे लिए संभव है? क्या हम यह बात समझ पाए हैं कि भीड़ में न सुरक्षा संभव है, न भक्ति और न स्वस्थ सभ्यता? इस महामारी के बाद हमारे शिक्षा पाठ्यक्रम में एक अलग अध्याय जोड़कर नागरिक शास्त्र पढ़ाने की जरूरत बहुत बढ़ गई है। विशेषज्ञ अभी यह नहीं बता पा रहे कि कोरोना कब जाएगा, तो यह बताना भी संभव नहीं कि लॉकडाउन की आशंका कब खत्म होगी, अत: आगे हमारी सुरक्षा का एक ही रास्ता है, हम खुद को और अपनी आने वाली पीढ़ियों को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रोटोकॉल के तहत जीना सिखाएं। कोई शक नहीं, कोरोना ने हमारी चिंताओं को जितना बढ़ाया है, उससे कहीं ज्यादा चिंताएं लॉकडाउन की वजह से पैदा हुई हैं। आने वाले दिनों में समाज को ऐसी तैयारी करनी और दिखानी पड़ेगी, ताकि वह सरकार से कह सके कि बिना लॉकडाउन भी हम महामारियों से लड़ सकते हैं। वैसे समाजों, क्षेत्रों को पुरस्कृत-प्रोत्साहित करना भी जरूरी है, जिन्होंने लॉकडाउन और स्वास्थ्य दिशा-निर्देशों की बेहतर पालना की है। उससे भी जरूरी है, उन विभागों, समूहों और लोगों का सम्मान, जो लॉकडाउन के समय समाज-देश के काम आए।
4.सहज न्याय हेतु
अखिल भारतीय न्यायिक सेवा
राजग सरकार की कोशिश है कि देश में आईएएस और आईपीएस जैसी सेवाओं की तर्ज पर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा यानी एआईजेएस आरंभ की जाये। सरकार का विश्वास है यह प्रयास न्याय प्रदान करने की समग्र प्रणाली हेतु महत्वपूर्ण साबित होगा। हाल ही में राज्यसभा में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि यह सेवा अखिल भारतीय योग्यता चयन प्रणाली के माध्यम से नयी योग्य विधिक प्रतिभाओं के चयन में सक्षम होगी। साथ ही इससे सामाजिक समावेश के मुद्दे का हल भी निकलेगा। मंशा यही है कि इस प्रक्रिया के जरिये पिछड़े और वंचित समाज के लोगों की न्यायिक व्यवस्था में भागीदारी बढ़ सकेगी। दरअसल, विगत में भी ऐसी कोशिश हुई थी लेकिन विरोध व असहमति के चलते इसे मूर्त रूप नहीं दिया जा सका। सरकार की कोशिश हो कि सभी हितधारकों को साथ लेकर आगे बढ़ा जाये। वास्तव में मोदी सरकार अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के विचार को गंभीरता से ले रही है, जिसका उल्लेख पिछले दिनों राज्यसभा में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने किया। आम धारणा रही है कि इस विचार को क्रियान्वित करने के लिये संविधान संशोधन की अावश्यकता होगी। इसके विपरीत, संविधान के अनुच्छेद 312(1) में किसी अखिल भारतीय सेवा को स्थापित करने का प्रावधान है, जिसके जरिये एआईजेएस के विचार को अंतिम रूप दिया जा सकता है, जिसके अंतर्गत राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव का पारित होना आवश्यक है, जिसके बाद संसद को एआईजेएस को मूर्तरूप देने वाला कानून बनाना होगा। हालांकि, विगत में सरकार के ऐसे प्रयासों का कई उच्च न्यायालयों व राज्यों ने विरोध भी किया था। उनकी सोच थी कि यह विचार संघवाद के विरुद्ध जायेगा। यही वजह है कि कानून मंत्री ने उच्च न्यायालयों समेत सभी हितधारकों से एआईजेएस के मुद्दे पर परंपरागत विरोध का परित्याग करने का आग्रह किया ताकि भविष्य में इस विचार को अमलीजामा पहनाने में मदद मिल सके।
दरअसल, विगत में जजों के चयन के लिये अखिल भारतीय सिस्टम बनाने हेतु व्यापक प्रस्ताव तैयार किया गया था। नवंबर, 2012 में सचिवों की एक समिति ने प्रस्ताव को मंजूरी भी दी थी। इतना ही नहीं इस प्रस्ताव को अप्रैल, 2013 में संपन्न हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों तथा मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन के प्रस्तावित एजेंडे में शामिल किया गया था। तब सहमति बनी कि व्यापक मंथन के बाद इस प्रस्ताव पर राज्य सरकारों व हाईकोर्टों के विचार मांगे जायें। लेकिन इस विचार पर सहमति नहीं बन सकी। जहां कुछ राज्य सरकारें व उच्च न्यायालय प्रस्ताव के पक्ष में थे तो कुछ विरोध में। कुछ पक्ष केंद्र के प्रस्ताव में बदलाव लाने के पक्षधर थे। फिर वर्ष 2015 में राज्य सरकारों तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के सम्मेलन के विषयों में इसे शामिल किया गया। दरअसल, असहमति की एक वजह यह भी रही कि कुछ पक्षों द्वारा जिला न्यायाधीशों के खाली पदों में नियुक्ति हेतु वर्तमान चयन प्रक्रिया को अधिक व्यावहारिक बनाने की बात कही गई, जिसका निर्णय का अधिकार उच्च न्यायालयों को दिया गया। इसके बावजूद केंद्र सरकार मुद्दे पर सहमति बनाने हेतु प्रयासरत रही है। दरअसल, वर्ष 1987 में लॉ कमीशन की एक रिपोर्ट कहती है कि देश में प्रति दस लाख आबादी पर पचास जजों की नियुक्ति होनी चाहिए, जो उस समय दस थी और वर्तमान में बीस है। लेकिन अन्य देशों के मुकाबले यह बहुत कम है। जहां अमेरिका में प्रति दस लाख आबादी पर 107 तो ब्रिटेन में 51 न्यायाधीश नियुक्त हैं। इस साल जनवरी में अधीनस्थ न्यायपालिका में स्वीकृत 24,247 पदों के मुकाबले जजों की संख्या 19138 थी। यानी पांच हजार जजों के पद रिक्त थे। वहीं राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार भारत के विभिन्न जिला व तालुका न्यायालयों में 3.81 करोड़ वाद लंबित थे, जिसमें एक लाख से अधिक मामले तीस साल से लंबित हैं। बीते माह कुल 14.8 लाख मामले दर्ज किये गये। वर्ष 2012 में आई एक रिपोर्ट में कहा गया कि अगले तीस सालों में वादों की संख्या 15 करोड़ तक पहुंच जायेगी, जिसके लिये 75 हजार जजों की जरूरत होगी जो इस बाबत निर्णायक फैसला लेने की गंभीरता को दर्शाता है।