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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.अपनी मिठास खोजता शहद
कभी डिब्बों से उछलता था शहद, अब कटोरी में रह गई मिठास पर रोता है। शहद से भीगे हाथ कभी हिमाचल के किसान-बागबान की अतिरिक्त आय के प्रतीक थे, लेकिन अब सिकुड़ कर सोलह सौ मौन पालकों का कुनबा ही रह गया। मधुमक्खियों की कालोनियां कम हो गई और कृषि विश्वविद्यालय का मौन अध्ययन एवं शोध केंद्र भी कहीं अपनी मिठास को बरकरार नहीं रख पाया। सारे देश से करीब 633.82 करोड़ शहद का निर्यात 19-20 में हुआ था, जबकि हिमाचल केवल पांच करोड़ की आय में सिमट गया। देश में सबसे आगे सहारनपुर ने 6000 टन शहद उत्पादन करते हुए नए सिक्के बटोरे हैं,जबकि उत्तराखंड 200 करोड़ के शहद का निर्यात करने में सफल हो रहा है। वहां सरकार इस खजाने को ढाई सौ करोड़ करने का इरादा रखती है और इसे वैज्ञानिकों का भरपूर समर्थन मिल रहा।
गोविंद बल्लभपंत कृषि विश्वविद्यालय ने डंक रहित मधुमक्खी पालने व उनसे शहद पैदा करवाने की तकनीक पैदा करके पालकों में नया जोश भरा है, जबकि नगरोटा बगवां में स्थित हिमाचल का अध्ययन केंद्र अपने दायित्व से दूर होता दिखाई दे रहा है। मुख्यमंत्री मधु विकास योजना के तहत अवश्य ही शहद उत्पादन को नए नजरिए से देखा जा रहा है और कुछ युवा सरकारी अनुदान से मौन पालन की ओर आकर्षित हुए हैं। सरकार प्रति मधुमक्खी कालोनी के हिसाब से 1600 रुपए देती है और कोई भी पालक 50 कालोनियां इस अनुदान राशि के तहत पाल सकता है। हिमाचल सरकार का दावा है कि 1981-82 में शहद मक्खियों की कुल 4200 कालोनियां की तुलना में अब करीब 80,000 कालोनियां पाली जा रही हैं। देशभर में फिलवक्त शहद की मक्खियों की 27 लाख कालोनियां हैं और जिनसे 88.9 मीट्रिक टन शहद का वार्षिक उत्पादन हो रहा है, जो हमारी राष्ट्रीय जरूरतों के हिसाब से बहुत कम है। विश्वभर के शहद उत्पादक देशों में भारत पांचवें स्थान पर पहुंच गया है और कोविड काल ने पुन: वेद व आयुर्वेद में वर्णित मधु के गुणों के कारण अब बढ़ती मांग ने पुन: बाजार का समर्थन जोरदार ढंग से पैदा किया है। ओडिशा, पूर्वोत्तर राज्यों, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर व झारखंड जैसे राज्य अपनी विशेष योजनाओं के तहत आगे बढ़ रहे हैं, जबकि हिमाचल ने न केवल परंपरागत या जंगल से पैदा हो रही खेप को गंवाया है, बल्कि अतीत में हुए मौन पालन के कुशल अनुभव को भी गंवाया है। यह दीगर है कि आज भी कुछ प्रगतिशील किसान अपनी पेटियों के साथ पंजाब, हरियाणा या उत्तर प्रदेश तक भ्रमण करते हुए सरसों के खेतों की परागण प्रक्रिया में सहयोग करते हैं, जबकि बदले में शहद उत्पादन को प्राकृतिक पर्यावरण उपलब्ध रहता है।
प्रदेश खुद में बागबानी का तमगा धारण किए हुए है, तो मौन पालन से फलों व कृषि फसलों की परागण प्रक्रिया को क्यों नहीं जोड़ पा रहा, जबकि अमरूद, लीची, कॉफी, आम इत्यादि फलों के साथ-साथ कद्दू वर्गीय सब्जियों के उत्पादन में मधुमक्खियों का योगदान बढ़ाया जा सकता है। विडंबना यह भी है कि हिमाचल के कुल क्षेत्रफल 55673 वर्ग किलोमीटर में 37000 वर्ग किलोमीटर पर वनों का कब्जा इस काबिल भी नहीं कि परंपरागत शहद उत्पादन की खूबियों का संरक्षण कर सके। पहले सामुदायिक गतिविधियों में जंगल से शहद का शिकार भी एक तरह से सामाजिक भाईचारे का कलात्मक पक्ष और वनाधिकारों को रेखांकित करता सौहार्द था। जंगल में शहद की खोज वनस्पति को महसूस करने का वार्षिक यज्ञ और योगदान था, जो आज गर्मियों में हलाल होते चीड़ के ठूंठ से मुनासिब नहीं। जंगल की चमड़ी में वन विभाग ने ऐसी सामाजिक तौहीन भर दी, जो हमारी गुणात्मक शक्तियों को भी क्षीण कर रही है। जंगल अपने भीतर कभी गरीब को खाने-पीने का सामान चुनने को आमंत्रित करता था, तो आज अपने भीतर प्रचंड आग पैदा करके जड़ी-बूटियों की प्रजातियां खत्म कर रहा है और इसी बीच जंगल में बसी शहद की मक्खियों को अब न वे झाडिय़ां और न ही पेड़ मिलते हैं, जिनकी छांव में बूंद-बूंद शहद का अमृत टपकता था। वन न केवल परंपराओं के दुश्मन बन गए, बल्कि मानव जाति के साथ सदियों से पशु-पक्षियों, वन्य प्राणियों या मधुमक्खियों आदि से चल रहे रिश्तों के बीच दीवार भी बन गए हैं।
- लोकतंत्र की जगह अदालत-तंत्र!
आज हम नि:शब्द हैं, लेकिन निष्क्रिय और निष्प्राण नहीं हैं। टीवी चैनलों पर फटी आंखों से देख रहे हैं। आंसुओं में भीगे शब्दों को भी सुन रहे हैं। हमारी आंखें भी भीगी हैं, लेकिन रुलाई नहीं फूट पा रही है। अभी यकीन पर लगाम लगी है। नियति पर भी भरोसा करना मुश्किल हो रहा है। उसके न्याय भी सवालिया लग रहे हैं। कोरोना वायरस की महामारी तो वीभत्स है। पूरी दुनिया झेल रही है। मौतें भी लाखों में गिनी जा रही हैं। अनौपचारिक डाटा कई गुना अधिक हो सकता है। वैश्विक महामारी के खिलाफ लड़ाई लडऩी है, लेकिन मानवीय संवेदनाएं सूखने लगें, किसी नवजात शिशु की मौत भी अफसरी आत्मा को झकझोर न पाए, सडक़ पर सरेआम उखड़ती सांसें भी व्यवस्था को कंपा न सकें, तो यह नियति कैसी है? किन कर्मों का फल भोगना पड़ रहा है? नि:शब्द इसलिए भी हैं, क्योंकि लोकतंत्र और सरकारों का जनाजा देखना पड़ रहा है। अदालत हररोज़ सरकारों पर तल्ख और असहनीय टिप्पणियां कर रही हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने तो केंद्र सरकार को अवमानना की कार्रवाई की धमकी दे दी है। फिलहाल ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ पर सर्वोच्च अदालत के फैसले और निर्देश की प्रतीक्षा है। लिहाजा सवाल किए जा रहे हैं कि क्या अब देश की बागडोर और व्यवस्था अदालत-तंत्र को सौंप देनी चाहिए? लोकतंत्र और उसके जरिए पदासीन सरकारों का तो इकबाल ही समाप्त हो रहा है। ‘सरकार’ गालीनुमा शब्द महसूस किया जा रहा है। बेशक सरकारें गिनवा सकती हैं कि उन्होंने जनता को मुफ्त में क्या-क्या सेवाएं दीं और सुविधाएं मुहैया कराईं। ऐसे दावे करना भी गलत और अनैतिक है, क्योंकि जनता ने किसी भी मनोभाव में बहकर इस जमात को ‘सिंहासन’ सौंपे हैं। लोकतंत्र में वे ‘जनसेवक’ कहे जा सकते हैं, लेकिन वास्तव में वे ‘संवेदनहीन शासक’ हैं। उनकी रूह नहीं कांपती, जब देश की राजधानी दिल्ली के बड़े अस्पतालों में ही, ऑक्सीजन की कमी के कारण, कोरोना के गंभीर मरीज दम तोड़ देते हैं। शुक्रवार को दिल्ली के बतरा अस्पताल में जो 12 मरीज मारे गए, उनमें से कई आईसीयू में थे। उनमें गैस से जुड़ी बीमारियों के विशेषज्ञ डॉक्टर भी थे। दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक…माथा पीटने को मन कर रहा है! डॉक्टर क्या ऐसे ही पैदा किए जा सकते हैं? मरने वाले डॉक्टर ने अपने पेशेवर कालखंड के दौरान न जाने कितनी जिंदगियां बचाई होंगी! है कोई स्पष्टीकरण सरकार के पास..? तो ऐसी आहत स्थितियों में किन शब्दों को जुबां दें, समझ नहीं आ रहा! ऐसे सरकारी अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ हत्या की धाराओं में मुकदमे दायर किए जाने चाहिए। शायद वह पहल भी अदालतें ही करेंगी! सरकारें इसलिए संवेदनहीन हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री तो कभी भी फोन नहीं उठाया करते, लिहाजा एक हेल्पलाइन जारी कर दी जाती है। उन नंबरों पर सरकारी दफ्तरों के जो कर्मचारी बिठाए जाते हैं, वे 99 फीसदी तो फोन नहीं उठाते। यदि फोन उठाएंगे, तो टका-सा जवाब देंगे। ऐसे जवाब किसी भी त्रासदी को टाल नहीं सकते।
उधर सरकारों के सूत्रधार राजनीतिक टोपियां बदलने में मशगूल रहते हैं। केंद्र और राज्य सरकारों में आरोप-प्रत्यारोप के दौर जारी रहते हैं। त्रासदियां घटती रहती हैं, उन्हें क्या फर्क पड़ता है? जब चुनाव का मौसम आएगा, तो वोटर भी खरीद लिए जाएंगे और मुफ्त बंटाई के मुद्दे भी तैयार कर लिए जाएंगे, लिहाजा सात दशकों की हमारी आज़ादी में स्वास्थ्य कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन सका। यह हम जनता का भी अपराध है, लिहाजा बराबर की दोषी है। बहरहाल राजधानी के अस्पतालों में ऑक्सीजन के लिए हाथ जोड़ कर, गुहार करनी पड़ रही है कि प्राण-वायु 15 मिनट की रह गई है, 30-40 मिनट की ऑक्सीजन बची है, मरीज खतरे में हैं, लेकिन ऑक्सीजन का संकट बरकरार रहता है। यह स्थिति देश की राजधानी में है, तो दूरदराज के गांवों और कस्बों के हालात ज्यादा खराब होंगे! अभी उनके आंकड़े तो सार्वजनिक नहीं हुए हैं, उनमें वक्त लगता है, लेकिन दुनिया में सबसे ज्यादा ऑक्सीजन पैदा करने वाले देश की यह आम विसंगति है, तो क्या-क्या बोलें? ज्यादा बोलने लगेंगे, तो तोहमत लगेगी कि महामारी के वक्त में भी सरकार के साथ नहीं हैं। बहरहाल अब अदालत या जनता ही तय करें कि कैसी व्यवस्था चाहिए? तब तक जो मरता है, वह राम-भरोसे और ओम् शांति की दुआओं के साथ…।
3.कोरोना के समय नतीजे
भारत में चुनाव किसी विराट उत्सव की तरह होते हैं, लेकिन यह दौर कोविड की भयावह लहर का है। इसी वजह से पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण होते हुए भी कोई उत्सव का माहौल नहीं है। संकट और शोक के ऐसे समय में उत्सव की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जब चुनावों का माहौल शुरू हुआ था, तब बड़ा जोर-शोर दिख रहा था, लेकिन देखते-देखते कोरोना का ऐसा प्रकोप हुआ कि पश्चिम बंगाल में अंतिम दो दौर में चुनाव प्रचार बहुत नियंत्रित और संयमित करने पर मजबूर होना पड़ा। इन चुनावों के नतीजों का विश्लेषण करने पर यह दिखता है कि भारत की राजनीति का विकेंद्रित स्वरूप अब भी बहुत गहरा है। जब भी केंद्र में कोई बहुत मजबूत नेता होता है, तो ऐसा लगता है कि राजनीति केंद्र में सिमट रही है, लेकिन वास्तव में भारतीय राजनीति का बहुलतावाचक और विकेंद्रित स्वभाव बना रहता है। पिछले दोनों आम चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के इर्दगिर्द सिमटे रहे, लेकिन विधानसभा चुनावों में बार-बार स्थानीय मुद्दे, पहचान और नेता महत्वपूर्ण बने रहे। यह राजनीति के लिए शुभ इसलिए है, क्योंकि यह राजनीति को एकाधिकारवादी होने से रोकता है और अगर केंद्र या कुछ क्षेत्र कमजोर होते हैं, तो बाकी राज्य देश को थामे रहते हैं। इन चुनावों में सबसे ज्यादा ध्यान पश्चिम बंगाल पर था, जहां भाजपा ने अपनी सारी ताकत ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को उखाड़ने में लगा दी थी। नतीजे बताते हैं कि ममता बनर्जी अपना किला संभालने में कामयाब रहीं। दरअसल सबकुछ के बावजूद भाजपा के पास स्थानीय कार्यकर्ताओं और ढांचे की कमी थी। इसी तरह बंगाल की राजनीति के एक तत्व यानी आक्रामकता के स्तर पर तो भाजपा मुकाबला कर पाई, लेकिन दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण तत्व, सांस्कृतिक पहचान के स्तर पर पिछड़ गई।
असम में भाजपा का जीतना काफी प्रत्याशित था, क्योंकि उसके पास संगठन भी है, स्थानीय मजबूत नेता भी हैं। असम की राजनीति में आज सबसे ताकतवर नेता पांच साल पहले कांग्रेस से भाजपा में गए हिमंत बिस्वा सरमा हैं और भाजपा की जीत का ज्यादातर श्रेय उन्हीं को जाता है। लेकिन अब हिमंत मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावेदारी ठोकेंगे और उनकी दावेदारी को ठुकराना मुश्किल होगा। पिछले साल कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता तरुण गोगोई की मृत्यु के बाद कांग्रेस दिशाहीन लग रही थी, लेकिन आखिर कांग्रेस ने अच्छी टक्कर दी है। तमिलनाडु में भी यह लग रहा था कि द्रमुक के पक्ष में इकतरफा बाजी है, लेकिन अन्नाद्रमुक का प्रदर्शन काफी बेहतर रहा है। ई पलानीस्वामी कोई चमकदार नेता नहीं हैं, लेकिन उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री अपने कामकाज से अच्छा प्रभाव जमाया। अगर वे थोड़े दमदार दिखाई भी देते, तो शायद और भी बेहतर होता। केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन बहुत पहले से मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, लेकिन आखिरकार पांच साल पहले पहली बार मुख्यमंत्री बने। उन्होंने दूसरी बार वाम मोर्चा को तगड़ी जीत दिलाकर केरल में हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन का चक्र तोड़ा। विजयन अच्छे राजनेता के साथ कुशल प्रशासक भी साबित हुए और चाहे भीषण बाढ़ से निपटना हो या कोविड से, केरल मॉडल सारे देश के लिए उदाहरण साबित हुआ।
4. बंगाल में हुआ खेला
चुनाव परिणामों के गहरे निहितार्थ
पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित विधानसभा चुनावों में भाजपा द्वारा अपने तमाम संसाधन झोंकने के बाद ‘दो सौ पार’ के नारे को ममता बनर्जी ने लपक लिया। उन्होंने ‘खेला होबा’ यानी खेल होगा का नारा सच में कर दिखाया है। ‘आशोल परिवर्तन’ के नारे को राज्य के मतदाताओं को समझाने में सफल रही। देश के चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में आये परिणाम हाल के चुनाव सर्वेक्षणों के अनुरूप ही रहे। तमिलनाडु में डीएमके की वापसी की उम्मीद थी। केरल में एलडीएफ का पलड़ा पहले ही भारी था। असम में भाजपा की जीत दोहराने की बात सामने आ रही थी, कमोबेश भाजपा को उम्मीद से ज्यादा ही मिला। पुड्डुचेरी में भाजपा का चुनावी गणित सिरे चढ़ा है। लेकिन विधानसभा चुनावों मे हॉट स्पाट बने पश्चिम बंगाल ने शेष राज्यों के चुनाव परिणामों को पार्श्व में डाल दिया। निस्संदेह पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम भाजपा की महत्वाकांक्षाओं को झटका है। कह सकते हैं कि वर्ष 2016 में तीन सीट जीतने वाली भाजपा का सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरना उसकी उपलब्धि है। भले ही भाजपा पश्चिम बंगाल के किले को हासिल न कर पाई हो, मगर हाल के चुनाव में हर राज्य में उसका कद बढ़ा ही है। वैसे भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने चुनाव अभियान में बंगाल के स्थानीय नेताओं को तरजीह न देकर बड़ी चूक की है। पार्टी राज्य की जमीनी हकीकत समझने में विफल रही।
दरअसल, पश्चिम बंगाल चुनाव में भाजपा भले ही अपने लक्षित वर्ग का ध्रुवीकरण न कर पायी, लेकिन वहीं ममता की रणनीति ने अल्पसंख्यक मतों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण कर दिया। साथ ही भाजपा के ध्रुवीकरण की कोशिशों में सेंध लगा दी। जहां भाजपा का शीर्ष नेतृत्व टीएमसी सुप्रीमो पर हमलावार रहा, वहीं ममता बनर्जी राज्य में निर्णायक महिला मतदाताओं को समझा गयी कि एक महिला मुख्यमंत्री को निशाना बनाया जा रहा है। चोट लगने की सहानुभूति को वोटों में तब्दील करने में भी सफल रही। जहां भाजपा के नेता हवाई जहाज-हेलीकॉप्टरों से चुनावी रैलियों में पहुंच रहे थे, वहीं पूरा चुनाव ममता बनर्जी ने व्हीलचेयर के जरिये करके सहानुभूति बटोरी। सही मायनों में ममता भाजपा के हिंदुत्व के खिलाफ बंगाली उपराष्ट्रवाद भुनाने में कामयाब हुई। हिंदीभाषी भाजपा नेताओं को लगातार वह बाहरी बताती रही। वहीं दूसरी ओर केरल में भी मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने हर पांच साल में बदलाव की परंपरा को किनारा करके फिर सत्ता की चाबी हासिल कर ली। कोरोना संकट में उन्होंने बहुत योजनाबद्ध ढंग से काम किया। जनता को जो विश्वास दिलाया, उसको हकीकत में बदला। कोरोना संक्रमण की जांच, उपचार, राहत और मेडिकल ऑक्सीजन के मुद्दे पर वे अव्वल रहे। वही तमिलनाडु में पहली बार बड़े कद्दावर राजनेताओं की अनुपस्थिति में लड़े गये चुनाव में स्टालिन को करुणानिधि की विरासत का लाभ मिला। एआईएडीएमके में वर्चस्व की लड़ाई मतदाताओं में विश्वास जगाने में विफल रही। असम में भाजपा की प्रभावी जीत में जहां पार्टी संगठन और रणनीति का योगदान मिला, वहीं स्थानीय मजबूत छत्रपों ने उसमें बड़ी भूमिका निभायी।