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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.अग्नि सुरक्षा चक्र
यहां आग हवाओं की तरह, घर को तन से दूर कर देती है। जलते पहाड़ के जख्म किस राख में ढूंढोगे। कोटखाई तहसील के फनैल गांव की बाहों में आग के शोलों ने बर्बादी का आलम यूं लिखा कि सात मकानों के जलते बदन के भीतर कोई जिंदा लाश भी बन गई। नुकसान की भरपाई में, हिमाचल सदा ऐसी राख के भीतर टटोलता है सबूत या अनुमान के चिथड़ों में संपत्तियों का हिसाब किताब। आग यहां टहलते हुए आती है और चीखती हुई चली जाती है। अग्निशमन के जोखिम से भी कसौटियों में फंसा एक विभाग हर बार चिन्हित होता है, मगर राज्य की तासीर में आग से खेलते हाथों में सरकारों ने किस्मत की लकीरें नहीं देखीं। माना हिमाचल में आग एक ऐसी त्रासदी है, जो परंपराओं, पारंपरिक वास्तुकला, जीवनशैली या पर्यावरणीय संरक्षण की कीमत की तरह दर्ज होती है। हम आग को एक खोए हुए मुहावरे की तरह पुनः तब याद करते हैं, जब फिर कहीं मशाल बनकर जलती हैं इमारतें या लपटों के भीतर जंगल अपने आगोश में बस्तियों को स्वाह कर देते हैं। शोध और तकनीकी ज्ञान की दृष्टि से हिमाचल में आग के जोखिम पर जो आंकड़े बनते हैं, उनसे सुरक्षा की नीतियां व अग्निशमन की रणनीतियां बनकर भी बुझ जाती हैं। यह इसलिए कि अग्निशमन विभाग आजतक सरकारों के तदर्थवाद को ढो रहा है। कहने को शिमला में ब्रिटिश काल यानी 1897 से ही फायर स्टेशन बन चुका था, लेकिन आजाद भारत के 74 साल गुजारने के बाद पूरे विभाग की किस्मत पर कुंडली मार कर बैठी सरकारी उदासीनता, न जाने कितनी बार उन फायरमैन के सीने में चिंगारी जलाती है, जो वर्षों की सेवा के बाद भी खुद को बाकी कर्मचारियों के सामने बौना आंकते हैं। डा. वाईएस परमार के मुख्यमंत्रित्व काल यानी 1972 में फायर सर्विस की विधिवत रूप से स्थापना हुई, लेकिन आज भी इस विभाग की संरचना कई तरह से भिन्न दिखाई देती है। खासतौर पर आग से खेलते और चौबीस घंटे की मुस्तैदी में तैनात यह विभाग न तो पुलिस के बराबर आंका गया और न ही वेतन भत्ते पंजाब पैटर्न पर मिले।
अपनी स्थापना के पचास साल पूरे कर रहे अग्निशमन विभाग की आंतरिक और बाह्य संरचना बदलने की आवश्यकता है। यह ढांचा गत सुविधाओं, आधुनिक उपकरणों तथा विभागीय प्रशिक्षण के अलावा वित्तीय प्रोत्साहन से ही संभव होगा। हिमाचल में आग की चुनौतियां एक बड़े परिप्रेक्ष्य में आ रही हैं। शहरी व आधुनिक जीवनशैली के प्रसार के अलावा व्यापारिक तथा औद्योगिक गतिविधियों के कारण अग्निशमन का सुरक्षा चक्र और मजबूत करना होगा। विभागीय तौर पर कुछ विस्तार तो हुआ, लेकिन आवश्यक उपकरणों, सक्षम वाहनों, वांछित कर्मचारी संख्या व कुशल नेतृत्व की कमी होने लगी है। इसलिए इसी माह अग्निशमन सप्ताह मनाने की प्रासंगिकता में अगर देखा जाए, तो कहीं कोटखाई के अग्निकांड में हम विभाग की कर्मठता देख सकते हैं। हिमाचल में जंगल की आग में उठते प्रश्नों को कब तक सेंकते रहेंगे या विकासशील हिमाचल को नए सोच से आग से बचने की व्यवस्था करनी होगी। बढ़ती आवासीय सुविधाएं और विद्युत उपकरणों का प्रयोग यह ताकीद करता है कि भविष्य के शहर अपने इर्द-गिर्द अग्नि सुरक्षा चक्र का इंतजाम बढ़ाएं। ऐसे में या तो महानगर श्रेणी में आ रहे नगर निगम क्षेत्रों को स्वतंत्र रूप से अग्निशमन सेवाएं स्थापित करनी होंगी या विभाग के वर्तमान ढांचे को नई व्यवस्था के तहत संचालित करना होगा।
2.डॉक्टर, नर्स कौन देगा?
जब आप यह संपादकीय पढ़ेंगे, तब एक शोधात्मक निष्कर्ष आपके सामने साकार होगा। कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या 4 लाख को पार कर चुकी होगी अथवा उसके बेहद करीब होगी। हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि कोरोना की सुनामी इतनी प्रलयंकारी साबित होगी और 24 घंटे में लाखों लोग बीमार होंगे। यहां से तो प्रलय का आगाज़ होता है, क्योंकि शोधात्मक आकलन सरकार को दिए गए हैं कि एक दिन में 6-7 लाख लोग भी संक्रमित हो सकते हैं। हमारी राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता की पोल नहीं खुली है, बल्कि वह बौनी साबित हो रही है। बीते साल के लॉकडाउन में हमने 30-35 हजार वेंटिलेटर क्या बना लिए थे कि हमने आत्मनिर्भरता का मुग़ालता पाल लिया। अब अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, फ्रांस, आयरलैंड, रोमानिया और मध्य-पूर्व के देश भारत को वेंटिलेटर और मेडिकल उपकरण आदि की आपूर्ति कर रहे हैं। ऑक्सीजन जेनरेटर प्लांट, सिलेंडर और कंसंटे्रटर भी भेजे जा रहे हैं। करीब 40 देश हमारी मदद को आगे आए हैं। क्या वाकई भारत दान कबूल कर रहा है? यह सवाल स्वाभाविक है क्योंकि दिसंबर, 2004 में मनमोहन सरकार ने एक प्रस्ताव पारित किया था कि भारत किसी भी देश से ‘दान’ स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि उसमें आत्मनिर्भर बनने की शक्ति और प्रतिभा है। केंद्र सरकार के सूत्रों का भी दावा है कि विदेशों से जो मदद आ रही है, वह भारत सरकार खरीद रही है। वे चीजें दान में नहीं आ रही हैं।
बहरहाल यह मुद्दा ऐसा है, जिसकी पुष्टि होनी चाहिए और फिलहाल हमारा विषय यह नहीं है। देशों के अतिरिक्त बहुराष्ट्रीय कंपनियों में गूगल, माइक्रोसॉफ्ट आदि के प्रबंधनों ने आर्थिक मदद की भी घोषणा की है। चीन सरीखा ‘दुश्मन देश’ भी 800 वेंटिलेटर भेज रहा है। घोर महामारी के दौर में भी भारत अकेला नहीं है, यह साबित हो चुका है। भारत सरीखे व्यापक बाज़ार को कोई भी देश नजरअंदाज नहीं कर सकता। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ ने भी बड़ी घोषणाएं की हैं। इतनी व्यापक, वैश्विक सहायता के बावजूद एक बेहद महत्त्वपूर्ण अभाव सालता रहा है कि यदि विश्लेषणों के मुताबिक संक्रमण के आंकड़े 7-8 लाख रोज़ाना तक पहुंच गए, तो अस्पतालों और कोविड केयर केंद्रों में इतने डॉक्टर, नर्सें और पेरामेडिकल स्टाफ कहां से आएगा? ये संसाधन और टीके तो कोई भी देश भेजने को तैयार नहीं है। उनकी अपनी विवशताएं हैं, क्योंकि कोरोना उन देशों में भी गहरे डंक मार चुका है। डॉक्टरों और नर्सों का कोई विकल्प भी नहीं है। अभी प्रख्यात चिकित्सकों के एक सार्वजनिक संवाद के जरिए एक और भयावह आकलन सामने आया है कि अब कुछ ही दिनों के अंतराल में अस्पतालों के आईसीयू में कोरोना मरीजों की अप्रत्याशित मौत के सिलसिले शुरू होने वाले हैं। आईसीयू में मरीज अपेक्षाकृत सुरक्षित महसूस करता है, क्योंकि वह चिकित्सा की सबसे सघन व्यवस्था है। त्रासदियों के ऐसे दौर में मरीजों के पास न तो डॉक्टर होगा और न ही नर्स या कोई अन्य स्टाफ होगा।
गौरतलब है कि आईसीयू में नर्स ही मरीज की सबसे ज्यादा देखभाल करती है और हमारे पास डॉक्टरों के साथ-साथ नर्सों की भी किल्लत है। प्रख्यात डा. देवी प्रसाद के मुताबिक, फिलहाल हमें 80,000 आईसीयू बिस्तरों की रोज़ाना जरूरत है। भारत में करीब 75,000 से लेकर 90,000 ऐसे बिस्तर माने जाते हैं, जो सभी भरे पड़े हैं। यानी उन पर कोविड या अन्य मरीज हैं। भयानक संभावनाओं के मद्देनजर कमोबेश 5 लाख आईसीयू बिस्तरों की जरूरत पड़ेगी। कोविड मरीज को बिस्तर ही स्वस्थ नहीं करते, बल्कि डॉक्टर और नर्सें बेहद अनिवार्य हैं। हालांकि डा. प्रसाद ने आकलन दिया है कि संभावित स्थितियों का आकलन करते हुए कमोबेश 2 लाख नर्सों और 1.5 लाख डॉक्टरों की नियुक्ति करना अपरिहार्य है। इतना बड़ा कार्य-बल एकदम कहां से मिलेगा? इसके सुझाव भी प्रख्यात चिकित्सकों ने दिए हैं। उनका बुनियादी तर्क है कि आईसीयू में पीपीई किट पहन कर कोई युवा ही सेवाएं दे सकता है, लिहाजा उन नौजवानों को भर्ती किया जा सकता है, जिन्होंने डॉक्टरी और नर्सिंग की बुनियादी शिक्षा और टे्रनिंग प्राप्त कर ली हो। उन्हें कोविड आईसीयू में एक साल की नौकरी करने का अनुबंध दिया जाए और बाद में उनकी डिग्री और डिप्लोमा उन्हें प्रदान कर दिया जाए। जिन युवाओं ने विदेश की यूनिवर्सिटी से डॉक्टरी की है और अभी पीजी की परीक्षा पास नहीं की है, सरकार ऐसे युवाओं को भी नियुक्त कर सकती है, क्योंकि पांच साल के अध्ययन के दौरान ऐसे छात्रों ने बुनियादी टे्रनिंग तो हासिल कर ली है। ये प्रयास कितने सफल होंगे, यह सरकार की कोशिशों के बाद ही स्पष्ट होगा।
- परिपक्व रुख की जरूरत
सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को चेताया है कि वे नागरिकों को अपनी तकलीफें सार्वजनिक करने के लिए प्रताड़ित न करें। सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने ऐसी खबरों का खुद ही संज्ञान लिया है, जिनके मुताबिक राज्य सरकारें उन लोगों या संस्थानों को सजा देने की बात कर रही हैं, जो इलाज न मिलने या ऑक्सीजन की कमी होने की बात सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने खुद भी सवाल उठाया है कि मरीजों या उनके परिजनों को दवाओं के लिए यहां-वहां क्यों भटकना पड़ रहा है? दरअसल, कोविड-19 में इस्तेमाल होने वाली कुछ दवाएं आयात होती हैं और अचानक उनकी जरूरत बढ़ जाने पर आयात बढ़ाने व वितरण सुनिश्चित करने जैसे कदम उठाने में देर हो गई। यह सही है कि मीडिया या सोशल मीडिया पर कभी कुछ सनसनीखेज या भ्रामक बातें आ जाती हैं, लेकिन ऐसी बातों को रोकने के लिए अगर गैर-जरूरी सख्ती दिखाई जाती है, तो इससे नुकसान ज्यादा होता है। इससे एक तो लोग अपनी वास्तविक तकलीफ भी बताने से डर सकते हैं और इस बात की आशंका भी बढ़ जाती है कि प्रशासन में बैठे लोग ऐसे आदेशों का दुरुपयोग अपनी कमजोरी छिपाने के लिए कर सकते हैं। मीडिया या सोशल मीडिया पर संवाद के जरिए सूचना व सहायता का जो स्वत:स्फूर्त तंत्र विकसित हुआ है, वह कई तरह से लोगों की मदद कर रहा है और एक मायने में प्रशासन का हाथ भी बंटा रहा है। इसलिए उसे हतोत्साहित करना ठीक नहीं है। दुनिया तेजी से बदल रही है, लेकिन प्रशासन के कई तौर-तरीके पुराने हैं। मसलन, यह पुरानी सोच है कि कोई आपदा आए, तो सूचना को नियंत्रित करने के बारे में सोचा जाए, जैसे सौ साल पहले युद्ध या महामारी के दौर में तुरंत सेंसरशिप लगा दी जाती थी। पहले महायुद्ध के आखिरी दौर में सेंसरशिप की वजह से ही स्पेनिश फ्लू की खबरें प्रचारित नहीं हो पाईं और वह फैलती चली गई। बाद में भी सूचनाओं की कमी की वजह से उसके बारे में जानकारी जुटाना मुश्किल बना रहा और इसीलिए उसे ‘भूला दी गई महामारी’ की संज्ञा मिली। उस दौर में तो सूचना के साधन कम थे, इसलिए उन्हें नियंत्रित करना आसान था, लेकिन सूचना क्रांति के बाद यह काम व्यावहारिक रूप से भी बहुत कठिन है। वैसे भी, आधुनिक इतिहास से यही समझ आता है कि ऐसे नियंत्रण से नुकसान ज्यादा होता है, क्योंकि पाबंदी होती है, तो बेसिर-पैर की अफवाहों का खतरा बढ़ जाता है, जो ज्यादा घातक हो सकती हैं। खास तौर पर महामारी जैसी आपदा के दौर में पारदर्शिता और जनता को विश्वास में लेना सबसे अच्छी नीति है। इस आपदा से सरकार और जनता को मिलकर निपटना है, और अगर दोनों में विश्वास का रिश्ता होगा, तो यह सहयोग ज्यादा पुख्ता होगा। यह सही है कि लोग बहुत तकलीफ में हैं और उनकी तकलीफ सरकारों के प्रति गुस्से के रूप में फूट रही है। लेकिन परिपक्व प्रशासकों को इसे बर्दाश्त करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि लोग सरकार से नाराज हैं, लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि उनका सरकार या व्यवस्था से भरोसा उठ चुका है। यदि सरकारें अपनी गलतियों या सीमाओं को स्वीकार करती हैं और जनता के गुस्से को स्वाभाविक मानकर बर्दाश्त करती हैं, तो इससे स्थिति सुधारने में सहयोग मिलेगा। जो हमारा साझा संकट है, उससे इसी तरह पार पाया जा सकता है।
4. आपदा से फायदा
मानवीय संवेदनाओं के छीजने की टीस
जिस कोरोना संकट को लेकर देश बेफिक्र हो गया था, उसने ज्यादा ताकत से पलटवार करके सारी व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया है। पहले से लचर चिकित्सा व्यवस्था चरमरा कर रह गई है। अस्पतालों में बेड, दवाइयां और वेंटिलेटर नहीं हैं। एक तो नई महामारी का कोई कारगर इलाज नहीं है, दूसरा इस बीमारी में काम आने वाली तमाम जरूरी दवाइयां बाजार से गायब हो गई हैं। देश के लाखों लोग कातर निगाहों से शासन-प्रशासन की ओर देख रहे हैं कि कोई तो राह निकले। सरकार का व्यवस्था पर नियंत्रण कमजोर होता दिख रहा है। हमारे पास न तो पर्याप्त मेडिकल ऑक्सीजन की उपलब्धता है और न ही उपलब्ध ऑक्सीजन को अस्पतालों तक पहुंचाने की कारगर व्यवस्था। इस महामारी में किसी हद तक शुरुआती दौर के उपचार में कारगर बताये जा रहे रेमडेसिविर इंजेक्शन के नाम पर भारी कालाबाजारी की जा रही है। जीवन के संकट से जूझ रहे मरीजों से इनके मुंहमांगे दाम वसूले जा रहे हैं। मरीजों से पचास हजार से लेकर एक लाख तक की कीमत वसूले जाने की शिकायतें मिल रही हैं। देश में दवाइयों और इंजेक्शनों के तमाम जमाखोर सक्रिय हो गये हैं। इस जमाखोरी पर रोक लगाने की कोशिशें सफल होती नजर नहीं आ रही हैं। संकट में पड़े अपनों का जीवन बचाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। इसी आतुरता का फायदा उठाने के लिये आपदा में अवसर ढूंढ़ने वाले मनमाने दाम वसूल रहे हैं। हद तो तब हो गई जब कई जगह जीवनरक्षक इंजेक्शनों की जगह नकली इंजेक्शन तैयार करने की खबरें आ रही हैं। इस मामले में कुछ गिरफ्तारियां भी हुई हैं। कालाबाजारी के इस गोरखधंधों में कुछ दवा निर्माताओं और डॉक्टरों तक की गिरफ्तारी हुई हैं। लेकिन इस कालाबाजारी पर पूरी तरह रोक लगाने की कोशिशें सफल होती नजर नहीं आती। ऐसा नहीं हो सकता कि ऐसी कालाबाजारी पर नियंत्रण करने वाले विभागों व पुलिस को इंसानियत के ऐसे दुश्मनों की कारगुजारियों की भनक न हो। मगर, समय रहते ठोस कार्रवाई होती नजर नहीं आती।
विडंबना देखिये कि दिल्ली में ऑक्सीजन सिलेंडर खरीदने गये एक मरीज को कुछ लोगों ने अग्निशमन में काम आने वाले सिलेंडर बेच दिए। महिला की शिकायत के बाद दो युवकों की गिरफ्तारी हुई। कुछ इंसान चंद रुपयों के लालच में किस हद तक गिर जाते हैं कि संकट में फंसे लोगों के जीवन से खिलवाड़ पर उतारू हो जाते हैं। जाहिर-सी बात है कि महामारी का जो विकराल रूप हमारे सामने है, उसमें ऑक्सीजन और दवाओं की किल्लत स्वाभाविक है। यह पहली बार है कि मरीजों को जीवनदायिनी मेडिकल ऑक्सीजन की जरूरत इतनी बड़ी मात्रा पर हुई हो। दरअसल, मांग व आपूर्ति के संतुलन से चीजों की उपलब्धता होती है। बताया जा रहा है कि रेमडेसिविर इंजेक्शन की मांग सितंबर के बाद जनवरी तक न के बराबर हो गई थी, इसलिए कंपनियों ने इसका उत्पादन बंद कर दिया था। अब अचानक महामारी के फैलने के बाद मांग बढ़ने से इसकी पूर्ति नहीं हो पा रही है, जिससे इसकी कालाबाजारी लगातार बढ़ती जा रही है। हालांकि, सरकार ने इसके इंजेक्शन का उत्पादन तेज करने के निर्देश दिये हैं, लेकिन आपूर्ति बढ़ने में कुछ वक्त लग जाता है। दरअसल, एक वजह यह भी कि कोरोना ने गांव-देहात की तरफ जब से पैर पसारने शुरू किये, लोकल डॉक्टर स्थिति समझे बिना ही यह इंजेक्शन मरीजों को लाने के लिये कह रहे हैं, जिससे इसकी मांग अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई है। अब विदेशों से भी यह इंजेक्शन देश में पहुंचने वाला है, शायद उससे भी इसकी ब्लैक मार्केंटिंग पर अंकुश लग सकेगा। बहरहाल, भारत में तेजी से महामारी का दायरा बढ़ता जा रहा है, दवाओं व ऑक्सीजन की कालाबाजारी अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। निस्संदेह यह संकट जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है। ऐसे में सरकारों को दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखकर रणनीति बनानी होगी। कालाबाजारी करने वाले तत्वों पर सख्ती की भी जरूरत है। साथ ही संकट को देखते हुए तमाम चिकित्सा संसाधन जुटाने की जरूरत है।