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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.नंदीग्राम का ‘खेला’
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जिस राज्यपाल के लिए असभ्य भाषा और आचरण का इस्तेमाल किया, उन्हें उपेक्षित रखा और कई महत्त्वपूर्ण सूचनाओं से वंचित रखा, उसी राज्यपाल को फोन कर निष्पक्ष मतदान की गुहार लगानी पड़ी। हालांकि राज्यपाल जगदीप धनखड़ के साथ संवाद को ममता ने गोपनीय रखा, लेकिन जो कुछ मीडिया में छपा और प्रसारित हुआ है, हमने उसी के आधार पर टिप्पणी की है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह पर गंभीर आरोप चस्पा किए हैं कि चुनाव आयोग और केंद्रीय बल सीआरपीएफ उनके इशारे पर ही काम करते रहे हैं। चुनाव आयोग को लगातार कोसा गया और कटघरे में खींचा गया कि तृणमूल कांग्रेस ने 63 शिकायतें दर्ज कराईं, लेकिन आयोग ने किसी पर भी कार्रवाई नहीं की। एक मुख्यमंत्री ने एक संवैधानिक संस्था पर सरेआम कीचड़ उछाला है। ममता सर्वोच्च अदालत की चौखट खटखटा सकती थीं। आरोप यहां तक लगाए गए कि सीआरपीएफ ने घरों में घुसकर मतदाताओं को धमकाया, मारपीट की और तृणमूल के पक्ष में वोट नहीं करने का दबाव डाला। ममता लगातार आरोप लगाती रहीं कि यूपी, बिहार से भाजपा के गुंडे बुलवाए गए, उन्होंने हंगामा किया, तृणमूल समर्थकों को वोट डालने से रोका गया। ममता को अपनी संवैधानिक शपथ का एहसास होगा!
देश का कोई भी नागरिक, देश के किसी भी हिस्से में, आ-जा सकता है। यदि हंगामा करने वाले ‘गुंडे’ थे, तो बंगाल की पुलिस कार्रवाई कर सकती थी! पुलिस वहीं मौजूद थी। इस तरह किसी भी नागरिक पर कालिख नहीं पोती जा सकती। दरअसल ये बंगाल की नंदीग्राम सीट पर, मतदान के दौरान, ममता के कुंठित व्यवहार के कुछ सारांश हैं। मुख्यमंत्री इसी सीट से तृणमूल की उम्मीदवार हैं। खुद ममता बनर्जी एक मतदान केंद्र के बाहर, व्हील चेयर पर ही, करीब दो घंटे तक बैठी रहीं। क्या वह अपने मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश कर रही थीं? ममता उस घटनाक्रम पर खामोश रहीं, जब सीआरपीएफ के जवानों ने सुरक्षा दी और एक गांव के करीब 320 हिंदू मतदाता अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर सके। नंदीग्राम में मतदान से एक दिन पहले ही धारा 144 लागू कर दी गई थी। फिर भी एक समुदाय विशेष के हुड़दंगियों ने घरों में घुसकर मतदाताओं को हड़काया, मौत तक की धमकियां दीं और घरों में ही बंद रहने का फरमान सुनाया। क्या इस तरह निष्पक्ष मतदान हो सकता है? वोटर भाजपा या तृणमूल के हों, संविधान ने सभी को मताधिकार की शक्ति दी है। यहां तक कि भाजपा प्रत्याशी शुभेंदु अधिकारी के काफिले पर भी हमला किया गया। उनके वाहन को तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन कुछ मीडियाकर्मियों के वाहन क्षतिग्रस्त कर दिए गए। रिपोर्टर भी चोटिल हुए। क्या लोकतंत्र के मायने यही हैं? जाहिर है कि वह हमला तृणमूल और उसके समर्थकों ने किया होगा! मतदान की खुली और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दौरान नंदीग्राम में माहौल उग्र, तपा-उबला और धार्मिक आधार पर विभाजित क्यों बना रहा?
नंदीग्राम में हिंदू और मुसलमान, दलित और आदिवासी आदि समुदायों के वोटर हैं। बेशक हिंदू मतदाता 70-75 फीसदी हैं। ममता भी हिंदू हैं और प्रचार के दौरान तमाम हिंदूवादी कर्मकांड करती रही हैं। क्या नंदीग्राम में ममता के चुनावी समीकरण उलट-पुलट हो गए? क्या खुद मुख्यमंत्री का ही ‘खेला’ खराब हो गया? क्या मतदान हिंसा की लपटों में और सांप्रदायिक रूप से बंटे माहौल में संपन्न नहीं हो सका, जैसा कि ममता ने रणनीति बुनी होगी? हम पहले भी साफ कर चुके हैं कि हम किसी भी पक्ष की जीत-हार का दावा नहीं कर सकते, लेकिन नंदीग्राम की घटनाओं से स्पष्ट है कि ममता दबाव में हैं। नंदीग्राम क्षेत्र में मतदान जारी था और जयनगर में प्रधानमंत्री मोदी एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने जरूर दावा किया कि ममता नंदीग्राम से चुनाव हार रही हैं, लिहाजा वह किसी अन्य, सुरक्षित सीट से भी नामांकन भर सकती हैं। तृणमूल के प्रवक्ताओं ने इसे खारिज किया है और ममता ने प्रधानमंत्री की रैली को आचार संहिता का खुलेआम उल्लंघन करार दिया है। इस पर चुनाव आयोग का कोई बयान या निर्णय सामने नहीं आया है। बहरहाल अभी बंगाल में छह और चरणों का चुनाव शेष है और ममता ने लोकतंत्र की इस लड़ाई को लड़ने की हुंकार भरी है।
2.सूखे का दोषी जलशक्ति विभाग
सवाल यह नहीं कि हिमाचल को सूखाग्रस्त घोषित करना कितना कारगर सिद्ध होगा, बल्कि यह है कि प्रदेश में सूखे में चिन्हित आबादी को समझने में कहीं हमारी योजनाएं दोषपूर्ण हैं। लगातार बारिश और बर्फ के मुआयने में हिमाचल की यह सर्दी सूखी रह गई। हिमाचल का सूखा बरसात से कहीं अधिक सर्दी के रुठने से आतंकित करता है और इस बार पहाड़ बता रहे हैं कि उनके दामन में छुपा सूखा भी बिलख रहा है। मार्च महीने में बारिश से अतृप्त हिमाचल की बानगी में 62 फीसदी कमी का दर्ज होना किसी बड़ी आफत का अलार्म है। सर्दियों के पिछले सारे माह इसी इंतजार में गुजरे कि चोटियों पर बर्फ और नीचे मैदानी इलाकों में वर्षा पिछली सारी क्षतिपूर्ति कर दे, लेकिन इसके विपरीत इस बार प्रदेश को अपनी जरूरत का पानी हासिल करने के लाले पड़ रहे हैं। नदियों के मुहाने रोने लगे, तो दूर राजस्थान तक इस हिसाब को देश जानेगा। आश्चर्य यह कि सूखे से बर्बाद होती बिलासपुर, हमीरपुर, कांगड़ा, चंबा, सिरमौर या मंडी की गेहूं पर चर्चा नहीं होती और न ही आंकड़ों में हिमाचली जमीन की फटी हुई छाती का दर्द समझा जाता है। राष्ट्रीय सूखा प्रबंधन हो या राष्ट्रीय जल नीति, हिमाचल के लिए संघीय ढांचे की बुनियाद सरक जाती है। दूसरी ओर हिमाचल की नीतियों ने खुद को इतना ढांप रखा है कि शिमला के दरबार को सिर्फ यही हिसाब रहता है कि कितनी कम वर्षा हुई या बर्फबारी के अभाव में सेब के कूलिंग आवर्स कितने घट गए। किसी खड्ड , नाले या नदी की आंत से सूखते पानी की न वजह पूछी जाती और न ही यह हिसाब हुआ कि इनके अस्तित्व को कौन चूस रहा है। अश्विन खड्ड पर लंगर डाली योजनाओं ने किस तरह शिमला को तड़पाया था, यह हमसे छिपा नहीं या हर शहर के कचरे में दफन होते नदी-नालों की व्यथा कौन समझेगा। धर्मशाला के भागसू जलप्रपात से बारह लाख लीटर पानी रोज निचोड़ लेंगे, तो चरान खड्ड के अस्तित्व को कौन बचाएगा।
हिमाचल में न तो सूखा पूर्वानुमान की कोई पद्धति बनी है और न ही खेत से इनसान तक की जरूरतों को पूरा करती सदाबहार परियोजनाएं बनीं। हिमाचल ने सूखा प्रबंधन को व्यापक परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा और न ही योजनाओं-परियोजनाओं को जल संसाधनों के अस्तित्व से जोड़ा। बैजनाथ के गणखेतर गांव के लोगों के एतराज को इस दृष्टि से समझना होगा कि वे जल बहाव की प्राकृतिक संरचना का संरक्षण करते हुए वर्षों से चल रही सिंचाई व्यवस्था को खुर्द बुर्द नहीं करना चाहते। हिमाचल की कमोबेश हर पेयजल योजना ने प्राकृतिक जल स्रोतों का बेहद दोहन करते हुए यह गौर नहीं किया कि इनसे जुड़ी सिंचाई व्यवस्था का क्या होगा। सिंचाई की पारंपरिक व्यवस्था का जन जीवन, पर्यावरण, खेती व पशुपालन से सीधा रिश्ता रहा है, लेकिन पेयजल योजनाओं की गलत तकनीक व परिकल्पना ने कई कूहलें व खड्डे खाली कर दी हैं। गणखेतर में अगर विभाग अपनी मनमानी पर अड़ा रहता है, तो सैकड़ों एकड़ जमीन के भविष्य का प्रश्न कौन हल करेगा। दरअसल जल शक्ति विभाग की नई व्यवस्था में पेयजल के अलावा बर्फ, बरसात, बाढ़ और प्राकृतिक जल स्रोतों का संरक्षण अति आवश्यक है ताकि प्रकृति का चक्र चलता रहे। जलवायु परिवर्तन या पर्वतीय परिप्रेक्ष्य में जल शक्ति विभाग केवल पेयजल पाइपें बिछाने का राजनीतिक मंतव्य नहीं हो सकता, बल्कि परियोजनाओं का प्रारूप बदलना होगा तथा इन्हें प्राकृतिक जल बहाव, नदी-नालों के साथ वनस्पति, जल जीवों तथा पारंपरिक सिंचाई व्यवस्था के पालक की भूमिका भी निभानी होगी।
कहने को हर साल पेयजल परियोजनाओं का जिक्र होता है, लेकिन क्या इससे भिन्न सोच व विभागीय जवाबदेही का प्रश्न पैदा नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए धर्मशाला के वाटर फाल से बारह लाख लीटर पानी निचोड़ने का अर्थ केवल पेयजल की उपलब्धता में क्यों देखा गया, जबकि यह धारा चरान खड्ड की अनेक कूहलों के प्राणों की तरह भी तो है। अगर जल प्रपात से नीचे चरान खड्ड पर बांध परियोजना बना कर जल आबंटन किया जाता, तो सूखे की स्थिति का विकराल चेहरा सामने न आता। वक्त आ गया है कि हिमाचल सीधे जल स्रोतों से पानी लेने के बजाय प्राकृतिक बहाव पर बांध बनाकर यह सुनिश्चित करे कि खड्डों, नालों या कूहलें कहीं पूरी तरह सूख न जाएं। हिमाचल को सूखा मुक्त होने के लिए अध्ययन, ज्ञान, हुनर व तकनीक के जरिए प्रबंधन व्यवस्था कायम करनी होगी। हिमाचल को नदियों से बड़ी मात्रा में पानी उठाकर पेयजल आपूर्ति और सिंचाई की क्षमता बढ़ाने के लिए भंडारण पर तवज्जो देनी होगी। सामुदायिक वाटर हार्वेस्टिंग के जरिए हर गांव से हर बस्ती तक के जल संसाधनों का संरक्षण अति आवश्यक है।
3.ताकि न उठे सवाल
किसी प्रत्याशी की गाड़ी में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का पाया जाना दुखद और अवैधानिक है। असम से जो शिकायत आई है, वह इतनी गंभीर है कि स्वयं चुनाव आयोग को संबंधित चार अधिकारियों को निलंबित करना पड़ा है। अगर मतदान के बाद ईवीएम मशीन को स्ट्रॉन्ग रूम तक पहुंचाने का सरकारी इंतजाम नहीं था, तब मतदान केंद्र पर ही मशीन के साथ इंतजार करना चाहिए था। चुनाव आयोग के पास वाहन न होने के बहाने को स्वीकार नहीं किया जा सकता। संसाधनों की कोई कमी न हो, इसीलिए चुनाव अनेक चरणों में कराए जा रहे हैं। आयोग ने सभी केंद्रों को परिवहन सुविधा से जोड़ने के लिए तमाम इंतजाम किए ही होंगे, तब भी अगर कहीं वाहन का टोटा सामने आया, तो यह अपने आप में बड़ी चिंता की बात है। उससे भी बड़ी चिंता यह कि आयोग की गाड़ी उपलब्ध न होने पर किसी प्रत्याशी की गाड़ी में ईवीएम रख दी जाए! यह चुनावी व्यवस्था के साथ खिलवाड़ है। अगर प्रत्याशी के वाहन में ईवीएम मशीन के साथ चुनाव अधिकारी भी बैठे थे, तो भी मामला बहुत गंभीर है। शिकायत आने के बाद चुनाव आयोग ने रतबरी क्षेत्र के उस मतदान केंद्र पर पुनर्मतदान का सही फैसला लिया है। पूरे चुनाव में हर जगह आयोग को अपने इंतजामों को पुन: परख लेना चाहिए।
यह भूलना नहीं चाहिए कि चुनाव आयोग या देश में चुनाव कितनी मुश्किल से सुधार की सीढ़ियां चढ़ा है। कितने संघर्ष और बलिदान के बाद चुनावी प्रक्रिया आज इस स्थिति में पहुंची है कि दुनिया भारत से चुनाव कराना सीखती है। ऐसी उज्ज्वल छवि वाले चुनाव आयोग को विगत कुछ समय से अगर चुनाव कराने में समस्याएं आ रही हैं, तो यह समय पुन: मुस्तैद होने का है। जिन राज्यों में इस वक्त विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां से लगातार छोटी-बड़ी शिकायतें सामने आ रही हैं। चूंकि चुनाव के दौरान पूरी व्यवस्था चुनाव आयोग के हाथों में होती है, इसलिए किसी भी शिकायत की जिम्मेदारी आयोग को लेनी चाहिए। क्या निचले स्तर पर चुनाव अधिकारी चुनाव के नियम-कायदे भूलने लगे हैं? बहुत मुश्किल से और काफी संसाधनों के उपयोग से इस देश ने अपने लोगों को चुनाव कराने के लिए प्रशिक्षित किया है, इस प्रशिक्षण को फिर से जांचने की जरूरत है। चुनाव कराने की जिम्मेदारी उन्हीं लोगों के हाथों में होनी चाहिए, जो निष्पक्ष हैं। समय बदल चुका है, अब चुनाव की प्रक्रिया और उसके छोटे-छोटे पहलुओं पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नागरिकों की निगाह है, अब कमियों को पहले की तरह छिपाया या नजरंदाज नहीं किया जा सकता। हर आदमी सूचना तकनीक से लैस है और निष्पक्ष चुनाव के प्रति लोगों का लगाव बढ़ा है। पश्चिम बंगाल से भी आयोग के पास शिकायतें लगातार पहुंच रही हैं, उन शिकायतों का निपटारा ऐसे पारदर्शी तरीके से होना चाहिए कि किसी भी दल को गंभीर शिकायत का मौका न मिले। चुनावी तंत्र की निष्पक्षता न केवल हमारे देश को मजबूत करती है, बल्कि राजनीतिक दलों को भी अनुशासन में रहने के लिए पाबंद करती है। अत: किसी भी दल के दबाव में आए बिना आयोग को वही करना चाहिए, जो उसके नियम-कायदों में बहुत ठोक-बजाकर दर्ज किया गया है। चुनावी प्रक्रिया के किसी भी मोड़ पर गुणवत्ता से समझौता लोकतंत्र से समझौता होगा, जो देश के हित में नहीं है।
4.पाक का यू-टर्न
नीति-नीयत बदलने से ही शांति-तरक्की
भारत विरोध की फसल काटने वाले पाक हुक्मरानों को आखिर 24 घंटे में ही आंतरिक दबाव के चलते आवश्यक वस्तुओं के आयात करने के फैसले को वापस लेना पड़ा। दशकों से यह सिलसिला चला आ रहा है कि दोनों देशों के बीच पैदा होने वाली तल्खी के बाद व्यापार संबंध, क्रिकेट, पर्यटन आदि पर गाज गिरती रही है, जिसे स्वाभाविक प्रतिक्रिया मान लेना चाहिए। जो राजनीतिक निर्णयों में भी झलकती है। जब बुधवार को कैबिनेट की आर्थिक समन्वय समिति की बैठक में पाकिस्तान के वित्तमंत्री अजहर द्वारा भारत से चीनी व कपास आयात करने का फैसला लिया गया तो लगा था कि दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलेगी। इस फैसले को बेहतर संबंध बनाने की दिशा में उठाया गया तार्किक कदम माना जाने लगा था। आजादी के बाद हुए विभाजन ने कई ऐसे मुद्दों को जन्म दिया, जो लगातार सुलगते रहते हैं, जिसके चलते भारत विरोध की धारणा को लगातार पाक हुक्मरानों द्वारा सींचा जाता रहा है। यही वजह है कि भारत से व्यापार संबंध फिर से कायम करने के प्रयासों का विपक्षी दलों व कट्टरपंथी समूहों द्वारा मुखर विरोध किया जाने लगा, जिसके चलते 24 घंटे के भीतर ही पाकिस्तान के संघीय मंत्रिमंडल ने बिना कोई ठोस वजह बताये ईसीसी के फैसले को पलट दिया। इसे विदेशी मामलों के जानकार इस्लामी कट्टरपंथियों की जीत बता रहे हैं जो भारत-पाक में बेहतर रिश्तों की उम्मीद को बंधक बनाये हुए हैं। इनके द्वारा भारत शासित मुस्लिम बहुल कश्मीर का मुद्दा प्रमुख रूप से उठाया जाता रहा है। वे इस उपमहाद्वीप में शांति के प्रयासों को पलीता लगाते रहते हैं। भारत-पाक में रिश्तों के सामान्य बनाने की दिशा में उठाये गये हालिया कदमों पर यू-टर्न लेने के बाबत कहा गया कि जब तक कश्मीर का बदला गया दर्जा बहाल नहीं होगा, तब तक कारोबारी रिश्तों का सामान्य होना संभव नहीं होगा।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करके उसे केंद्रशासित प्रदेश बनाये जाने के बाद पाक प्रधानमंत्री इमरान खान संयुक्त राष्ट्र से लेकर इस्लामिक संगठनों में भारत के खिलाफ आग उगलते रहे हैं। वे बाकायदा वर्ष 2019 से भारत के खिलाफ एक धार्मिक युद्ध छेड़ने की कवायद में जुटे रहे हैं। पाकिस्तान दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पत्र लिखकर व्यक्त की गई सद्भावना के बाद इमरान खान ने पिछले हफ्ते रचनात्मक और परिणाम उन्मुख संवाद के लिये अनुकूल वातावरण बनाये जाने पर बल दिया था। वास्तव में दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाने के प्रयासों की शुरुआत तब हुई जब दोनों देशों के सैन्य संचालन महानिदेशकों द्वारा संघर्ष विराम की घोषणा करने वाला संयुक्त बयान जारी किया गया था। यह प्रयास लंबे समय से एलओसी व अन्य क्षेत्रों में जारी संघर्ष को टालने के कदम के रूप में देखा गया। इतना ही नहीं, गत 18 मार्च को इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग के पहले सत्र में पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा ने दोनों देशों के बीच बेहतर रिश्तों की उम्मीद जगायी थी। उन्होंने पड़ोसी और क्षेत्रीय देशों के आंतरिक मामलों में किसी तरह का हस्तक्षेप न करने का वायदा किया था। उसके बाद अब दोनों देशों के बीच व्यापार बहाली के प्रयासों पर यू-टर्न लेने ने कई सवालों को जन्म दिया है। निस्संदेह पाकिस्तानी नीतियों को देखते हुए यह प्रकरण ज्यादा नहीं चौंकाता। ऐसे यू-टर्न कई बार देखने को मिले हैं। पाकिस्तान का इतिहास वार्ता, विश्वासघात, आतंकवाद और फिर वार्ता की तरफ बढ़ने का रहा है। इसलिये हालिया यू-टर्न को बड़े अप्रत्याशित घटनाक्रम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। पाक सरकार के फैसले कट्टरपंथियों और सेना के दबाव से विगत में भी प्रभावित होते रहे हैं जो भारत विरोध की मनोग्रंथि पर आधारित होते हैं। लेकिन एक बात तय है कि जब तक पाक के हुक्मरान अपने फैसलों में लचीलापन और प्रगतिशीलता नहीं दिखाते, तब तक पाकिस्तान की तरक्की संभव नहीं है। क्षेत्रीय शांति के लिये भी यह एक अनिवार्य शर्त है।