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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.हिदायतों से उपचार
हिदायतें सिर उठाने लगीं, देश की हर करवट में यह जहर सा क्यों है। चारों ओर न चमत्कार और न राजनीति के पास कहने को कुछ बचा। आंकड़ों की बोली और मौत की भाषा में देश फिर उसी आम जनता के कंधों पर जो पिछले एक साल से झुक रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के प्रवेश द्वार फिर वापस लौटते हिमाचल के लिए शर्तों से बंधे हैं। फिर चींटियां दौड़ रही हैं सरकारी फाइल से निकल कर, काटेंगी जरूर। मजबूर करेंगी उसी राह को, जहां से लौटकर आना चाहते हैं वही हिमाचली,जिन्हें प्रदेश रोजगार नहीं दे पाया या उच्च शिक्षा की चाह खींचकर दूर ले गई। आश्चर्य यह कि एक साल की तपस्या के बाद आम जनता के काम फिर हिदायतें ही आएंगी और जीने के लिए फैलते सन्नाटे। दो दिन के बंद बाजारों ने कितने करोड़ डुबोए, इसका हिसाब व्यापारी की जेब नहीं करती, बल्कि जिरह लौट आई उसी छप्पड़ के ऊपर जो पिछले लॉकडाउन में उखड़ चुका है। हिमाचल के लिए रविवार की दहशत बंद बाजार नहीं, बल्कि 32 लोगों की कोरोना के कारण हुई मौत का सामान बन कर आई। यह कैसा गणित जहां केवल मरने वाला ही दोषी। उसकी मौत पर पश्चाताप करने के लिए न कोई अस्पताल, न कोई समाज और न ही सचिवालय। वह मर रहा है, इसलिए आंकड़े दर्ज हैं और हिदायतें बनकर नित नया उपचार कर रही हैं।
काश! ये हिदायतें पिछले तमाम राजनीतिक घटनाक्रम पर अपनी बंद जुबान खोल पातीं या आम नागरिक अब तक यह समझ जाता कि अंततः उसे ही अपना बचाव करना है। उसे ही अपने नजदीक खड़े चुनावों, जलसे-जलूसों से बचना है। उसे अपने घर को अब अस्पताल और जीने के ढंग को उपचार बनाना है। यह इसलिए कि कब सरकारी सिलेंडर की आक्सीजन हड़ताल कर दे या देश के बजट से मिल रहा उपकार घपला कर दे, पता नहीं। पिछली बार का हिमाचल कितनी बार सेनेटाइजर से नहाया था, यह सोचकर विश्वास को हारने मत देना और न ही यह सोचना कि इस बार की गुणवत्ता में कोई अंतर आ जाएगा। पिछले एक साल सरकारी अस्पताल सिर्फ कोविड के खिलाफ खड़े रहे और स्वास्थ्य विभाग के तिनकों ने बहुत को बचा भी लिया। लेकिन आम जनता ने अपने विश्वास की श्रद्धा से न जाने कितने निजी अस्पतालों को मंदिर बना दिया। ऐसा नहीं कि पिछले एक साल में आम जनता को कुछ नहीं मिला। गांव में थे तो नया प्रधान मिला, शहर में थे तो नए पार्षद मिल गए। गर्दन ऊंची की तो नगर निगमों के मेयर व जिला परिषदों के अध्यक्ष दिखाई दिए। इस दौरान न सरकारें प्रयत्नशील दिखाई दीं। बैठकों के दौर चलते रहे और जमीन से हवा तक सक्रियता की गूंज सुनाई दी, लेकिन फिर कहीं पेंच ढीले हो गए। जनता की व्यस्तता भले ही कुछ समय पहले तक अंधी हो गई थी, लेकिन अब व्यवस्था से घर-परिवार तक वही सन्नाटे मुलाकात कर रहे हैं।
विडंबना यह कि दो दिन की बंदिशों के बाद वही मुलाकात करती बाजार की गलबहियां और कठिन सबक से बेखबर जनता अपने उन्माद में। यह दीगर है कि बंदिशों के बीच व्यापार ने अपनी हानि को लाभ की उपज में बो कर आम जनता को प्रताडि़त करना सीख लिया। दो दिन के विश्राम ने बाजार की मुनाफाखोरी इस कद्र बढ़ा दी कि सब्जियां अब ग्राहक के थैले में उबल रही हैं और इसी तरह हर मांग की आपूर्ति ने आम आदमी की जेब कहीं अधिक ढीली करनी शुरू कर दी है। कोविड काल आदतन मुनाफाखोरी का अड्डा न बन जाए, यह सरकार को नहीं समाज को अपने भीतर टटोलना होगा। कोविड काल देश के लिए कडे़ सबक लेकर विश्लेषण कर रहा है, जबकि राष्ट्रीय योगदान के फलक पर नए उदाहरणों के साथ समाज अपने अक्स की बानगी में कहीं-कहीं बेहतर भी हो रहा है। इसी तरह की एक सौहार्दपूर्ण पेशकश करके पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा ने सार्वजनिक जीवन की मानवता के प्रति कृतज्ञता दर्ज की है। अपने आवास को कोविड केयर सेंटर के रूप में इस्तेमाल करने की पेशकश से वह राज्य के प्रति संवेदनशीलता का व्यावहारिक पक्ष ऊंचा करते हैं और इसी तरह हर नागरिक भी अपने तौर पर कोविड काल को संबोधित कर सकता है।
- ‘पीक’ के भयावह अनुमान!
मई मध्य में कोरोना वायरस के सक्रिय मरीजों का ‘पीक’ 40-48 लाख का हो सकता है। यह अवधि 14-18 मई के दौरान की हो सकती है। आगामी 10-12 दिनों में संक्रमित मरीजों का आंकड़ा 4.4 लाख रोज़ाना को छू सकता है। वैज्ञानिक इसे भी ‘चरम काल’ मान रहे हैं। कुछ विशेषज्ञों की गणना है कि जब कोरोना वायरस ‘पीक’ पर होगा, तो भारत में 7-8 लाख संक्रमित मरीज हररोज दर्ज किए जा सकते हैं। ये सभी विशेषज्ञ और वैज्ञानिक अपने-अपने विषयों और क्षेत्रों के प्रख्यात विद्वान माने जाते हैं। ये सभी गैर-सरकारी विशेषज्ञ हैं, लेकिन नीति आयोग के सदस्य डा. वी.के.पॉल की अध्यक्षता में अधिकार प्राप्त अफसरों की एक बैठक हुई, जिसका निष्कर्ष था कि अप्रैल के आखिर तक मरीजों का आंकड़ा 5 लाख तक बढ़ सकता है। इन विशेषज्ञों ने स्वास्थ्य मंत्रालय समेत अन्य संबंधित मंत्रालयों और अधिकारियों को आगाह किया है कि असामान्य कदम उठाए जाएं, ताकि 6 लाख संक्रमित मरीजों तक को ऑक्सीजन और अन्य सुविधाएं मुहैया कराई जा सकें। इस सरकारी आकलन को तो गंभीरता से लिया जाएगा। यदि कोरोना के ‘पीक’ के ऐसे अनुमान सच साबित हुए, तो हमारी व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है।
फिलहाल संक्रमण के आंकड़े 3.55 लाख रोज़ाना को पार कर चुके हैं। मौतें भी 2812 प्रतिदिन तक पहुंच चुकी हैं। मौतों के औसत में करीब 89 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। अकेले महाराष्ट्र में ही 832 मौतें दर्ज की गई हैं। बीते एक सप्ताह के दौरान कोरोना संक्रमण के करीब 22.5 लाख मामले बढ़े हैं। ये महामारी की दुनिया के नए कीर्तिमान हैं। अमरीका भी भारत के बाद है, जहां जनवरी, 2021 के एक सप्ताह के दौरान 17.9 लाख संक्रमित मामले बढ़े थे। संक्रमण की ऐसी स्थिति में ही हमारा स्वास्थ्य ढांचा ढहने के कगार पर है, तो मई के ‘पीक’ में क्या आंकड़े और हालात होंगे? बेशक देश के प्रमुख चिकित्सक टीवी चैनलों पर आकर और अख़बारों में बयान तथा लेखों के जरिए हमारी हिम्मत बंधाने की कोशिश कर रहे हैं। घबराने और दहशत फैलाने की जरूरत नहीं है, यह दिलासा भी दे रहे हैं, लेकिन यह भी अपुष्ट जानकारी मीडिया में आई है कि कोरोना से जुड़े सरकारी विशेषज्ञ समूह ने एक प्रस्तुति के जरिए प्रधानमंत्री मोदी और कुछ मुख्यमंत्रियों को आगाह किया है कि ‘पीक’ बेहद भयानक हो सकता है। उप्र सबसे ज्यादा संक्रमित मामलों के साथ राज्यों की सूची में शीर्ष पर होगा और महाराष्ट्र करीब एक लाख संक्रमित मरीजों के साथ दूसरे स्थान पर हो सकता है। सूची में राजधानी दिल्ली और छत्तीसगढ़ राज्यों के नाम भी बताए गए हैं, जहां 60-65,000 संक्रमित मामले हो सकते हैं। अभी से दुगुनी या तिगुनी संख्या…! भयावह और अनियंत्रित तथ्य यह है कि ऑक्सीजन की आपूर्ति, वेंटिलेटर और आईसीयू बिस्तरों की स्थिति भी नकारात्मक होगी।
यानी जरूरत के मुताबिक भारी कमी होगी। यदि ऐसे हालात पैदा होते हैं, तो जाहिर है कि मौतों की संख्या भी, उसी अनुपात में बढ़ेगी। चेतावनी का घंटा बजने लगा है। भारत में स्वास्थ्य ढांचा इतना व्यापक और मजबूत नहीं है कि इतनी भयावह महामारी को झेल सके। विडंबना यह रही है कि हमारा नेतृत्व दूरदर्शी भी नहीं रहा है, लिहाजा आज़ादी के 73 सालों में स्वास्थ्य पर जीडीपी का मात्र 3 फीसदी हिस्सा भी खर्च करने की पहल नहीं की जा सकी है। ऐसी महामारी की कल्पना भी हमारी सरकारों ने नहीं की और न ही ऐसी आपदा झेलनी पड़ी है। जो स्पेनिश फ्लू 1918 में फैला था और जिसमें करोड़ों लोग मारे गए थे, तब भारत ब्रिटिश उपनिवेश था। यानी हम गुलाम थे। दरअसल जब-जब ऐसे आकलन और शोध सार्वजनिक हुए कि भारत में संक्रमित मामले 1 करोड़ को पार कर सकते हैं और एक दिन में 2 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित होंगे, तो हमारी व्यवस्था ने उन्हें स्वीकार करने में भी असमंजस दिखाए। आज दोनों ही यथार्थ भारत में हैं। संक्रमण के हररोज़ के आंकड़े आपके सामने हैं और भविष्य के अनुमानों का विश्लेषण हम कर रहे हैं। बेशक अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी और दूसरे देशों ने अपनी-अपनी मदद भारत को भेजनी शुरू कर दी है। उसमें ऑक्सीजन के कॉन्संटे्रटर और वेंटिलेटर भी हैं। अन्य मेडिकल उपकरण भी हैं, लेकिन जितनी व्यापक और विशाल आबादी का देश भारत है, उसके मद्देनजर ये मदद ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ ही साबित होगी। बाकी राम जी भला करेंगे।
3. वैश्वीकरण का लाभ
कहते हैं कि यदि आपने जरूरत के वक्त निस्वार्थ भाव से किसी की मदद की है, तो वह एक न एक दिन लौट कर जरूर आती है। कोविड की दूसरी लहर के भयावह आघात से जूझ रहे भारत के लिए सुकून की बात है कि हमारे विदेश मंत्री की एक अपील पर दुनिया भर के देश भारत की मदद के लिए खड़े हो गए हैं। मदद के लिए आगे आने वाले देशों की लंबी कतार में आज हमारे छोटे से पड़ोसी देश भूटान से लेकर चीन, सिंगापुर, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, यूरोपीय कमीशन, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका जैसे देश खड़े हो गए हैं। हमने अमेरिका का नाम अंत में लिया, जबकि वह हमारे सबसे बड़े व्यापार साझीदारों में एक है और हम यह मानते रहे हैं कि अमेरिका हमारा सबसे बड़ा सहयोगी देश है। पिछली सदी के अंतिम दशक से अब तक भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते निरंतर प्रगाढ़तर हुए हैं। दोनों देशों में सरकारें चाहे जिस भी पार्टी की हों, द्विपक्षीय मामलों में उन्होंने लगातार आगे की ओर ही देखा है। वास्तव में यह विश्व के दो सबसे बड़े और परिपक्व लोकतंत्रों की सहज स्वाभाविक मैत्री-यात्रा थी, लेकिन गत जनवरी में अमेरिका में आई नई सरकार ने इस यात्रा में कुछ ब्रेक जैसा लगा दिया।
पिछले वर्ष जब कोविड ने दुनिया के तमाम देशों को झुलसाना शुरू किया और उसकी लपेट में सबसे ज्यादा अमेरिका आया, तब भारत ने सच्चे मित्र धर्म का पालन करते हुए उसे हाइड्रोक्लोरोक्विन जैसी दवा की आपूर्ति की थी। तब के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत का आभार प्रकट किया था और सार्वजनिक रूप से उस दवा की तारीफ की थी। उस दवा का सेवन सिर्फ ट्रंप ने नहीं, अमेरिकी जनता ने भी किया था। इसलिए इस बार भारत को उम्मीद थी कि जब संकट हमारे ऊपर आया है, तो अमेरिका बिना कहे आगे आएगा और मदद करेगा। पहले उसने ‘अमेरिका फस्र्ट’ की नीति पर चलने का तर्क दिया और बाद में हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर की वैश्विक अपील पर भी गोलमोल-सा जवाब ही दिया, लेकिन जब रविवार की रात हमारे सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से वार्ता की, तब अमेरिका की आंखें खुलीं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को कहना पड़ा, ‘जिस तरह महामारी की शुरुआत में भारत ने अमेरिका की मदद की थी, उसी तरह जरूरत की इस घड़ी में हम भारत की मदद करने को लेकर दृढ़-संकल्प हैं।’यह हृदय-परिवर्तन इसलिए हुआ कि भारत की एक अपील पर दुनिया भर के देश हमारी मदद के लिए आगे आ गए और अमेरिका की खिंचाई होने लग गई। वह अलग-थलग पड़ने लगा। यही भारत की ताकत है। 135 करोड़ भारतीयों की ताकत। आज अमेरिका भारत को कोविशील्ड वैक्सीन के उत्पादन हेतु कच्चा माल देने को तत्पर है। अनेक चिकित्सकीय साजो-सामान देने के साथ ही ऑक्सीजन निर्माण में भी सहयोग करेगा। साथ ही, विशेषज्ञों की एक टीम का भी गठन किया जा रहा है, जो जरूरी मदद करेगी। कई देश मदद को आगे आए हैं। यहां तक कि पाकिस्तान में भी भारत की मदद की जोरदार अपीलें हो रही हैं। एक-दो दिन में ही सहायता देश में पहुंच जाएगी और लगता है, तब तक हम स्वयं भी संभल जाएंगे। वैश्वीकरण के इस दौर में हम इसी तरह मिल-जुल कर इन भीमकाय चुनौतियों से दो-चार हो सकते हैं।
जलवायु की फिक्र
संकट के मुकाबले को बनती सहमति
ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी के कहर से जूझ रही है जलवायु परिवर्तन पर दुनिया के बड़े चालीस देशों का सम्मेलन आयोजित होना विषय की गंभीरता को ही दर्शाता है। अमेरिका की पहल पर हाल ही में आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन में अमेरिका, ब्रिटेन, चीन जापान व भारत समेत बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों ने भाग लिया। दरअसल, अब तक पूरी दुनिया में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करने वाले मुल्क बड़ी-बड़ी बातें तो करते थे, लेकिन अमल के मुद्दे पर किनारा कर जाते थे। लेकिन इस मुश्किल वक्त में आयोजित सम्मेलन को देखकर लगा कि वे लगातार गहराते जलवायु परिवर्तन संकट को वाकई दूर करने को तैयार नजर आते हैं। हाल के दिनों में अमेरिका व अन्य देशों के मौसम के व्यवहार में जो अप्रत्याशित परिवर्तन देखा गया, उसे मानवता के लिये खतरे की घंटी के रूप में देखा जा रहा है। वहीं जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर मुद्दे पर अमेरिका का लौटना जो बाइडेन सरकार की प्रतिबद्धता को ही दर्शाता है। अन्यथा पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस जलवायु परिवर्तन पहल से अमेरिकी को अलग कर लिया था। इस सम्मेलन में बाइडेन ने घोषणा की कि चालू दशक में अमेरिका कोयले और पेट्रोलियम पदार्थों का इस्तेमाल लगभग आधा कर देगा। साथ ही उनके अभियान में वर्ष 2030 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा भी शामिल होगी, जिसमें भारत के सहयोग की अहम भूमिका होगी। साथ ही उन्होंने कहा कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने का प्रयास करना होगा। इस पहल को ग्रीन हाउस गैसों को कम करने की दिशा में अमेरिका की गंभीर पहल के रूप में देखा जा रहा है। उत्सर्जन में कमी लाने के मकसद से ही विश्व के बड़े नेताओं को एकजुट करने के लिये ही इस जलवायु शिखर सम्मेलन का आयोजन किया भी गया था। दशक के अंत तक जीवाश्म ईंधन के उपयोग में अमेरिका का 52 फीसदी कमी लाना इस प्रतिबद्धता को जाहिर करता है।
जलवायु सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अपनी विकास की चुनौतियों के बावजूद स्वच्छ ऊर्जा, ऊर्जा प्रभाविता और जैव विविधता को लेकर हमने कई साहसिक कदम उठाये हैं। उन्होंने कहा कि महामारी के बीच सम्मेलन का आयोजन बताता है जलवायु परिवर्तन का संकट एक बड़ी चुनौती है। वहीं सम्मेलन में जापान ने 2030 तक उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य मौजूदा 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 46 प्रतिशत करने का निर्णय किया है। जापानी प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा ने जापान में 2050 तक शून्य कार्बन स्तर का लक्ष्य तय किया है। वहीं चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी सम्मेलन में 2030 तक उत्सर्जन में महत्वपूर्ण कटौती तथा 2060 तक नगण्य कार्बन स्तर की प्रतिबद्धता दोहरायी। दरअसल, भारत समेत सबसे ज्यादा जीवाश्म ईंधन का उपयोग करने वाले देश अमेरिका और अन्य विकसित देशों से कोयला संयंत्रों का विकल्प उपलब्ध कराने के लिये अरबों डॉलर की मदद को पूरा करने के लिये दबाव बनाते रहे हैं। निस्संदेह इन प्रयासों से पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने की उम्मीदें बढ़ी हैं। दरअसल, अमेरिका में सत्ता परिवर्तन पर जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद ही लगने लगा था कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन पर नियंत्रण के दिशा में सार्थक पहल होगी। इसकी वजह यह थी कि राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभालने के तुरंत बाद उन्होंने 20 जनवरी को पेरिस जलवायु समझौते में अमेरिका की वापसी की घोषणा कर दी थी। यह भारत के लिये भी सुखद है कि बाइडेन ने कहा है कि वे भारत के साथ द्विपक्षीय सहयोग के लिये जलवायु साझेदारी को मुख्य आधार बनाना चाहते हैं, जिसका आधार अमेरिका का अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य 450 गीगावाट हासिल करना है। निश्चित रूप से दुनिया को बचाने के लिये इन घोषणाओं को साकार करने की जरूरत है। अन्यथा दुनिया गर्म हवाओं की चपेट आ जायेगी और मनुष्य का जीवन कष्टप्रद हो जायेगा। यही वक्त है दुनिया के विकसित और विकासशील देश एकजुट होकर मानवता का भविष्य सुखद बनाने का प्रयास करें।