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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.अपने अंदाज में शहर की सियासत
शहर का सियासी अंदाज हमेशा से रहा है, लेकिन इस बार हिमाचल के चार नगरों के अंदाज में राजनीति का दस्तूर भर रहा है। बिना विकल्प और समाधानों के शहरीकरण का द्योतक बने तथा चुनाव की आरजू में कूदे बड़े नेताओं को अपने प्रभाव का आईना देखना पड़ सकता है। मुख्य सियासत के पर्दे हटेंगे या पर्दों से नेता हटकर कितने खुले आसमान में चल पाते हैं, यह इस बार की चुनावी सतह को मालूम है। तामझाम बड़ा और व्यापक है और यह कहा जा सकता है कि वर्तमान सत्ता ने विधानसभा चुनाव से पहले एक ऐसी राजनीतिक लीग शुरू कर दी, जो भविष्य में शहरी सियासत में नखरे और नाखून पैदा कर देगी। यह औकात और अक्स का मुआयना भी होगा। औकात शहर की और शहर में नेताओं की, जबकि एक साथ सरकार और विपक्ष के अक्स में मुकाबला कथनी से करनी तक का है। राजनीति का अतीत और वर्तमान मुकाबिल है और यह पक्ष-विपक्ष के साथ-साथ पार्टियों के भीतर भी है।
मसलन सत्ता ने जिन्हें भविष्य का नेता बनाकर मंत्री कद का अविष्कार बनाया, वे सभी साबित करेंगे कि उनके मंत्रालयों की क्षमता क्या है। वन एवं खेल मंत्री राकेश पठानिया, परिवहन एवं उद्योग मंत्री बिक्रम ठाकुर, जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह और स्वास्थ्य मंत्री डा. राजीव सहजल अपनी-अपनी प्रतिष्ठा के हरकारे बने हुए हैं। लोग प्रचार के बीच यह विश्लेषण भी कर रहे हैं कि अगर ये चारों मंत्री जीत के हुंकारे भर रहे हैं, तो शहरों के अरमानों में इनके दायित्व के सेतु बन गए होंगे। यानी सहजल की रहनुमाई में प्रदेश के चार शहरों की स्वास्थ्य सेवाएं लाभान्वित हैं, तो वन एवं खेल मंत्री के आश्वासन से पर्यावरण संरक्षण का नया आभास मिल गया। हालांकि सत्य यह भी है कि धर्मशाला में प्रस्तावित राष्ट्रीय खेल छात्रावास के लिए आया 26 करोड़ का बजट राज्य के खेल विभाग का पता पूछ रहा है। महेंद्र सिंह के विभागीय कौशल में सोलन, धर्मशाला, मंडी व पालमपुर की पानी को तरस रही बस्तियों में शायद नूर आ जाए या इस दौरान परिवहन मंत्री बिक्रम ठाकुर के चुनावी अभियान में कम से कम चार शहरों की बसें खुद को सेनेटाइज ही कर लें। कहना न होगा कि पहली बार इस इम्तिहान में प्रदेश के मंत्रियों को मालूम हुआ होगा कि उनकी जिम्मेदारियों में अपने विधानसभा क्षेत्रों के बाहर भी इस प्रदेश की अभिलाषा रहती है। नगर निगम चुनावों के परिणाम सबसे पहले सत्ता के बीच रहते नेताओं को बताएंगे कि जनता की कसौटियां किस तरह और किस हद तक बदल रही हैं। बहरहाल वर्तमान चुनावों ने पार्टियों के भीतर पनप रहे अवसाद को भी मुखर किया है।
भले ही भाजपा और कांग्रेस कुछ लोगों को बाहर का रास्ता दिखा रही हैं, लेकिन चबूतरों पर खड़े होकर कबूतरों को दाना नहीं डाला जा सकता। ये कबूतर कितना उड़ेंगे, इससे कहीं अधिक सवाल यह है कि पार्टियों द्वारा सजाए गए कितने दाने चुग लेंगे। विडंबना यह भी कि पूर्व में रही सरवीण चौधरी और वर्तमान शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज चारों चुनावी नगर निगमों को कोई संदेश दे पाने का शौर्य प्रकट नहीं कर रहे हैं। राजनीति का सबसे बड़ा तराजू पालमपुर में इसलिए दिखाई दे रहा है, क्योंकि वहां हर बार चुनावी अनार के आगे सौ नेताओं की बीमारी सामने आ जाती है। ऐसे में त्रिलोक कपूर अपने जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा में उतर कर कितने भाजपाई बीमारों को ठीक कर पाते हैं या उनकी मीठी गोलियां कितना असर रखती हैं, यह उस समाज से मुखातिब है जो अपनी बेहतरी के लिए उम्मीदवारों में बुद्धिजीवियों का अकाल देख रहा है। नगर निगमों के परिदृश्य में नेताओं की हिफाजत और नेताओं की विरासत का अनुमान भी छिपा है। उदाहरण के लिए कहीं पीछे रह गए विधायक एवं पूर्व मंत्री डा. राजीव बिंदल के कारण सोलन नगर निगम चुनाव में भाजपा अपनी हिफाजत कर रही है, तो वर्षों से धर्मशाला से विधायक व मंत्री रहे सांसद किशन कपूर की विरासत को फिर चुना जा रहा है। दूसरी ओर पूर्व विधायक व कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव सुधीर शर्मा द्वारा नगर निगम की संरचना व उल्लेखनीय कार्य वर्तमान सत्ता की हस्ती को कड़ी चुनौती दे रहे हैं। इस तरह चारों नगरों की जनता राजनीति के संदर्भों में कई ताले लगाएगी और कई खोल देगी। देखें इस युद्ध में नेताओं का हुलिया क्या बनता है।
2.‘परिवर्तन’ की गूंज का चुनाव!
पश्चिम बंगाल में 30 सीटों पर दूसरे चरण का मतदान आज होना है। वैसे तो विधानसभा चुनाव असम, तमिलनाडु, पुडुचेरी और केरल में भी हो रहे हैं, लेकिन अधिकांश चर्चा बंगाल के चुनाव की है, क्योंकि उनमें नफरत, टकराव, हिंसा और हत्या आदि के तमाम तत्त्व मौजूद हैं। एक ओर प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा की आक्रामकता है, तो दूसरी ओर व्हील चेयर पर ममता बनर्जी का अकेला नेतृत्व और संघर्ष है। वह किसी भी तरह पराजित नहीं लगतीं, बल्कि आज भी ‘योद्धा’ की मुद्रा में हैं। हालांकि चुनाव प्रचार के दौरान कई बेतुके और फिजूल सवालों को मुद्दों का रंग देने की कोशिश की गई है, खोखले मनोरंजन भी हैं और अतार्किक आरोप चस्पा किए जा रहे हैं, लेकिन रचनात्मक और औपचारिक विकास का रोडमैप गायब है। चुनावी घोषणा पत्रों में कुछ भी वायदे परोसे गए हों! पूरा बंगाल तपा-उबला और उत्तेजित है, लेकिन नंदीग्राम की तपिश भिन्न और जला देने वाली है। नंदीग्राम ने ही ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचा दिया था। इस बार वह खुद इसी ‘हॉट सीट’ से उम्मीदवार हैं और कभी उनके अंतरंग भरोसेमंद रहे, लेकिन अब भाजपा उम्मीदवार शुभेंदु अधिकारी उन्हें चुनौती दे रहे हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बहुत बड़ा जोखि़म उठाया है, क्योंकि नंदीग्राम का इलाका अधिकारी परिवार का गढ़ रहा है और शुभेंदु नंदीग्राम आंदोलन के नायकों में रहे हैं। बहरहाल जोखि़म उठाना ही ममता की सियासत रही है। नंदीग्राम में अमित शाह और मिथुन चक्रवर्ती के ताकतवर और जन-सैलाबी रोड शो भी देखे हैं, तो ममता का ‘व्हील चेयर’ पर रोड शो भी कमतर नहीं आंका जा सकता, क्योंकि जन-सैलाब उधर भी था और हौसलों की कमी भी महसूस नहीं हुई। दोनों शक्ति-प्रदर्शनों के बाद रणक्षेत्र की लकीरें खिंच गई हैं और अब मतदान की निर्णायक घड़ी है। हम यह दावा नहीं कर सकते कि ममता तीसरी बार मुख्यमंत्री बन सकेंगी अथवा भाजपा एक और महत्त्वपूर्ण राज्य जीत कर अपने वर्चस्व का विस्तार करेगी! ल्ेकिन चुनावी विश्लेषण करने और ज़मीनी यथार्थ का आकलन करने वाले विद्वान पत्रकारों और पंडितों का इतना जरूर मानना है कि बंगाल में ‘परिवर्तन’ का चुनाव बनता जा रहा है। गांव-गांव में ‘परिवर्तन’ की गूंज सुनाई दे रही है।
ममता को सत्ता-विरोधी लहर की चुनौतियां भी झेलनी पड़ रही हैं, लेकिन यह भी सच है कि अब भी एक व्यापक जनाधार और समर्थक-वर्ग उनके पक्ष में सार्वजनिक रूप से मुखर है, लिहाजा निर्णायक क्षणों तक ‘परिवर्तन’ की दिशा और दशा क्या रहेगी, यह दावा करना भी अपरिपक्वता होगा। बेशक ‘परिवर्तन’ का नारा भाजपा ने बुलंद किया है और बूथ-बूथ तक उसकी चुनावी मशीनरी सक्रिय और सावधान है, लेकिन हमें ‘परिवर्तन’ का जनादेश जरूर देखना चाहिए। बंगाल में संसाधनों का संकट है। औद्योगीकरण नगण्य है, लिहाजा निवेश कहां से और क्यों आएगा? बेरोज़गारी चरम पर है, लिहाजा युवा असंतोष बढ़ता जा रहा है। लोगों को ज़मीन कैसे मुहैया कराएं, यह भी संकट का सवाल है। गरीबी है और बेचैनी है, नतीजतन राजनीतिक हिंसा और हत्या बेहद आसान प्रक्रिया बन गई है। यदि चुनाव के बाद पार्टियों की सरकार बनती है, तो संसाधन कहां से आएंगे, इसका कोई निश्चित रोडमैप न तो ममता ने और न ही भाजपा ने दिया है। इसके स्थान पर धार्मिक प्रतीकों का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है। मुख्यमंत्री ममता को अपना पारिवारिक गौत्र ‘शांडिल्य’ बताना पड़ा है। वह मंच पर ‘चंडी पाठ’ से अपने संबोधन की शुरुआत करती हैं। ममता ‘कलमा’ भी पढ़ती रही हैं। किसी को इन धार्मिक प्रतीकों पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन जब भाजपा के शिविर से ‘जय श्रीराम’ के नारे गूंजते हैं, तो ममता क्यों चिढ़ती रही हैं? तब भाजपा ‘सांप्रदायिक’ कैसे हो जाती है? इसी के साथ ऐसे बयान भी सामने आए हैं कि यदि 30 फीसदी आबादी एकजुट हो जाए, तो 4-4 पाकिस्तान बनाए जा सकते हैं। तो फिर ये 70 फीसदी वाले कहां जाएंगे? हमारा क्या कर लेंगे? क्या लोकतंत्र में इन्हीं हुंकारों पर वोट मांगे जाने चाहिए और मतदान भी इसी तर्ज पर किए जाएं? यह स्थिति सवालिया और चिंताजनक है। क्या बंगाल की जनता ऐसी दोफाड़ और सांप्रदायिक सोच में ‘परिवर्तन’ के लिए वोट कर सकेगी?
3.अभी से तपन
सर्दी के दिन अपने समय से कुछ पहले ही बीत गए और गरमी के दिनों ने कुछ पहले ही दस्तक दे दी है। होली के समय आमतौर पर पारा इतना नहीं चढ़ता है, लेकिन जब देश होली मना रहा था, तब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पारा 76 साल के अपने रिकॉर्ड को तोड़ रहा था। अधिकतम तापमान 40.1 डिग्री सेल्सियस पर पहुंच गया था। इस समय के सामान्य तापमान से आठ डिग्री ज्यादा को भीषण गरमी करार दिया गया। जब पारा यूं अचानक बढ़ता है, तब हर दृष्टि से वह खतरनाक होता है। भारतीय मौसम विभाग के क्षेत्रीय केंद्र प्रमुख कुलदीप श्रीवास्तव ने बताया कि 31 मार्च, 1945 को मार्च महीने का यह सबसे गरम दिन था, जब दिल्ली में तापमान अधिकतम 40.5 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था। भीषण गरमी के बाद दिल्ली में लगभग 35 किलोमीटर प्रति घंटा की गति तक चल रही हवाओं का असर है कि होली के दिन की तुलना में तापमान कुछ नीचे आया है। कुल मिलाकर, गरमी का भरपूर एहसास हो रहा है। आम तौर पर साल के इन दिनों में देश में तापमान 30 डिग्री के आसपास रहता है। चिंता होती है, अभी धरती के तपने के लिए अप्रैल, मई और जून जैसे महीने पड़े हैं। जब मार्च में ही तापमान 40 डिग्री के पार पहुंच गया, तो फिर आगे क्या होगा?
देश के एक विशाल क्षेत्र में शुष्क मौसम की शुरुआत हो चुकी है। बुधवार से पूरे उत्तर भारत में मौसम रूखा-सूखा होने लगा है। दूसरी ओर, पश्चिमी राजस्थान, मध्य प्रदेश, ओडिशा, गुजरात, पूर्वी राजस्थान और हरियाणा में लू जैसी स्थिति अभी से बनने लगी है। लू या हीट वेव की घोषणा अभी अविश्वसनीय लगती है, लेकिन यह सच है कि मौसम विभाग के पैमाने पर यह हीट वेव ही है। सामान्य से कम से कम 4.5 डिग्री अधिक तापमान होने पर हीट वेव की स्थिति बनती है और सामान्य तापमान से 6.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान होने पर गंभीर हीट वेव की घोषणा होती है। कम से कम अप्रैल में गंभीर हीट वेव की स्थिति नहीं बननी चाहिए। दक्षिण भारत के इलाके भी तप रहे हैं, पर वहां कहीं-कहीं बारिश की भी संभावना है। पूर्वोत्तर भारत में भी बारिश से तापमान काबू में रहेगा, लेकिन गुजरात से ओडिशा तक पारा चढ़ता चला जाएगा। मौसम में आया यह अचानक बदलाव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर डालता है। मौसमी बीमारियों का प्रकोप बढ़ने की आशंका है। एक तो कोरोना मामलों में बढ़त वैसे ही चिंता में डाल रही है और ऊपर से बढ़ती गरमी ने सोचने पर विवश कर दिया है। बदलते मौसम और महामारी के साये में हमें पूरे इंतजाम के साथ रहना होगा। अनेक जगह तेज बहती हवा में धूल भी है और इससे भी सर्दी-जुकाम का खतरा बढ़ता है। इन दिनों हर हाल में मास्क पहनना हमारी सेहत के लिए जरूरी हो गया है। कोरोना की दूसरी लहर का असर उत्तर प्रदेश और बिहार में भी दिखने लगा है। पिछले सप्ताह कहीं-कहीं कोरोना के मामले दोगुने हो गए हैं। ऐसे में, सतर्कता का स्तर और ऊंचा करना हमारी मजबूरी है। मौसम के प्रति वैज्ञानिकों को भी ज्यादा सजग रहना पड़ेगा और डॉक्टरों के साथ-साथ पर्यावरण के मोर्चे पर काम करने वाले लोगों को भी ज्यादा मुस्तैदी से अपने-अपने काम को अंजाम देना होगा। ऐसे बदलता मौसम और ऐसी महामारी शायद हमारी जीवन शैली में आमूल-चूल बदलाव की मांग कर रही है।
4.अशोभनीय कृत्य
हमले से आंदोलन की साख पर आंच
पंजाब में अबोहर के विधायक अरुण नारंग के साथ जिस तरह दुर्व्यवहार और हमला हुआ, वह निस्संदेह निंदनीय कृत्य ही कहा जायेगा। राज्य के शीर्ष नेतृत्व द्वारा अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के निर्देश देना स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन वास्तव में ठोस कार्रवाई होती नजर भी आनी चाहिए। ऐसे तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई से संदेश जाना चाहिए कि राज्य में संकुचित लक्ष्यों के लिये अराजकता किसी भी सीमा पर बर्दाश्त नहीं की जायेगी। दल विशेष के नेताओं पर हमला करके राज्य में सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने का कोई भी प्रयास सफल होने नहीं देना चाहिए। निस्संदेह किसान आंदोलन को समाज के हर वर्ग का समर्थन मिला है। इस तरह के हमले और जनप्रतिनिधि के कपड़े फाड़े जाने से आंदोलन की साख को आंच आती है। इस तरह के उपद्रव व हिंसक कृत्य से आंदोलन समाज में स्वीकार्यता का भाव खो सकता है। बीते सप्ताह मलोट में जो कुछ हुआ उसने सभ्य व्यवहार के सभी मानदंडों को रौंदा है। इस हमले में कौन लोग शामिल थे, उनका पता लगाकर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। अन्यथा इस तरह की घटनाओं के दूरगामी घातक परिणाम हो सकते हैं। एक जनप्रतिनिधि के साथ अपमानजनक व्यवहार शर्म की बात है। विरोध करना अपनी जगह है और खुंदक निकालना गंभीर बात है। खेती के लिये लाये गये केंद्र सरकार के कानूनों का विरोध अपनी जगह है, लेकिन उसके लिये पार्टी के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाना कतई ही लोकतांत्रिक व्यवहार नहीं कहा जा सकता। ऐसी कटुता का प्रभाव देश के अन्य भागों में भी नजर आ सकता है। अतीत में पंजाब ने सामाजिक स्तर पर जो कटुता देखी है, उसे फिर से सिर उठाने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए। कोशिश हो कि यह विभाजन सामाजिक व सांप्रदायिक स्तर पर न होने पाये। पंजाब के भविष्य के लिये ऐसे मतभेदों व मनभेदों को यथाशीघ्र दूर करना चाहिए। अन्यथा हम अराजक तत्वों के मंसूबों को ही हवा देंगे।
राज्य के जिम्मेदार लोगों को राज्य में बेहतर माहौल बनाने के लिये सर्वदलीय बैठक बुलाकर इस मुद्दे के व्यापक परिप्रेक्ष्य में इस तनाव को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। निस्संदेह विरोध करना हर व्यक्ति का लोकतांत्रिक अधिकार है। लेकिन इसके लिये हिंसा का सहारा लेना और ऐसे असंसदीय तरीकों से आक्रोश व्यक्त करना, जो किसी के लिये शारीरिक रूप से जोखिम पैदा करे, तो उस कृत्य की निंदा होनी चाहिए। निस्संदेह, दिल्ली की सीमा पर कृषि सुधार कानूनों का विरोध कर रहे किसानों की मांग की तार्किकता हो सकती है, किसानों से बातचीत में आये गतिरोध को दूर करने की आवश्यकता भी है, लेकिन इस बात के लिये कानून हाथ में लेने का किसी को अधिकार नहीं होना चाहिए। इस तरह के घटनाक्रम से किसानों के प्रति सहानुभूति के बजाय आक्रोश का भाव पैदा हो सकता है। निस्संदेह लंबे आंदोलन के बाद सफलता न मिलने पर कुछ संगठनों में निराशा का भाव पैदा हो सकता है, लेकिन यह निराशा गैरकानूनी कृत्यों का सहारा लेने से दूर नहीं होगी। लोकतांत्रिक आंदोलनों के लिए अहिंसा अनिवार्य शर्त है। वहीं दूसरी ओर घटना के कई दिनों बाद भी हमलावरों की गिरफ्तारी न हो पाना चिंता का विषय है। वह भी तब जब राज्यपाल ने मामले की कार्रवाई रिपोर्ट भी मांगी है। भाजपा के नेता आरोप लगाते रहे हैं कि पुलिस राजनीतिक दबाव में काम कर रही है और उन्हें न्याय की उम्मीद कम ही है। दरअसल, भाजपा नेताओं पर हमले का यह पहला मौका नहीं है। इससे पहले भी भाजपा प्रदेश अध्यक्ष समेत कई नेताओं पर हमले हो चुके हैं। भाजपा के कई कार्यक्रमों में तोड़फोड़ भी हुई है। हर बार पुलिस की कार्रवाई निराशाजनक रही है, जिससे अराजक तत्वों के हौसले ही बुलंद हुए हैं। अब लोगों की निगाह विधायक नारंग मामले पर केंद्रित है कि पुलिस कितनी ईमानदारी से काम करती है। राज्य में कानून का राज भी नजर आना चाहिए। पुलिस की भूमिका पर सवाल उठना चिंताजनक है। इससे राज्य में अराजकतावादियों को हवा मिलना स्वाभाविक है।