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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.मंडी का सियासी ऊंट
न तो विधायक अनिल शर्मा बेचारे हैं और न ही मंडी की सियासत, लेकिन एक नगर निगम चुनाव ने हजारों परतें खोल दीं। अनिल शर्मा दिल से भाजपा के नहीं हैं और यह भी कि पार्टी को उनकी जरूरत नहीं है, फिर भी मंडी का जनादेश उन्हें लोकतांत्रिक अधिकार देता है कि वह गिने जाएं। गिनने की यही कला मंडी शहर की जमीन को आसमान से मुकाबिल करती है। अनिल शर्मा यानी सुखराम परिवार अपनी जमीन पर फिर से रेखांकित होने की कोशिश में जो नक्शा बना रहा है, उसकी फांस में सियासी चरित्र देखा जा सकता है। भाजपा में भटके अनिल शर्मा, तो कांग्रेस में अटके उनके पुत्र आश्रय शर्मा का वजूद भी पंडित सुखराम शर्मा की विरासत की एडि़यों में फंसा है। यह मंडी का नया धरातल हो सकता है जिसे नगर निगम चुनाव के पंद्रह वार्डों में मापा जा रहा है। दूसरी ओर मंडी के आकाश पर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर नजर आते हैं। मंडी जिला को मंडी शहर की आंख से देखने का यह कठिनतम इम्तिहान है, लिहाजा उनके लिए नगर निगम उतना ही बड़ा है, जितनी बड़ी हिमाचल की सत्ता रही है। ऐसे में आरोप-प्रत्यारोप के बीच मंडी के मतदाता को या तो शहर की लाज बचानी है या सत्ता में जान बचानी है, इसका भी फैसला होगा। मतदाताओं की चुनौतियों के बीच राजनीतिक चुनौतियों ने अनिल बनाम जयराम क्यों बना दिया या इस गणित में पूरे प्रदेश को क्या मिलेगा, यह इस चुनाव का सबसे रोचक तथ्य होगा। जाहिर है लुटे पिटे अनिल शर्मा के पास पारिवारिक विरासत की काठी है, तो सामने सत्ता की लाठी है। राजनीति यहां पेंचदार न सही, मगर लगातार अनुशासनहीन ठहराए जा रहे अनिल शर्मा के खिलाफ भाजपा किस लिए अपाहिज मुद्रा में है, यह गणित कहीं महंगा साबित न हो जाए।
मंडी के त्रिकोणीय विवाद में जल शक्ति मंत्री का अवतार कहीं गहरा और असरदार है। मंडी की ओर से वह कभी पंडित सुखराम के कान, प्रो. प्रेम कुमार धूमल के हाथ, तो अब जयराम ठाकुर की शान की तरह दिखाई देते हैं। जाहिर है जिस पृष्ठभूमि के महेंद्र सिंह ठाकुर हैं, उसके वात्सल्य में अनिल शर्मा की परवरिश हुई है। यहां एक अतीत लड़खड़ा रहा है, तो दूसरा ललकार रहा है। भाजपा के लिए अनिल शर्मा नगीना सिद्ध न हुए, लेकिन महेंद्र सिंह इस समय सत्ता के सबसे बड़े नायक हैं। इसमें दो राय नहीं कि उनका वजूद और वजन सभी मंत्रियों पर भारी पड़ता है, लेकिन इसका यह अर्थ भी है कि सोलन के अलावा कांगड़ा के दो नगर निगमों के चुनाव राजनीति के किस हाथी की सवारी करेंगे। सोलन व कांगड़ा के किसी मंत्री का आश्वासन नगर निगम चुनावों को सत्ता का ऐसा पुरस्कार नहीं दिखा पा रहा है, जिस कद से महेंद्र सिंह अपनी करामात का पन्ना लिख रहे हैं। ऐसे में वास्तविक सत्ता के पहरे में मंडी शहर की सत्ता अपनी आंखें खोलकर देख सकती है। कृतज्ञ भाव को जागृत करती घोषणाएं करोड़ों के प्रोजेक्ट्स के साथ लामबंद हैं, तो यहां बकौल प्रधानमंत्री नसीबवालों का फैसला भी हो रहा है। मंडी के नसीब और नसीबवालों में महेंद्र सिंह व मुख्यमंत्री की इच्छा शक्ति के फलक पर यह चुनाव कितनी चौड़ी छाती पर होते हैं, यह सबसे बड़ा सवाल है।
सवाल इसलिए भी कि विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री के चुनावी अभियान में आने से युद्ध का कौशल, मतदाता के सामने के प्रतिवेदन को विस्तृत कर रहा है। मुकेश अग्निहोत्री यह मानते हैं कि सरकार चुनाव की फिरौती मांग रही है, तो मुख्यमंत्री को एक-एक वार्ड घूमना पड़ रहा है। यह बहस का विषय और हकीकत का हर्फ हो सकता है कि मुख्यमंत्री को स्थानीय स्तर के चुनावों में किस हद तक शिरकत करनी चाहिए और यह भी कि सत्ता के साढे़ तीन सालों के परिप्रेक्ष्य में जमीन का मुआयना कितना अहम है। बहरहाल जिस सीमा तक अनिल शर्मा पहुंचे हैं, वहां मर्यादा का उल्लंघन किस करवट बैठता है, इसका फैसला मंडी शहर को ही करना है। वह चाहे तो अपने फैसले के बड़े आकार में सरकार देखे और न चाहे तो शहरी लोकतंत्र में बड़े से बड़े नेता को भी अपने मुद्दों में घसीट दे। राजनीति का अपना सिर भारी हो रहा है और प्रचार में अगर भाजपाई छाते के नीचे स्थानीय विधायक सीधे सवाल पूछ रहा है, तो शहर अपने भीतर विवादों की बस्ती और विवादों की भट्ठी देख रहा है। भाजपा की मुसीबत यह है कि एक ओर उसे अपने आस्तीन के भीतर अपना ही सांप नजर आ रहा है और दूसरी ओर उसे इसका सारा जहर निकालना है। ऐसी जहरीली प्रतियोगिता में मंडी शहर एक तरह से राजनीतिक चीरहरण में फंस चुका है। देखें शहर की आबरू कल किस योद्धा के करीब खड़ी होती है।
2.नक्सली मोर्चे पर त्रासदी
नक्सलवाद एक बार फिर देश को त्रासदी के घाव दे गया। एक बार फिर नक्सलियों की रणनीति बीस साबित हुई। घात लगाकर हमला करने की शैली एक बार फिर कारगर रही। छत्तीसगढ़ में बीजापुर-सुकमा सीमा तेलंगाना से सटा क्षेत्र है। वहां खुफिया सूचना के आधार पर ही सुरक्षा बलों का ऑपरेशन शुरू किया गया था, लेकिन हमारे 24 जवानों को शहादत देनी पड़ी, 31 जवान घायल हैं और अस्पतालों में उपचाराधीन हैं। एक जवान यह आलेख लिखे जाने तक लापता बताया गया है। वह कोबरा बटालियन का राकेश्वर सिंह बताया गया है। घायलों में कुछ की स्थिति गंभीर मानी गई है, लिहाजा जि़ंदगी और मौत का संघर्ष बेहद तकलीफदेह लगता है। एक बार फिर सवाल उठने लगे हैं कि नक्सली मोर्चे पर भी संयुक्त कमान का गठन क्यों नहीं किया जाना चाहिए? सेना को भी एक भूमिका देनी चाहिए? क्यों न संयुक्त कमान के तहत सुरक्षा बलों और जवानों को एक-सा प्रशिक्षण दिया जाए? यदि स्थानीय पुलिस को भी शामिल करना है, तो उन्हें अपग्रेड और गुरिल्ला प्रशिक्षण भी दिया जाए। हमारी पुलिस नक्सलियों से लड़ने में बिल्कुल अक्षम है। यह महज आरोप या आलोचना नहीं है। युद्ध नक्सलवाद से है और बीते 50 साल के टकरावों के बाद हमारी आंखें खुलनी चाहिए कि घात लगाकर किए गए हमलों का पलटवार क्या होना चाहिए।
जवानों की संख्या भी कम नहीं थी। उनकी 10 टीमें बनाई गई थीं। सीआरपीएफ, एसटीएफ, डीआरजी, कोबरा बटालियन और अकेली बीजापुर पुलिस के 1000 जवानों को ऑपरेशन के साथ जोड़ा गया था। इन सभी बलों के प्रशिक्षण अलग-अलग हैं, लिहाजा आपसी समन्वय पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। मुठभेड़ में घायल हुए एक जवान का कथन मीडिया में छपा है कि नक्सली 400 से ज्यादा थे। हम जंगल में घुसते गए, लेकिन वहां कोई नहीं था। जैसे ही हमने लौटना शुरू किया, तो तीन तरफ से नक्सलियों ने हमला कर दिया। हम घिर चुके थे, लिहाजा जो भी फैसला लेना पड़ा, वह तुरंत लेना पड़ा। नक्सलियों ने विस्फोट किए, ग्रेनेड फेंके, रॉकेट लॉन्चर इस्तेमाल किए गए, गोलियों की बौछार की गई और अंततः जवान शहीद हुए। हमले के दौरान घायल जवानों ने उजड़ी, खाली झोंपडि़यों में छिपकर मोर्चा लेने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे और नक्सलियों के जाल में फंसते चले गए। हालांकि 15-20 नक्सलियों के मारे जाने और करीब 20 के घायल होने की भी ख़बर है। कुछ अफसरों ने 25-30 नक्सली मारे जाने का दावा किया है। बहरहाल हम कई बार सुन चुके हैं कि शहीदों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। अब यह बयान देना बंद करना चाहिए, क्योंकि नक्सली मोर्चा भी जंग का ही एक मोर्चा है। जिन घरों का चिराग बुझता है, जहां सन्नाटा और खालीपन पसर जाता है, उन्हें अपने नौजवानों की जि़ंदगी का एहसास है।
नक्सली रणनीति बदलें। बेशक देश के करीब 150 जिलों में फैला नक्सलवाद आज 20-25 जिलों तक ही सिमट गया है, लेकिन छत्तीसगढ़ के जंगल नक्सलियों के मुख्यालय बने हैं। यहां से तेलंगाना और ओडिशा के जंगलों में घुसा जा सकता है। अलबत्ता कुछ राज्यों ने नक्सलवाद का खात्मा किया है। सरकार नक्सल-विरोधी रणनीतियां तय करती रही है, लेकिन आज भी कुछ ऐसा है, जो छिद्रदार और गलत है। हमारी खुफिया सूचनाएं और रणनीति भी नक्सली मोर्चेबंदी की तुलना में कमतर साबित होती रही हैं। सवाल है कि एक भी शहादत क्यों हो? लेकिन इस बार बहुत कुछ घटा है। नक्सलियों ने शहीदों के जूते और कपड़े तक उतार लिए। नक्सलियों ने जवानों से सात एके-47, दो इंसास राइफल्स, एक एलएमजी आदि लूट लिए। जांच यह भी होनी चाहिए कि नक्सलियों को अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्र कौन सप्लाई कर रहा है? जहां घात लगाकर हमला किया गया, वह नक्सली कमांडर हिडमा के प्रभाव वाला इलाका है। उस पर 25 लाख रुपए का इनाम घोषित है। मुठभेड़ को अंजाम देने वाले सुरक्षा बलों को हिडमा की मौजूदगी की ख़बर भी दी गई थी, लेकिन नाकामी हाथ लगी। बहरहाल गृहमंत्री अमित शाह छत्तीसगढ़ गए हैं और नक्सली हमले के मद्देनजर समीक्षा बैठक भी ली है। श्रद्धांजलियां दी गई हैं, शहीदों को सलामी दी गई है। अपनी जगह सब ठीक है, लेकिन बदली रणनीति के तहत कोई पलटवार होगा, तो देश को सुकून मिलेगा।
3.संक्रमण का शिकंजा
यह बेहद चिंता और अफसोस की बात है, तमाम सावधानियों और दिशा-निर्देशों के बावजूद भारत ने कोरोना संक्रमण के मामले में अपना पिछला रिकॉर्ड तोड़ दिया है। कोरोना की दूसरी लहर में रविवार रात तक 24 घंटों के दौरान मिले संक्रमण के मामले 1,03,764 तक पहुंच गए। प्रतिदिन के कुल मामलों में करीब दस-दस हजार की वृद्धि हो रही है, इससे संक्रमण के बढ़ते खतरे का अंदाजा लगाया जा सकता है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, 9 फरवरी को दैनिक मामले 11 हजार तक गिर गए थे। ऐसा लगने लगा था कि कोरोना का बुरा दौर बीत गया। सबसे बुरा दौर 10 सितंबर के आसपास दर्ज हुआ था, जब रोजाना के मामले करीब 98 हजार तक पहुंचने लगे थे। महामारी की शुरुआत के बाद पहली बार ऐसा हुआ है, जब देश में एक दिन के अंदर कोरोना के एक लाख से ज्यादा मामले आए हैं। दुनिया में इसके पहले केवल अमेरिका ही एक ऐसा देश है, जहां एक दिन में एक लाख से ज्यादा मामले सामने आए थे। अब अमेरिका में जहां प्रतिदिन 70 हजार के करीब मामले आ रहे हैं, वहीं भारत एक लाख के पार पहुंच गया है। अगर यही रफ्तार रही, तो अप्रैल घातक सिद्ध होगा। भारत चूंकि अमेरिका की तुलना में चार गुना से ज्यादा आबादी वाला देश है, इसलिए आंकड़े कहां जाकर दम लेंगे, सोचना भी भयावह है। कोई आश्चर्य नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बढ़ते कोरोना मामलों को देखते हुए एक उच्च स्तरीय बैठक की है। कोरोना पर नियंत्रण पाने के लिए लोगों में जागरूकता और लोगों की भागीदारी सबसे महत्वपूर्ण है। अब केंद्र सरकार अगर बढ़ते मामलों और मौतों को देखते हुए महाराष्ट्र, पंजाब और छत्तीसगढ़ में केंद्रीय टीमें भेज रही है, तो यह जरूरी कदम है। कोरोना के खिलाफ अपनाए जाने वाले उपायों को और मजबूत करने व इन्हें बेहतर तरीके से लागू करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि महाराष्ट्र, पंजाब, छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों में कोरोना दिशा-निर्देशों की अवहेलना हुई है, जिसका खामियाजा ये प्रदेश भुगत रहे हैं। इन तीनों राज्यों और खासकर महाराष्ट्र में लॉकडाउन जैसी स्थिति है। कई राज्यों ने अपने यहां प्रवेश करने वालों के लिए कोरोना जांच को अनिवार्य बनाया है, पर व्यावहारिक रूप से देख लेना चाहिए कि क्या वाकई आदेशों की पालना हो रही है? क्या हमने हवाई अड्डों पर कोरोना जांच की व्यवस्था को सोलह आना दुरुस्त कर लिया है? जहां एक ओर, सरकार को नए सिरे से जागना होगा, तो वहीं दूसरी ओर, विशेषज्ञों को कोरोना की उछाल के वैज्ञानिक कारणों की पड़ताल भी करनी पड़ेगी। लोगों के बीच कई तरह की भ्रांतियां फैलने लगी हैं। लोगों को इस खतरे के प्रति पूरी तरह सूचित व सचेत करना होगा। सरकार के कोविड-19 टास्क फोर्स के शीर्ष सदस्य डॉक्टर रणदीप गुलेरिया ने बताया है कि म्यूटेंड स्ट्रेन्स मामलों में आने वाले उछाल का एक बड़ा कारण है। उन्होंने कुछ सुझाव भी साझा किए हैं, जिनमें कंटेनमेंट जोन बनाना, लॉकडाउन, जांच, खोज और क्वारंटीन करना शामिल है। आशंका है, सरकार को लॉकडाउन जैसी कड़ाई के लिए मजबूर होना पडे़गा। क्या एक और लॉकडाउन झेलने की स्थिति में यह देश है? इसलिए सही राह यही है कि बचाव के प्रति लोग सजग हों और प्रशासन अपने स्तर पर उनको दंडित भी करे, जो अभी जागे नहीं हैं।
4.नक्सलियों का नश्तर
बहुआयामी प्रयासों से ही समाधान संभव
एक बार फिर छत्तीसगढ़ स्थित बीजापुर के जंगलों में नक्सलवादियों ने 22 जवानों को शिकार बनाया है। कैसी विडंबना है कि तीन सुरक्षा बलों के दो हजार जवान जिन नक्सलियों के सफाये के लिये गये थे उन्हीं की साजिश का शिकार बन गये। जाहिर तौर पर यह कारगर रणनीति के अभाव और खुफिया तंत्र की नाकामी का ही नतीजा है कि नक्सली हमारे जवानों को जब-तब आसानी से अपना निशाना बनाते हैं। जो सत्ताधीशों के उन दावों की पोल खोलता है, जिसमें वे नक्सलवाद के खात्मे के कगार पर होने की बात करते हैं। उनकी जड़ों के सही आकलन न कर पाने का ही नतीजा है कि तीन दशकों से हर बार नक्सलवादी अपने मंसूबों में कामयाब हो जाते हैं। शनिवार को बीजापुर व सुकमा की सीमा पर हुए हमले में सुरक्षा बलों को भारी क्षति उठानी पड़ी और वास्तविक तस्वीर सामने आने में वक्त लगा। रविवार को जाकर स्थिति स्पष्ट हुई है वास्तव में चौबीस जवान मारे गये हैं। जंगलों में जवानों के छितरे शव नक्सलियों की क्रूरता की कहानी कहते थे। अभी हाल ही में जवानों को ले जा रही बस पर हमले में भी पांच जवान मारे गये थे। देश छह अप्रैल, 2010 को नहीं भूला है जब दंतेवाड़ा में नक्सलियों के बड़े हमले में 76 जवान शहीद हो गये थे। तब भी नक्सलियों के सफाये की बातें हुई और योजनाएं बनी, लेकिन नक्सलियों की मजबूती बढ़ती गई। वर्ष 2013 को भी नहीं भुलाया जा सकता है जब छत्तीसगढ़ की जीरम घाटी में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा को घेर कर नक्सलियों ने क्रूरता दिखायी थी। तब भी कई दिग्गज कांग्रेसियों समेत तीस लोगों के मरने की खबर आई थी। बीते वर्ष भी सुकमा में 17 जवानों की हत्या नक्सलियों ने कर दी थी। दरअसल, हर साल कुछ बड़े हमले करके नक्सली अपनी उपस्थिति का अहसास तंत्र को कराते रहे हैं। उन दावों को नकारते हैं कि नक्सलवाद आखिरी सांस ले रहा है।
ये सुनियोजित हमले यह भी बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है। इनके न हौसले कम होते हैं और न ही आधुनिक हथियारों व संसाधनों में कोई कमी आई है। गोला-बारूद की पर्याप्त आपूर्ति जारी है। वे छापामार युद्ध में इतने पारंगत हैं कि दो हजार प्रशिक्षित व सशस्त्र जवानों के समूह को आसानी से अपना निशाना बना लेते हैं। उनका खुफिया तंत्र सरकारी खुफिया तंत्र पर भारी पड़ता है। निस्संदेह जटिल भौगोलिक परिस्थितियां हमारे जवानों के लिये मुश्किल बढ़ाती हैं। इससे जोखिम कई गुना बढ़ जाता है। लेकिन हमें इन हालातों से निपटने के लिये उन्हें प्रशिक्षित करने की जरूरत है। केंद्र राज्यों में बेहतर तालमेल से रणनीति बनाने की जरूरत है। अन्यथा जवानों के मारे जाने का सिलसिला यूं ही जारी रहेगा। सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्यों दशकों के बाद नक्सलवाद से निपटने की हमारी रणनीति कारगर नहीं हो रही है। कहीं न कहीं हमारी रणनीति की खामियां नक्सलियों को हावी होने का मौका देती हैं। खुफिया तंत्र की नाकामी भी एक बड़ी वजह है। यह भी एक विडंबना ही है कि नक्सलियों से बातचीत की कोई गंभीर पहल होती नजर नहीं आती। हमें उन कारणों की पड़ताल भी करनी है, जिसके चलते नक्सलवाद को इन इलाकों में जन समर्थन मिलता है। हमें सोचना होगा कि क्यों इन इलाकों में गरीब व हाशिये पर गये लोग सरकार के बजाय नक्सलियों का पर ज्यादा विश्वास करते हैं। इस समस्या का सामाजिक व आर्थिक आधार पर भी मंथन करना होगा। यह भी कि इन दुर्गम इलाकों में विकास की किरण क्यों नहीं पहुंच पायी है। सरकार का विश्वास लोगों में क्यों कायम नहीं हो पाता। दरअसल, नक्सली समस्या के सभी आयामों पर विचार करके समग्रता में समाधान निकालने की कोशिश होनी चाहिए। केंद्र व राज्य सरकारों के बेहतर तालमेल से ही यह संभव हो पायेगा। अन्यथा देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये यह खतरा और गहरा होता जायेगा।