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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.बंदिशों में जीवन की निगरानी
इस बार कोरोना से कहीं अधिक चिंता उन दुश्वारियों की भी है, जो पिछले एक साल की मरम्मत में इनसान की जिल्लत बन गई। ऐसे में राष्ट्रीय सूचनाओं और संदर्भों को चाट रहा कोरोेना अगर हिमाचल की सियाही में फिर सख्त कदमों की हिदायत लिख दे, तो इस सूबेदारी के आलम में तबाही के मंजर को रोक पाना मुश्किल होगा। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के द्वारा ऐसे संकेतों का प्रेषित होना अब स्वाभाविक लगने लगा है, क्योंकि राज्य दर राज्य द्वार बंद होने लगे हैं और पड़ोसी पंजाब को देखें तो हिमाचल को बढ़ते मामलों की शूर्पणखा को पहचान लेना चाहिए। फिर एक्टिव मामलों में लगातार हो रहा इजाफा अगर हर दिन औसतन ढाई सौ भी जोड़ता गया, तो लॉकडाउन की स्थिति से हमें कौन बचाएगा। प्रदंश में कोविड से मरने वालों का आंकड़ा 1014 तक पहुंचकर सुन्न नहीं हो रहा, बल्कि पिछले कुछ दिनों से हर रोज नर कंकाल पहनकर बता रहा है कि संख्या दो-दो मृतक चुनकर बढ़ रही है। यह प्रश्न महज 1654 एक्टिव मरीज होने का नहीं, बल्कि फिर से कितनी चारपाइयां बिछाकर खुद से पूछोगे कि इस बार इंतजाम पहले से बेहतर क्यों नहीं हुआ। आश्चर्य यह कि कोरोना अब सियासी खूंटे पर लटका है। कभी इसे उतार कर सियासी धमाचौकड़ी आगे बढ़ जाती है और जब वक्त पर इसके नाखून नजर आते हैं, तो फिर से कसरतें भयभीत मंजिलों को गिनते हुए कभी बाजार, कभी व्यापार या कभी स्कूल-कालेज के द्वार को बंद करने की नौबत तक आ जाती हैं।
अभी ज्यादा समय नहीं हुआ जब राजनीतिक मंच हर गांव में अपनी जीत का बीड़ा उठाए ये भूल गए थे कि उस दौर में कोरोना के खिलाफ कुछ हिदायतें भी रही थीं। हमने तब यही सुना कि किसके पलड़े में पूरा प्रदेश झुक गया। ऐसे में हम यह क्यों न खोजें कि कोरोना के हर बढ़ते जख्म का ‘सर्वश्रेष्ठ’ कारण राजनीति का निरंकुश व्यवहार है। ऐसे में प्रदेश के चार नगर निगमों की दहलीज पर खड़ी चुनौती में कोरोना शरीक नहीं होगा, इसका क्या इंतजाम है। जिस तरह नामांकन पत्र दाखिल हुए हैं, उसके पीछे सियासी कारवां खड़ा है। पार्टी चुनाव चिन्हों पर दांव पर लगी राजनीतिक प्रतिष्ठा के सदके जो पदचाप सुनाई दे रही है, उसे कैसे नजरअंदाज करेंगे। चुनाव प्रचार की व्यापकता को रोकने की नैतिकता तो किसी दल में नहीं रहेगी और इसी के साथ पूरी प्रशासनिक प्रक्रिया की अनिवार्यता में शरीक सरकारी अमला कहां तक खुद को अलग व सुरक्षित रख सकता है। यह एक अलग विवरण हैं कि ऐसे मुकाम पर प्रदेश के कितने कर्मचारी पिछले एक साल से अपने दायित्व के कारण कोरोना पॉजिटिव हुए। मंडी शिवरात्रि या अब तक हुए मेलों की रौनक में सुरक्षा के कितने मानदंड अपनाए गए या वर्तमान परिस्थितियों में किस कद्र अवहेलना हुई। जो मैकेनिजम बना, वह भी ढह गया क्योंकि देश अब चुनाव के लिए जिंदा रहना चाहता है। हिमाचल का सबसे बड़ा संदेश अगर कुछ दिनों तक पंचायती राज संस्थाओं के बहाने जीत व हार का रहा, तो यह दौर फिर सियासत को भरकर यही माप रहा है कि इस बार सेहरा किसके सिर पर सजेगा। पड़ोसी पंजाब में रात्रि नौ बजे से सुबह पांच बजे तक कर्फ्यू ने एक ओर कोरोना के खिलाफ सुरक्षा चक्र बढ़ाया है, तो दूसरी ओर फिर आर्थिकी की नस कटने का डर व्याप्त हो रहा है। यह इसलिए भी कि पेट्रोल-डीजल के दामों का आतताई रुख इस वक्त विध्वंस के राग गा रहा है।
हिमाचल में टैक्सी मालिकों की हड़ताल को अर्थहीन नहीं किया जा सकता और न ही निजी बसों पर फहराती काली झंडियों का सबूत प्रोत्साहित कर रहा है। सरकार के अपने खजाने खाली हैं और विकल्प की नाउम्मीद राहों पर कड़े फैसलों की अनिवार्यता दर्ज है। ऐसे में राष्ट्र के माहौल में गुजरा साल सिर्फ यादें नहीं, सिसकियों के बीच उजड़ती दरख्वास्तें भी हैं। अब तो कोरोना की आहट भी कितने चूल्हों को ठंडा करने की सजा सरीखी है, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। हिमाचल में ही अगर कोरोना काल ने बैंकों का एनपीए 710 करोड़ बढ़ गया, तो इस दर्द का उल्लेख जिन्न बनकर कितने व्यवसायियों को उजाड़ रहा है, इसे भी समझना होगा। बहरहाल फिर से नौबत सख्त निर्देशों के अनुपालन की एक नई सीमा तय करेगी। कम से कम एक साल के अनुभव की रगड़ यह बताती है कि तकलीफ के पुराने पन्ने पलटने की मजबूरी को नए परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। यानी बाजार, व्यापार, सरकार और राजनीतिक दारोमदार चलाते हुए अंततः जनता को ही सीखना है कि बंदिशें अभी जीवन की निगरानी को मोहलत नहीं दे रहीं। राजनीतिक गतिविधियों पर चाहे सरकार के फैसले धीमी गति से आएं, लेकिन हमें अपने तौर पर धार्मिक, सांस्कृतिक, पारंपरिक, सामुदायिक तथा पारिवारिक समारोहों के पांव में कुछ बेडि़यां पहनाए रखनी हैं।
2.पर्यटन निगम अपने में ‘खास’ ढूंढे
हिमाचल पर्यटन विकास निगम को बढ़ती प्रतिस्पर्धा में अपनी खासियत ढूंढनी और विकसित करनी होगी,वरना निजी क्षेत्र में प्रयोग,गठजोड़ व नवाचार के आगे सार्वजनिक संपत्तियां हार जाएंगी। बेशक मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की अध्यक्षता में पर्यटन विकास निगम के निदेशक मंडल की बैठक में घाटे से उबरने की मंशा जाहिर हुई, लेकिन पर्यटन की क्षमता में, खुद को खास बनाने की कोई रूपरेखा फिलहाल सामने नहीं आ रही। पर्यटन विकास निगम की कई इकाइयां अपनी लोकेशन व सुविधाओं के कारण खास हो सकती हैं, लेकिन इन संदर्भों में या तो नई परिकल्पना का अभाव है या सैलानियों की बदलती अभिलाषा के अनुरूप निगम ने खुद को तैयार ही नहीं किया। निगम के होटलों में कम से कम पार्किंग की व्यवस्था उन्हें विशेष बना सकती है, लेकिन इस आशय का प्र्रचार हुआ ही नहीं। ड्राइव इन के साथ सरकारी होटलों के साइन बोर्ड अगर चमकते हैं या गूगल मैप की सर्च डेस्टिनेशन बना देती है, तो कौन इस अनुभव से अछूता रहना चाहेगा। मेन्यू बदलाव का सुझाव तभी कारगर होगा अगर हिमाचली रसोई की एक पूरी अवधारणा विकसित होती है। इसके लिए सर्वप्रथम दिल्ली-चंडीगढ़ के हिमाचल भवनों के माध्यम से हिमाचली फूड का एक मेन्यू पेश करना होगा। इसी तर्ज पर प्रदेश के अहम पर्यटक केंद्रों में ‘हिमाचली रसोई’ पर केंद्रित रेस्तरां श्रृंखला को विकसित होने का मौका देना होगा।
हिमाचली रसोई के तहत न केवल धाम का प्रादेशिकस्तर विकसित होगा, बल्कि नाश्ते से डिनर तक की थाली में सारे स्थानीय व्यंजन एकत्रित हो जाएंगे। हिमाचल के अपने फास्ट फूड में सिड्डू अगर दोपहर की चाय को सशक्त कर सकता है, तो ब्रेकफास्ट में दाल की खमीरी रोटी की पेशकश सैलानियों के स्वाद में इजाफा करेगी। इसी के साथ मिष्ठान में ज्वालामुखी के पेड़े या अन्य ऐसे पकवानों को जोड़ा जा सकता है। जाहिर तौर पर पर्यटन निगम को अपने रेस्तरां में खाद्य विज्ञान, पारंपरिक व्यंजन व पर्वतीय स्वाद को नया आयाम देना होगा। हिमाचल में पर्यटन की नई संभावनाओं के साथ-साथ यह भी देखना होगा कि आज का सैलानी अपने स्वभाव और अपेक्षाओं को किस तरह बदल रहा है। मसला बजट टूरिस्ट से हाई एंड टूरिस्ट तक से कहीं अलग हिमाचल में युवा पर्यटक के मोह का भी है। क्या पिछले दशक में फैले युवा पर्यटकों के काबिल पर्यटन निगम की सुविधाएं या ऑफर हुए। ऐसे में हिमाचल पर्यटन को तत्काल प्रभाव से कुल्लू-मनाली, शिमला व धर्मशाला-चंबा की कुछ इकाइयों को यूथ टूरिस्ट होस्टल में बदल देना चाहिए और इनके साथ पर्वतारोहण संस्थान की पेशकश में साहसिक खेल, ट्रैकिंग व स्कीइंग के नित नए तजुर्बे जोड़ने चाहिएं। हिमाचल पर्यटन विकास निगम व परिवहन निगम के बीच पर्यटन के सेतु खोजे जाएं, तो बस बुकिंग के साथ पर्यटन निगम का ऑफर नत्थी हो सकता है या सरकारी वोल्वो बसें अपने यात्रियों में सैलानी चुनकर सरकारी होटलों के करीब ला सकती हैं। पर्यटन विकास निगम को अपने ऐसे कर्मचारियों-अधिकारियों का पता लगाना होगा जो निजी होटलों की बुकिंग या बेनामी साझेदारी का अलख जगाए हुए हैं। हिमाचल में पर्यटन की नई चकाचौंध का एक नजरिया यू-ट्यूब भी पैदा कर रहा है, अतः निगम को देश के चर्चित ट्रैवल चैनल या वेबसाइट चलाने वालों के साथ सक्रिय रूप से अपनी प्रचार सामग्री का नया गठबंधन करना पड़ेगा।
प्रदेश के अपने डिजिटल मीडिया के साथ भी पर्यटन की महफिल सज सकती है। कई बार ऐसा भी प्रतीत होता है कि पर्र्यटन और पर्यटन विकास निगम की योजनाओं के बीच सामंजस्य का अभाव है। सत्तर और अस्सी के दशक में पर्यटन विकास का सेहरा पहनकर निगम की परियोजनाएं अग्रिम भूमिका निभा रही थीं, लेकिन आज के दौर में पर्यटन विभाग अलग दिखाई दे रहा है। अगर पर्यटन विभाग व पर्यटन निगम एक जैसा व्यवहार करते हुए योजनाओं को परियोजनाओं से जोडें, तो मंडी की शिवरात्रि का सीधा लाभ वहां से पर्यटन निगम की इकाई से जुड़ जाता। जोगिंद्रनगर के सरकारी होटल का बीड़-बिलिंग पैराग्लाइडिंग से रिश्ता जोड़ना है, तो पैराग्लाइडिंग एसोसिएशन को साझीदार बनाना होगा। सरकार अगर पर्यटन विकास निगम को निजी क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा से सीधे जोड़ना चाहती है, तो एक प्रबंधकीय कॉडर बनाए जो प्रशासनिक अधिकारियों के दखल से अलग प्रोफेशनल दक्षता से परिपूर्ण हो। इस तरह इसी निगम के तहत प्रदेश के तमाम डाक बंगले भी अपनी उपयोगिता जोड़कर एक नया मार्केटिंग संसार विकसित कर पाएंगे।
3.पर्यटन निगम अपने में ‘खास’ ढूंढे
हिमाचल पर्यटन विकास निगम को बढ़ती प्रतिस्पर्धा में अपनी खासियत ढूंढनी और विकसित करनी होगी,वरना निजी क्षेत्र में प्रयोग,गठजोड़ व नवाचार के आगे सार्वजनिक संपत्तियां हार जाएंगी। बेशक मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की अध्यक्षता में पर्यटन विकास निगम के निदेशक मंडल की बैठक में घाटे से उबरने की मंशा जाहिर हुई, लेकिन पर्यटन की क्षमता में, खुद को खास बनाने की कोई रूपरेखा फिलहाल सामने नहीं आ रही। पर्यटन विकास निगम की कई इकाइयां अपनी लोकेशन व सुविधाओं के कारण खास हो सकती हैं, लेकिन इन संदर्भों में या तो नई परिकल्पना का अभाव है या सैलानियों की बदलती अभिलाषा के अनुरूप निगम ने खुद को तैयार ही नहीं किया। निगम के होटलों में कम से कम पार्किंग की व्यवस्था उन्हें विशेष बना सकती है, लेकिन इस आशय का प्र्रचार हुआ ही नहीं। ड्राइव इन के साथ सरकारी होटलों के साइन बोर्ड अगर चमकते हैं या गूगल मैप की सर्च डेस्टिनेशन बना देती है, तो कौन इस अनुभव से अछूता रहना चाहेगा। मेन्यू बदलाव का सुझाव तभी कारगर होगा अगर हिमाचली रसोई की एक पूरी अवधारणा विकसित होती है। इसके लिए सर्वप्रथम दिल्ली-चंडीगढ़ के हिमाचल भवनों के माध्यम से हिमाचली फूड का एक मेन्यू पेश करना होगा। इसी तर्ज पर प्रदेश के अहम पर्यटक केंद्रों में ‘हिमाचली रसोई’ पर केंद्रित रेस्तरां श्रृंखला को विकसित होने का मौका देना होगा।
हिमाचली रसोई के तहत न केवल धाम का प्रादेशिकस्तर विकसित होगा, बल्कि नाश्ते से डिनर तक की थाली में सारे स्थानीय व्यंजन एकत्रित हो जाएंगे। हिमाचल के अपने फास्ट फूड में सिड्डू अगर दोपहर की चाय को सशक्त कर सकता है, तो ब्रेकफास्ट में दाल की खमीरी रोटी की पेशकश सैलानियों के स्वाद में इजाफा करेगी। इसी के साथ मिष्ठान में ज्वालामुखी के पेड़े या अन्य ऐसे पकवानों को जोड़ा जा सकता है। जाहिर तौर पर पर्यटन निगम को अपने रेस्तरां में खाद्य विज्ञान, पारंपरिक व्यंजन व पर्वतीय स्वाद को नया आयाम देना होगा। हिमाचल में पर्यटन की नई संभावनाओं के साथ-साथ यह भी देखना होगा कि आज का सैलानी अपने स्वभाव और अपेक्षाओं को किस तरह बदल रहा है। मसला बजट टूरिस्ट से हाई एंड टूरिस्ट तक से कहीं अलग हिमाचल में युवा पर्यटक के मोह का भी है। क्या पिछले दशक में फैले युवा पर्यटकों के काबिल पर्यटन निगम की सुविधाएं या ऑफर हुए। ऐसे में हिमाचल पर्यटन को तत्काल प्रभाव से कुल्लू-मनाली, शिमला व धर्मशाला-चंबा की कुछ इकाइयों को यूथ टूरिस्ट होस्टल में बदल देना चाहिए और इनके साथ पर्वतारोहण संस्थान की पेशकश में साहसिक खेल, ट्रैकिंग व स्कीइंग के नित नए तजुर्बे जोड़ने चाहिएं। हिमाचल पर्यटन विकास निगम व परिवहन निगम के बीच पर्यटन के सेतु खोजे जाएं, तो बस बुकिंग के साथ पर्यटन निगम का ऑफर नत्थी हो सकता है या सरकारी वोल्वो बसें अपने यात्रियों में सैलानी चुनकर सरकारी होटलों के करीब ला सकती हैं। पर्यटन विकास निगम को अपने ऐसे कर्मचारियों-अधिकारियों का पता लगाना होगा जो निजी होटलों की बुकिंग या बेनामी साझेदारी का अलख जगाए हुए हैं। हिमाचल में पर्यटन की नई चकाचौंध का एक नजरिया यू-ट्यूब भी पैदा कर रहा है, अतः निगम को देश के चर्चित ट्रैवल चैनल या वेबसाइट चलाने वालों के साथ सक्रिय रूप से अपनी प्रचार सामग्री का नया गठबंधन करना पड़ेगा।
प्रदेश के अपने डिजिटल मीडिया के साथ भी पर्यटन की महफिल सज सकती है। कई बार ऐसा भी प्रतीत होता है कि पर्र्यटन और पर्यटन विकास निगम की योजनाओं के बीच सामंजस्य का अभाव है। सत्तर और अस्सी के दशक में पर्यटन विकास का सेहरा पहनकर निगम की परियोजनाएं अग्रिम भूमिका निभा रही थीं, लेकिन आज के दौर में पर्यटन विभाग अलग दिखाई दे रहा है। अगर पर्यटन विभाग व पर्यटन निगम एक जैसा व्यवहार करते हुए योजनाओं को परियोजनाओं से जोडें, तो मंडी की शिवरात्रि का सीधा लाभ वहां से पर्यटन निगम की इकाई से जुड़ जाता। जोगिंद्रनगर के सरकारी होटल का बीड़-बिलिंग पैराग्लाइडिंग से रिश्ता जोड़ना है, तो पैराग्लाइडिंग एसोसिएशन को साझीदार बनाना होगा। सरकार अगर पर्यटन विकास निगम को निजी क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा से सीधे जोड़ना चाहती है, तो एक प्रबंधकीय कॉडर बनाए जो प्रशासनिक अधिकारियों के दखल से अलग प्रोफेशनल दक्षता से परिपूर्ण हो। इस तरह इसी निगम के तहत प्रदेश के तमाम डाक बंगले भी अपनी उपयोगिता जोड़कर एक नया मार्केटिंग संसार विकसित कर पाएंगे।
4.आफत से राहत
कर्जदारों व बैंक के हितों का ध्यान
कोरोना संकटकाल के दौरान कर्जदारों की किस्तों की वापसी के स्थगन और ब्याज पर ब्याज के मामले में शीर्ष अदालत का फैसला जहां सरकार व बैंकों के लिये राहतकारी है, वहीं कर्जदाताओं को भी कुछ सुकून जरूरत देता है। दरअसल, कोरोना संकट में लॉकडाउन के बाद उपजी विषम परिस्थितियों से जूझते कर्जदारों को सरकार ने इतनी राहत दी थी कि वे आर्थिक संकट के चलते अपनी किस्तों के भुगतान को तीन महीने के लिये टाल सकते हैं, लेकिन बाद में उन्हें इसका ब्याज भी देना होगा। कालांतर कोरोना संकट की बढ़ती चुनौती के बाद यह अवधि अगस्त, 2020 तक बढ़ा दी गई। लेकिन कर्जदाता खस्ता आर्थिक स्थिति और रोजगार संकट की दुहाई देकर यह अवधि बढ़ाने की मांग करते रहे। वहीं बैंकों ने निर्धारित अवधि के बाद न केवल कर्ज और ब्याज की वसूली शुरू की बल्कि वे कर्जदारों से चक्रवृद्धि ब्याज भी वसूलने लगे, जिससे उपभोक्ताओं में आक्रोश पैदा हो गया है। मामला शीर्ष अदालत में भी पहुंचा। हालांकि, शीर्ष अदालत पहले भी कह चुकी थी कि ब्याज पर ब्याज नहीं वसूला जा सकता। लेकिन अदालत का अंतिम फैसला नहीं आया था। सभी पक्ष अपने-अपने लिए राहत की उम्मीद लगाये बैठे थे। सरकार की कोशिश थी कि कर्ज व ब्याज की वापसी सुचारु रूप से शुरू हो। बैंक भी यही उम्मीद लगा रहे थे। वहीं कर्जदार कोरोना संकट की दूसरी लहर के बीच चाह रहे थे कि किस्त वापसी हेतु स्थगन की अवधि बढ़े। निस्संदेह, आर्थिकी का चक्र सरकार, बैंक व कर्जदारों की सामूहिक भूमिका से पूरा होता है। कर्जदार अपना कर्ज-ब्याज लौटाते हैं तो बैंकों में आया पैसा नये ऋण देने और जमाकर्ताओं के ब्याज चुकाने के काम आता है। यह आर्थिक चक्र सुचारु रूप से चलता रहे इसके लिये जरूरी है कि समय पर उस कर्ज की वापसी हो, जिसमें कोरोना संकट के दौरान व्यवधान आ गया था। निस्संदेह इसे अब लंबे समय तक टाला जाना संभव भी नहीं था।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला बैंकिंग व्यवस्था को सुचारु बनाने की तरफ बढ़ा कदम ही है। जिसके बाद कर्जदारों की किस्तें नियमित होंगी और वे निर्धारित ब्याज चुकाएंगे। वहीं दूसरी ओर बैंकों को पूंजी संकट से उबरने में मदद मिलेगी। लेकिन वे कर्जदारों से चक्रवृद्धि ब्याज नहीं वसूल पायेंगे। सही भी है लॉकडाउन के दौरान देश की अर्थव्यवस्था मुश्किल संकटों से गुजरी है। करोड़ों लोगों के रोजगारों का संकुचन हुआ। लाखों लोगों की नौकरी गई। काम-धंधे बंद हुए। तमाम छोटे-बड़े उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए। अर्थव्यवस्था का चक्र तभी पूरा हो पाता है जब कहीं कड़ी न टूटी हो। जाहिरा तौर पर लघु-मझौले उद्योग से लेकर छोटे कारोबारी बैंकों से ऋण लेकर अपने कारोबार को चलाते हैं। जब बाजार बंद हुए तो उनका काम-धंधा चौपट हुआ। जब कारोबार ही नहीं हुआ तो आय कहां से होती। आय नहीं थी तो कर्ज कहां से चुकाते। निश्चय ही उस दौरान कर्ज वापसी का स्थगन बड़ी आबादी के लिये राहत बनकर आया। साल की शुरुआत में अर्थव्यवस्था के पटरी के तरफ लौटने से उम्मीदें जगी थी कि अब स्थितियां सामान्य हो जायेंगी, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर की दस्तक ने चुनौतियां बढ़ा दी। लगता है हमें कुछ और समय कोरोना की चुनौती से जूझना होगा। इसे न्यू नॉर्मल मानकर आगे बढ़ना है। अर्थव्यवस्था ने गति न पकड़ी तो कोरोना से ज्यादा आर्थिक संकट और गरीबी मार देगी। हमारे यहां रोज कमाकर रोज खाने वालों का बड़ा वर्ग है। ऐसे में अर्थव्यवस्था को सामान्य स्थिति की ओर ले जाने के लिये आर्थिक की रक्तवाहनियों में पूंजी प्रवाह जरूरी है। इस आलोक में शीर्ष अदालत का फैसला राहतकारी ही कहा जायेगा, जिससे बैंकों को तो संकट से उबरने में मदद मिलेगी ही, साथ ही बैंक अपनी मनमानी करते हुए ब्याज पर ब्याज नहीं वसूल पायेंगे। माना देश के सामने अब कोरोना संकट की दूसरी लहर की चुनौती है, लेकिन नहीं लगता कि सरकारें लॉकडाउन जैसे सख्त कदमों का सहारा लेंगी। अब वक्त आ गया है कि जान के साथ जहान को भी हमें प्राथमिकता देनी है।