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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.कठघरे से न्याय तक कोटखाई
इनसाफ की डगर पर यह फैसला मात्र एक जघन्य अपराध में संलिप्त व्यक्ति को दंड नहीं दे रहा, बल्कि यह भी बता रहा है कि हमारी आपराधिक जांच के दायरे कितने घिनौने हो सकते हैं। कोटखाई प्रकरण की एक घनी परत हटाते हुए सीबीआई की विशेष अदालत ने, गुडि़या बलात्कार एवं हत्या मामले में अंततः नीलू चरानी को दोषी ठहरा दिया। सजा की सुनवाई 11 मई को होगी, लेकिन 2017 से चल रहे इस प्रकरण के तमाम बिंदुओं को अब कहीं जाकर एक विराम लग रहा है, जबकि दूसरी ओर हिमाचल पुलिस की एक आरोपी जमात अभी कठघरे में है। मामले में सीबीआई का प्रवेश जो पटाक्षेप कर पाया, वह शायद हिमाचल पुलिस की जांच से दूर भटकता रहा या मामला अनेक दबावों के बीच फिसल कर कई दाग चस्पां कर गया। मसलन सीबीआई न आती तो पुलिस थ्यूरी में गिरफ्तार हुए चार युवाओं का चरित्र आज कहां टिकता। ऐसे में हालांकि हिमाचल पुलिस की निगरानी में चली जांच के धब्बे अभी साफ नहीं हुए हैं और अब मामले की दूसरी काल कोठरी में सीबीआई को कई अंधेरों को दूर करना है, लेकिन इस निर्णय ने सबूतों की तह से न्याय को जिंदा रखने की ताकत व हुनर दिखाया है।
भले ही सीबीआई कोर्ट के फैसले से गुडि़या परिवार की आंहों और मातम भरे सन्नाटों को तोड़कर न्याय खुद पेश हुआ, लेकिन इसी के परिप्रेक्ष्य में पूरे पुलिस विभाग की आंखें खुल जानी चाहिएं। यह प्रकरण एक तरह से जनता बनाम पुलिस और पुलिस बनाम जांच का भी रहा है, जहां अंततः हिमाचल की कानून-व्यवस्था बुरी तरह हारी थी। सारी लीपापोती और जांच के मकड़जाल में पुलिस की ही एसआई टीम आरोपी बन गई तथा आज भी एक बड़ा इंतजार मामले के दूसरे बिंदुओं को लेकर है। पुलिस द्वारा बनाए गए आरोपी न केवल छूट गए, बल्कि जबरिया गवाहियों के सिलसिले में, हिरासत में एक अन्य आरोपी सूरज की मौत का ठीकरा भी फूटा। इस अध्याय के और कितने दोषी हैं या सूरज की मौत से उठे प्रश्नों पर न्याय प्रणाली कितने सबक देगी, यह अभी देखना बाकी है। गुडि़या बलात्कार एवं हत्या मामले ने प्रदेश की सत्ता को पलटने में देरी नहीं लगाई और यह भी कि जनाक्रोश ने पुलिस के खिलाफ लामबंद होकर थाने तक को आग के सुपुर्द कर दिया था। यह दीगर है कि उक्त प्रकरण के बाद भी प्रदेश में अपराध के ऐसे किस्से खत्म नहीं हुए और यह भी नहीं कि पुलिस महकमे ने खुद को बदल दिया है। आज पुलिस जांच के खिलाफ जनता के बीच अविश्वास की तरंगें पैदा होती हैं, तो इस पर गौर करना होगा। पुलिस बल की मानसिकता में बदलाव लाने के कई उपाय व उपकरण जोड़े जा रहे हैं, जबकि वैज्ञानिक जांच को आगे बढ़ाने के इंतजाम में फोरेंसिंक प्रयोगशालाओं का योगदान भी बढ़ा है, फिर भी हमारी कानून-व्यवस्था के लिहाज से अभी आम नागरिक के सामने अनुकरणीय उदाहरण पेश नहीं हो रहे हैं। बहरहाल सीबीआई की जांच से निकले निष्कर्षों पर आया यह फैसला दस्तावेजी है और इसके सबक पुलिस के गलियारों को आइंदा सचेत करेंगे।
विभागीय तौर पर पुलिस महकमे के सामने बढ़ती चुनौतियां अपराध की कई नई शाखाएं जोड़ रही हैं और इसलिए प्रशिक्षण से तकनीकी ज्ञान तक सशक्तिकरण की आवश्यकता है। अदालती फैसले ने समाज, सरकार और पूरी कानूनी प्रक्रिया के सामने एक साथ कई प्रश्न भी चस्पां किए हैं। सरकारी तौर पर पुलिस महकमे को मौलिकता के साथ स्वतंत्र व पारदर्शी ढंग से काम करने की छूट जहां जरूरी है, वहीं सामाजिक तौर पर बदलती आर्थिकी के बीच नए दौर की मर्यादा को चिन्हित करना पड़ेगा। जागरूक हिमाचल के राजनीतिक संबोधन कितने भी ताकतवर हो जाएं, सामाजिक ढांचे को अपनी चेतना व सतर्कता को जिंदा रखना होगा। फैसले से निकली राहत का पीडि़ता के परिजनों को यह एहसास जरूर होगा कि न्याय अंततः बहुत कुछ कह गया। प्रदेश अपने एक दाग के सबूत व फैसले के ताबूत में अपराध को देख सकता है, लेकिन कानून-व्यवस्था के भ्रमित अध्यायों को अभी पुलिस के मंतव्य पर ऐसे निर्णय की उम्मीद है, जो बता सके कि जब एक गुडि़या दरिंदगी की शिकार हुई तो उसकी जांच क्यों दोषी हो गई।
2.पानी से सस्ता टीका कहां?
कोवैक्सीन टीका बनाने वाली कंपनी भारत बायोटैक के चेयरमैन डा. कृष्णा इल्ला ने कहा था कि कोरोना वायरस का टीका पानी से भी सस्ता होगा। पानी की बोतल की कीमत के पांचवें हिस्से से भी कम टीके की कीमत होगी। औसतन पानी की बोतल 20 रुपए की है, लिहाजा टीका मात्र 4 रुपए का होना चाहिए। डा. इल्ला ने भारतीय जन-मानस के साथ या तो मज़ाक किया था अथवा अपने टीके की मार्केटिंग की थी। कंपनी ने राज्य सरकारों के लिए 600 रुपए और निजी अस्पतालों के लिए 1200 रुपए प्रति खुराक के दाम तय किए हैं। प्रधानमंत्री मोदी के आग्रह के बावजूद भारत बायोटैक ने टीके की कीमत कम नहीं की थी। यह संपादकीय लिखने तक की स्थिति थी। हालांकि कोविशील्ड का उत्पादन करने वाले सीरम इंस्टीट्यूट ने बुधवार को ही 100 रुपए प्रति खुराक कम कर दिए थे। अब उसकी एक खुराक राज्य सरकारों को 300 रुपए में उपलब्ध होगी। अलबत्ता दोनों ही कंपनियां भारत सरकार को 150 रुपए प्रति खुराक के हिसाब से टीका मुहैया करा रही हैं। भारत सरकार ड्रग्स एंड पेटेंट एक्ट के तहत किसी भी औषधि और इंजेक्शन की कीमत निर्धारित कर सकती है।
टीकों की अलग-अलग कीमतों का सवाल सर्वोच्च न्यायालय ने भी उठाया है कि भारत सरकार और राज्य सरकारों के बीच यह विरोधाभास और फर्क क्यों है? भारत सरकार को इसका तार्किक जवाब दाखिल करना होगा। दरअसल बुनियादी मुद्दा कोवैक्सीन से जुड़ा है, जिसे हमने पूरी तरह ‘भारतीय टीका’ घोषित किया था। भारत बायोटैक के साथ-साथ केंद्र सरकार के आईसीएमआर का नाम भी जुड़ा है। यानी दोनों के सहयोग से यह टीका विकसित किया गया है। कंपनी के चेयरमैन का दावा है कि टीके की निर्माण-प्रक्रिया में भारत सरकार से आर्थिक मदद नहीं मिली, जबकि केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी चौबे ने खुलासा किया है कि टीका बनाने में भारत सरकार ने भी फंडिंग की थी। कंपनी ने कहा है कि टीके के तमाम मानवीय परीक्षणों, शोध और विकास पर 350 करोड़ रुपए खर्च किए गए। अब कंपनी का स्पष्टीकरण है कि भविष्य में अन्य टीकों के शोध और विकास पर खर्च करने के मद्देनजर कोवैक्सीन की कीमत तय की गई है। यह तर्क हास्यास्पद है। कहां मात्र 4 रुपए में खुराक देने का आश्वासन और कहां राज्य सरकारों को भी 600 रुपए में एक खुराक मुहैया कराने की कीमत तय की गई है! निजी अस्पतालों में आम आदमी को यह टीका कितनी कीमत पर मिलेगा, फिलहाल निश्चित नहीं है। विदेशों में कोरोना टीके औसतन 300 रुपए से कम कीमत पर लगाए जा रहे हैं। कमोबेश भारत बायोटैक ने स्वीकार किया है कि टीके के निर्माण में आईसीएमआर के महानिदेशक डा. बलराम भार्गव, दिल्ली एम्स के निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया और एनआईवी के निदेशक की खास भूमिका रही है।
यानी कंपनी भारत सरकार के संस्थानों के सहयोग को कबूल कर रही है। क्या यह महत्त्वपूर्ण नहीं है? आखिर कोवैक्सीन में ऐसे कौन से सुर्खाब के पर लगे हैं कि वह विदेशों की तुलना में भी महंगा बेचा जा रहा है? ऐसे हालात तब हैं, जब भारतीयों के लिए टीका कंपनियों का एकाधिकार है। उनका उत्पादन भी सीमित है, लिहाजा 139 करोड़ की आबादी वाले देश में टीकाकरण का अभियान कब तक जारी रखना पड़ेगा? जाहिर है कि तब तक कोरोना संक्रमण का विस्तार भी होता रहेगा। यह कई प्रमुख चिकित्सकों ने भी कहा है कि कमोबेश 15-20 मई तक टीकाकरण नहीं किया जाना चाहिए। टीका लगवाने वाली भीड़ जमा होगी। उसमें किसी को भी कोरोना हो सकता है और उससे संक्रमण का फैलाव हो सकता है। विडंबना यह है कि फिलहाल सभी केंद्रों पर टीके भी उपलब्ध नहीं हैं, लिहाजा कई राज्यों ने 15 मई के बाद 18-44 आयु वर्ग वालों को टीकाकरण की घोषणा की है। अभी तो 45 पार और बुजुर्गों के लिए दूसरी खुराक देने को भी टीके उपलब्ध नहीं हैं। अभी भारत में 15 करोड़ से कुछ ज्यादा लोगों में टीकाकरण किया जा सका है, जिनमें 6.84 फीसदी ही ऐसे हैं, जिन्हें दोनों खुराक दी गई हैं। बेशक एक मई से शुरू होने वाले टीकाकरण के तीसरे चरण में रूस का टीका स्पूतनिक-वी भी उपलब्ध होगा, लेकिन भारत में उसका उत्पादन जुलाई तक ही संभव होगा। जॉनसन एंड जॉनसन सरीखे एक खुराक वाले टीकों पर भी विशेषज्ञों को विचार करना चाहिए। कमोबेश एकाधिकार टूटना बहुत जरूरी है।
- रणनीतिक पेशकश
भारत और चीन के रिश्ते इतने पेचीदा हैं कि उनमें कोई भी एक सीधी लकीर खींचना मुश्किल है। इस वक्त भारत कोविड की लहर की वजह से कठिन परिस्थिति से गुजर रहा है और दुनिया का ध्यान भारत की ओर है। तमाम देश भारत की मदद करना चाहते हैं, लेकिन विदेशी मदद भले ही वह गंभीर संकट के दौर में क्यों न हो, उसके साथ कई नाजुक कूटनीतिक पेच जुड़े होते हैं। यह बात चीन के सिलसिले में कुछ ज्यादा ही सही है। इस परिप्रेक्ष्य में ही इस खबर को देखा जाना चाहिए कि चीन ने भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के साथ कोविड संकट से निपटने के लिए साझा रणनीति बनाने के उद्देश्य से एक बैठक की। चीन ने भारत को भी इस साझेदारी में शामिल होने का न्योता दिया, जिसे भारत ने ठुकरा दिया। भारत का यह कदम इसलिए स्वाभाविक है कि इस साझेदारी में शामिल होने से भारत का कोई हित सधने वाला नहीं है। जाहिर है, यह बैठक भले ही साझेदारी के नाम पर है, लेकिन इसमें दूसरे देशों की मदद करने की हैसियत में सिर्फ चीन है, यानी वास्तव में यह साझेदारी चीनी मदद इन देशों को देने के तौर-तरीके या शर्तें तय करने के लिए है।
यह भी गौरतलब है कि ये सभी देश सार्क के सदस्य हैं और भारत कोविड केमामले में पहले ही सार्क देशों की साझेदारी की पहल कर चुका है। लेकिन इस वक्त भारत खुद गंभीर संकट में फंसा है, इसलिए दूसरों की खास मदद करने की स्थिति में नहीं है। खासकर कोविड के टीकों के लिए ये सारे देश भारत पर निर्भर थे। ऐसे में, चीन इन देशों की मदद के लिए आगे आया है और उसने अपने यहां से टीके देने की पेशकश की है। यानी एक तरह से यह साझेदारी भारत की जगह चीन को मददगार की तरह स्थापित करने के लिए है। जाहिर है, ऐसी साझेदारी में भारत क्यों कर शामिल होगा। इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि भारत ने आपदा में चीन से कई जरूरी सामान आयात करने के लिए मंजूरी दे दी है। यह समझदारी की बात है। हालांकि, यह मानना चाहिए कि दोनों देशों के बीच यह लेन-देन सीमित ही रहेगा। चीन यह चाहता है कि इस आपदा में मदद के रास्ते व्यावसायिक रिश्तों को सीमा विवाद से अलग कर दिया जाए। भारत का नजरिया यही होना चाहिए कि सीमा पर स्थिति असामान्य रहेगी, तो अन्य रिश्ते भी पूरी तरह सामान्य नहीं हो सकते। चीन लगातार यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि भारत का सच्चा मित्र वही है, हालांकि, भारत का यह मानना है कि चीन से मदद नहीं ली जा रही, बल्कि निजी क्षेत्र को जरूरी सामान की आपूर्ति के लिए मंजूरी दी गई है। वैसे भी यह असाधारण संकट है और सोलह साल बाद पहली बार भारत में विदेशों से मदद ली जा रही है। सुनामी के समय भारत को तात्कालिक रूप से मदद की जरूरत पड़ गई थी। कोविड का अभी जो विस्फोट हुआ है, उसने भारत के स्वास्थ्य तंत्र की सीमाएं और कमजोरियां दिखा दी हैं। ऐसे में, हमें ऑक्सीजन, चिकित्सा उपकरण और दवाएं विदेश से मंगवानी पड़ रही हैं। यह तूफान गुजर जाने के बाद यह जरूरी है कि हम अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करें, ताकि हमें आइंदा ऐसी परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़े। तब तक हम पर अपनी फौरी जरूरतों और दीर्घकालीन हितों के बीच संतुलन बनाने की जिम्मेदारी है।
- अंधेरे में उजास की आस
वैक्सीन के भरोसे जूझने का दमखम
जब बृहस्पतिवार को पूरे देश में पौने चार लाख नये संक्रमितों के मामले सामने आए और साढ़े तीन हजार से अधिक लोगों की मौत हुई, देश में कोरोना संकट की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। तंत्र की संवेदनहीनता देखिये कि इस भयानक होते संकट के बीच पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव जारी था । डरे-सहमे चुनाव कर्मियों के हुजूम के चुनाव सामग्री एकत्र करने के चित्र अखबारों में प्रकाशित हुए। इसी बीच टीकाकरण के तीसरे चरण के लिये ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन में भारी उत्साह बताता है कि देश का जनमानस इस संकट में वैक्सीन को ही अंतिम सुरक्षा उपाय के रूप में देख रहा है। पहले ही दिन सवा करोड़ से अधिक नामांकन होना इसी बात का संकेत है। हालांकि देश में पहले दो चरणों में पंद्रह करोड़ लोगों द्वारा वैक्सीन करवाया जा चुका है लेकिन देश की आबादी के अनुपात में यह काफी नहीं है। यहां सवाल यह भी है कि 18 साल से अधिक उम्र के लोगों को टीका लगाने के लिये क्या वैक्सीन उपलब्ध है? क्या देश की दो वैक्सीन कंपनियां समय से पहले इतने टीके उपलब्ध करा पायेंगी? धीरे-धीरे देश में यह धारणा बलवती होने लगी है कि फिलहाल टीकाकरण ही कोरोना का अंतिम सुरक्षा कवच है। लेकिन तेजी से फैलते संक्रमण के बीच टीकाकरण केंद्रों का सुरक्षित होना भी एक चुनौती है। इस दौरान टीका लगाने की गति में कमी आई है। वहीं महाराष्ट्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ ने कह दिया है कि टीकों की उपलब्धता न होने से वे एक मई से 18 साल से अधिक की उम्र के लोगों को टीका देने में समर्थ नहीं हैं। राजस्थान ने इस वर्ग के लिये सवा तीन करोड़ खुराक की बुकिंग कराई है, लेकिन सीरम इंस्टीट्यूट का कहना है कि वह मई मध्य तक ही ये टीके उपलब्ध करा पायेगा। लॉकडाउन से गुजर रहे महाराष्ट्र ने भी बारह करोड़ खुराक की मांग की है।
सरकार ने पिछले दिनों विदेशी टीकों के लिये भी दरवाजे खोले हैं, लेकिन इससे भी मौजूदा जरूरतें पूरी नहीं होती। जाहिर है ऐसे में देश की दोनों वैक्सीन निर्माता कंपनियों को युद्धस्तर पर टीकों का उत्पादन करना होगा। यह अच्छी बात है कि सीरम इंस्टीट्यूट के टीके के लिये जरूरी कच्चे माल की आपूर्ति पर अमेरिका ने रोक हटा दी है। ऐसे में जरूरी है कि संकट की स्थिति को देखते हुए देश में उपलब्ध टीका निर्माण क्षमता का उपयोग करके अन्य कंपनियों से भी सहयोग किया जाना चाहिए। साथ ही जो अन्य टीके अंतिम चरण में हैं, उन्हें स्वीकृति की जटिल प्रक्रिया से राहत देने का प्रयास करना चाहिए। यह इसीलिये भी जरूरी है कि कुछ राज्यों ने तीसरे चरण के टीकाकरण को टीकों की आपूर्ति में कमी और अनुपलब्धता के चलते टालने का मन बनाया है। इस बीच एक अच्छी खबर यह है कि अमेरिका के शीर्ष संक्रामक रोग विशेषज्ञ डॉ. फाउची ने कहा है कि भारत में बनी कोवैक्सीन भारत में कहर बरपा रहे नये वेरिएंट बी.1.617 के खिलाफ असरदार है। उन्होंने कहा कि भारत में जिन लोगों ने यह वैक्सीन ली है, उनके विश्लेषण में पाया गया है कि कोवैक्सीन ज्यादा असरदार है। इस मुहिम के बावजूद एक दुखद पहलू यह है कि देश में राजनीतिक नेतृत्व इस संकट की घड़ी में एकजुट नहीं है और क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिये निर्लज्ज राजनीति का प्रदर्शन कर रहा है जो राजनेताओं की संवेदनहीनता को ही उजागर करता है। यह एक हकीकत है कि देश का स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा चरमरा चुका है। जो बताता है कि संकट की भयावहता को राजनीतिक नेतृत्व ने गंभीरता से नहीं लिया और उनकी प्राथमिकता चुनावों तक ही सीमित रही है। ऐसे वक्त में जब दुनिया के तमाम मुल्क भारत में कोविड संक्रमितों की मदद के लिये आगे आ रहे हैं, भारतीय राजनीति के क्षत्रप राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में लगे हैं। पंजाब में आसन्न चुनाव के लिये सत्तारूढ़ दल के दिग्गजों के बीच टकराव की खबरें हाल ही मीडिया में सुर्खियां बनती रहीं जबकि संकट की घड़ी में उनकी प्राथमिकता महामारी के पीड़ितों के जख्मों पर मरहम लगाने की होनी चाहिए।