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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.इन्हें भी जीने का सामर्थ्य दें
मसले का हल कोविड फंड है या नहीं, लेकिन सरकारी जिरह का निर्मोही चेहरा फिर हिमाचल में सरकारी कर्मचारियों की जेब से कुछ टके निकाल रहा है। दरअसल यह टके की बिसात है, जो प्यास लगने पर कुआं खोदने की जद्दोजहद करती है। हम राज्य की बेहतरी के लिए इतना योगदान तो कर ही सकते हैं, फिर सरकारी क्षेत्र की अवकाशीय परंपरा में कोविड के खिलाफ मदद के चंद सिक्के उछल भी जाएं, तो कौैन से फिल्मी कलाकार सोनू सूद बन जाएंगे। जरूरत तो राजकोषीय घाटे को घटाने की होनी चाहिए और कोविड काल की गिरफ्त में बिगड़ते आर्थिक नक्षत्र को सुधारने की भी रहेगी। बहरहाल बड़े अधिकारी दो दिन और छोटे कर्मचारी एक दिन की पगार का योगदान करके हिमाचल के कोविड फंड का सीना फुलाएंगे। यह दीगर है कि ऐसे फैसले का विरोध करके कांग्रेस पता नहीं क्यों अपने नथुने फुला रही है। यहां मुद्दा आपदा को संबोधित है, जबकि इसी के दूसरे संदर्भों में निजी क्षेत्र की लुटती अमानत का अमानवीय पक्ष भी है। पिछले एक साल को अगर सरकारी बनाम गैर सरकारी क्षेत्र के संदर्भ में देखें, तो देश के नाजुक हालात के नीचे धंसे, प्राइवेट सेक्टर के हलाल होते कंधे देखे जा सकते हैं।
यहां जो गंवाया, वह वापस न लौटा और न ही शीघ्र लौटने की उम्मीद है। निजी उद्यमशीलता का संयम कब तक विश्राम कर सकता है, इसीलिए देश आज जहां पहुंच गया वहां सेहत के मसलों के साथ जीने के सामर्थ्य का सवाल भी नत्थी है। भले ही सरकारी कर्मचारी एक या दो दिनों की पगार कोविड फंड में कुर्बान कर दें, लेकिन यहां उनके जीने का सामर्थ्य बरकरार है और इसकी गारंटी सरकार ढोती रहेगी। दूसरी ओर एक खाली आकाश के नीचे पसरा सन्नाटा हर दुखद सूचना के नश्तर से आजिज है। अब वीकेंड की छुट्टी का जिक्र हुआ है, लेकिन निजी क्षेत्र पर मुसीबतों का पहाड़ गिर पड़ा है। सरकार के कठोर फैसलों से राज्य का खजाना नहीं कांपता, लेकिन मजदूर की दिहाड़ी कांपती है और यह हिमाचल की चिंता का सबसे बड़ा पहलू होना चाहिए। यह दिहाड़ी बीबीएन समेत तमाम औद्योगिक क्षेत्रों की नहीं, बल्कि हिमाचल की प्रगति के हर आयाम से जुड़ी है, इसलिए नगर निकाय प्रतिनिधियों से मुखातिब मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के लिए प्रदेश की श्रम शक्ति का संरक्षण अहम हो जाता है। प्रदेश के बजट के दो भाग स्पष्ट हैं। एक से सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों और सरकार के शृंगार का व्यय तय है, लेकिन योजनाओं-परियोजनाओं के जरिए विकास के रथ का असली मालिक तो एक दिहाड़ीदार है। यह दिहाड़ीदार अब हिमाचली नहीं प्रवासी मजदूर है, जो ठेकेदारों की असली मिलकीयत में चिन्हित है।
अगर तमाम बंदिशें फिर मजबूरी या अविश्वास के संताप में चली गईं, तो अवश्यंभावी पलायन को कौन रोकेगा। हिमाचल में आउटसोर्स हुए बिजली, पीडब्ल्यूडी, जलशक्ति या स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के तमाम सिविल और तकनीकी कार्य जिस प्रवासी मजदूर के हाथ की लकीरों से जुडे़ हैं, उसे बचाने की नौबत में एक और इम्तिहान बाकी है। कोविड संकट के बीच हर भारतीय को जीने का सामर्थ्य प्रदान करने में समाज, सरकार और अधिकार प्राप्त लोगों का सबसे बड़ा हाथ हो सकता है और वैक्सीन के साथ भी ‘गोद लेने’ की परंपरा शुरू की जा सकती है। मसलन दान में वैक्सीन उपलब्ध हो, तो जरूरत के अनुसार देश भर में ऐसा अभियान चलाया जा सकता है और इसके तहत प्रति व्यक्ति खर्च उठाने को कई दानी तैयार हो जाएंगे। यहां प्रदेश के पूर्व मंत्री एवं कांग्रेस सचिव सुधीर शर्मा का जिक्र करना स्वाभाविक है। पिछले साल पशुओं को चारा उपलब्ध करवा चुके पूर्व मंत्री ने इस बार प्रशासन को कोविड केयर सेंटर बनाने के लिए अपना घर देने की पेशकश की है। सार्वजनिक जीवन में ऐसे योगदान की आदर्श पद्धति से समाज भी प्रेरित होता है। कोविड संकट की दूसरी लहर का सबसे बड़ा पश्चाताप भी राजनीति को करना होगा, क्योंकि जो गलतियां या पाप हुए उनसे यह वर्ग अछूता नहीं। बहरहाल हिमाचल अपने बचाव में आदर्श परिक्रमा शुरू कर रहा है और इसके तहत कोविड फंड के मार्फत संदेश के समवेत स्वर स्पष्ट हैं, लेकिन इसके साथ निजी या असंगठित क्षेत्र को जीने का सामर्थ्य देने के लिए भी आदर्श पद्धति भी बनानी होगी। यह इसलिए कि पिछले एक साल में गुम हुआ रोजगार अभी लौटा नहीं और न ही घट गई पगार पुरानी स्थिति तक पहुंच पाई है।
2.24 मासूमों की ‘सांसबंदी’!
यह एक मर्माहत और शर्मनाक त्रासदी है। यह घोर आपराधिक लापरवाही भी है, लिहाजा इसे हादसे और दुर्घटना का आवरण भी पहनाया जा रहा है। जो ऑक्सीजन प्राण-वायु है और जिससे जान बचाने को मरीज अस्पताल की दहलीज तक आए थे, वह ऑक्सीजन ही मौत का सबब बन गई! अस्पताल में ऑक्सीजन के टैंकर से ही लीकेज शुरू हुआ और प्राण-वायु का रिसाव होने लगा। वह दृश्य भी भयानक और मौत-सा एहसास लिए था। सफेद गुब्बार चारों तरफ फैल गया, अंततः गैस ही थी, बेशक जीवनदायिनी साबित होती रही थी, लेकिन एक किस्म की घुटन से अफरातफरी मच गई। दहशत और खौफ के उस मंजर में ऑक्सीजन की आपूर्ति बंद करनी पड़ी, नतीजतन वेंटिलेटर पर रखे गए और प्राण-वायु के सहारे जिंदगी जी रहे मरीजों की ‘आखिरी सांस’ भी उखड़ गई। देखते ही देखते 24 धड़कते मानवीय शरीर शवों में तबदील हो गए। यह त्रासदी नासिक, महाराष्ट्र के ज़ाकि़र हुसैन अस्पताल में, भरी दोपहर में ही, कइयों ने देखी और फिर मीडिया के जरिए दुनिया के पटल पर भी छा गई। सरकारी अस्पताल की जवाबदेही और जिम्मेदारी आखिर किसके हिस्से करें?
यह त्रासदी तब देखनी पड़ी, जब देश में कोरोना वायरस के संक्रमित मरीज, 24 घंटे में ही, 3.15 लाख को पार कर चुके हैं। यह आंकड़ा दुनिया में सर्वाधिक है। हमने अमरीका के जनवरी 2021 में 3.07 लाख के आंकड़े को भी पीछे छोड़ दिया है। भारत में कोरोना से मौतें 2100 से अधिक रोज़ाना हो चुकी हैं। भारत ऑक्सीजन के सबसे बड़े उत्पादक देशों में शामिल है। करीब 7500 मीट्रिक टन का उत्पादन किया जा रहा है और खपत करीब 5000 मीट्रिक टन रोज़ाना की है। चूंकि ऑक्सीजन की आपूर्ति, आवंटन आदि भारत सरकार के अधीन है, लिहाजा राज्यों तक पहुंचने में विलंब होना स्वाभाविक है। प्रमुख चिकित्सकों का आकलन है कि जिस तरह कोरोना संक्रमण अप्रत्याशित तौर से फैल रहा है, उसके मद्देनजर अस्पतालों में 8-10 गुना ऑक्सीजन का इस्तेमाल बढ़ गया है, लिहाजा अस्पताल प्रबंधन हर वक्त तनाव और दबाव की मनःस्थिति में रहता है। ऑक्सीजन कुछ ही घंटों की शेष रह जाती है, तब तक प्राण-वायु की आपूर्ति नहीं हो पाती, लिहाजा हर पल उखड़ती सांसों की आशंका और नाजुकता भी बनी रहती है। संभव है कि ऐसी मानसिक अवस्था में ऑक्सीजन टैंकर का वॉल्व ढीला रह गया हो और गैस का रिसाव होने लगा हो! बहरहाल यह जांच का विषय है, लेकिन ऑक्सीजन की आपूर्ति में व्यवस्थागत खामियां तो हैं। तभी दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस विपिन सांघी और जस्टिस रेखा पल्ली की पीठ को केंद्र सरकार के खिलाफ बेहद तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी- ‘सरकार भीख मांगे, उधार ले या चोरी करे, अस्पतालों को हर हाल में ऑक्सीजन उपलब्ध कराए। ऑक्सीजन की कमी में हजारों लोगों को मरते हुए नहीं देखा जा सकता।’ अस्पतालों में ऑक्सीजन नहीं है, जबकि भारी इस्तेमाल वाले स्टील प्लांट और पेट्रोकेमिकल उद्योग धड़ल्ले से चल रहे हैं।
अगर टाटा अपने स्टील प्लांट के उपयोग की ऑक्सीजन को मेडिकल इस्तेमाल के लिए मोड़ सकते हैं, तो अन्य क्यों नहीं कर सकते? यह लालच की पराकाष्ठा है। कोई मानवता बची है या नहीं? वरिष्ठ डॉक्टर चेतावनी देने लगे हैं कि अभी तो संक्रमण बहुत बढ़ेगा, लिहाजा वेंटिलेटर की जरूरत बढ़ेगी। उनकी कमी हो सकती है, लिहाजा अभी से केंद्रीय कमान बनाई जाए और सभी अनिवार्य सेवाओं को उसके तहत रखा जाए। अभी तो इंजेक्शन, ऑक्सीजन सिलेंडर और कोरोना टीके ही चोरी किए जा रहे हैं, पीक वाली स्थिति में अराजकता किसी भी हद तक पहुंच सकती है। यह चेतावनी डॉक्टरों की ओर से आई है, लिहाजा महामारी के ऐसे दौर में राज्यों की सीमाएं भी बेमानी हो जानी चाहिए। कोरोना के बावजूद बौने स्वार्थ और क्षुद्र राजनीति जारी है। मप्र के चार पड़ोसी राज्यों में स्थानीय अफसरों ने प्राण-वायु की आपूर्ति रोक दी। तब मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के जरिए यह सार्वजनिक हुआ। हरियाणा और दिल्ली के बीच ऑक्सीजन को लेकर बचकाना हरकतें सामने आई हैं। तमिलनाडु ने आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की तरफ ऑक्सीजन मोड़ने के फैसले पर आपत्ति दर्ज कराई है। विडंबना है कि जिन राज्यों में कोरोना संक्रमण का असर और फैलाव कम है, वे भी स्थानीय भावनाओं, राजनीति और चिंताओं के मद्देनजर अपने स्टॉक को दबाए रखना चाहते हैं। सभी राज्यों को नहीं भूलना चाहिए कि यह राष्ट्रीय आपदा का दौर है और संक्रमण के दंश किसी को भी भुगतने पड़ सकते हैं।
3.सख्ती का समय
यह समय सख्ती का है और अगर सरकार के प्रति देश की सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त रुख का इजहार किया है, तो कोई अचरज नहीं। कोरोना के बढ़ते मामले और उसके साथ ही, इलाज, दवाओं और ऑक्सीजन के बढ़ते अभाव से निपटने के लिए सिवाय सख्त रुख अपनाने के कोई उपाय नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने स्वत: संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार को नोटिस जारी करके पूछा है कि कोरोना महामारी से निपटने के लिए सरकार के पास क्या योजना है? इस सख्ती के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में ऑक्सीजन की उपलब्धता और इसकी आपूर्ति को लेकर गुरुवार को उचित ही एक उच्चस्तरीय समीक्षा बैठक की है। प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी बयान के मुताबिक, प्रधानमंत्री ने ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाने, उसके वितरण की गति तेज करने और स्वास्थ्य सुविधाओं तक उसकी पहुंच सुनिश्चित करने के लिए तेज गति से काम करने की जरूरत पर बल दिया है। ऑक्सीजन की आपूर्ति को अबाध बनाना सबसे जरूरी है। उच्च अधिकारियों को जमीनी हकीकत नजर आनी चाहिए। अब बंद कमरों में बैठकर संवाद करने या भाषण देने का कोई विशेष अर्थ नहीं है। किन्हीं दो-तीन अस्पतालों का भी मुआयना अगर ढंग से कर लिया जाए, तो वस्तुस्थिति सामने आ जाएगी। बडे़ नेताओं को सीधे जुड़कर काम करना होगा। केवल कागजों पर इंतजाम कर देना किसी अपराध से कम नहीं है। आदेशों-निर्देशों को जमीन पर उतारना होगा।
अधिकारियों ने शायद प्रधानमंत्री को यह बताने की कोशिश की है कि ऑक्सीजन की आपूर्ति पूरी तरह से की जा रही है। बताया गया है कि पिछले कुछ दिनों में ऑक्सीजन की उपलब्धता 3,300 मीट्रिक टन प्रतिदिन बढ़ी है। इसमें निजी और सरकारी इस्पात संयंत्रों, उद्योगों, ऑक्सीजन उत्पादकों का योगदान शामिल है। गैर-जरूरी उद्योगों की ऑक्सीजन आपूर्ति रोककर भी ऑक्सीजन की उपलब्धता बढ़ाई गई है। यह अच्छी बात है कि सरकार को जमाखोरी जैसी समस्या का अंदाजा है, इसलिए ऑक्सीजन की जमाखोरी करने वालों के खिलाफ राज्यों को कठोर कार्रवाई के लिए कहा गया है। ज्यादातर ऑक्सीजन बेचने वालों ने मरीजों के परिजन को जिस तरह लूटा है, उसे न भुलाया जा सकता है और न माफ किया जाना चाहिए। अनुभव गवाह है, यदि बड़े अधिकारी क्षेत्र में उतरकर समस्याओं को नहीं देखेंगे, तो समाधान नहीं निकलेगा और न केंद्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय को अपनी योजना बता पाएगी। कोरोना ने बढ़कर यह तो साबित कर ही दिया है कि हमारी अच्छी-अच्छी सरकारें भी मुकम्मल युद्ध के लिए तैयार नहीं थीं। देश में छह से ज्यादा उच्च न्यायालयों में कोरोना से जुड़े मामलों पर सुनवाई चल रही है। मौजूदा सूरतेहाल को राष्ट्रीय आपातकाल के समान बताते हुए ही चीफ जस्टिस एसए बोबडे की खंडपीठ ने जवाब मांगा है। वाकई, यह समय फौरी कोशिशों का नहीं है, समग्र योजना का है। जांच, दवा, इलाज, निगरानी, टीका, लॉकडाउन, लगभग हरेक मोर्चे पर पोल खुल रही है। केंद्र सरकार को माकूल जवाब के साथ सामने आना चाहिए और आम लोगों को यह एहसास कराना चाहिए कि देश में अदालतें और सरकारें वाकई कंधे से कंधा मिलाकर कोरोना के खिलाफ युद्ध लड़ रही हैं। शासन-प्रशासन की सार्थकता इसी में है कि कोई इलाज से वंचित न रहे।
4.जीवन की आस में मौत
मरीजों की सुरक्षा का खास ध्यान रखा जायेे
महाराष्ट्र के नासिक स्थित एक अस्पताल में ऑक्सीजन टैंकर से ऑक्सीजन रिसाव होने से हुए हादसे में 24 कोरोना संक्रमित मरीजों की मौत विचलित करने वाली है। जीवन बचाने की उम्मीद में अस्पताल में भर्ती मरीजों को लापरवाही के चलते मौत बांटना शर्मनाक ही कहा जायेगा। जांच व मुआवजे की रस्म अदायगी के इतर सबसे बड़ा सवाल यह है कि इतने गंभीर रोगियों की देखरेख में ऐसी लापरवाही क्यों हुई। हादसा चाहे तकनीकी कारणों से हो या मानवीय चूक से, इसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए। आखिर ऑक्सीजन टैंकर के रिसाव को नियंत्रित करने के लिये जिम्मेदार कर्मचारी व अधिकारी वहां मौजूद क्यों नहीं थे। जाहिर है यह डॉक्टरों का काम नहीं है, वैसे भी इस समय अस्पतालों पर महामारी के चलते भारी दबाव है। आखिर रिसाव नियंत्रित करने के क्रम में ऑक्सीजन की आपूर्ति दो घंटे तक क्यों बंद की गई, यह जानते हुए कि साठ से अधिक मरीज आक्सीजन पर जीवन के लिये संघर्ष कर रहे थे, जिसमें 24 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा और कई अन्य मरीज अभी भी गंभीर स्थिति में पहुंच गये हैं। यह पहली घटना नहीं है, पिछले एक साल के भीतर महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्यों में कोविड अस्पतालों में आग लगने व अन्य हादसों में कई रोगियों की जान गई है। कई अस्पतालों में ऑक्सीजन आपूर्ति न मिलने के कारण मरीजों के मरने के आरोप लगे हैं। आखिर इन मरीजों की मौत की जवाबदेही तय क्यों नहीं की जाती? क्यों ऐसे संवेदनशील मरीजों के उपचार वाले अस्पतालों में सुरक्षा के उच्च मानकों का पालन नहीं किया जाता। क्यों हम दुर्घटनाओं से रहित चिकित्सा व्यवस्था नहीं दे पाते। ये दुर्घटनाएं मानवीय चूक की ही ओर इशारा करती हैं। वैसे देश के डॉक्टर व चिकित्साकर्मी अपनी जान की बाजी लगाकर लोगों को बचाने में लगे हैं, लेकिन प्रबंधतंत्र को ऐसे हादसों को टालने के गंभीर प्रयास करने चाहिए।
निस्संदेह देश इस समय एक भयंकर दौर से गुजर रहा है। अस्पतालों में बेड, दवाओं और आक्सीजन की भारी कमी है। यह आपदा न केवल आम लोगों बल्कि हमारे चिकित्सातंत्र की भी बड़ी परीक्षा है। हमारे सत्ताधीश इस महामारी की दूसरी लहर का समय रहते आकलन नहीं कर पाये। कोरोना संकट के पहले दौर में गिरावट के समय को इन संसाधनों को समृद्ध बनाने में नहीं कर पाये, जिस कारण ऐसी शर्मनाक स्थिति बन गई है कि दुनिया के देश भारत यात्रा पर आने के लिये अपने नागरिकों पर प्रतिबंध लगा रहे हैं। तमाम देशों को वैक्सीन आपूर्ति करके हमने जो साख बनायी थी उस पर बट्टा लग रहा है। एक नागरिक के तौर पर कोरोना से बचाव के उपायों का पालन करने में तो हम असफल हुए हैं, मगर यह तंत्र की भी बड़ी विफलता है। जिस संवेदनशीलता के साथ इस दिशा में बचाव की रणनीति बनायी जानी चाहिए थी उसमें हम चूके हैं। आज कई देश वैक्सीनेशन कार्यक्रम को सुनियोजित ढंग से चलाकर कोरोना को हरा चुके हैं और उनके नागरिक खुली हवा में सांस लेने लगे हैं। इस्राइल, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया व ताइवान जैसे देश कामयाबी की इबारत लिख रहे हैं। हम जीती हुई लड़ाई हारते नजर आ रहे हैं। निस्संदेह हम विकासशील देश हैं, हमारे साधन सीमित हैं और हम दुनिया की बड़ी आबादी वाला देश हैं। जनसंख्या का घनत्व अधिक होना भी हमारी चुनौती है। लेकिन उसके बावजूद हम सुनियोजित तरीके से इस युद्ध को नियंत्रित कर सकते थे। केंद्र व राज्य इस दिशा में युद्धस्तर पर काम कर रहे हैं लेकिन अभी भी बेहतर तालमेल से स्थितियों को काबू करने की जरूरत है। यही वजह है कि इसे राष्ट्रीय आपातकाल जैसी स्थिति बताते हुए देश की शीर्ष अदालत ने स्वत: संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार से ऑक्सीजन व दवा की कमी पर जवाब मांगा है। साथ ही पूछा है कि इस संकट से निपटने के लिये उसकी राष्ट्रीय स्तर पर क्या योजना है। दरअसल, देश के छह हाईकोर्टों में कोरोना संकट से जुड़े मामलों की सुनवाई चल रही है, जिससे भ्रम की स्थिति बन रही है।