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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
- मीडिया चोंच पर कानून
अंततः माननीय उच्च न्यायालय ने वे निर्देश दिए हैं, जिनसे आमतौर पर हिमाचल की सरकारें बचकर निकल जाती रही हैं। यह बदलते मीडिया की औकात से जुड़ा प्रश्न हो सकता है और यह भी कि शिमला की गलबहियों में पलते पत्रकारों के बीच कितनी कलगियां नकली हैं, इसकी भी पूछताछ हो सकती है। अदालत तक पहुंचे एक पत्रकार का एतराज अगर कानूनी जिरह की प्रासंगिकता में सवाल पूछ रहा है, तो वक्त की चादर पर जम चुकी मीडिया की मिट्टी का हाल देखा जा सकता है। हाई कोर्ट ने पत्रकारों की मान्यता पर न केवल अंगुली उठाई है, बल्कि सरकार से 2016 के नियमों के हवाले से यह समीक्षा करने को कहा है ताकि पता चले कि कितने राज्य स्तरीय मान्यता से पुरस्कृत पत्रकार दरअसल बिना अखबार या पत्रिकाओं के ही सरकार की वसंत चुरा रहे हैं। न्यायमूर्ति तरलोक सिंह चौहान ने मान्यता नियमों में पारदर्शिता लाने के लिए आवश्यक निर्देश देते हुए जो टिप्पणियां की हैं, वे एक तरह से मीडिया की वास्तविकता का चित्रण हैं। खासतौर पर बिना किसी प्रसार के अखबारों के प्रतिनिधि अगर राज्य स्तरीय मान्यता का गुलकंद खा रहे हैं, तो इस परिपाटी की पूंछ हलाल होनी चाहिए।
सरकार की संपत्तियों पर आशियाना हासिल करने वाले ऐसे पत्रकार चिन्हित क्यों न हों जिनके अपने घर या विशेष आबंटन से प्राप्त भूमि पर वे फ्लैट के मालिक बने हों। इसका सीधा अर्थ यह भी है कि सत्ता की गलबहियों में आराम फरमा रही पत्रकारिता की मौज-मस्ती का यह नूर अब बदरंग हो चुका है। इतना ही नहीं, आज के परिप्रेक्ष्य में राज्य स्तरीय मान्यता का झंडा शिमला में ही क्यों देखा जाए, जबकि हिमाचल के प्रमुख प्रकाशन राजधानी के बाहर अपना मुख्यालय स्थापित कर चुके हैं। दरअसल मान्यता का हक प्रकाशन की औकात तथा उसके राज्य के प्रति सरोकारों को देखते हुए मिलना चाहिए। यह इसलिए कि आज अगर हिमाचल में अपना मीडिया नजर आ रहा है, तो यह स्थानीय प्रयास से खड़े हुए समाचार पत्रों और अब डिजिटल तरीकों को अपनाने से ही संभव हुआ, वरना अतीत में जालंधर, चंडीगढ़ और कुछ हद तक दिल्ली के अखबारों में हिमाचल के समाचार सागर में बूंदों की तरह ढूंढने पड़ते थे। हिमाचली मीडिया ने न केवल खुद को पारंगत किया, बल्कि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करीब दो हजार लोगों को रोजगार भी दिलाया है। ऐसे में मीडिया उपयोगिता के संदर्भों में मान्यता के कलश किस तरह तथा किस हद तक भरने चाहिएं, इसके ऊपर अदालत का फरमान लाजिमी तौर पर सक्रिय पत्रकारों की मदद कर रहा है, जबकि सरकारी संसाधनों व सुविधाओं को चाट रहे चाटुकार तथा अनुपस्थित मीडिया की बाहें मरोड़ रहा है। अगर सरकार हिमाचल से प्रकाशित या हिमाचल में प्रसारित समाचार पत्रों को सीधे मान्यता देते हुए यह तय करे कि आवासीय सुविधा केवल अखबार के नाम हो, तो यह बखेड़ा ही खत्म हो जाएगा। अखबारों के प्रकाशन अपने अधिकार क्षेत्र से यह तय कर पाएंगे कि उन्हें राज्य स्तरीय मान्यता का उपयोग शिमला या राजधानी से बाहर करना है। इसी के साथ सरकार को यह भी तय करना होगा कि समाचार पत्रों के अलावा लघु पत्र-पत्रिकाओं तथा डिजिटल मीडिया को कैसे रेखांकित किया जाए।
यह विचित्र नियम है कि शिमला के किसी साप्ताहिक पत्र की मान्यता को राज्य स्तरीय माना जाए और उससे कहीं शिद्दत व प्रसार दिखाती मंडी से प्रकाशित पत्रिका की अलग तरह से व्याख्या हो। मीडिया प्रदर्शन के सबसे व्यस्त, शिक्षित, अनुभवी तथा पारंगत सदस्य अपने-अपने डेस्क के जरिए दिखाई देते हैं, अतः मान्यता के भविष्य में इनके अधिकारों का अवलोकन भी होना चाहिए। कुछ इसी तरह विधानसभा के शीतकालीन सत्र के तपोवन आयोजन में राजधानी के मीडिया पर सुविधाओं का अपव्यय न केवल रुकना चाहिए, बल्कि विधानसभा की ओर से यही सुविधा धर्मशाला के मीडिया को मिलनी चाहिए। माननीय अदालत ने एक पत्रकार के परिप्रेक्ष्य में जो खाका खींचा है, उसका विवेचन बताएगा कि राज्य स्तरीय मान्यता के पेड़ से कितने फल चुराए जा रहे हैं और इससे राज्य के संसाधन कहां तक जाया हो रहे हैं। सरकार चाहे तो मीडिया जरूरतों को समझते हुए मध्य प्रदेश की तर्ज पर शिमला, धर्मशाला व मंडी में प्रेस एनक्लेव बनाकर अखबारों को अपने कार्यालय खोलने में मदद कर सकती है। प्रेस क्लब भवनों को मीडिया के अलावा प्रबुद्ध वर्ग के लिए विकसित कर सकती है तथा अमान्य या अस्थायी पत्रकारों की वित्तीय मदद के लिए सरकारी विज्ञापन पर सेस लगा सकती यानी सरकार मीडिया को विज्ञापन जारी करते हुए कम से कम दो प्रतिशत राशि पत्रकारों के रिलीफ फंड के लिए अपने पास रख सकती है। बहरहाल हाई कोर्ट के निर्देश सरकार को एक अवसर दे रहे हैं और इस तरह मीडिया के पक्ष में एक सार्थक नीति बन सकती है ताकि इसे रोजगार सृजन के रूप में मान्यता मिल सके।
- तीसरी लहर भी संभव!
प्रख्यात मेडिकल शोध-पत्रिका ‘द लैंसेट’ ने एक विश्लेषण प्रकाशित किया है, जिसका निष्कर्ष है कि कोविड-19 का संक्रमण हवा के जरिए तेजी से फैलता है और दूर तक संक्रमित कर सकता है। बूंदों (डॉपलेट्स) से उतनी तेजी से संक्रमण नहीं फैलता। उस थ्योरी को खारिज कर दिया गया है। ‘लैंसेट’ का विश्लेषण ब्रिटेन, कनाडा और अमरीका के छह विशेषज्ञों ने किया है। ऐसा ही शोधात्मक अध्ययन जुलाई, 2020 में 200 से अधिक विशेषज्ञ वैज्ञानिकों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को लिखकर भेजा था कि कोरोना संक्रमण हवा से भी फैलता है। सांस लेने और छोड़ने के जरिए वायरस एक से दूसरे मानव-शरीर में प्रवेश करते हैं। संक्रमण हवा से नहीं फैलता, इस थ्योरी के पक्ष में ठोस सबूत नहीं हैं। बहरहाल हालिया विश्लेषण में दावा किया गया है कि ऐसे संक्रमण के ठोस सबूत उपलब्ध हैं। ‘लैंसेट’ में भारत में व्यापक रूप से फैल रहे कोरोना संक्रमण की बुनियादी वजह भी हवा बताई गई है। रपट में कहा गया है कि 10 से ज्यादा लोग एक स्थान पर लंबी देर के लिए इकट्ठा न हों। यानी मेले, रैलियां, चुनाव, बंद कमरों में बसने की मजबूरी आदि ऐसे बुनियादी कारण हैं, जो संक्रमण फैला रहे हैं। रपट में चेतावनी दी गई है कि कमोबेश 2 महीने तक भीड़ और जमावड़ों से एहतियात बरतें। जिन इलाकों में संक्रमण के ज्यादा मामले सामने आ रहे हैं, उन पर ही कड़ी बंदिशें लगाई जाएं।
पूर्ण लॉकडाउन की जरूरत नहीं है। ‘द लैंसेट’ की रपट प्रकाशित होने के बाद प्रमुख चिकित्सकों और वैज्ञानिकों की टिप्पणियों का सार यह है कि भारत में कोरोना संक्रमण की मौजूदा लहर अभी लंबी चलेगी। इसका ढलान कब शुरू होगा, फिलहाल अनुमान लगाना असंभव-सा है, लेकिन संक्रमण की तीसरी लहर भी आएगी और इतनी ही भयावह हो सकती है। फिलहाल भारत में संक्रमित मरीजों की संख्या 2.60 लाख से ज्यादा और मौतें करीब 1500 हो चुकी हैं। मौतें सितंबर, 2020 के पिछले ‘चरम’ से भी बेहद ज्यादा हैं, लेकिन विशेषज्ञ चिकित्सकों का मानना है कि ये आंकड़े 14 दिन पहले के संक्रमण के हैं, लिहाजा नई संक्रमित संख्या इससे काफी अधिक है। गंगाराम अस्पताल के वरिष्ठ डॉक्टर एम. वली का मानना है कि रोज़ाना संक्रमण के आंकड़े 3 लाख ही नहीं, बल्कि 4 लाख को भी पार कर सकते हैं। आने वाले दिनों में हररोज़ मौतों की संख्या 2500 से अधिक होगी। ‘लैंसेट’ रपट के एक और भाग में खुलासा किया गया है कि कोरोना संक्रमण नवजात शिशुओं को भी घेर रहा है। इसका विश्लेषण हम अलग से करेंगे, लेकिन यह बेहद गंभीर मुद्दा बनकर सामने आया है। इन हालात में किसी भी देश का स्वास्थ्य ढांचा और व्यवस्थाएं ध्वस्त हो सकती हैं। हालांकि भारत में कहीं-कहीं व्यवस्था चरमरा जरूर रही है। फोर्टिस अस्पताल के निदेशक डा. कौशल कांत के मुताबिक, देश भर के 284 कोविड अस्पतालों, केयर सेंटर्स और क्वारंटीन केंद्रों में कोविड के कुल बिस्तर 20 लाख से भी कम हैं। उनमें से करीब 5 लाख आईसीयू बेड हैं। बेशक होटलों और अन्य स्थानों को अस्पतालों से जोड़ लें, लेकिन बुनियादी सवाल है कि क्या देश की करीब 139 करोड़ आबादी के लिए बिस्तरों की यह संख्या पर्याप्त है? यह नहीं हो सकता, लिहाजा आम आदमी बीमारी और महामारी में तड़प-तड़प कर मर रहा है। राजधानी दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में एक ही बिस्तर पर कोविड के दो मरीज लिटाने की विवशता है।
देश के नेताओं, अमीर लोगों और वीआईपी जमात को कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि उनके लिए बिस्तर खाली और आरक्षित रखे जाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि कोरोना की पहली लहर के दौरान देश भर में जो लॉकडाउन लगाया गया था, उसके दौरान सरकार और निजी क्षेत्र के स्तर पर, स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत करने की, कोशिश नहीं की गई। हम पीपीई किट्स, वेंटिलेटर और मास्क के क्षेत्रों में आत्मनिर्भर हुए। हमने कोरोना के दो टीके बनाने और उनके उत्पादन में कामयाबी हासिल की और करीब 12 करोड़ नागरिकों को टीके की खुराकें भी दी जा चुकी हैं। लेकिन इन कोशिशों के बावजूद कई विसंगतियां सामने आई हैं। सिर्फ वेंटिलेटर की ही बात करें, तो 50,000 वेंटिलेटर बनाने के ऑर्डर ज्यादातर उन कंपनियों को दिए गए, जिनके पास बुनियादी ढांचा ही नहीं था। इस तरह देश में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा मजबूत कैसे किया जा सकता है? यदि तह तक जाएं, तो वेंटिलेटर के सौदों में बड़ा घोटाला भी सामने आ सकता है! बहरहाल जब कोरोना का फैलाव भयावह स्थिति तक आ चुका है, जब भारत सरकार ने 50,000 मीट्रिक टन ऑक्सीजन आयात करने का निर्णय लिया है। यह ऑक्सीजन कब उपलब्ध होगी, क्योंकि मरीज तो आज कुलबुला रहे हैं? यदि इन हालात में ही कोरोना की तीसरी लहर भी प्रहार करती है, तो क्या होगा, सोचकर ही सिहरन होने लगती है।
- हवा में वायरस
वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि कोरोना वायरस मुख्य रूप से हवा के माध्यम से प्रसारित हो रहा है और यह वायरस लंबी दूरी तय कर सकता है। तीन देशों के छह वैज्ञानिकों के अध्ययन का निचोड़ यह है कि हवा में ही वायरस का निपटारा करना पडे़गा। चूंकि हम हवा में इस वायरस को फैलने से नहीं रोक पा रहे हैं, इसलिए यह तेजी से फैलता जा रहा है। शोधकर्ताओं में शामिल वैज्ञानिक लुईस जिमेनेज ने कहा है, ‘हवाई संक्रमण का समर्थन करने वाले सुबूत मजबूत हैं और बड़ी बूंदों के जरिए संक्रमण का समर्थन करने वाले सुबूत लगभग नदारद हैं।’ अब तक हम यही मान रहे थे कि यह वायरस ड्रॉप्लेट्स के जरिए ही ज्यादा फैलता है। ड्रॉप्लेट्स या बूंदों में भार होता है, इसलिए इनका हवा में दूर तक जाना नामुमकिन है, जबकि हवा में अगर वायरस विचरित हो रहा है, तो वह दूर तक जा सकता है। लुईस के अनुसार, यह जरूरी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य स्वास्थ्य एजेंसियां संक्रमण के अपने विवरण को वैज्ञानिक सुबूतों के अनुकूल करें, ताकि वायु से फैलते संक्रमण को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों की टीम ने प्रकाशित शोध की समीक्षा की है और कोरोना के हवाई मार्ग या हवाई संक्रमण की प्रबलता के समर्थन में साक्ष्यों की पहचान की है। एक मामला तो ऐसा है, जिसमें एक ही व्यक्ति से 53 लोग संक्रमित हुए हैं। वैज्ञानिकों का मानना है, निश्चित रूप से हवा के जरिए ही इतने लोगों तक संक्रमण पहुंचा होगा। मात्र किसी सतह या वस्तु को छूने से इतने लोगों को संक्रमण शायद नहीं हो सकता। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है, दुनिया में 40 प्रतिशत संक्रमण ऐसे लोगों से फैला है, जो न खांस रहे थे और न जिन्हें जुकाम था। ऐसे मौन संक्रमण ने ही पूरी दुनिया को परेशान कर रखा है। यह संक्रमण मुख्य रूप से वायु के माध्यम से ही हो रहा है। इसमें ड्रॉप्लेट्स की कोई भूमिका नहीं है, क्योंकि ऐसे लोगों को भी कोरोना हुआ है, जो किसी भी संक्रमित के निकट नहीं गए थे। कुल मिलाकर, यह समझ लेना चाहिए कि हवा के जरिए होने वाले संक्रमण के सुबूत मजबूत हैं। अत: यह जरूरी है कि ऐसे संक्रमण को रोका जाए। जिनको खांसी और जुकाम है, उन्हें क्वारंटीन करने से भी ज्यादा जरूरी है, उन लोगों की पहचान करना, जिनमें लक्षण स्पष्ट नहीं हैं। जांच का कोई विकल्प नहीं है। सरकार के पास इतने संसाधन होने ही चाहिए कि वह कहीं भी किसी की जांच कर सके। कोई व्यक्ति अगर जांच कराना चाहे, तो उसे संसाधन के अभाव में कभी लौटाया न जाए। अगर कहीं डरे हुए मरीजों को बिना जांच और इलाज के लौटाया जा रहा है, तो यह कोरोना फैलाने के समान अपराध है। सरकारें मास्क संबंधी नियम कडे़ कर रही हैं, लेकिन देखना होगा कि सरकारी व गैर-सरकारी, सभी लोग मास्क पहनें। जब लोगों की मौत हो रही हो, तब मास्क न पहनने के लिए बहानेबाजी भी किसी अपराध से कम नहीं। जो लोग मास्क पहनना नहीं चाहते, उन्हें घर से निकलने की जरूरत नहीं। ध्यान रहे, अमेरिकी वैज्ञानिकों ने डबल मास्क को ज्यादा बेहतर बताया है। कहीं भी अगर थोड़ी सी भी भीड़ है, तो वहां डबल मास्क पहनना चाहिए। मास्क की गुणवत्ता भी जांचनी चाहिए। ऐसा न हो कि किसी भी तरह का मास्क महज दिखाने के लिए पहन लिया जाए।
- आपदा में धर्म
इंसानियत बचाना ही कुंभ का मर्म
प्रधानमंत्री द्वारा हरिद्वार कुंभ को प्रतीकात्मक बनाने की अपील पर साधु-संतों का सकारात्मक प्रतिसाद स्वागतयोग्य है। इसके बाद नागा संन्यासियों के सबसे बड़े पंचदशनाम जूना अखाड़ा ने शनिवार को कुंभ विसर्जन की घोषणा कर दी। साथ ही जूना अखाड़े के सहयोगी अग्नि, आह्वान व किन्नर अखाड़ा भी इसमें शामिल हुए। इससे पहले श्री निरंजनी अखाड़ा और श्री आनन्द अखाड़ा भी कुंभ विसर्जन की घोषणा कर चुके हैं। हालांकि, आधिकारिक रूप से एक अप्रैल को शुरू हुआ कुंभ मेले का आयोजन तीस अप्रैल तक होना था, लेकिन कोरोना की दूसरी भयावह लहर के चलते यह निर्णय निश्चित रूप से स्वागतयोग्य कदम है। बेहतर होता कि देश में संक्रमण की स्थिति को देखते हुए 14 अप्रैल के मुख्य स्नान के बाद ही ऐसी रचनात्मक पहल की गई होती। मुख्य स्नान पर आई खबर ने पूरे देश को चौंकाया था कि चौदह लाख लोगों ने कंुभ में डुबकी लगायी। निस्संदेह कुंभ सदियों से करोड़ों भारतीयों की आस्था का पर्व रहा है। यह समाज की आस्था का पर्व है, अत: समाज की सुरक्षा हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। समाज से ही आस्था है और कुंभ भी है। आस्था ही वजह है कि देश के कोने-कोने से करोड़ों लोग बिना किसी बुलावे के गंगा के तट पर डुबकी लगाने पहुंच जाते हैं। निस्संदेह मनुष्य से ही धर्म और संत समाज का अस्तित्व है।
सही मायनों में आपदा के वक्त धर्म के निहितार्थ बदल जाते हैं। यही धर्म का सार भी है; जिसका लक्ष्य लोक का कल्याण है, जिसकी फिक्र संत समाज को भी करनी चाहिए। यही वजह है कि कुंभ को टालने और मानवता धर्म का पालन करने का आग्रह राजसत्ता की तरफ से किया गया। देश में बड़ी विकट स्थिति है। हमारा चिकित्सातंत्र पहले ही सांसें गिन रहा है। अस्पतालों में बिस्तर, चिकित्सा सुविधाओं, आक्सीजन की कमी देखी जा रही है। ऐसे में इस संकट को विस्तार देने वाले हर कार्य से बचना हमारा धर्म ही है, जिसका सरल व सहज उपाय शारीरिक दूरी को बनाये रखना है। ऐसा करके भी हम कुंभ की सनातन परंपरा का ही निर्वहन कर सकते हैं। इसे अब भी प्रतीकात्मक रूप से मनाकर संत समाज आपातकाल के धर्म का पालन कर सकता है। इस समय लाखों लोगों का जीवन बचाना ही सच्चा धर्म है। जब देश दुखी है तो कोई भी धार्मिक आयोजन अपनी प्रासंगिकता खो देगा। अतीत में भी मानवता की रक्षा के लिये कुंभ के आयोजन का स्थगन हुआ है। वर्ष 1891 में हरिद्वार कुंभ में हैजा-कॉलरा फैलने के बाद मेला स्थगित किया गया। वर्ष 1897 में अर्धकुंभ के दौरान प्लेग फैलने पर मेला स्थगित किया गया था। यही आपातकाल का धर्म ही है कि मानवता की रक्षा की जाये। वक्त का धर्म है कि कुंभ को टाला जाये अथवा प्रतीकात्मक रूप में आगे के पर्वों का निर्वाह किया जाये। यह मुश्किल समय विवेकपूर्ण फैसले लेने की मांग करता है।