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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.रेमडेसिविर पर विरोधाभास
रेमडेसिविर इंजेक्शन का खूब शोर मचा है। इंजेक्शन को लेकर मारामारी मची है, लिहाजा दवा के सौदागरों ने महामारी की आपदा के दौरान भी जमाखोरी और कालाबाज़ारी जारी रखी है। सरकार का दावा है कि रेमडेसिविर की कमी नहीं है। जमाखोरी और कालाबाज़ारी करने वालों के खिलाफ रासुका की धारा के तहत कार्रवाई की जाएगी। फिर भी रेमडेसिविर इंजेक्शन हासिल करने को कतारें लगी हैं। लोग तय कीमत से 12-14 गुना भी देने को तैयार हैं, लेकिन रेमडेसिविर की कोई गारंटी नहीं। रेमडेसिविर की शीशी में पैरासीटामोल बेची जा रही है। अस्पतालों में कोरोना के मरीज बेड पर लेटे हैं, फेफड़ों में संक्रमण काफी फैल गया है, डॉक्टर मरीजों को रेमडेसिविर का बंदोबस्त करने को बाध्य कर रहे हैं। क्या संक्रमित मरीज बिस्तर से उठकर किसी दवा का इंतजाम कर सकता है? ऐसे मरीज तो संक्रमण को और भी बढ़ा सकते हैं। ऐसे अस्पतालों और डॉक्टरों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए? बहरहाल ऐसा लग रहा है मानो रेमडेसिविर कोविड के लिए ‘अमृत’ हो! ऐसी ‘संजीवनी’ हो, जिसके सेवन से संक्रमण रफूचक्कर हो जाएगा! सरकारें समझाने को तैयार नहीं हैं, बल्कि रेमडेसिविर का उत्पादन 38 लाख से 80 लाख तक बढ़ाने का फैसला लिया गया है। फिलहाल 7 कंपनियां भारत में इस इंजेक्शन का उत्पादन कर रही हैं।
कंपनियों की संख्या भी बढ़ाई जाएगी। आखिर सरकार रेमडेसिविर पर इतना ‘मोहित’ क्यों है? विशेषज्ञ चिकित्सकों, वैज्ञानिकों और अस्पतालों में कार्यरत डॉक्टरों के बीच गहरे विरोधाभास हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड के लिए रेमडेसिविर को मान्यता नहीं दी है। रेमडेसिविर इबोला वायरस के दौरान विकसित किया गया एंटी वायरल इंजेक्शन है। कोविड के लिए तो नहीं है और न ही जीवन-रक्षक दवाओं की जमात में इसे रखा गया है। रेमडेसिविर मौत की संभावना को भी कम नहीं करता। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बीते नवंबर में डाटा छापा था, जिसके मुताबिक रेमडेसिविर की कोरोना वायरस के उपचार में कोई भूमिका नहीं है और न ही इसका इस्तेमाल जरूरी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का शोध है कि कोविड की गंभीर परिस्थितियों में यह इंजेक्शन असरकारक नहीं है। फिर भी 50 से ज्यादा देशों में रेमडेसिविर का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके गंभीर ‘साइड इफेक्ट्स’ भी माने गए हैं और अभी तक के निष्कर्ष हैं कि इसके मानक भी तय नहीं हैं। इतना जरूर है कि कोविड के बाद रिकवरी टाइम को यह इंजेक्शन कुछ दिन तक घटा सकता है। संगठन के ‘सॉलिडेटरी ट्रायल’ के तहत कोविड-19 के इलाज में उपयोग की जा रहीं चार सर्वाधिक प्रचलित दवाओं-रेमडेसिविर, हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वाइन, लोपिनवीर-रटनवीर और इंटरफेरॉन वीटा-1 ए-का अध्ययन 30 देशों में किया गया। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक महामारी विशेषज्ञ ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन पर टिप्प्णी की है कि यह वैज्ञानिकों और चिकित्सकों के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित हो सकता है।
यानी यह विशेषज्ञ संगठन के अध्ययन से सहमत नहीं है। अध्ययन यह भी स्थापित कर रहे हैं कि रेमडेसिविर मृत्यु-दर को भी कम नहीं करता। अलबत्ता सही समय पर इसका उपयोग किया जाए, तो इसके कुछ फायदे भी मिल सकते हैं, लेकिन बुनियादी तौर पर रेमडेसिविर कोरोना के मरीजों के लिए ‘संजीवनी’ नहीं है। हमने यह विषय इसलिए उठाया है, क्योंकि आम आदमी ने इस इंजेक्शन को ही ‘अमृत’ मान लिया है। हम कोविड के शिकार हुए थे, तो अस्पताल में लगातार 5 दिन तक रेमडेसिविर इंजेक्शन दिया गया था। 100 एमजी की कीमत 4800 रुपए थी। हमने इंजेक्शन पर सवाल भी किया था, लेकिन डॉक्टर के विवेक के आगे कौन मरीज लड़ सकता है? बीते कुछ दिनों में हमने 20-25 प्रख्यात चिकित्सकों की दलीलें भी बहस के दौरान सुनीं। दिल्ली एम्स के निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया का कथन भी रेमडेसिविर के पक्ष में नहीं है। स्पष्ट कर दें कि हम डॉक्टर नहीं हैं, लिहाजा किसी भी दवा के पक्ष या विपक्ष में पेशेवर निष्कर्ष नहीं दे सकते। विश्व स्वास्थ्य संगठन दुनिया का सर्वोच्च संगठन है, जो स्वास्थ्य पर खुद शोध करता है और शोधात्मक अध्ययन को मंच देता है, लेकिन वह भी अंतिम शोध का दावा नहीं कर सकता। देश में कोरोना की बेकाबू लहर जारी है। करीब 2.75 लाख संक्रमित मरीज एक ही दिन में दर्ज किए गए हैं और मौतें भी 1600 से ज्यादा हो चुकी हैं। सिलसिला अभी जारी है, लिहाजा किसी भी दवा के पीछे अंधी दौड़ मत लगाएं। आपका डॉक्टर जो भी सुझाव दे, उसे बिना किसी दहशत के स्वीकार करें। रेमडेसिविर ही ‘संजीवनी’ नहीं है।
2.कोरोना से चुनावी साझेदारी
भाजपा के वरिष्ठ नेता शांता कुमार वही कह रहे हैं, जो देश के अधिकांश नागरिक कह रहे हैं, फिर भी सियासत के चूल्हे ठंडे नहीं हो रहे। शांता कुमार ने आस्था और राजनीतिक भीड़ के साथ-साथ सामाजिक महफिलों पर प्रश्न उठाते हुए ऐसी तमाम गतिविधियों पर अंकुश लगाने की मांग की है। यह मांग प्रदेश और देश में भाजपा सरकारों से ही है। विडंबना यह रही कि दोनों सरकारों की व्यस्तता में चुनावी श्रृंखला को बरकरार रखने की जद्दोजहद में आम जनता भी मतदाता से ऊपर दिखाई नहीं देती। कोविड खतरे के सामने चुनावी जीत का परचम हर बार अपने रंग में रंगने के उतावलेपन में सरकारें यह कौन सा संघर्ष कर रही हैं कि जीवन के रंग फीके नजर आ रहे हैं। पश्चिम बंगाल में चुनाव का दूसरा छोर हर चरण में लंबा हो रहा है और नेताओं का जलसा भी कम जोशीला नहीं। रैलियों की प्रतिस्पर्धा में कौन किसे हरा रहा है या रोड शो के फ्रेम में कौन बेहतर हो रहा है, इससे हट कर देखें तो पिछले साल के मुकाबले देश की स्थिति कोरोना से मुकाबला करने में कहीं पिछड़ गई है। हर दिन के आंकड़ों में कितने भारत चीखते हैं, यह सुनने के बावजूद अगर केंद्रीय सरकार केवल दो मई के इंतजार में चुनावी संगीत सुनना चाहती है, तो यह भौंडा प्रदर्शन ही होगा। कुछ इसी तरह हिमाचल के परिदृश्य में हमने पिछला दौर चुनाव की शरण में डाल दिया।
स्थानीय निकाय चुनावों में लगभग पूरा प्रदेश चला है। घर से मतदान केंद्र तक पहुंचे समाज को बेशक चुनाव परिणाम मिल गए या प्रदेश में जश्न मनाती सियासत ने अपने लिए चिकनी चुपड़ी बातें चुन लीं, लेकिन जिन घरों में जिंदगी के दीप बुझ रहे हैं उनकी फेहरिस्त में लोेकतांत्रिक जीत के कितने मायने बचे होेंगे, यह भी तो जान लें। यहां शांता कुमार भी अपनी अंगुली से चस्पां मतदान की सियाही से ही सवाल पूछ रहे हैं और यही हाल हम सभी मतदाताओं का भी है। पश्चिम बंगाल में तीव्रता से बढ़ते कोरोना के मरीजों के हाथों में भी मतदान की सियाही तब कम कुपित नहीं होगी, जब राजनीतिक सत्ता के लिए कोई न कोई व्यक्ति कोरोना के कारण मौत का शिकार बनेगा। इस दौरान देश के सामने लज्जा के दो बड़े सवाल पैदा हो रहे हैं। पश्चिम बंगाल के आठ चरणों के चुनाव में राजनीतिक श्लाघा का पक्ष और विपक्ष दोनों ही दोषी हैं और ऐसे में मतदान की अपील भी कम घातक नहीं है। दूसरे पवित्र गंगा की दुहाई में आस्था का वीभत्स स्वरूप और क्या होगा। ये दोनों ही कम शर्मनाक मंजर नहीं और इसी के साथ हिमाचल की हालिया शेखियां भी कम लज्जाजनक नहीं, जब छोटे-बड़े हर मंच पर तू तू-मैं मैं की सियासत में दोनों ही दल खुद को मापते रहे हैं। देश को चुनाव के जरिए चलाने की वर्तमान होड़ में सत्ता का यह दौर भयावह है। देश की सूचनाओं में कोरोना का कहर अगर मीडिया के लिए भी एक छोटी सी जगह है, तो देश की बड़ी जगह को बर्बाद होने से कौन रोक सकता है। कोरोना काल ने देश की फितरत में सत्ता और सत्ता की फितरत में समाज को देखा है।
इस दौरान भारत की भूख और भूखे भारतीयों की तादाद का अंदाजा न महाकुंभ और न ही चुनावी रैलियों का जोश लगा रहा है। पलायन के महाकुंभ में जो मजदूर कोरोना चरण एक में रहे, वही अब अपनी नाउम्मीदी से फटे पांव घर लौट रहे हैं। जिनकी नौकरियां छीनी गईं या मासिक पगार की कतरब्यौंत हो गई, उनके नाम पर तो राजनीति को एक भी मुद्दा नहीं सूझा। ओ दीदी, ओ दीदी के नारों में प. बंगाल चुनाव के सबूत राजनीतिक दरियादिली का मंजर भले ही चमका दें, लेकिन कोरोना से यह कैसी साझेदार जो देश की प्राथमिकता को महज चुनाव बना रही है। ऐसे में महाकुंभ की आस्था भी कहीं राजनेताओं से ही प्रोत्साहित तो नहीं। बिना मास्क और बिना दो गज दूरी के जो चुनावी रैलियां हो रही हैं, उनके लिए देश के सिद्धांत हैं क्या। शांता कुमार ने फिर साहस करके अपनी ही सरकारों को आड़े हाथ लिया है। विडंबना यह कि अब शांता कुमार सरीखे नेताओं को उनका अपना संगठन सुनना नहीं चाहता और यह भी कि चुनाव आयोग मात्र सत्ता की रसीद बन गया है। देश की प्राथमिकताओं में लोगों ने रोजगार, परिवार और व्यापार खोया। बच्चों ने अपने भविष्य के सपने गिरवी रख दिए और असमंजस के बीच समाज हर दिन सरकारों के आदेश पर कभी नाइट कर्फ्यू, कभी वीकेंड लॉकडाउन या तमाम बंदिशों के बीच खुद को एक प्रदर्शनी के मानिंद सजा रहा है, लेकिन दूसरी ओर चुनावों को सिर पर चढ़ाकर नेताओं का अति निर्लज्ज व्यवहार हमारे लिए फिर से कोरोना विस्फोट लिख रहा है।
- कड़ाई और उदारता
अगर हम फिर लॉकडाउन जैसे हालात में पहुंच गए हैं, तो यह जितना दुखद है, उतना ही चिंताजनक भी। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कोरोना संक्रमण में हो रही भयावह बढ़ोतरी को देखते हुए राज्य सरकार ने राजधानी में छह दिनों के लॉकडाउन का एलान कर दिया है। चूंकि दिल्ली में कोरोना संक्रमण की दर 30 फीसदी तक पहुंच गई है, इसलिए यह फैसला अपरिहार्य हो गया था। रविवार को राष्ट्रीय राजधानी में 25,462 नए संक्रमितों का मिलना वाकई चिंता बढ़ा देता है। दिल्ली जैसी भारी आबादी वाले इलाकों में लोगों की सामान्य चहल-पहल को रोकना ही होगा। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि घर से निकलने वाले सारे लोग अब भी मास्क तक नहीं पहन रहे हैं। यहां तक कि सभी पुलिस वालों को भी बचाव की परवाह नहीं है। जहां पुलिस मास्क पहनने के लिए बाध्य कर रही है, चालान काट रही है, वहां भी लोग पुलिस से बहाने बनाने और लड़ने में पीछे नहीं हैं। ऐसे में, सरकार के पास कड़ाई से कफ्र्यू लगाने के सिवा क्या रास्ता बच जाता है? दिल्ली में मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल ने मिलकर जो फैसला लिया है, उसकी सराहना होनी चाहिए। तमाम राज्यों में शासन-प्रशासन को समन्वय के साथ अपने फैसले लेने चाहिए।
शादी जैसे जरूरी सामाजिक आयोजन को मंजूरी दी गई है, तो यह भी हमने पिछले लॉकडाउन से सीखा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री इस बार मजदूरों के पलायन की आशंका को लेकर भी सचेत हैं और उन्होंने मजदूरों को आश्वस्त करने की कोशिश की है कि यह छोटा लॉकडाउन है। सरकार अगर इस बार नहीं चाहती कि पलायन हो, तो उसे पुख्ता इंतजाम करने होंगे। केवल सरकारों के बोलने से मजदूर नहीं रुकेंगे। यह हमारे शासन-प्रशासन की कमी है कि हमने मजदूरों की सुविधाओं के बारे में अभी ढंग से सोचना भी नहीं शुरू किया है। समाज के इस निचले तबके को लॉकडाउन या कफ्र्यू जैसी स्थिति में सर्वाधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। खाद्य व आवास के साथ चिकित्सा सुरक्षा की जरूरत यहां सर्वाधिक है। आम लोगों को जांच, दवा और इलाज के स्तर पर जैसी तकलीफ हो रही है, उससे सवाल उठता है कि क्या ऐसा समय आ गया है, जब भारत को बाहर से मदद की जरूरत है। सरकारों को अपनी क्षमता का आकलन करना चाहिए। बिहार में जहां नाइट कफ्र्यू का सहारा लिया जा रहा है, वहीं उत्तर प्रदेश में कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को सख्त निर्देश दिए हैं। राज्य के पांच जिलों में सभी प्रतिष्ठानों को बंद करने का आदेश स्वागतयोग्य है। केवल आवश्यक सेवाओं को छूट दी जाए और लोगों की आवाजाही को कम करके कोरोना वायरस की शृंखला को तोड़ा जाए। प्रयागराज, वाराणसी, लखनऊ, कानपुर और गोरखपुर को लेकर कोर्ट ने विशेष चिंता का इजहार किया है। हमारी सरकारों को कड़ाई के साथ-साथ उदारता का भी परिचय देना होगा। कफ्र्यू का मतलब यह नहीं कि किसी कोरोना मरीज को इलाज में असुविधा हो या उस तक जरूरी सामान भी नहीं पहुंच पाए। संक्रमण दर अगर बहुत ज्यादा है, तो अकेले रहने वाले लोगों, बुजुर्गों इत्यादि को बहुत परेशानी होने वाली है। अत: खान-पान सेवा और जरूरी सामान की लोगों तक आपूर्ति बाधित नहीं होनी चाहिए। आज सरकारें जैसा व्यवहार करेंगी, उसे सदियों तक याद किया जाएगा।
4.प्राणवायु का संकट
बीमार चिकित्सा तंत्र को मिले ऑक्सीजन
कोरोना संकट की दूसरी मारक लहर के बीच मरीजों की लाचारगी, अस्पतालों में बेड व ऑक्सीजन तथा चिकित्साकर्मियों की कमी बताती है कि हम आपदा की आहट को महसूस नहीं कर पाये। यह भी कि पिछले सात दशकों में राजनीतिक नेतृत्व देश की जनसंख्या के अनुपात में कारगर चिकित्सा तंत्र विकसित नहीं कर पाया है। निस्संदेह पहली लहर के बाद हमने पर्याप्त तैयारी कर ली होती तो मरीजों को अस्पताल में भर्ती होने के लिये दर-दर न भटकना पड़ता। हालांकि, केंद्र सरकार ने देशव्यापी ऑक्सीजन संकट के बाद कुछ कदम उठाये हैं लेकिन कहना कठिन है कि इनका लाभ मरीजों को कब तक मिल पायेगा। पूरे देश में 162 ऑक्सीजन प्लांट लगाने की मंजूरी दी गयी है। लेकिन बेहद जटिल प्रक्रिया से बनायी जाने वाली मेडिकल ऑक्सीजन का उत्पादन, उसकी ज्वलनशीलता के चलते उसका भंडारण और परिवहन अपने आप में बेहद चुनौतीपूर्ण है, जिसके लिये कुशल तकनीशियनों और ज्वलनशीलता के चलते विशेष प्रकार के टैंकरों की देश में उपलब्धता सीमित मात्रा में है। ऐसे में युद्धस्तर पर नये प्लांटों को स्थापित करने और उत्पादन में तेजी लाने के लिये केंद्र व राज्य सरकारों को विशेष भूमिका निभानी होगी। शनिवार व रविवार की रात्रि में मध्य प्रदेश के शहडोल स्थित मेडिकल कालेज के अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से आईसीयू में भर्ती बारह लोगों की मौत की खबरें आई हैं। हालांकि, प्रशासन इस बात से इनकार कर रहा है और उसकी दलील है कि मरीज पहले से ही गंभीर अवस्था में थे। इससे पहले देश में कोरोना संक्रमण से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र ने सबसे पहले ऑक्सीजन की कमी का मुद्दा उठाया था और प्रधानमंत्री से वायुसेना के जरिये ऑक्सीजन की आपूर्ति की मांग की थी। ऐसी ही मांग दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी की थी। कुछ भाजपा शासित राज्यों में भी ऑक्सीजन संकट की बात कही जा रही थी। निश्चित रूप से देश के कई भागों में ऑक्सीजन की कमी महसूस की जा रही है।
यही वजह है कि केंद्र सरकार ने ऑक्सीजन की आपूर्ति में तेजी लाने के लिये 162 संयंत्रों को लगाने की मंजूरी दी है। इतना ही नहीं, मौजूदा संकट से निपटने के लिये देश में उद्योगों के लिये इस्तेमाल होने वाली ऑक्सीजन के उपयोग पर रोक लगायी है। हालांकि दवा, फार्मास्यूटिकल्स, परमाणु ऊर्जा, ऑक्सीजन सिलेंडर निर्माताओं, खाद्य व जल शुद्धिकरण उद्योग को इससे छूट दी गई है। इस कार्य में टाटा स्टील समेत कई उद्योगों ने मेडिकल ऑक्सीजन की आपूर्ति की घोषणा की है। देश में ऑक्सीजन संकट को देखते हुए रेलवे ने भी ऑक्सीजन एक्सप्रेस चलाने का निर्णय लिया है। जिसके जरिये तरल ऑक्सीजन व ऑक्सीजन सिलेंडरों का परिवहन किया जा सकेगा। इसकी गति में कोई अवरोध पैदा ना हो, इसलिये ग्रीन कॉरिडोर तैयार किया जा रहा है। निस्संदेह उखड़ती सांसों को थामने के लिये मेडिकल ऑक्सीजन का रुख अस्पतालों की ओर करना वक्त की जरूरत है। लेकिन यह तैयारी दूरगामी चुनौतियों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए। आने वाले समय में भी हमें एेसे नये संक्रमणों का सामना करने के लिये तैयार रहना पड़ सकता है। जाहिरा तौर पर आग लगने पर कुआं खोदने की तदर्थवादी नीतियों से बचने की जरूरत है। ऐसे ही सरकार द्वारा कोरोना मरीजों के लिये उपयोगी इंजेक्शन रेमडेसिविर की कालाबाजारी रोकने तथा इसकी कीमत घटाकर उत्पादन दुगना करने का प्रयास सराहनीय कदम हैं। इसके अलावा कोरोना संक्रमण में काम आने वाली अन्य दवाओं व साधनों के दुरुपयोग पर भी रोक लगाने की जरूरत है। इसके लिये देश के स्वास्थ्य ढांचे में भी आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत है। देश की जनता को भी चाहिए कि वह स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार को अपनी प्राथमिकता बनाये और राजनेताओं पर इसके क्रियान्वयन के लिये दबाव बनाए। ऐसे वक्त में जब देश एक अभूतपूर्व संकट गुजर रहा है, इस मुद्दे पर अप्रिय राजनीति से भी बचा जाना चाहिए। यदि हम समय पर न चेते तो प्रतिदिन तीन लाख के करीब पहुंच रहे संक्रमण के आंकड़े हमें दुनिया में संक्रमितों के मामले में नंबर वन बना देंगे, जिससे निपटना हमारे तंत्र के बूते की बात नहीं होगी।