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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.हमें सांस लेने दो
हमने अदालत को इतने कड़े शब्द बोलते कभी नहीं सुना अथवा पढ़ा। यदि ऑक्सीजन संकट के संदर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायिक पीठ को कहना पड़ा है कि ऑक्सीजन रोकने वालों को हम लटका देंगे, अर्थात फांसी की सजा देंगे, तो संयम टूटने की यह पराकाष्ठा है। न्यायमूर्ति संवेदनशीलता के साथ-साथ बेहद सख्त भी प्रतीत हुए। अधिकारी बड़ा हो या छोटा, हम किसी को नहीं छोड़ेंगे। उन्हें लटका देंगे, जो ऑक्सीजन की आपूर्ति में रोड़ा बन रहे हैं। न्यायिक पीठ ने यह भी टिप्पणी की कि कोरोना वायरस की मौजूदा स्थिति सिर्फ ‘दूसरी लहर’ नहीं, बल्कि ‘सुनामी’ है। आईआईटी के अध्ययन मई मध्य में संक्रमण का ‘पीक’ मान रहे हैं, जाहिर है कि सुनामी का उफान भी बढ़ेगा। तब के लिए सरकार ने क्या तैयारियां की हैं? हम देश के नागरिकों को यूं ही मरने नहीं दे सकते। उच्च न्यायालय ने परोक्ष रूप से संविधान की व्याख्या भी कर दी, जो प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 21 के तहत जिंदगी जीने का मौलिक अधिकार देता है।
उसमें स्वास्थ्य सेवाएं और व्यवस्थाएं भी शामिल हैं। कमोबेश ऐसा बेबस, लाचार, असहाय परिदृश्य हमने कभी नहीं देखा। अमरीका और यूरोप में ऐसी हाहाकार मची होगी, लेकिन वे उससे उबर चुके हैं। हमारे अस्पतालों में कोरोना के मरीज मर रहे हैं, क्योंकि उन्हें ऑक्सीजन नहीं दी सकी। हम एक-एक सांस के लिए इतने मोहताज क्यों हो गए हैं? देश की राजधानी दिल्ली के बड़े अस्पताल ऑक्सीजन की कमी के कारण जीवन-मौत के संघर्ष झेल रहे हैं, तो छोटे शहरों और कस्बों के अस्पताल किस मंजर से गुज़र रहे होंगे? हमने यह भी पहली बार टीवी चैनलों पर ही देखा कि बड़े अस्पतालों के प्रख्यात डॉक्टर रो रहे हैं। वे कोरोना मरीज का इलाज आसानी से कर सकते हैं, लेकिन असहाय हैं, क्योंकि वे ऑक्सीजन पैदा नहीं कर सकते। यकीनन ऐसे अस्पतालों के चिकित्सकों और प्रबंधकों ने हेल्प लाइन या सरकारी कार्यालयों के अधिकृत फोन नंबरों पर अधिकारियों से बात की होगी। व्हाट्स एप और ट्विटर पर आपात संदेश भेजे होंगे। विडंबना यह है कि अधिकारी या उनके चंपू फोन नहीं उठाते अथवा कभी बात हो भी जाती है, तो बदतमीजी से पेश आते हैं। झूठी दिलासा देते हैं। इस व्यवहार और संवेदनहीन व्यवस्था की बुनियाद यह है कि हमारी चिकित्सा व्यवस्था भी नौकरशाहों, अर्थात आईएएस और अन्य, के हाथों में है। डॉक्टर उनके लिए दूसरे दरजे के चेहरे हैं। वे खुदमुख्तार हैं और भगवान होने का मुग़ालता पाल रखा है उन्होंने। क्या प्रधानमंत्री मोदी इस नंगे और बदमिजाजी यथार्थ को नहीं जानते? प्रधानमंत्री ने कई फैसले किए हैं, कई आदेश दिए हैं। दिखावटी तौर पर उन्हें लागू भी कर दिया गया होगा! ऑक्सीजन की आपूर्ति के कई तरीके सामने दिखाई दे रहे हैं-रेलवे, विमान, सड़क। इसमें सेना के तीनों अंग भी जुट चुके हैं। जर्मनी से मदद आनी है। सिंगापुर से 4 क्रायोजेनिक टैंकर भारत में आ चुके हैं। 50,000 मीट्रिक टन ऑक्सीजन आयात के लिए ग्लोबल टेंडर की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।
संभव है कि कुछ दिनों में स्थिति सुधर जाए, लेकिन तब तक उन सांसों और आंसुओं की जवाबदेही किसकी तय की जाए, जिनके जरिए देश का आम नागरिक गुहार कर रहा है- कृपया हमें सांस लेने दो! प्रधानमंत्री उन अफसरों से भी स्पष्टीकरण तलब करें, जिन्हें 162 ऑक्सीजन प्लांट स्थापित करने की योजना का दायित्व सौंपा गया था। हैरत है कि राजधानी दिल्ली में प्राण-वायु का एक भी प्लांट मौजूद नहीं है, जबकि इस प्लांट की स्थापना अपेक्षाकृत सस्ती है। प्रधानमंत्री उनसे पूछें कि छह महीने की अवधि में सिर्फ 33 प्लांट पर ही काम क्यों हो सका? शेष की नियति क्या है? प्रधानमंत्री उनसे भी कड़े अंदाज़ में पूछें, जो प्राण-वायु की आपूर्ति यथासमय करने में असफल रहे हैं। जिन्होंने जमाखोरी और कालाबाज़ारी की है। राज्य सरकारों को भी तलब करें। प्रधानमंत्री से इसलिए तमाम आग्रह किए जा रहे हैं, क्योंकि देश ने अपने सर्वोच्च नेता के तौर पर उन्हें दो-दो बार चुना है। हैरत है कि मौजूदा संकट तब है, जब भारत में ऑक्सीजन उत्पादन की कमी नहीं है। हम औसतन 7500 एमटी ऑक्सीजन रोज़ाना पैदा करते हैं, जबकि अभी तक मांग करीब 5000 एमटी की ही रही है। कोरोना के इस दौर में मांग 8-10 फीसदी बढ़ गई होगी। उतना तो भंडारण भी होगा। दरअसल संकट व्यवस्था का है। प्रधानमंत्री ने कई बदलाव किए हैं, लिहाजा अब चिकित्सा व्यवस्था का ढांचा बदलने की बारी है।
2.जवाली अस्पताल की औकात
कलम लिखने से डरती है शिकायत, पढ़ते ही हाकिम का रुआब न बदल जाए। दरअसल हम जिस व्यवस्था के आदी हो गए हैं, वहां शोर है, लेकिन सुनता कोई नहीं। कहते हैं खबरें मजमून चुनती हैं, लेकिन वक्त ने सूचनाओं के भी कान बंद कर दिए। हिमाचल में भी जनता की खबर उस वक्त बेमानी हो जाती है, जब सुनवाई का असर केवल हाशिए बनकर रह जाता है। कोविड काल में स्वास्थ्य विभाग खुद खबरों में है, लेकिन खबरों के लायक नहीं। खबर की आहें, खबर की बाहें अगर स्वास्थ्य विभाग तोड़ दे, तो कौन सा शोर हमारे नजदीक पसर सकता है। किस्सा कांगड़ा के जवाली अस्पताल का है, अस्पताल का दर्जा सिविल हुआ होगा कभी, तभी तो डाक्टरों को सरकारी क्वार्टरों की दरकार रही, लेकिन हिमाचल बड़ी परियोजनाओं का आलंबरदार है, अतः भूल गया होगा कि किस सिविल अस्पताल के डाक्टर को सरकारी क्वार्टर चाहिए। पंजाब से ज्यादा मेडिकल कालेज खोलने वाले हिमाचल के लिए जवाली के सिविल अस्पताल की क्या औकात, इसलिए विभाग भूल गया कि छोटे अस्पतालों में कितनी सुविधाएं दी जाएं। अस्पताल की खामियों का चिट्ठा जब कांगड़ा जिला के मुख्य चिकित्सा अधिकारी के पास पहुंचा तो वह फरमाते हैं, ‘क्वार्टर की मांग सरकार के समक्ष उठाई है।
रेडियोलॉजिस्ट के नियुक्त होने पर अल्ट्रासाउंड शुरू हो जाएंगे। एक्स-रे मशीन खराब है, लेकिन जल्द ठीक कराएंगे।’ यह एक सीएमओ का बयान नहीं प्रदेश के हर उस अधिकारी का नपा तुला वक्तव्य हो सकता है, जिसे सरकार की नीति व नीयत की रक्षा करनी है। आश्चर्य यह कि कोविड काल के चौदह महीने बाद भी हमारे तर्क और इच्छाशक्ति वहीं कहीं मनहूस चमड़ी में कैद है। योजनाएं सरकारी हैं, लेकिन राजनीतिक इरादों पर चलती हैं। इसलिए सरकार चाहे तो हथेली पर तिल उगा दे और न चाहे तो चलती हवाओं को तिलमिला दे। जवाली अस्पताल एक ऐसा उदाहरण हो सकता है, जिसकी नब्ज में पूरा स्वास्थ्य विभाग या तो अपने रौंगटे खड़ा कर सकता है या यह टटोल सकता है कि भीतर किस हद तक बीमार है। हम यह नहीं कह सकते कि विभाग को इतना भी ज्ञान नहीं कि डेढ़-दो लाख आबादी की हिफाजत के लिए खड़े किए गए अस्पताल के अस्तित्व पर गहरे जख्म क्यों हैं, लेकिन यह तो मान ही सकते हैं कि इस दीपक तले अंधेरा है जरूर। ऐसे मामलों में प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्रालय भी होगा और उसका एक मंत्री भी नजर आएगा। अगर सीएमओ साहिब सरकार को बता रहे हैं, तो मंत्री के पास पढ़ने को फाइल और हस्ताक्षर करने को बढि़या सा पेन भी होगा। ऐसा नहीं है कि प्रदेश संसाधनों की कमी का कभी जिक्र करता होगा या जरूरत के लिए ऋण उठाने से कतराता है, फिर एक सिविल अस्पताल की कसौटी में हिमाचल का बजट क्यों फेल हो रहा है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि हिमाचल ने अपनी अधोसंरचना इतनी बढ़ा ली कि अब सिर का बोझ घुटनों तक आ गया या राज्य की मूंछें अपनी दाढ़ी में गुम हो गईं। यह राज्य को ही सोचना है कि उसे मेडिकल कालेजों की पोशाक में देखा जाए या निचले स्तर की चिकित्सा इकाई के रूप में परिष्कृत किया जाए। राजनीति के चबूतरों पर बहुत हो गए चिकित्सा-शिक्षा संस्थान, लेकिन हकीकत में फर्ज की बुनियाद पर गुणवत्ता की लाचारी स्पष्ट है। टांडा मेडिकल कालेज परिसर में महीनों से रो रही सीटी स्कैन मशीन, किस गौरव की दौलत है या हर दिन कोविड से मौत की अर्थियों से पूछा जाए कि प्रदेश में जरूरत से ज्यादा मेडिकल कालेजों में प्रवेश पाने का हश्र यही है। चिकित्सा विभाग या विभाग के मंत्री स्वयं अवलोकन करें कि पिछले दस सालों में भले ही अस्पतालों में बिस्तर बढ़ गए, लेकिन निजी अस्पतालों की संख्या फिर क्यों बढ़ी। क्यों कोविड काल में आम जनता का सामान्य इलाज के लिए हिमाचल के निजी अस्पतालों पर ही भरोसा बढ़ रहा है। किसी सरकारी अस्पताल में सबसे खतरनाक है सूचना का मरना, इसलिए शिकायतों को बेअसर करने से पहले छोटी से छोटी इमारत से पूछ कर देखो कि वह बनाई ही क्यों गई।
3.कमियों के खिलाफ
भारत में प्रतिदिन कोरोना मामले रिकॉर्ड 3,49,691 तक पहुंच गए हैं और इलाजरत मरीजों की संख्या 26 लाख के पार चली गई, लेकिन तब भी हमें पूरी हिम्मत से काम लेना है। कितनी भी कठिनाई आए, हमें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना है। यह एक-एक व्यक्ति के लिए सोचने का समय है कि वह समस्याओं का हिस्सा है या समाधान खोजती-करती सेना में शामिल है। जिस तरह से इलाज के जरूरी संसाधनों का अभाव हुआ है, जिस तरह की बदइंतजामियों को हमने देखा है, उन्हें भुलाना कठिन है। आपदा जब हमारे दरवाजे तोड़ने लगे और तब जिन लोगों की नींद खुले, ऐसे लोगों को यह देश जिम्मेदारी वाले पदों पर नहीं रख सकता। सरकार और गली-मुहल्ले के उन चेहरों को पहचान लेना चाहिए, जिन्होंने आपदा के समय लोगों को छला है। यह महामारी हमारे चरित्र के निंदनीय पहलुओं को सरेराह कर दे रही है। समाज के लापरवाह और निर्दयी चेहरों को देर-सबेर शिकंजे में लेना होगा।
अभाव और दर्द की हर तरफ बिखरी गाथाएं गवाह हैं, निश्चित ही देश में जमकर जमाखोरी और कालाबाजारी हुई है, हमारी सरकारों से आने वाले समय में जरूर पूछा जाएगा कि जब लूट मची थी, तब लुटेरों का हिसाब-किताब कितना किया गया? जमाखोरों के खिलाफ सख्ती की बात प्रधानमंत्री की बैठक में भी उठी थी, लेकिन जमीन पर कितनी सख्ती हुई? हमारी व्यवस्था में आम और खास का फर्क तो हर जगह और हर स्तर पर है, इसमें भी संदेह नहीं कि अनेक ऐसे खास लोग ही लूट या जमाखोरी की स्थिति पैदा करते हैं। जब व्यवस्था के कुछ खास हिस्से जमाखोरी के लिए माहौल तैयार कर रहे हों, तब जमाखोरों के खिलाफ कदम कितनी ईमानदारी से उठेंगे? इतिहास में दर्ज किया जाएगा कि इस देश में जब जरूरत थी, तब लोगों को कई गुना कीमत पर दवाइयां बेची गईं और दोगुनी कीमत पर नारियल पानी जैसा सामान्य पदार्थ। कच्चे नारियल के लिए किसानों को बमुश्किल दस रुपये प्रति नग मिलते हैं, लेकिन यही नारियल सामान्य ठेले वालों ने आठ गुना मूल्य पर बेचे हैं? मतलब कई अस्पतालों, कंपनियों से लेकर ठेलों तक ने यह बता दिया है कि मौके का फायदा उठाना क्या होता है? इसमें सरकार क्या कर सकती थी, यह नीति निर्धारकों को आगे ध्यान में रखना होगा। कमियां दर्ज हो चुकी हैं, लेकिन यह समय आपस में लड़ने-भिड़ने का नहीं है, किसी डॉक्टर को लहूलुहान करने का नहीं है, जैसा कि बक्सर में किया गया। यह समय अफवाह फैलाने या सरकार या किसी नेता को अपशब्द कहने का भी नहीं है, यह समय शुद्ध रूप से रोगियों की सेवा का है। जो बीमार हैं, उनका दिल तो यही गुहार लगा रहा होगा कि अभी लड़ो मत, जल्दी से जल्दी मेरा हर संभव इलाज करो। जो देश अस्पताल में है, उसे सही इलाज मिले और जो देश अस्पताल के बाहर मदद मांग रहा है, उसे हर संभव मदद मिले, मानवीयता यही है। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत देश भर में मई-जून में प्रति व्यक्ति पांच किलो अतिरिक्त अन्न (चावल/गेहूं) मुफ्त दिया जाना है। यह सुनिश्चित करना होगा कि खाद्य और राशन की व्यवस्था मुकम्मल रहे। जहां किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर अनर्गल या लोगों को अवसाद में डालने वाले पोस्ट पर लगाम लगे, वहीं सही आलोचनाओं के प्रकाश में आगे बढ़ चलना होगा।
4.लाचारी की त्रासद तस्वीर
कार्यशैली बदलें केंद्र व राज्य
दिल्ली समेत देश के कई अस्पतालों में ऑक्सीजन संकट से कोरोना संक्रमित मरीजों के मौत की खबरें विचलित करने वाली हैं। इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि लोग जीवन बचाने अस्पताल में जायें और उन्हें मौत मिले। एक तो हमने कोरोना संकट की आसन्न दूसरी लहर का आकलन करके तैयारी नहीं की, दूसरे केंद्र व राज्यों में ऑक्सीजन की आपूर्ति को लेकर टकराव और भेदभाव की खबरें परेशान करने वाली हैं। देश में ऑक्सीजन सिलेंडरों को लेकर मारे-मारे फिरते मरीजों के तीमारदार तथा टैंपों-टैक्सी और एंबुलेंसों में ऑक्सीजन लगाये बैठे हताश मरीज लाचारी की त्रासद तस्वीर दर्शाते हैं। ऑक्सीजन संकट के बीच दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल तथा शुक्रवार की रात दिल्ली स्थित जयपुर गोल्डन अस्पताल में दर्जनों मरीजों की मौत ने देश को स्तब्ध किया। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब से भी ऐसी खबरें सामने आईं। शायद ऑक्सीजन की आपूर्ति में बाधा को देखते हुए ही दिल्ली हाईकोर्ट को सरकारों को फटकार लगानी पड़ी। कोर्ट ने तल्ख शब्दों में कहा कि दिल्ली के लिये बढ़ाये ऑक्सीजन के कोटे की निर्बाध आपूर्ति में यदि कोई बाधा डालेगा तो अधिकारियों को सख्त दंड दिया जायेगा। हालात बड़े परेशान करने वाले हैं, अस्पताल में मरीजों को इसलिये भर्ती नहीं किया जा रहा है कि ऑक्सीजन का संकट बना हुआ।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी कई राज्यों के उच्च न्यायालयों में ऑक्सीजन संकट पर जारी सुनवाई पर स्वत: संज्ञान लेते हुए इसे राष्ट्रीय आपातकाल कहा और ऑक्सीजन आपूर्ति और दवाओं के वितरण की राष्ट्रीय योजना मांगी। जाहिरा बात है कि समय रहते ऑक्सीजन संकट के समाधान की कोशिश नहीं हुई। जनता की बेबसी का फायदा उठाते हुए अगर दवाओं की कालाबाजारी हो रही है और शासन-प्रशासन कुछ नहीं कर पा रहा है तो इसे तंत्र की नाकामी ही माना जायेगा। जब सरकारें दायित्व निभाने में विफल रहती हैं तो अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ता है। बाद में गृह मंत्रालय को राज्यों को निर्देश देने पड़े कि यदि ऑक्सीजन आपूर्ति में राज्यों के बीच आवाजाही में किसी तरह की बाधा उत्पन्न होती है तो इसके लिये डीएम और एसपी जिम्मेदार होंगे। बहरहाल, देश ने ऑक्सीजन का ऐसा भयावह संकट पहले कभी नहीं देखा। अस्पतालों में कोहराम मचा है। बताया जा रहा है कि बीते वर्ष अप्रैल में जब देश में कोरोना के गिने-चुने मामले थे, अधिकारियों के एक एम्पावर्ड समूह की बैठक में देश में मेडिकल ऑक्सीजन की कमी का मुद्दा उठाया गया था। स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों की स्थायी संसदीय समिति ने भी इस आसन्न संकट की ओर ध्यान खींचा था। समिति ने अक्तूबर, 2020 में राज्यसभा सभापति को इस बाबत रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। जाहिर बात है कि हम इस आसन्न संकट को लेकर तैयारी करने में चूके हैं। यह ठीक है कि सामान्य दिनों में मेडिकल ऑक्सीजन की मांग कम होती है, लेकिन संक्रमण संकट को महसूस करते हुए विषम परिस्थितियों के लिये तैयार रहना चाहिए था।