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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.बंदिशों का पदचाप
चौदह महीनों के कोरोना काल से गुजरने के बाद वही ढाक के तीन पात जैसी स्थिति लौट आई है और मुजरिम जनता के सामने पुनः बंदिशों का आखेट सिर चढ़ कर बोलने लगा है। इस दौरान नारे, वादे, घोषणाएं तो खूब हुईं, लेकिन हालात अब कोविड या हैल्थ एमर्जेंसी तक पहुंच कर फिर इत्तला दे रहे हैं कि देश-प्रदेश को अपना खोखलापन या तदर्थवाद छोड़ना पड़ेगा। हिमाचल वीकेंड की छुट्टी पर रहेगा और फाइव डे वीक की परछाईं में सरकारी दफ्तर कोरोना से निपटने के सरोकार पैदा करेगा। कितना आसान व जरूरी है सरकार के लिए यह फैसला करना, लेकिन उतनी ही कठिन डगर पर चलना अब निरंतर कठिन होगा। बेशक लॉकडाउन शब्द से सरकारें मुकर रही हैं और प्रधानमंत्री भी यही फरमा रहे हैं कि प्रदेश सीधे लॉकडाउन से गुरेज करे, लेकिन इससे कौन सा मरहम लगेगा या कितनी आर्थिकी बचेगी, यह वक्त ही बताएगा। बहरहाल हिमाचल जैसे पर्वतीय व पर्यटन राज्य के लिए बढ़ती पाबंदियों के सदके निजी क्षेत्र में हाय तौबा मचना स्वाभाविक है। दूसरी ओर पिछले एक हफ्ते में कोविड से प्रदेश में मौत का आंकड़ा अगर 105 तक बढ़ गया, तो यह व्यक्तिगत लापरवाही से भी कहीं अधिक चिकित्सा के ढर्रे पर गहरे दाग चस्पां कर रहा है। कहने को हिमाचल प्रदेश में बाकी राज्यों की तुलना में कहीं अधिक मेडिकल कालेज हैं, लेकिन मौत के आंकड़े बता रहे हैं कि ये सिर्फ इमारतें या राजनीतिक घोषणाओं के अक्षम पन्ने हैं। जिस टीएमसी को भयंकर कोविड से लड़ाई लड़नी है, वहां हर दिन मौत से अलिंगन करने की लाचारी इतनी पसर गई कि पिछले काफी अरसे से सामान्य जिम्मेदारी भी दिखाई नहीं दे रही। आश्चर्य यह कि पिछले कुछ महीनों से प्रदेश के इसी मेडिकल कालेज की सीटी स्कैन मशीन तक खराब है और जिसे ठीक तक कराने की किसी को फुर्सत नहीं। कहने को हिमाचल जैसे संसाधनविहीन राज्य के पास एक मेडिकल यूनिवर्सिटी भी है, लेकिन अभी तक इस सफेद हाथी ने कोविड के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा।
स्वास्थ्य विभाग के अमले में वरिष्ठता सूचियों के मलाईदार ओहदे तो हैं, लेकिन ऐसा कोई वक्तव्य नहीं सुना कि प्रदेश को हैल्थ प्रवक्ता मिला हो। किसी मेडिकल कालेज के प्रिंसीपल या मेडिकल अधिकारी की वरिष्ठता यह नहीं बताती कि उनके अधिकार क्षेत्र में जीवन की रक्षा के मायने क्या हैं। यह दीगर है कि प्रदेश का मेडिकल स्टाफ स्वयं को कार्य के दबाव में प्रकट जरूर करता है, लेकिन कोविड मरीजों के अनुभव बताते हैं कि व्यवस्था की नीयत में कहां-कहां खोट है। राज्य सरकार का सेहत सलाहकार कौन है, इसे कोविड काल के चौदह महीने बता नहीं पाए, फिर भी यह प्रदेश प्रयत्नशील रहा तो इसकी तारीफ करनी होगी। कमोबेश हर जिलाधीश ने अपने कंधों पर इस काल के हर दबाव को उठाया और संक्रमितों की एक सूची में इनकी भी शिनाख्त हुई। तमाम बंदिशों की सरल भाषा को जिस तरह कांगड़ा के जिलाधीश राकेश प्रजापति अभिव्यक्त करते हैं, उसका कोई सानी नहीं। बावजूद इसके कि बंदिशों की सरलता में सरकार गरीब को कमाने का अवसर दे रही है या बाजार-व्यापार दो दिन बंद करके भी आर्थिक उद्धार कर रही है, इसे प्रमाणित करना आसान नहीं। लॉकडाउन कहें या न कहें, हवाओं में घर्षण इतना है कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता। शनिवार-रविवार के बंद में आंखें खोल कर बैठे पर्यटन क्षेत्र को क्या मिलेगा या आधी सवारियां ढोती बस या टैक्सी पर कौन उपकार करेगा, किसी को मालूम नहीं। एक साल की मेहनत-मजदूरी गंवा कर जिन्हें आंसू पौंछने की फिर से मनाही है, वे तमाम लोग सन्नाटे में रहेंगे। बंदिशों का पदचाप उतना ही संताप पैदा कर रहा है, जितना पिछले साल के घाव पैदा करते रहे हैं। प्रत्यक्ष में कुछ स्पष्ट न कह कर मौजूदा बंदिशें परोक्ष में कई सदमे पैदा कर रही हैं, फिर भी अगर नहीं सुधरे तो कयामत दूर नहीं।
2.टीकों की बर्बादी ‘आपराधिक’
कोरोना महामारी की त्रासदियों के दौर में टीके की करीब 44.5 लाख खुराकें बर्बाद कर दी गईं। करीब 23 फीसदी खुराकें बेकार हो गईं, क्योंकि उन्हें किसी भी नागरिक को लगाया नहीं जा सका। कोरोना वायरस के खिलाफ टीकाकरण एक अहम हथियार है और इनसानी जिंदगी को बचा सकता है, ये निष्कर्ष कई विशेषज्ञ दे चुके हैं और खुराकें बर्बाद करने करने वालों ने भी सुने और पढ़े होंगे। कई राज्य कोरोना टीके की कमी को लेकर चिल्ला रहे हैं और राजनीति के सौतेलेपन के भी आरोप मढ़े जाते रहे हैं। केंद्र सरकार ने एक मई से देश के हरेक वयस्क को टीकाकरण की जो नीतिगत घोषणा की है, उसके मद्देनजर भी कुछ राज्यों ने चिल्ल-पौं करना शुरू कर दिया है कि इससे राज्यों के बजट पर बोझ पड़ेगा। सरकार उद्योगपतियों को ही फायदा पहुंचाना चाहती है। कुछ राज्य सरकारें कोरोना टीके को खुले बाज़ार में भी उतारने के फैसले की तीखी आलोचना कर रही हैं, लिहाजा भारत सरकार को सफाई देनी पड़ी है कि टीके कैमिस्ट या फॉर्मेसी की दुकानों पर नहीं बिकेंगे।
टीके के संदर्भ में कोई भी राज्य सरकार यह कबूल करने को तैयार नहीं है कि उनसे खुराकों की बर्बादी हुई है और उसकी बुनियादी वजह अमुक है। तमिलनाडु ने 12 फीसदी से अधिक खुराकें बर्बाद की हैं, जबकि हरियाणा में करीब 9.75 फीसदी, पंजाब में करीब 8.25 फीसदी और तेलंगाना में करीब 7.5 फीसदी खुराकें खराब हुई हैं। इस सूची में राजस्थान, उप्र, बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात सरीखे राज्य भी शामिल हैं। जाहिर है कि बर्बादी से संसाधन तो खराब होते ही हैं और अंततः आम नागरिक ही वंचित रहता है, लेकिन करोड़ों रुपए भी स्वाहा हो जाते हैं। यह धन आम करदाता ही सरकारों को मुहैया कराता है, लिहाजा हम खुराकों को बर्बाद करना ‘आपराधिक लापरवाही’ मानते हैं और ऐसी राज्य सरकारों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। दूसरी तरफ केरल, हिमाचल, मिजोरम और गोवा आदि राज्य हैं, जिन्होंने मिसाल पेश की है और एक भी खुराक खराब नहीं की है। बहरहाल कोताही और लापरवाही सिर्फ टीकों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ऑक्सीजन का संकट देश के सामने है। यह तो खुद प्रधानमंत्री मोदी ने स्वीकार किया है और पूरी संवेदनशीलता के साथ ‘प्राण-वायु’ की सप्लाई कराने का आश्वासन दिया है।
जिन प्रमुख चिकित्सकों ने प्रधानमंत्री के साथ संवाद किया था, उसके दौरान मेदांता अस्पताल के चेयरमैन डा. नरेश त्रेहन ने एक सुझाव दिया था कि मौजूदा आपात घड़ी में जो अस्थायी अस्पताल स्थापित किए जा रहे हैं, उन्हें ऑक्सीजन प्लांट के पास ही स्थापित किया जाए। इससे ऑक्सीजन की तुरंत आपूर्ति हो सकेगी और अस्पताल भी इसकी कमी को लेकर नहीं चिल्लाएंगे। बहरहाल सुझाव पर सरकार क्या निर्णय लेती है, फिलहाल वह प्रतीक्षित है, लेकिन प्रधानमंत्री ने भरोसा दिलाया है कि एक लाख ऑक्सीजन सिलेंडर की व्यवस्था की जा रही है। बीते अक्तूबर में 160 से अधिक प्लांट लगाने का फैसला लिया गया था, उस पर भी काम जारी है। इसके अलावा 50,000 मीट्रिक टन आयात करने के संदर्भ में सरकारी ऑर्डर दिया जा चुका है या नहीं, फिलहाल यह सार्वजनिक नहीं हुआ है। बहरहाल हम इतना स्पष्ट कर दें कि भारत में ऑक्सीजन उत्पादन का संकट नहीं है। चिकित्सा के अलावा, कई उद्योगों में इसका इस्तेमाल किया जाता है।
दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायिक पीठ ने इस संदर्भ में सरकारों को फटकार लगाते हुए टिप्पणी की है- ‘उद्योग ऑक्सीजन की खपत कम कर सकते हैं। उद्योग ऑक्सीजन का इंतज़ार कर सकते हैं, लेकिन कोरोना से मर रहे मरीज को इंतजार करने को नहीं कहा जा सकता। मानव-जीवन से बढ़कर आर्थिक हित नहीं हैं।’ उच्च न्यायालय ने दिल्ली और केंद्र सरकार से हलफनामा दाखिल करने को कहा है। अदालत ने बर्बाद टीकों को लेकर भी तल्ख टिप्पणी की है। ऑक्सीजन के संदर्भ में यह तथ्य भी सामने आया है कि ‘प्राण-वायु’ के परिवहन में बाधाएं डाली जा रही हैं। राज्य सरकारें भी पंगा डाल रही हैं, नतीजतन राजधानी दिल्ली या गंतव्य तक ऑक्सीजन पहुंचने में देरी होना स्वाभाविक है। बहरहाल ये तमाम जिम्मेदारियां सरकारों की हैं। भारत सरकार का दायित्व ज्यादा गंभीर और अहम है, क्योंकि उसको ही आपूर्ति तय करानी होती है। कमोबेश ये मुद्दे और ऐसी सियासत महामारी के दौर में नहीं की जानी चाहिए, लेकिन हम अपने सवालिया संस्कारों के मोहताज हैं।
3. सुरक्षित इलाज और साख
महाराष्ट्र के नासिक में ऑक्सीजन टैंकर के लीक होने के कारण आपूर्ति बाधित होने से 20 से अधिक कोविड मरीजों की दर्दनाक मौत जितनी दुखद है, उतनी ही शर्मनाक भी। जांच के आदेश हो गए हैं, मुआवजों की भी घोषणा कर दी गई है, पर क्या ऐसे कर्मकांड पहली बार हो रहे हैं? पिछले एक साल में ही महाराष्ट्र व गुजरात में सिर्फ कोविड वार्डों में आग लगने और ऑक्सीजन आपूर्ति से जुड़े कई हादसे हो चुके हैं, जिनमें कई बहुमूल्य जानें जा चुकी हैं। ये हादसे बताते हैं कि जीवन बचाने की जो उच्चतम सावधानी अस्पताल प्रबंधनों को बरतनी चाहिए, उसमें लगातार चूक हो रही है। निस्संदेह, अस्पतालों पर अभी अभूतपूर्व दबाव है। तमाम डॉक्टर, सहायक कर्मचारी और प्रबंधन के लोग अपनी जान की बाजी लगाकर जनसेवा में जुटे हैं, लेकिन ऐसी घटनाएं इसलिए अधिक मर्माहत कर जाती हैं, क्योंकि ये अस्वाभाविक मौतें हैं। ये मरीज जिंदगी बचने की आस लिए जाकिर हुसैन अस्पताल आए थे! कोरोना की दूसरी लहर भारत और भारतीयों के धैर्य की ही नहीं, इनकी क्षमता की भी परीक्षा ले रही है। दुनिया के कई देश इस महामारी से जंग में काफी बेहतर स्थिति में पहुंच गए हैं। निस्संदेह, इसमें उनकी सरकारों की संवेदनशील पहल, तत्परता और नागरिक अनुशासन की बड़ी भूमिका है। ताईवान, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया जैसे देश तो मिसाल बनकर उभरे हैं। इजरायल, यूएई पूर्ण टीकाकरण के लक्ष्य के करीब हैं। बल्कि इजरायल के स्वास्थ्य मंत्रालय ने तो अनिवार्यत: मास्क पहनने के आदेश को भी वापस ले लिया है। डेनमार्क यूरोपीय सैलानियों के लिए अपने बॉर्डर खोलने की तैयारी कर रहा है। छोटी आबादी वाले देश होने के कारण इनकी उपलब्धियां कमतर नहीं आंकी जानी चाहिए, बल्कि उनसे सबक सीखने की जरूरत है। आज एक साल बाद भी हमारे लिए युद्ध-स्तरीय संघर्ष की स्थिति क्यों है, इसे दोहराने की न तो अब आवश्यकता बची है और न ही यह इसका वक्त है। अलबत्ता, हमने वैक्सीन कूटनीति के जरिए जो छवि अर्जित की है, उसको बचाने की जरूरत है। हम यह नजरअंदाज नहीं कर सकते कि न्यूजीलैंड, ब्रिटेन के बाद मंगलवार को अमेरिका ने भी अपने नागरिकों को सलाह दी है कि वे भारत की यात्रा से फिलहाल परहेज बरतें। यह कोई अनहोनी बात नहीं है और इससे इन देशों के साथ हमारे द्विपक्षीय संबंधों पर भी असर नहीं पड़ेगा, लेकिन ऐसी खबरों का दुनिया में अच्छा संदेश भी नहीं जाता। निस्संदेह, केंद्र और राज्य सरकारें मौजूदा गंभीर स्थिति पर नियंत्रण के लिए हर मुमकिन कदम उठा रही हैं। मगर अब भी कई मोर्चों पर बेहतर समन्वय और संजीदा पहल की जरूरत है। जैसे, दिल्ली में लॉकडाउन की घोषणा और महाराष्ट्र में इसकी आशंका के मद्देनजर गरीबों-मजदूरों का पलायन एक बार फिर शुरू हो चुका है। हालांकि, इस बार पिछले साल जैसी स्थिति नहीं है, लेकिन तब भी एहतियाती उपायों की खुलेआम अनदेखी हो रही है, जो तीन लाख के करीब दैनिक संक्रमण वाली स्थिति में चिंता की बात है। शासकीय दंड से अधिक अब नागरिकों को भरोसे में लेकर ही हालात से उबरा जा सकता है। कुंभ का उदाहरण हमारे सामने है। लेकिन तंत्र में नागरिकों के भरोसे की मजबूती के लिए हमें नासिक जैसी घटनाओं को रोकना होगा। दुनिया के सामने भी ऐसी घटनाएं देश की अच्छी तस्वीर नहीं पेश करतीं।
- फिर वही त्रासदी
श्रमिकों का भरोसा हासिल करना जरूरी
कोरोना महामारी का दूसरा दौर शुरू होते ही बीते साल का वही मंजर दिखना शुरू हो गया है, जिसमें बस व रेलवे स्टेशनों पर कामगारों का हुजूम उमड़ा था। हताश और बेबस लोग अपनी जरूरत का सामान लादे और अपने बच्चों को संभाले अपने गांव व पैतृक निवास लौटने को आतुर थे। वे दोहरे संकट में हैं। एक तो जिस रोजगार की तलाश में वे शहरों में आये थे, वह छूटता नजर आ रहा है, वहीं संक्रमण का खतरा बढ़ रहा है। मजबूरी में अपने छोटे बच्चों को इस असुरक्षित वातावरण में लेकर जा रहे हैं। कमोबेश कोरोना संकट के दूसरे दौर में भी वही सब कुछ दोहराया जाता दिख रहा है। चिंता इस बात की है कि राजनेताओं के आग्रह के बावजूद वे रुकने को तैयार नहीं हैं, उन्हें डर सता रहा है कि यदि लॉकडाउन लंबा खिंचा तो फिर वे कहीं पिछले साल की तरह दाने-दाने के लिये मोहताज न हो जायें। उन्होंने दिल्ली में छह दिन के लॉकडाउन लगाने पर मुख्यमंत्री की उस अपील पर भी ध्यान नहीं दिया, जिसमें सरकार ने उनके खाने, रहने, टीकाकरण और सुरक्षा की व्यवस्था करने का वादा किया। समाज में राजनेताओं के प्रति अविश्वास इतना गहरा है कि लोग उन पर विश्वास करने को तैयार नहीं होते। अच्छी बात यह है कि इस बार बसें व ट्रेनें चल रही हैं। इसके बावजूद श्रमिकों से वाहन चालकों द्वारा ज्यादा किराया वसूलने की शिकायतें सामने आ रही हैं। जान जोखिम में डालकर बसों की छतों पर सवार कामगार किसी तरह बस अपने घर पहुंचने को आतुर हैं। यह जानते हुए भी कि उनके गांव पहुंचने पर संक्रमण को लेकर उन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखा जायेगा और पहले कुछ दिनों के लिये क्वारंटाइन किया जायेगा। कहा जा रहा है कि यदि उन्हें रोका न गया तो वे सुपर स्प्रेडर साबित हो सकते हैं। अत: उन्हें शहरों में उनके स्थानों पर ही रहने को प्रेरित किया जाये।
दरअसल, एक तो बीते साल की तमाम घोषणाओं पर अमल नहीं हुआ और दूसरे पिछले साल के कटु अनुभवों के बीच सख्त लॉकडाउन की आशंका बनी हुई है। रोज कमाकर खाने वाला वर्ग लॉकडाउन की मार ज्यादा समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकता। इस बार भी कोई भरोसेमंद उपाय राज्य सरकारों और औद्योगिक इकाइयों की तरफ से नहीं किये गये हैं। बीते लॉकडाउन में काम देने वाले सेवायोजकों और ठेकेदारों द्वारा फोन बंद कर दिये जाने से श्रमिक दर-दर की ठोकरें खाते रहे थे। सरकारों ने श्रमिकों को यह भरोसा नहीं दिलाया कि यदि लॉकडाउन लंबा चलता है तो वे किन आपातकालीन उपायों को अमल में लायेंगे। केंद्र सरकार की तरफ से भी कोई उत्साह जगाने वाली घोषणाएं सामने नहीं आई। नई पीढ़ी को पिछले लॉकडाउन के बाद हुए पलायन ने देश के विभाजन के क्षणों की याद ताजा करा दी थी। यह एक बड़ी मानवीय त्रासदी थी जब करीब एक करोड़ कामगार बेबसी में अपने राज्यों की ओर लौटते नजर आये। पैदल, साइकिल व ट्रकों के जरिये लाखों लोगों के हुजूम सड़कों पर नजर आये। कितने ही लोग बीमारी से और सड़क व ट्रेन दुर्घटनाओं में मारे गये। उनका जीवन व जीविका दोनों संकट में पड़ गये थे। राज्य सरकारों ने भी इन कामगारों को राज्यों में रोकने के लिये बड़ी-बड़ी घोषणाएं कीं, लेकिन वे सिर्फ घोषणाएं ही साबित हुईं। कामगार फिर महानगरों की ओर लौटे थे, लेकिन दूसरी कोरोना लहर ने उनके अरमानों पर फिर पानी फेर दिया। इस बार पुनः राज्य सरकारों को लौट रहे इन कामगारों की कोरोना जांच, खाने-पीने और पुनर्वास पर गंभीरता से विचार करना होगा ताकि कामगारों का दुख-दर्द और न बढ़े। सामाजिक रूप से भी यह विडंबना है कि जिन शहरों का जीवन संवारने के लिये ये कामगार घर-बार छोड़कर आते हैं, उस शहर का समाज भी इनके प्रति संवेदनशील नहीं होता। प्रधानमंत्री ने बीते साल लोगों से मकानों के किराये को टालने और सेवायोजकों से वेतन न काटने की अपील की थी। लेकिन न तो समाज इनकी मदद के लिये आगे आया, न मकान मालिक ने रहमदिली दिखाई और न ही सेवायोजक ने वेतन काटने में कोई संवेदनशीलता दिखायी।