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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
- शहर होने की सौगात
सपनों और विकास के बीच मुद्दे और मुलाकात। राजनीति की धुरी पर घूमती अरदास। शहरीकरण का बीजारोपण करके भी भाजपा से जिस दृष्टि पत्र की उम्मीद थी, उसके मुकाबले कांग्रेस ने धर्मशाला शहर को पुनः विज्ञापित और प्रचारित किया। भाजपा का पहला दृष्टि पत्र पालमपुर की जनता को संबोधित है और यह एक तरह से विधानसभा के आगामी चुनाव की अभिलाषा में लिखा गया चुनावी घोषणा पत्र सरीखा है। यह इसलिए कि पालमपुर को शहर होने की सौगात में जो चाहिए, उसकी आत्मा चौदह गांवों में बसती है। ये चौदह गांव कल का शहर हैं, तो उनके प्रति वचनबद्धता का प्रारूप एक विस्तृत अध्ययन सरीखा होना चाहिए। पालमपुर की नगर विकास योजना की तैयारी में शहरी नियोजन विभाग के मार्फत एक बड़ी तस्वीर का मूल्यांकन चुनाव तभी कर पाएंगे, अगर सियासी इच्छाशक्ति विजन डाक्यूमेंट में पूरा लिख पाती। पालमपुर अपने परिवेश के साथ हिमाचल की चाय नगरी है, तो यहां टी टूरिज्म के आंचल में शहर के चुनाव मुखर होने चाहिएं। तमाम चाय बागानों के बीच पालमपुर का शहरीकरण किस तरह आगे बढे़गा और यह भी कि शांता की नगरी में उनके कई ड्रीम प्रोजेक्ट्स अनुत्तरित हैं।
हिमाचल की शुरुआती रोप-वे परियोजनाओं में शुमार पालमपुर रज्जु मार्ग पर भाजपा पुनः राजनीतिक हस्ताक्षर कर सकती थी। इसी तरह पालमपुर की भौगोलिक संरचना में बहती कूहलों तथा इससे जुड़े जल संसाधनों के तरानों में वाटर स्पोर्ट्स की धुन छेड़ी जा सकती है। वर्षों से शहर की बस स्टैंड परियोजना का ही दृष्टि पत्र में उद्धार करने की सौगंध खा लेते, तो अतीत की राजनीतिक विडंबना टूट जाती। पालमपुर सिर्फ एक शहर या अब महानगर नहीं, बल्कि अनेक राजनीतिक गुत्थियों का संरक्षक भी रहा है। ऐसे में विजन की बिसात पर चतुर समाज आगे बढ़ने के लक्षणों पर गौर करेगा। पालमपुर की माटी पर शांता कुमार के कई रेखाचित्र वर्षों से लटके हैं और इन्हीं में विवेकानंद मेडिकल ट्रस्ट से जुड़ी संवेदना भी है। पालमपुर के विजन डाक्यूमेंट में विवेकानंद अस्पताल परिसर की उपयोगिता में एक बार मेडिकल यूनिवर्सिटी का ख्वाब सामने आया था, लेकिन आज शहर की करीब चालीस एकड़ बेशकीमती जमीन पर खड़ी यह इमारत अपने सदुपयोग की भीख मांग रही है। भाजपा के पालमपुर दस्तावेज के सामने कांग्रेस का शपथ पत्र अपने भीतर के परिंदों को फिर से उड़ान देना चाहता है। यह भी एक मुकाबला है कि शहर की किस्मत पलटने की डोर राजनीति के भीतर कितना विजन रखती है। धर्मशाला के दो विधायकों क्रमशः किशन कपूर से विशाल नैहरिया तक के विराम के बीच पुनः पूर्व विधायक सुधीर शर्मा अवतरित हैं, तो दृष्टि पत्र एक तरह से उनके युग का स्मृति पत्र बनकर बता रहा है कि ये इरादे लौटना चाहते हैं।
राजनीति के नए आदर्शों में गुम धर्मशाला की परियोजनाएं फिर से लौटना चाहती हैं, तो इनकी गूंज महानगर के भविष्य को पुष्ट करती है। यह कांग्रेस के आश्वासन में सुधीर शर्मा का संकल्प है जो फ्यूनिकुलर(रेलवे), स्काई-वे, कमांड कंट्रोल सेंटर, इंडोर स्टेडियम, स्विमिंग पूल, अस्पताल, बस स्टैंड, फुटबाल अकादमी व गोरखा म्यूजियम जैसी परियोजनाओं को फिर से जिंदा करना चाहता है। जाहिर तौर पर हिमाचली शहरों को अगले सौ साल का प्रबंध करना है, तो इस तरह के दृष्टि पत्र बनाने की सोच समझ के साथ जनप्रतिनिधियों को अपने बौद्धिक कौशल का नवीन परिचय देना होगा। दरअसल चार नगर निगमों के चुनाव में नए हिमाचल की खोज हो रही है। ऐसे में मंडी व सोलन अपने भीतर कितना भविष्य खोज पाते हैं, इस पर जनता की निगाहें रहेंगी। कल जब विधानसभा चुनाव आएंगे या आइंदा जब सरकारें अपना बजट पेश करेंगी, तो शहरीकरण की यही उड़ान उसमें भी खुद को देखेगी। भले ही पार्टियां शहर-शहर का अलग-अलग विजन दस्तावेज लेकर आ रही हैं, लेकिन अब वक्त की मांग पर समूचे शहरी क्षेत्रों के लिए दृष्टि पत्र की अनिवार्यता है ताकि पांच शहरों के नगर निगमों के अलावा तमाम शहरी निकायों की शक्तियां व सामर्थ्य में उच्च भविष्य देखा जा सके।
2.दो लाख संक्रमण की चेतावनी!
यह चेतावनी बड़ी भयानक और डरावनी लग रही है। प्रमुख चिकित्सकों का आकलन है कि आगामी 15 दिनों में कोरोना वायरस का घातक रूप सामने आ सकता है। फिलहाल एक दिन में 72,330 नए संक्रमित मरीज दर्ज किए गए हैं और मौत का आंकड़ा भी 459 तक पहुंच चुका है, लेकिन कुछ अध्ययनों के आधार पर चिकित्सकों और वैज्ञानिकों ने चेतावनी जारी की है कि संक्रमित मरीजों की एकदिनी संख्या दो लाख तक पहुंच सकती है। यदि ऐसा होता है, तो कोरोना महामारी के मौजूदा दौर में यह अभूतपूर्व और अप्रत्याशित घटना होगी। भारत बीते सितंबर में 97,000 से अधिक संक्रमित मरीजों का, एक ही दिन में, ‘पीकÓ देख और झेल चुका है। उसके बाद अब कोरोना वायरस की नई, दूसरी लहर हमारे सामने है। यह लहर अपेक्षाकृत तेज, प्रहारक और घातक है, बेशक मृत्यु-दर फिलहाल खौफनाक स्तर तक नहीं पहुंच पाई है। संक्रमण की पॉजिटिविटी दर का राष्ट्रीय औसत 5.8 फीसदी तक उछल चुका है। महाराष्ट्र में यह दर 23 फीसदी से ज्यादा है। अध्ययनों के निष्कर्ष हैं कि संक्रमण की नई मार कोरोना वायरस की ब्रिटिश नस्ल के कारण है।
सबसे घातक असर पड़ोसी राज्य पंजाब में देखा गया है, जहां 81 फीसदी मामले ब्रिटिश नस्ल के पाए गए हैं। तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में क्रमशः 50 और 40 फीसदी मामले ब्रिटिश नस्ल के वायरस से संक्रमित हुए हैं। दरअसल बीते साल 2020 में जब एक अमरीकी शोध संस्थान ने अपनी रपट सार्वजनिक की थी कि नवंबर में भारत में कोरोना के एक करोड़ से ज्यादा संक्रमित मरीज होंगे, तो उस निष्कर्ष को गंभीरता से नहीं लिया गया था। शायद एक करोड़ मरीजों का सच हमारे लिए कल्पनातीत था! लेकिन वह रपट साकार साबित हुई और आज भारत में संक्रमित मरीजों का आंकड़ा 1.21 करोड़ को भी पार कर चुका है। अब मौजूदा चेतावनी के मुताबिक, यदि रोज़ाना दो लाख संक्रमित मरीजों का यथार्थ हमारे सामने आता है, तो सबसे बड़ा संकट स्वास्थ्य संसाधनों को लेकर पैदा होना लगभग तय है। फिलहाल रोज़ाना का संक्रमण 72,000 तक पहुंचा है, तो अराजकता की ख़बरें आने लगी हैं। संक्रमितों के असली डाटा को दबाया और छिपाया जा रहा है। महाराष्ट्र का संकट सर्वाधिक और संवेदनशील है। एक चिकित्सक ने हमें बताया कि इंदौर, मप्र में सीटी स्कैन का एक केंद्र, एक दिन में, औसतन 150 लोगों के टेस्ट कर रहा है और अब व्यवस्था हांफने लगी है। अभी से एक डॉक्टर को ओपीडी में औसतन 4-5 घंटे बिताने पड़ रहे हैं, लिहाजा वे भी मानसिक असंतुलन की स्थिति में आते जा रहे हैं। अस्पताल में एक ही बिस्तर पर कोरोना के दो-दो मरीज लिटाने की नौबत आ गई है, तो संक्रमण कैसे दूर होगा? ‘दो गज की दूरी’ के आदर्श नारे को तो भूल ही जाएं। चूंकि अस्पतालों में बिस्तर की संख्या और उपलब्धता सीमित है, लिहाजा संक्रमित मरीजों को इंजेक्शन की ड्रिप देकर वहीं कुर्सी पर बिठाया जा रहा है। ड्रिप खत्म होने के बाद उन्हें अपने घर लौटने को कहा जा रहा है।
कोरोना मरीज के लिए जो ‘पृथक्वास’ एक अनिवार्य शर्त है, उसे सरेआम खंडित करना पड़ रहा है। सरकारें कुछ भी दावे करती रहें, लेकिन हमारा स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा बेहद अधूरा और बौना है। विशेषज्ञों का मानना है कि कोरोना की दूसरी लहर, पहली की तुलना में, ज्यादा तेज और घातक साबित हुई है। स्वास्थ्य जीडीपी की दृष्टि से दुनिया के सबसे संपन्न देश अमरीका में भी दूसरी लहर आई, तो हररोज़ औसतन तीन लाख संक्रमित मरीज सामने आए। ऐसी ही स्थिति यूरोप के अन्य देशों में भी आई। यह दीगर है कि उन देशों में टीकाकरण की तेज कवायद के बाद संक्रमण लगातार कम हो रहा है, लेकिन 139 करोड़ के देश भारत में अभी तक करीब 6.4 करोड़ लोगों को ही टीके की खुराक दी जा सकी है। इनमें करीब 92.6 लाख लोग ही ऐसे हैं, जिन्हें टीके की दोनों खुराक दी जा चुकी हैं। साफ है कि फिलहाल टीकाकरण का ‘कवच’ भी छिद्रदार है। अभी निशाने पर तमाम बंदोबस्त होने चाहिए, ताकि दो लाख वाली स्थिति में अधिकांश लोगों को बचाया जा सके। फिलहाल 45 पार की उम्र वाले सभी नागरिकों को टीकाकरण की शुरुआत की जा चुकी है। यकीनन यह एक स्वागतयोग्य और सकारात्मक कदम है।
3.बचत का बचाव
केंद्र सरकार ने छोटी बचतों पर ब्याज दर घटाने के अपने फैसले को वापस लेकर सुखद कार्य किया है। बुधवार को अचानक ब्याज दरों में कटौती का फैसला करने के बाद सरकार आलोचकों के निशाने पर आ गई थी, लेकिन गुरुवार होते ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बता दिया कि सभी छोटी बचतों पर पुरानी यानी 2020-21 की दरें ही लागू रहेंगी। सरकार ने बचत खातों, पीपीएफ, टर्म डिपॉजिट, आरडी और बुजुर्गों से जुड़ी बचत योजनाओं तक पर ब्याज दरों में कटौती कर दी थी। नई दरें पहली अप्रैल से लागू हो जातीं और 30 जून, 2021 तक प्रभावी रहतीं। ऐसा लगता है, सरकार ब्याज दरों को कुछ समय के लिए कम करके समग्र प्रभाव देखना चाहती थी, लेकिन जिस तरह से लोगों ने विरोध किया, उससे सरकार को समय रहते लग गया कि ब्याज दर घटने से उसकी लोकप्रियता काफी प्रभावित होगी। बचत पर ब्याज भारत में एक संवेदनशील मामला है। लोग बहुत उम्मीद से बचत करते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है, मुसीबत में उनके साथ जल्दी कोई खड़ा नहीं होगा या मुसीबत के समय किसी के सामने हाथ फैलाना पड़ेगा। ऐसे में, थोडे़ अच्छे दिनों में की गई बचत बुरे दिनों के कहर से बचाने में मददगार साबित होती है।
वाकई, यह दौर ऐसा नहीं है, जब बचत को अनाकर्षक बनाया जाए। महामारी का असर जारी है, आर्थिक क्षति की पूर्ति अभी नहीं हुई है। हमें अच्छे से पता है, लोगों की बचत घटी है और बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो अगली किसी बड़ी मुसीबत को झेलने की स्थिति में नहीं हैं। बचत के अनाकर्षक होने पर सेवाभावी लोगों और संस्थाओं पर भी असर पड़ता है। ज्यादातर बुजुर्गों को, जिनकी कोई अन्य कमाई नहीं होती और जो अपनी बचत पर मिलने वाले ब्याज से ही सारी उम्मीदें लगाए होते हैं, ब्याज दर घटने से तगड़ा झटका लगता। हालांकि, लोगों के मन में एक आशंका तो अब पैदा हो ही चुकी है कि देर-सबेर सरकार अपनी कमाई बढ़ाने के लिए ब्याज दरों में कटौती करेगी। महामारी के भयानक असर के कारण सरकार की कमाई घट रही है, उसे कहीं से पैसा कमाना या बचाना है। चूंकि पेट्रोल, डीजल की कीमतों में वृद्धि की तरह ब्याज दर में कटौती भी सरकार के लिए राजस्व जुटाने का एक आसान रास्ता है, इसलिए अनेक अर्थशास्त्री सरकार को ब्याज दरें घटाने की सलाह देंगे। फैसला वापस लेने के बावजूद अर्थव्यवस्था के कर्ताधर्ताओं को ध्यान में रखना चाहिए कि वर्ष 2008 की मंदी के समय छोटी बचतों ने ही इस देश को आर्थिक तबाही से बचाया था। ऐसे में, यह चिंता की बात है कि बचत योजनाओं के प्रति लोगों के लगाव में कमी आ रही है। नोटबंदी के बाद लोगों ने बैंकों में पैसे रखने को तरजीह दी है, लेकिन आर्थिक कमजोरी की वजह से बचतों का आंकड़ा यथोचित बढ़ नहीं रहा है। यह तथ्य है, देश में वित्त वर्ष 2007-08 में सकल घरेलू बचत दर 36.8 प्रतिशत थी, वह लगातार घटती हुई वित्त वर्ष 2017-18 में 29.8 प्रतिशत रह गई थी। महामारी ने बचत के इन आंकड़ों को और कम किया होगा। ऐसे में, ब्याज दरों में कमी समाज के एक बड़े वर्ग की सामाजिक सुरक्षा को तोड़ देगी। बुजुर्गों या जरूरतमंदों को सीधे नकदी देने से ज्यादा जरूरी है कि समाज में बचत का आकर्षण कायम रखा जाए, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग आत्मनिर्भर बनें।
4.गर्मी के तेवर
आने वाले दिनों में बढ़ेगी चुनौती
इसे कुदरत का खेल कहें या जलवायु परिवर्तन की चुनौती कि ठंड खत्म होते-होते तेज गर्मी ने दस्तक दे दी। मौसम की यह तल्खी आम लोगों की चिंताएं बढ़ाने वाली है। यूं तो मौसम के चक्र में बदलाव आना प्रकृति का सामान्य नियम है, लेकिन उसकी तीव्रता मुश्किलें बढ़ाने वाली होती है। होली के दौरान मौसम में आया अचानक बदलाव ऐसी ही असहजता पैदा कर गया। होली वाले दिन देश की राजधानी में पारे का 76 साल का रिकॉर्ड तोड़ना वाकई हैरान करने वाला रहा। चौंकाने वाली बात यह रही कि यह तापमान औसत तापमान से आठ डिग्री अधिक रहा, जिसे 40.1 डिग्री सेल्सियस मापा गया। दरअसल, मौसम में धीरे-धीरे होने वाला बदलाव इतना नहीं अखरता, जितना कि अचानक बढ़ने वाला तापमान अखरता है, जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक साबित हो सकता है। तापमान में आई इस तेजी के साथ ही दिल्ली में धूलभरी आंधी ने लोगों की मुश्किलें भी बढ़ायी। बहरहाल, तापमान में आई यह तेजी इस बात का संकेत भी माना जा सकता है कि आने वाले महीनों में मौसम की तल्खी का लोगों को सामना करना पड़ सकता है। यह लोगों में एक सवाल भी पैदा कर रहा है कि मई-जून में क्या स्थिति होगी। स्वाभाविक रूप से मार्च में तापमान का चालीस डिग्री से ऊपर चला जाना चिंता का सबब है। दरअसल, मौसम में आया यह बदलाव कम-ज्यादा पूरे देश में महसूस किया जा रहा है। राजस्थान, ओडिशा, गुजरात तथा हरियाणा आदि राज्यों के कुछ इलाकों में गर्मी की तपिश ज्यादा महसूस की जा रही है, जो कमोबेश असामान्य स्थिति की ओर इशारा करती है। इसे तकनीकी भाषा में लू के करीब माना जा सकता है। निस्संदेह मार्च के माह में ऐसी स्थिति स्वाभाविक ही चिंता का विषय है। कोरोना संकट से जूझ रहे देश में तापमान में आया अप्रत्याशित बदलाव कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलें बढ़ा सकता है। फिर मौसम के बदलाव के साथ होने वाली बीमारियों के फैलने की आशंका बनी रहती है।
ऐसे में सरकारों और आम लोगों के स्तर पर मौसम की तल्खी से निपटने के लिये पर्याप्त तैयारियां करनी होंगी। ग्लोबल वार्मिंग के चलते पूरी दुनिया में मौसम के मिजाज में जिस तेजी से बदलाव आ रहा है, उसकी चुनौती से मुकाबले के लिये हमें तैयार रहना होगा। शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी। दरअसल, मानव जीवन में पिछले कुछ दशकों में जो कृत्रिमता आई है उसने मौसम में बदलाव को मुश्किल के रूप में देखा है। आम तौर पर हमारी जीवन शैली जितनी प्रकृति के करीब होगी, उसमें आने वाले बदलावों को हम उतनी सहजता के साथ स्वीकार कर सकेंगे। विडंबना यह है कि मौसम की तल्खी के साथ पूरी दुनिया में बाजार जुड़ गया है, जो मौसम के बदलाव को भयावह रूप में प्रस्तुत करके कारोबार करता है। कहीं न कहीं मीडिया का भी दोष है जो मौसम की तल्खी को एक बड़ी खबर के रूप में पेश करता है, जिससे आम लोगों में कई तरह की चिंताएं पैदा हो जाती हैं। दरअसल, हमें मौसम के बदलाव के साथ जीना सीखना चाहिए। मौसम के तल्ख बदलाव जहां सरकारों को विकास योजनाओं को पर्यावरण के अनुकूल बनाने हेतु विचार करने का मौका देते हैं, वहीं आम लोगों को भी चेताते हैं कि पर्यावरण रक्षा का संकल्प लें। प्रकृति के साथ सदियों पुराना सद्भाव हमें मौसम की तल्खी से बचा सकता है। साथ ही हमें हमारे पुरखों से हासिल मौसम की तल्खी से निपटने के उपायों पर गौर करना होगा। खान-पान की प्रकृति का भी ध्यान रखना होगा। हमें अपनी खाद्य शृंखला में भी मौसम की चुनौती का मुकाबला करने वाले आहार-व्यवहार को शामिल करना होगा। यानी मौसम में आ रहे बदलावों को एक सत्य मानकर उसी के अनुरूप अपना जीवन ढालने की जरूरत है। इस दिशा में चिकित्सकों और वैज्ञानिकों को बेहतर काम करके मानवता की रक्षा का संकल्प लेना होगा। साथ ही पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन के संकटों को देखते हुए सरकार व नागरिक स्तर पर रचनात्मक पहल करनी होगी।