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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.शहरीकरण की नई शुरुआत
आगामी विधानसभा चुनाव हिमाचली जनता के कितने नजदीक हैं, इसका अंदाजा आज नगर निगम चुनाव परिणामों से लगाया जा सकता है। पहली बार हिमाचल में मुख्य चुनाव से हट कर शहरी चुनावी चुनौती में कांग्रेस और भाजपा खड़ी हैं और यह साहस भरा कार्य वर्तमान सरकार की बदौलत हुआ है। यहां परीक्षा केवल शहरी राजनीति या वार्ड स्तर के उम्मीदवारों की नहीं, बल्कि शहरी आवाम, सरकार और सियासी संगठनों की भी है। पूरे चुनावी अभियान ने राजनीतिक एडि़यां कितनी घिसीं, लेकिन इतना जरूर है कि पहली बार मतदाताओं के बीच शहरी जरूरतों के मुद्दे परवान चढ़े और यह भी कि वोटर का रुख व रूह बदल रही है। पहली बार सोलन जैसे शहर ने खुद को पुकारा होगा या पिद्दी भर पालमपुर नगर परिषद जब ताले तोड़कर नगर निगम बनी, तो नागरिक एहसास का दायरा बढ़ गया। निश्चित रूप से शहरीकरण के प्रति कुछ कदम लिए गए और इसीलिए हर राजनीतिक दल को शहरों के विकास की शपथ लेनी पड़ी।
यहां ये चुनाव अब केवल शिमला सहित कुल पांच नगर निगमों की मंजिल नहीं, बल्कि आगे चलकर शहरी विकास की आधिकारिक, बजटीय व नीतिगत समर्थन की गुजारिश करेंगे। बेशक राजनीतिक तौर पर चार शहरों के अर्थ में इन्हें देखा जाएगा, लेकिन इनके भीतर कुछ बनती-टूटती दीवारें भी हैं जो सत्ता बनाम विपक्ष की परछाई सरीखी हैं। सत्ता अगर नगर निगम की सत्ता को बेदखल करने की जरूरत को सियासी संवेदना से देखेगी, तो इस चुनाव ने बता दिया कि धर्मशाला शहर की गलियों में स्मार्ट सिटी इसलिए भटकी क्योंकि वहां पार्टी चिन्ह और प्रतीक युद्धरत थे। यहां सरकार और शहर के बीच के फर्क को भी समझना चाहिए। शहर या तो सरकार की जिम्मेदारी हैं या शहरी ढांचे में इनकी आत्मनिर्भरता दिखाई दे। बहरहाल वर्तमान चुनाव के बाद सियासत से परे यह देखना होगा कि हिमाचल इस दिशा में क्या कर सकता है और किस तरह से करना होगा। एक तरह से दृष्टिपत्र बनाती पार्टियों ने अपने तौर पर यह समझने की कोशिश की है कि शहरी जनता के आसपास कौन सी प्राथमिकताएं ज्यादा कारगर सिद्ध होंगी। गौर से देखें तो कमोबेश हर पार्टी ने माना है कि शहरीकरण की शुरुआत में नया करने की जरूरत है।
चार शहरों के दृष्टिपत्रों के बीच स्ट्रीट लाइट, पार्किंग, स्वच्छता, कूड़ा-कचरा प्रबंधन, सीवरेज, चौबीस घंटे बिजली-पानी की आपूर्ति तथा आवारा पशुओं से निजात दिलाने के वादे हुए हैं। विकास की सियाही से लिखे राजनीतिक वादों के कई आयाम हैं और जब पार्टियां मनोरंजन पार्क, खेल अकादमियों, ईको टूरिज्म, पुस्तकालय व खेल स्टेडियम खोलने का इरादा जाहिर करती हैं, तो सत्ता और शहर नजदीक आते दिखाई देते हैं। कांग्रेस के दृष्टिपत्र का धर्मशाला शहर अपने वजूद की नई परिकल्पना में अगर आगामी विधानसभा चुनाव की निगरानी कर रहा है, तो मंडी के अरमानों में रंग भरते वर्तमान सत्ता का जोश वहां बंटे दृष्टिपत्र में मौजूद है। शिवधाम, संस्कृति सदन, सीवरेज, पार्किंग और सुकेती खड्ड चैनलाइजेशन के प्रस्तावों को जोड़कर देखें तो करीब साढ़े छह सौ करोड़ की लागत से सरकार शहर की नस्ल सुधारना चाहती है। ऐसे में मंडी शहर को सत्ता की वफादारी में देखना है या शहर की सत्ता को चुनना है, इसके बीच दृष्टिपत्रों की शर्तें लागू हैं। असल में हर शहर को घूरती राजनीति के अपने पैबंद और अपने पैरोकार दिखाई देते हैं। प्रचार की धार से ये नगर निगम चुनाव अपने जोश में चार शहरों के उपचुनाव सरीखे मंतव्य के करीब पहुंचते हुए नज़र आ रहे हैं। दूसरी ओर नेताओं की पहुंच से विमुख मतदाता ने भी यह देख लिया कि किसके मजमून और किसके वादे असरदार हैं। चौथे साल की सरकार के सामने चार नगर निगम क्या उपहार लाते हैं या कांग्रेस की आशाओं में ये चुनाव अगली विधानसभा के गठन की कौनसी राह पकड़ते हैं, देखना होगा।
- यह ‘लाल आतंकवाद’ है
नक्सलवाद बुनियादी तौर पर आतंकवाद है। बेशक एक तबका हमारी इस सोच और स्थापना से सहमत नहीं होगा, लेकिन अब यही यथार्थ है। जिस मकसद के साथ पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी कस्बे (अब कंकरीट की इमारतों का शहर) से नक्सलवाद की शुरुआत हुई थी, चारू मजूमदार की जो सोच रही थी, कमोबेश आज वह गायब है। किसानों और आदिवासियों में भूमि सुधार का यह आंदोलन माना जाता था। कुछ प्रयोग भी किए गए, लेकिन किसान-आदिवासी आज भी शोषित, वंचित, दरिद्र, दबा-कुचला और नक्सलियों के खौफ में हैं। नक्सली संसदीय लोकतंत्र के विरोधी हैं। भारत के संविधान में उनकी आस्था नहीं है। बेशक उनके बौद्धिक पैरोकार मानवाधिकार की दलीलें और दुहाई देते रहे हैं और नक्सलवादी आंदोलन को तार्किक मानते रहे हैं। नक्सलियों का लक्ष्य है कि 2050 तक भारत की सत्ता हासिल की जाए और बुर्जुआ देश को अपने मुताबिक गढ़ा जाए। चारू का यह सपना नहीं था। फिलहाल नक्सलवाद का फैलाव कम हुआ है, लेकिन इसके पैरोकार राजधानी दिल्ली और आसपास के क्षेत्र में सक्रिय हैं। वे एक प्रभावशाली जमात हैं।
उनमें डॉक्टर, प्रोफेसर, पुरस्कृत लेखक, संपादक, वकील आदि पेशेवर शामिल हैं। वे नक्सली हिंसा और हत्याओं को भी तार्किक करार देने की कोशिश करते रहे हैं। वे ‘सर्वहारा का आंदोलन’ मानते हैं, लेकिन इन सवालों का अपने तरीके से जवाब देते हैं कि नक्सलवाद के 50 साल से अधिक के आंदोलन के बावजूद किसान और आदिवासी अपेक्षाकृत खुशहाल क्यों नहीं हुए? नक्सलवाद के ‘लाल गलियारे’ के करीब 10 राज्यों में सड़कें और संचार सरीखा आधारभूत ढांचा जर्जर क्यों है? छत्तीसगढ़ की बीजापुर-सुकमा सीमा के जिस ग्रामीण इलाके में मौजूदा हमला किया गया, वहां भी ढांचा कच्चा और ऊबड़-खाबड़ है, क्योंकि नक्सली पक्के निर्माणों के खिलाफ हैं। उनकी आशंका है कि ढांचे की छतें पक्की होंगी, तो सुरक्षा बलों के जवान वहां तैनात किए जाएंगे। नक्सली गतिविधियों पर नजर रखी जा सकेगी। 2011 की जनगणना के मुताबिक, साक्षरता के लिहाज से बीजापुर और सुकमा जिले नीचे से दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। इन नक्सली इलाकों में सरकारें निजी कंपनियों और ठेकेदारों को जो ठेके देती हैं, उन्हें अंजाम तक ले जाने के लिए भी नक्सलियों को ‘हिस्सा’ दिया जाता है। इस संदर्भ में हमें योजना आयोग की एक विशेष रपट याद आती है, जिसमें खुलासा किया गया था कि नक्सली अफीम जैसे नशीले पदार्थों के अवैध कारोबार से औसतन 1200 करोड़ रुपए सालाना की कमाई करते हैं। क्या नक्सलवाद का बुनियादी मकसद यही था? यह प्रवृत्ति आतंकियों जैसी है, जिन्हें अत्याधुनिक हथियार हासिल करने और काडर खड़ा करने के लिए पैसा चाहिए। ध्यान रहे कि नक्सलियों ने जितने भी बड़े हमले किए हैं, वे फरवरी से जून माह के बीच किए हैं। इस कालखंड में फसलें कट चुकी होती हैं, पेड़ों के पत्ते झर चुके होते हैं, लिहाजा सुरक्षा बलों की गतिविधियां स्पष्ट होने लगती हैं। नक्सली इन्हीं महीनों में आम जनता को बरगला कर, उसकी सोच को प्रभावित कर और माओवादी दर्शन में आस्था तय कर भर्तियां भी करते हैं और विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाए जाते हैं।
इन पूरे ब्यौरों में एक भी काम किसान और आदिवासी को लेकर नहीं है। देश में कई किसान-आदिवासी आंदोलन छेड़े गए हैं, लेकिन नक्सलियों की अग्रिम भूमिका नहीं रही है। मौजूदा किसान आंदोलन में कुछ चेहरे ऐसे दिखाई देते रहे हैं, जो वामपंथी और माओवादी सोच के रहे हैं, लेकिन परंपरागत वाममोर्चा ही नक्सलवाद के खिलाफ है। इस आंदोलन की भर्त्सना करता है और हत्याओं का पक्षधर नहीं रहा है, लेकिन नक्सलवाद का जैसा विरोध उन्हें करना चाहिए, वैसा क्यों नहीं करते हैं? अब भी सवाल उठाए जाते हैं कि छत्तीसगढ़ में 20,000 पेड़ों को क्यों काट दिया गया? खदानों से स्थानीय आदिवासियों को लाभ क्यों नहीं पहुंचाया जा रहा है? परोक्ष रूप से वामपंथी भी किसान-आदिवासी की ही बात कर रहे हैं। यह गलत भी नहीं है, लेकिन नक्सलियों की हमलावर प्रवृत्ति का समर्थन बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों को भी सख्त कार्रवाई और पलटवार की रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा। जिन राज्यों में नक्सलवाद का सफाया किया गया है अथवा भारी कामयाबी मिली है, वहां के स्थानीय नेटवर्क की भूमिका पर भी गौर करना चाहिए। अच्छे पुलिस अफसरों वाले स्थानीय थानों का विस्तार किया जाए। खुफिया सूचनाओं पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, फिर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए। जिन गांवों में सन्नाटा है, उनका विश्वास हासिल करना चाहिए। नक्सलवाद का सफाया कोई मुश्किल लक्ष्य नहीं है।
3.चुनाव आयोग से अपेक्षा
किसी भी लोकतंत्र की सफलता उसके जनादेश की शुचिता से तय होती है। और इसी पवित्रता को सुनिश्चित करने के लिए दुनिया भर के लोकतंत्रों ने तमाम तरह के प्रयोग-इंतजामात भी किए हैं। भारतीय चुनाव आयोग ने बैलेट पेपर से ईवीएम और फिर वीवीपैट तक का सफर तय किया। कभी एक-दो चरण में निपटने वाले चुनाव अब आठ-नौ चरणों में इसीलिए होते हैं, ताकि इस विशाल लोकतंत्र में हाशिये के मतदाता भी बेखौफ होकर अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर सकें। कोई असामाजिक तत्व जनादेश की पवित्रता न नष्ट कर सके। लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान तंत्र की जो अनियमितताएं सामने आई हैं, वे न केवल निर्वाचन आयोग की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाती हैं, बल्कि लोकतंत्र में आम आदमी की आस्था को भी डिगाती हैं। पहले असम में भाजपा उम्मीदवार की गाड़ी से ईवीएम का पाया जाना, फिर वहीं के हाफलौंग विधानसभा क्षेत्र के एक मतदान केंद्र पर कुल पंजीकृत मतदाताओं से लगभग दोगुना वोट गिर जाना और अब पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के एक नेता के यहां से ईवीएम व वीवीपैट की बरामदगी बताती है कि ये लापरवाहियां कितनी गंभीर हैं। इन तीनों ही मामलों में चुनाव आयोग ने संबंधित दोषी अधिकारियों को निलंबित किया है, पर आयोग के लिए यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसी कोई गड़बड़ी फिर सामने न आए। इन अनियमितताओं के अलावा भी उसके कतिपय फैसलों का लोगों में संदेश अच्छा नहीं गया। आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में पहले असम के स्वास्थ्य मंत्री हेमंत बिस्व सरमा के 48 घंटे तक प्रचार करने पर रोक लगार्ई गई थी और फिर अगले ही दिन प्रतिबंध की अवधि घटाकर 24 घंटे कर दी गई। अगर सरमा के खिलाफ शिकायत गंभीर नहीं थी, तो फिर उनके विरुद्ध ऐसा कदम ही क्यों उठाया गया? हम नहीं भूल सकते कि आयोग ने सख्त नजीरों से ही अपनी साख अर्जित की है।
चुनाव आयोग का काम काफी चुनौतीपूर्ण है, इससे कौन इनकार कर सकता है? लेकिन देश के आम चुनाव के मुकाबले ये तो फिर भी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं। आयोग को अपने पर्यवेक्षकों के स्तर पर अधिक काम करने की जरूरत है। मतदानकर्मियों को बेहतर प्रशिक्षण देने की भी आवश्यकता है। देश में चुनाव प्रचार इन दिनों जितने कटु होते जा रहे हैं, उसे देखते हुए आयोग को आचार संहिता को सख्ती से लागू करना होगा। भारतीय चुनावों की वैश्विक प्रतिष्ठा देश के लिए गर्व की बात है, इसकी हर हाल में रक्षा की जानी चाहिए। आला अदालत और चुनाव आयोग जैसे अब चंद ही सांविधानिक संस्थान ऐसे बचे हैं, जिन पर भारतीयों का भरोसा कायम है। इस भरोसे की रक्षा की जिम्मेदारी इनके कर्ता-धर्ताओं के ऊपर ही है। लोकतंत्र में जनता जिन संस्थाओं से शक्ति अर्जित करती है, उनकी मजबूती कितनी जरूरी है, हाल ही में हमने अमेरिका में देखा है। चुनाव आयोग के लिए यह कम चुनौतीपूर्ण नहीं है कि वह सभी राजनीतिक पार्टियों, उम्मीदवारों को एक बराबर मैदान मुहैया कराए। मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक आने के लिए उत्साहित करने में पार्टियों के प्रचार से कहीं बड़ी भूमिका आयोग में भरोसे की है। इसलिए चुनाव आयोग को इन चूकों से पार पाते हुए अपने लिए लगातार ऊंचा लक्ष्य रखना होगा।
- इस्तीफे के बाद
बाम्बे हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणियों और अनिल देशमुख पर लगाये गये गंभीर आरोपों की सीबीआई से जांच कराने के आदेश के बाद आखिरकार गृहमंत्री पद से अनिल देशमुख ने त्यागपत्र दे दिया है जो उद्धव सरकार की मुश्किलें बढ़ाने वाला ही है। बेहतर होता कि जब एक जिम्मेदार अधिकारी पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने देशमुख पर गंभीर आरोप लगाये थे तभी उन्हें नैतिक आधार पर इस्तीफा दे देना चाहिए था। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या देशमुख के इस्तीफे के बाद उद्धव सरकार पर आंच आ सकती है। दरअसल, जब पूर्व पुलिस कमिश्नर ने गृहमंत्री देशमुख पर हर माह सौ करोड़ रुपये की उगाही का दबाव डालने का आरोप लगाया था तो पूरा देश राजनेताओं व पुलिस की जुगलबंदी से सकते में आ गया था। पहले सुरक्षित क्षेत्र माने जाने वाले मुकेश अंबानी के घर के बाहर विस्फोटक सामग्री से भरी कार बरामद होने के बाद जब पुलिस अधिकारी सचिन वाझे की गिरफ्तारी हुई तो कयास लगाये जा रहे थे कि सरकार में शामिल कुछ बड़े नाम एनआईए की जांच के दायरे में आ सकते हैं। सचिन वाझे मामले में अब रोज नये खुलासे हो रहे हैं तो कयास लगाये जा रहे हैं कि जाल में राजनीति के कुछ दिग्गज भी लपेटे में आ सकते हैं। इन दोनों मामलों में केंद्रीय एजेंसियों की सक्रियता से राज्य में कुछ नये चौंकाने वाले खुलासे हो सकते हैं। ये एजेंसियां केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करती हैं, इसलिये इस जांच का राजनीतिक एंगल भी हो सकता है। पहले से ही राज्य में शिवसेना के नेतृत्व वाली महाविकास अघाड़ी सरकार लंबे समय से भाजपा की राज्य इकाई के निशाने पर रही है। खासकर वर्ष 2019 में राज्य में उद्धव सरकार के बनने के बाद से ही दोनों दलों में छत्तीस का आंकड़ा रहा है। राज्य में कई मामलों में केंद्रीय एजेंसियां पहले ही जांच कर रही हैं, जिसमें अब देशमुख प्रकरण भी जुड़ गया है।
बहरहाल, इस मामले में जैसे-जैसे जांच बढ़ेगी, नये मामले मीडिया की सुर्खियां बनते रहेंगे। खासकर सचिन वाझे मामले में एनआईए की जांच भी आगे बढ़ेगी तो राज्य सरकार के कुछ नेता भी लपेटे में आ सकते हैं। भाजपा के नेता आरोप लगाते रहे हैं कि बिना राजनीतिक संरक्षण के सचिन वाझे की भूमिका का दायरा इतना बड़ा नहीं हो सकता। भाजपा की तरफ से आरोप है कि सचिन वाझे स्तर के अधिकारी को संचालित करने वाले लोग सरकार में शामिल हो सकते हैं। जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ेगी, कुछ नये नामों का खुलासा भी हो सकता है। वहीं उद्धव सरकार में शामिल लोग केंद्र सरकार पर केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप लगाते रहे हैं। सुशांत राजपूत मामले में भी ऐसे आरोप लगे थे कि केंद्र राज्य की पुलिस का मनोबल गिरा रहा है तथा अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहा है। बहरहाल, हाईकोर्ट के आदेश के बाद अनिल देशमुख की उगाही प्रकरण में भूमिका की जांच होगी तो हो सकता है कुछ अन्य मामले भी जांच के दायरे में आयें। यह स्थिति राज्य सरकार को असहज करने वाली होगी। इससे पार्टी की साख पर भी आंच आयेगी। संभव है नया राजनीतिक नाटक सामने आये। वैसे कहना कठिन है कि जांच के बाद उगाही मामले में कुछ ठोस सामने आ पायेगा। दरअसल, अभी फिर से गृह मंत्रालय एनसीपी को दिया गया, ऐसे में उसके अधीन आने वाले अधिकारी पूर्व गृहमंत्री के खिलाफ सबूत देने सामने आयेंगे, कहना कठिन है। निस्संदेह, इस हाई प्रोफाइल मामले के नये खुलासे उद्धव सरकार के लिये मुश्किलें जरूर पैदा करेंगे। वैसे यह भी कहना कठिन है कि राज्य सरकार अपने पूर्व गृहमंत्री के खिलाफ जांच व कार्रवाई के लिये सीबीआई को कितना सहयोग देगी या नहीं देगी। फिर क्या उद्धव सरकार मंत्रियों व बड़े अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति देगी या नहीं। बहरहाल, इतना तो तय है कि राज्य की महाविकास अघाड़ी सरकार की छवि पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। अब देखना होगा कि हाईकोर्ट के सीबीआई जांच आदेश के खिलाफ राज्य सरकार के सुप्रीम कोर्ट जाने से इस मामले में क्या मोड़ आता है।