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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.क्या सीखे, कितना सीखे
देश के सवाल लगातार नीचे उतर रहे हैं और आखिर की पंक्ति में खड़े नागरिक से फिर पूछा जा रहा है कि इस हालात के लिए क्यों न उसे ही दोषी मानकर बढ़ते आंकड़ों के पाप धो लिए जाएं। कोरोना लगभग एक साल से सारे देश और नागरिक समाज को सबक दे रहा है, लेकिन फिर वही हालात लौटकर हमारी जिंदगी, हमारी रोजी-रोटी और हमारे वजूद पर भारी पडऩे लगे हैं। फैसलों की खिचड़ी से उड़ती नसीहतों की भाप को देखें या फिर सरकारी आदेशों की नमक हलाली करें, क्योंकि देश में मजबूरियों के ताबूत अभी कम नहीं हुए। हिमाचल के चारों ओर गूंज रहे नाइट कफ्र्यू, लॉकडाउन और बंदिशों के नए पैमानों के बीच कब तक खैर मनाओगे। पिछले एक हफ्ते में पचास फीसदी कोरोना संक्रमण का बढऩा कोई सामान्य घटना नहीं, बल्कि पुन: लाचारी के आलम मेें झूलती जिंदगी के मसले पर, सरकारी असमर्थता का नंगा नाच भी जाहिर होता है।
ऊना में पॉजिटिविटी रेट अगर दिल्ली से कहीं अधिक 25.56 प्रतिशत पहुंचता है या कांगड़ा में एक ही दिन में संक्रमण का आंकड़ा साढ़े पांच सौ की तादाद को छूने की छूट लेता है, तो स्थिति का आकलन फिर से बेडिय़ां चुन रहा है। यानी एक साल की तपस्या और आर्थिक विध्वंस के बाद हमारे जीने की लागत सिर्फ एक पिंजरा है तथा जहां हमें कैद होना है। इस बार नाम बदल सकता है या पूरी तरह लॉकडाउन का संदेश न मिले, लेकिन कब्र और श्मशान में सिर्फ एक परंपरा का ही तो फर्क है। दरअसल कोरोना के समक्ष राष्ट्रीय इंतजाम अब समाज को फिर से स्वास्थ्य की वही परंपरा दे रहे हैं, जहां हिदायतों के बीच मौन स्वीकृतियों के सिवाय कुछ नया नहीं होगा। इस बार थाली-ताली भले ही न बजे, लेकिन अस्पतालों में गिड़गिड़ाने की नौबत तो बरकरार रहेगी। कोरोना काल का साहसिक पक्ष राजनीति ने जीभर के लूटा है और इसे सरकारों ने भी डट के भुनाया है। अब तंत्र पर सरकार के मंत्र फिर विराजित होंगे और हमारे आसपास हैल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर पुनर्जन्म लेगा। सारे देश की तरह हिमाचल भी नई घोषणाओं की संगत में कोरोना को हराने के लिए चाक चौबंद होने लगा है, तो फैसलों की फेहरिस्त में यहां भी चुनावी दंगल नजर आएंगे या तमाम खतरों के बीच उद्घाटन-शिलान्यासों के पत्थर देखे जाएंगे। देश कोरोना के परिप्रेक्ष्य में नई जानकारियों के साथ ऐसी सावधानियां जोड़ लेता है, जिनके प्रति सारी नैतिक जिम्मेदारी आम इनसान की है। इसलिए बिना यह सोचे कि कौन नेता आपको कैसे इस्तेमाल कर रहा है, दिग्गज मेडिकल एक्सपर्ट की मानते हुए मास्क, सेनेटाइजर और दो गज की दूरी बनाए रखें।
दुर्भाग्यवश एक साल पहले जो नेता आदर्शों के बीज बो रहे थे, उन्होंने सामाजिक बंदिशों की फसल उजाड़ी है। बिना ये सोचे कि चुनावी गणित में नेताओं ने अपने अहंकार के आगे मास्क को कितनी बार प्रताडि़त किया या देश को राजनीति के खेत में ही उगा दिया, लेकिन आम जनता को अपने आदर्शों में जीवन बचाना है। हो सकता है अगली सुबह हमारा भविष्य फिर किसी कफ्र्यू की जद में आ जाए या जिंदगी के खतरनाक मोड़ पर आम नागरिक की इच्छाओं, जरूरतों और रोजगार पर कुंडली मार कर सरकारी आदेश सवार हो जाएं, लेकिन यह युद्ध अपने भीतर की पाबंदियों से भी रहेगा। यह युद्ध आधी भूख का रहेगा, क्योंकि आर्थिक मंदी के बावजूद एकमात्र उपाय पुन: बंदिशों की बाड़ सरीखा है। आम नागरिक को ही यह अरदास करनी है कि चाहे उसके सारे सहारे टूटें, उसे ही कोरोना की लौटती श्रृंखला तोडऩी है। एक बार फिर आसमान जहां टूट रहा है, वहां आम गरीब को अपने आंसू समेटने की हिदायत है। पुन: बेखबर हो जाओ कि अस्पतालों में बिस्तर बढ़ रहे हैं, कितने आक्सीजन प्लांट लग रहे हैं या वेंटिलेटर चुस्त-दुरुस्त हो गए हैं, याद रखें कि आप खुद ही खुद को बचा पाओगे। सरकारों को अपने वजूद के लिए कोरोना से डर नहीं लगता, लेकिन चुनाव में हारने का भय आतंकित करता है। किसे याद है कि एक साल में कितनी दिहाडिय़ां,कितने रोजगार के अवसर तथा नौकरियां फनां हुईं, लेकिन बढ़त इस बात की रही कि कहीं कोई राजनीतिक पार्टी जीत रही थी या हराने वाले कोरोना से भी भयंकर शक्ति से उत्पात मचा पाए। कोरोना के खिलाफ एकांगी होकर आम समाज को सिर्फ अपनी रक्षा करनी है, न कि मतदाता के अधिकार से प्राप्त रक्षा कवच आपके इर्द-गिर्द खड़ा होगा।
- संक्रमण की कड़ी टूटेगी?
देश की राजधानी दिल्ली में लॉकडाउन लागू करना पड़ा है। इसके अलावा महाराष्ट्र, उप्र, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तराखंड, गुजरात आदि राज्यों में भी लॉकडाउन है अथवा नाइट कफ्र्यू जारी है। शब्दावली भिन्न हो सकती है, लेकिन कोरोना वायरस के बेकाबू संक्रमण के कारण तालाबंदी और घरबंदी ही एकमात्र विकल्प शेष रह गया था, जिससे संक्रमण की कड़ी टूट सकती है। हालांकि दिल्ली में लॉकडाउन अगले सोमवार, 26 अप्रैल की सुबह 5 बजे तक ही है, लेकिन आम आदमी आशंकित है कि इसे भी पिछले लॉकडाउन की तरह बढ़ाया जा सकता है। प्रवासी मजदूर और कामगार ज्यादा खौफजदा हैं, लिहाजा उनमें पलायन शुरू हो गया है। हालांकि ऐसे छोटे लॉकडाउन पिछले साल की राष्ट्रीय तालाबंदी से बेहतर हैं, क्योंकि वह केंद्रीकृत घोषणा थी और बेहद कठोर, आक्रामक थी। अब नीति और आपदा प्रबंधन का नया मॉडल सामने आ रहा है कि राज्य सरकारें ही संक्रमण के स्थानीय हालात के मद्देनजर फैसला ले सकती हैं और तालाबंदी का विकल्प चुन सकती हैं। एक तरह की पूर्ण तालाबंदी महाराष्ट्र और दिल्ली में ही करनी पड़ी है, फिर भी बहुत कुछ खुला है। आर्थिक गतिविधियों पर पूर्णविराम चस्पा नहीं किया गया है।
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने औद्योगिक वर्ग को संबोधित करते हुए पूरे देश को आश्वस्त किया है कि अब राष्ट्रीय लॉकडाउन नहीं लगाया जाएगा। इस बीच प्रधानमंत्री मोदी ने, देश के बड़े डॉक्टरों और दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों से संवाद करने के बाद, एक बेहद महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया है कि अब देश का प्रत्येक वयस्क, 18 साल और अधिक की उम्रवाला, कोरोना टीका लगवाने का पात्र होगा। अब 50 फीसदी टीके केंद्र सरकार, तो 50 फीसदी टीके राज्य सरकारें, निजी अस्पताल और खुला बाज़ार, सीधे कंपनियों से ही, खरीद सकेंगे। विदेश से भी टीका खरीदने के प्रावधान किए जा रहे हैं। टीका कंपनियां अपना उत्पादन बढ़ा सकें, लिहाजा सीरम को 3000 करोड़ और भारत बायोटैक को 1567 करोड़ रुपए के अग्रिम भुगतान भारत सरकार कर रही है। अब राज्य सरकारें ही तय करेंगी कि वे अपने नागरिकों को मुफ्त में टीका लगाना चाहती हैं अथवा टीके की एक निश्चित कीमत वसूल करना चाहती हैं। राज्य सरकारें और निजी क्षेत्र टीका कंपनियों के साथ अलग-अलग अनुबंधों पर हस्ताक्षर करेंगे। यह वाकई संघीय ढांचे और विकेंद्रीकरण का उदाहरण होगा। बहरहाल तालाबंदी से आम आदमी की गतिविधियां काफी कम हो जाएंगी, लिहाजा संक्रमण फैलने की संभावनाएं भी कम हो सकती हैं।
इससे जो स्वास्थ्य ढांचा फिलहाल तनाव और दबाव में माना जा रहा है और ध्वस्त होने के कगार पर भी है, उसे कुछ राहत मिल सकती है। ऑक्सीजन, बिस्तर, वेंटिलेटर और दवाओं से जुड़ी विसंगतियों को दुरुस्त किया जा सकेगा और आम नागरिक के इलाज हासिल करने के मौलिक अधिकार, अनुच्छेद 21 के तहत, की रक्षा की जा सकेगी। तालाबंदी और टीकाकरण की नई नीति से कमोबेश यह उम्मीद जरूर की जानी चाहिए। फिलहाल हम यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि स्वास्थ्य ढांचे और व्यवस्था के मद्देनजर भारत भी रातोंरात अमरीका और यूरोपीय देशों की होड़ करने लगेगा। अलबत्ता कोरोना संक्रमण की महामारी के दौरान अभी तक जो भयावह और अमानवीय दृश्य हमें देखने पड़े हैं, कमोबेश उनमें सुधार होगा। यदि अब भी हम सुधर और सचेत नहीं हो पाए, तो फिर हमें ‘नालायक देशों’ की जमात में खड़ा होना पड़ेगा और विश्व स्तर के तमाम दावे एकदम छोडऩे पड़ेंगे। खुद दावे बंद नहीं करेंगे, तो दुनियावी ताकतें और हालात ऐसा करने को विवश कर देंगे। तालाबंदी और टीकाकरण का विस्तार दोनों ही स्थितियां एक साथ हमें मिली हैं।
प्रख्यात चिकित्सकों और वैज्ञानिकों का साररूप में मानना है कि सिर्फ टीकाकरण ही मौजूदा संक्रमण से हमें बचा सकता है। कोई निश्चित दवा और इलाज उपलब्ध नहीं है, अलग-अलग शोध सामने आ रहे हैं, लेकिन टीकाकरण पर कमोबेश सभी सहमत हैं कि इससे इनसान को गंभीर संक्रमण और अंतत: मौत से बचाया जा सकता है। लिहाजा टीकाकरण की गति पर तालाबंदी की पाबंदियों की विपरीत छाया नहीं पडऩी चाहिए, इस मुद्दे पर राजनीति भी नहीं होनी चाहिए, दलगत दोषारोपण से कुछ भी हासिल नहीं होगा। जितनी जल्दी हो सके, इतनी व्यापक और विशाल आबादी के हमारे देश के अधिकतम नागरिकों को टीका लगाया जाए, ताकि हम संक्रमण की आने वाली स्थितियों से बच सकें और मौजूदा कडिय़ों को तोड़ सकें।
3.संसाधनों की हिफाजत
एक तरफ, जब देश में कोविड-19 के कारण रोजाना 1,500 से अधिक लोगों की जान जाने लगी है; कई राज्यों से टीके के अभाव की शिकायतें सुनने को मिल रही हैं, तब यह उद्घाटन सचमुच हतप्रभ कर देने वाला है कि 11 अप्रैल तक देश में टीके की 44.5 लाख से अधिक खुराकें बरबाद हो गईं। एक आरटीआई के जरिए यह खुलासा हुआ है कि उस दिन तक तकरीबन 23 फीसदी खुराक बेकार हो गई। हैरत की बात है कि ऐसा उन राज्यों में सर्वाधिक हुआ, जो इस वक्त महामारी से हलकान नजर आ रहे हैं। राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार, हरियाणा जैसे प्रदेशों के नाम इस सूची में ऊपर हैं। यह सूचना हमारी विशाल आबादी के लिहाज से भी काफी चिंताजनक है। हम अभी तक अपनी आबादी के एक प्रतिशत से कुछ ही अधिक लोगों का पूर्ण टीकाकरण कर सके हैं, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश क्रमश: 25 व 15 फीसदी से आगे बढ़ चले हैं।
इसमें कोई दोराय नहीं कि किसी भी उत्पाद की वितरण-प्रणाली में कतिपय कमियों के कारण कुछ हद तक नुकसान की आशंका रहती है। अमेरिका में भी पहले चरण के टीकाकरण अभियान में नुकसान हुए थे, लेकिन हम इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की कुल आबादी हमारी जनसंख्या की एक चौथाई के करीब है। हमारे लिए हानि की यह मात्रा इसलिए ज्यादा चुभने वाली है कि हमें महामारी से जंग में लंबी दूरी तय करनी है। अपने संसाधनों का इस्तेमाल हमें काफी किफायत से करने की जरूरत है। तब तो और, जब देश के कई अस्पतालों से ऑक्सीजन न मिलने के कारण कोविड मरीजों के दम तोड़ने की खबर सुर्खियों में हों। यहां तक कि हाईकोर्ट को कहना पड़ रहा है कि ‘उद्योग ऑक्सीजन का इंतजार कर सकते हैं, पर कोविड मरीज नहीं।’ केंद्र सरकार ने उचित ही नौ औद्योगिक क्षेत्रों में ऑक्सीजन-आपूर्ति की सीमा तय कर शेष को चिकित्सा उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने का निर्देश दिया है। कोविड-19 से संघर्ष में इस वक्त हम जिस मोड़ पर खडे़ हैं, उसमें अब किसी कोताही के लिए कोई जगह नहीं है, बल्कि वह जनता ही नहीं, पूरी मानवता के प्रति आपराधिक लापरवाही कहलाएगी। देश में टीकाकरण अभियान की शुरुआत से पहले बाकायदा कई अभ्यास किए गए थे, इसका प्रोटोकॉल तय हुआ था, उसके बावजूद यदि यह स्थिति है, तो हमें अपने निगरानी तंत्र पर गौर करने और बगैर वक्त गंवाए उसे दुरुस्त करने की दरकार है। राज्य सरकारों को भी अपनी कार्यशैली पर ध्यान देने की जरूरत है। आखिर अनेक राज्यों, मसलन केरल, पश्चिम बंगाल, हिमाचल, मिजोरम, गोवा ने नजीर पेश की ही है। इन राज्यों में कोर्ई खुराक बरबाद नहीं हुई। केंद्र-राज्यों में तकरार और गिले-शिकवे संघीय लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा हैं, मगर कुछ विषय इससे परे होते हैं और इसके लिए बड़प्पन की मांग सभी पक्षों से की जाती है। देश के नागरिक इस समय तकलीफ में हैं, तो ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए, जिससे उनकी पीड़ा दोहरी हो जाए। लोग गम जज्ब कर लेते हैं, अगर उन्हें यह दिखता है कि मददगारों ने अपने तईं ईमानदार कोशिश की थी। इसलिए जीवन रक्षक संसाधनों की बर्बादी, कालाबाजारी को केंद्र और राज्यों को हर हाल में रोकना ही होगा।
4.वैक्सीन ही भरोसा
राज्यों की सक्रियता से ही टीकाकरण में तेजी
ऐसे समय में जब देश में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर कहर बरपा रही है और उपचार के तमाम संसाधन सिकुड़ गये हों, वैक्सीन ही एकमात्र ब्रह्मास्त्र साबित हो सकती है। ऐसे हालात में हम एक बड़ी आबादी को टीका लगाकर ही इस महामारी पर किसी तरह से अंकुश लगा सकते हैं। हालांकि देश में दुनिया के सबसे तेज टीकाकरण का दावा किया जा रहा है, लेकिन टीकाकरण सवा अरब की जनसंख्या के मुकाबले काफी कम है। विकसित देश अपनी बड़ी आबादी को टीका लगाकर कोरोना संक्रमण को पछाड़ने की दिशा में आगे बढ़ चुके हैं। वहां संक्रमण के नये मामलों में बड़ी गिरावट देखी गई है। ऐसे में भले ही भारत टीका लगाने वालों की संख्या में तेरह करोड़ के करीब पहुंच चुका है, लेकिन अभी भी हमारी मंजिल बहुत दूर है। हालांकि, भारत दुनिया में सबसे बड़ा टीका उत्पादक देश है लेकिन संसाधनों का संकट हमारे सामने बड़ी बाधा बना हुआ है। इसके चलते मौजूदा संकट में केंद्र सरकार ने पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया को बड़ी आर्थिक सहायता देने की घोषणा की है। हालांकि, अमेरिका व यूरोपीय देशों ने टीका बनाने में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल के निर्यात पर रोक लगा रखी है, लेकिन उम्मीद है कि भारतीय कंपनियां कुछ वैकल्पिक रास्ते जरूर निकाल लेंगी। बहरहाल, इसी बीच केंद्र सरकार ने तीसरे चरण के टीकाकरण के लिये कार्यक्रम की घोषणा करते हुए अब अठारह साल से अधिक उम्र के हर व्यक्ति को टीका लगाने की अनुमति दे दी है। निश्चित रूप से इससे देश की बड़ी जनसंख्या को टीकाकरण के दायरे में लाया जा सकेगा। भारत युवाओं का देश है और इस कर्मशील आबादी को टीका लगाना आर्थिक उन्नति की दृष्टि से हमारी प्राथमिकताओं में होना ही चाहिए। केंद्र सरकार ने टीकाकरण के एक मई से शुरू होने वाले कार्यक्रम की रूपरेखा घोषित कर दी है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई महत्वपूर्ण बैठक में सोमवार को फैसला लिया गया कि तीसरे चरण के वैक्सीनेशन कार्यक्रम में अब तेजी लायी जा सकेगी। इसका दायरा बढ़ाया गया है क्योंकि अब तक 45 साल से ऊपर उम्र वालों को ही वैक्सीन दी जा रही थी।
दरअसल, जहां 16 जनवरी से शुरू हुए पहले टीकाकरण अभियान में केवल हेल्थ वर्कर्स एवं अग्रिम मोर्चे के जांबाजों को वैक्सीन दी गई थी, वहीं एक मार्च से शुरू हुए दूसरे चरण में 45 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिये टीकाकरण का प्रावधान किया गया था। देश में अब तक टीकाकरण कार्यक्रम भारत बायोटेक तथा सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा निर्मित दो वैक्सीनों के जरिये चलाया जा रहा था। वहीं अब मई से हाल ही में आपातकालीन उपयोग के लिये रूस में निर्मित स्पुतनिक वैक्सीन को भी अनुमति दी गई है। इसके साथ ही हालिया बैठक में सरकार ने फैसला लिया है कि टीके की कीमत निर्धारण और इसका दायरा बढ़ाया जायेगा। सरकार के निर्णय के अनुसार वैक्सीन निर्माता कंपनियां अब अपने कुल उत्पादन का आधा भारत सरकार को उपलब्ध करायेंगी तथा शेष वैक्सीन राज्य सरकारों व खुले बाजार में आपूर्ति कर सकेंगी। सरकार आने वाले दिनों में खुले बाजार में बेची जाने वाली वैक्सीन की कीमत की घोषणा करेगी, ताकि निजी अस्पतालों में लोगों से मनमाने दाम न वसूले जा सकें। दरअसल, इसी कीमत पर राज्य सरकारें, प्राइवेट अस्पताल तथा अन्य संस्थान वैक्सीन की खरीद कर सकेंगे। सरकार का मकसद वैक्सीन की कीमत में पारदर्शिता कायम करना भी है। देश के युवा इस माध्यम से वैक्सीन लगवा सकेंगे। इसके अलावा लक्षित आयु वर्ग तथा स्वास्थ्य कर्मियों व फ्रंट लाइन वर्कर्स को मुफ्त में वैक्सीन दी जाती रहेगी। लेकिन भविष्य में भी टीकाकरण के लिये निर्धारित नियमों का पालन नेशनल वैक्सीनेशन कार्यक्रम के तरह पहले ही की तरह करना होगा। निस्संदेह, कोरोना संक्रमण की दूसरी घातक लहर में हम टीकाकरण के जरिये ही चुनौती का मुकाबला कर सकते हैं। हाल के दिनों में कुछ राज्यों ने टीके की कमी की शिकायत की थी, कोशिश हो कि ऐसी कोई दिक्कत टीकाकरण अभियान में न आये।