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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.मेडिकल चरित्र की विकरालता
यहां आंखों देखी कहानी फरेब कर रही या सच का कफन पहने मर गए लोग। आंकड़ों के घोड़े को दफन करने वाले, कोरोना की लहरों से कब तक छुपे बैठेंगे। कर्म और कर्मठता के तमाम पैबंदों के नीचे मानवता के सामने डूबते चरित्र की विकराल परिस्थिति अब हिमाचल में भी देखने को मिल रही। कचरे की गाड़ी में नौबत लाश को ढोने की आ जाए, तो कहां-कहां मरघट बनाएंगे। मेडिकल कालेज के सामने रिश्तेदारों की गोद में कोविड केयर की तस्वीर तड़प जाए, तो किस पर भरोसा करेंगे। स्वयं मुख्यमंत्री गवाह हैं कि किस तरह नाहन मेडिकल कालेज के फर्श पर एक महिला कोविड मरीज ही नहीं तड़प रही थी, बल्कि सारे इंतजाम आंखों के सामने ढह रहे थे। कमोबेश हर बड़े अस्पताल या कोविड अस्पतालों से निकल कर वायरल होती वीडियो का हवाला लें, तो हिमाचल अपनी असमर्थता के सबूतों में उलझ गया है। अस्पतालों के भीतर व्यवस्था की चीखें अचानक नहीं बढ़ीं, बल्कि पिछले एक साल में विभागीय कंद्राओं में सारी जवाबदेही गुम है।
यह इसलिए क्यों न माना जाए कि हिमाचल का स्वास्थ्य मंत्री सिर्फ सरकार का एक पद है, मानवीय संवेदना नहीं। हम कोविड नियंत्रण की समीक्षाओं में सूचना तो बन सकते हैं, लेकिन मेडिकल कालेजों के तमगे आखिर कहां चले गए। क्या आईजीएमसी, टीएमसी, नाहन, नरेचौक, हमीरपुर या चंबा मेडिकल कालेजों की शोहरत में नाचने वाले किसी प्रिंसीपल के पास इतना भी ज्ञान नहीं कि जनता के सामने संस्थान के इंतजाम की समीक्षा कर सके। यह किस प्रिंसीपल से पूछा जाए कि मेडिकल कालेज में इलाज की सामान्य प्रक्रिया कैसी कैद या विवशता है। आश्चर्य यह कि स्वास्थ्य का पूरा महकमा अपनी वरिष्ठता को बचाने में मशगूल है। तथाकथित विशेषज्ञ या वरिष्ठता में ऊंची पायदान तक पहुंचे डाक्टर या तो कोविड के खिलाफ अभियान से नदारद हैं या वे केवल ‘मुंह दिखाई’ के लिए हाजिर हैं। सोशल मीडिया में फैल रही वीडियो के दस प्रतिशत आरोप भी सही हों, तो पूरा विभाग इन लांछनों से नहीं बच सकता और यह गलत कैसे मान लें कि मुख्यमंत्री के सामने अब तो कोविड मरीज पहुंचने लगे। बेशक यह दौर कठिन है और आपसी भरोसे का है, लेकिन स्वास्थ्य विभाग का कोई जवाबदेह चेहरा तो सामने आए। क्या केवल स्वास्थ्य सचिव के बयान या शब्दों की झाड़फूंक से सब सही होगा या विभाग के निदेशक कुछ बताने का अधिकार रखते हैं। क्यों नहीं हमें इस दौर में स्वास्थ्य मंत्री महोदय नजर आ रहे या सरकार की पाजेब पहनकर वहीं कहीं अपने लिए ही कोई नृत्य कर रहे। पिछले साल के मुकाबले असफलता के साथ-साथ बढ़ती अफरातफरी को नरेचौक मेडिकल कालेज में लाशों का हिसाब इस तरह गड़बड़ा जाता है कि एक जीवित संक्रमित व्यक्ति ही मृत घोषित हो जाता है।
आज तक मेडिकल कालेजों पर श्रेय लूटती राजनीति से यह क्यों न पूछा जाए कि ऐसे चिकित्सा संस्थान खोलकर क्या हासिल किया। अगर भावना जिंदा नहीं, तो भवनों के भीतर डाक्टरों के इंतजाम को कहां तक ढोएंगे। कोविड महामारी अब हमारे द्वारा पैदा की गई लाचारी बनती जा रही है। मौत के आंकड़ों में हम कोविड के सामने निहत्थे साबित नहीं हो सकते, लेकिन जो कर सकते हैं उससे भी कहीं महरूम होकर संक्रमित लोगों के लिए यह दौर अनिश्चय से क्यों भर रहा है। हम यह नहीं भूल सकते कि पूर्व मुख्यमंत्री व केंद्रीय मंत्री रहे शांता कुमार ने टांडा मेडिकल कालेज पर भरोसा करके अपनी पत्नी गंवाई और अंततः उनका उपचार चंडीगढ़ में हुआ। छह बार मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह भी कोविड इलाज में अपने लिए विश्वसनीय राह चंडीगढ़ की ओर ही पकड़ कर सुरक्षित हुए। कोविड काल ने धीरे-धीरे हमें राम भरोसे छोड़ दिया। यह इसलिए भी क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि कोविड प्रोटोकोल में जो मरे या जिनकी शिनाख्त हुई उनमें से 68 फीसदी अन्य बीमारियों से भी ग्रस्त थे। इस दौरान सामान्य चिकित्सा की अवहेलना ने रोगियों को जिंदगी के प्रति कमजोर किया और इस सबके बीच हारते सरकारी संस्थानों ने निजी क्षेत्र की जरूरतें बढ़ा दी हैं। कांगड़ा जिला की बात करें तो सरकार को बचाव के लिए आठ निजी अस्पतालों की सेवाएं लेनी पड़ रही हैं। यह समय की मांग को देखते हुए तो सही कदम होगा, लेकिन जिस प्रदेश में सीएचसी, पीएचसी, क्षेत्रीय, जोनल अस्पतालों के साथ-साथ छह सरकारी व एक निजी मेडिकल कालेज, एम्स तथा पीजीआई का उपग्रह केंद्र हो, वहां विभाग की खोखली तस्वीर का जनाजा कौन उठाएगा। हम पीड़ा सहकर भी लज्जित हों या अस्पताल में श्मशान सा खौफ देखें, तो तमाम वायरल वीडियो का संज्ञान लेते हुए सरकार को कार्रवाई करनी चाहिए।
- ‘दीदी’ ही आईं
दो मई आई और चली भी गई, लेकिन पश्चिम बंगाल में ‘दीदी’ की सत्ता ही बरकरार रही। लगातार तीसरी बार ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस को जनादेश हासिल हुआ-प्रचंड और ऐतिहासिक! 2016 में 211 सीटों का जनादेश था, लेकिन अब 2021 में उसे भी पार करते हुए 213 सीटों तक पहुंच गया, जबकि 200 सीटों का दावा करते हुए सत्ता का स्वप्न संजोने वाली भाजपा के हिस्से 77 सीटें ही आईं। प्रमुख विपक्ष होने और वामदलों तथा कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने का संतोष जरूर कर सकती है भाजपा! जनादेश पूरी तरह ‘बंगाली’ ही रहा, क्योंकि हर कोने, हर इलाके से ‘दीदी’ को वोट हासिल हुए। बंगाल की पहली पसंद ममता ही रहीं और भद्रलोक, सांस्कृतिक चेतना वाले बंगाल ने फिलहाल भाजपा को स्वीकार नहीं किया। जनादेश से साफ हो गया कि भाजपा की आक्रामक और अक्षौहिणी चुनावी सेना की तुलना में अकेली ‘दीदी’ का करिश्मा और जन-समर्थन ही बेमिसाल था। प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह समेत मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के आरोप खोखले साबित हुए। ‘जय श्रीराम’ ने भी बेड़ा पार नहीं किया, लिहाजा सांप्रदायिक धु्रवीकरण अपेक्षित मात्रा में नहीं किया जा सका।
जनता ने ‘तोलाबाजी’, ‘कटमनी’ और ‘भ्रष्ट भाईपो’ सरीखे गंभीर आरोपों को भी नकार दिया। ‘दीदी’ के जिस व्यंग्यात्मक संबोधन से प्रधानमंत्री को मुग़ालता हुआ होगा कि ममता को चुनाव में परास्त किया जा सकता है, बंगाली जनता ने उस संबोधन को नया रूप दिया-‘दीदी गई नहीं, दीदी ही आईं।’ स्पष्ट हो गया कि अपार धनबल, जनबल, शक्ति-प्रदर्शन और डींगें हांकने से भाजपा कमोबेश विधानसभा के चुनाव नहीं जीत सकती। प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर और उनके संबोधनों के बावजूद भाजपा ने एक दर्जन से अधिक विधानसभा चुनाव हारे हैं। भाजपा विमर्श और आत्ममंथन जरूर करेगी, लेकिन प्रधानमंत्री को भी आत्मचिंतन करना चाहिए। स्वीकारोक्ति प्रधानमंत्री पद को लेकर जरूर है, लेकिन राज्यों में भिन्न नेतृत्व होना चाहिए, ताकि देश का संघीय ढांचा और चरित्र कायम रह सके। बहरहाल ममता बनर्जी ने लगातार 10 साल की सत्ता के बाद भी साबित किया है कि उनके खिलाफ कोई चुनावी लहर नहीं थी। भाजपा के कद्दावर नेताओं ने ‘परिवर्तन’ का सपना संजोया था। सपने कभी-कभार ही साकार होते हैं। इतने बड़े जनादेश के बावजूद एक विधानसभा सीट-नंदीग्राम-का जनादेश बिल्कुल उलट रहा और ‘दीदी’ उस सीट से चुनाव हार गईं। हमें अचंभा नहीं हुआ, क्योंकि ‘दीदी’ ने बहुत बड़ा जोखि़म खेला था। उन्हें अच्छी तरह एहसास था कि उस इलाके में अधिकारी परिवार का राजनीतिक वर्चस्व दशकों से रहा है। शुभेंदु अधिकारी ‘दीदी’ के ही दाहिने हाथ थे और 2007 के नंदीग्राम-सिंगुर आंदोलन में वह ही ममता को लेकर गए थे। तृणमूल को एक ठोस राजनीतिक ज़मीन मिली थी। इस बार भाजपा के प्रत्याशी शुभेंदु अधिकारी ने 1956 वोट से ममता को हरा दिया। यह चुनाव आयोग का आधिकारिक परिणाम है। जनादेश के इस हिस्से को भी स्वीकार कर ‘दीदी’ ने नंदीग्राम के नतीजे को अदालत में चुनौती देने की घोषणा की है। ‘दीदी’ इसे चुनाव आयोग की धांधली मान रही हैं।
बहरहाल यह बाद की बात है, लेकिन ऐसी ऐतिहासिक जीत में अफसोस का भाव भी महसूस होगा। अब यह तय है कि यह पूरा जनादेश ममता बनर्जी के नाम दर्ज किया जाएगा। वह तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष हैं, पूरा चुनाव प्रचार जख्मी होने के बावजूद उन्होंने ही संचालित किया, मुद्दे और पलटवार उन्होंने ही तय किए और उन्हीं के चेहरे पर जनादेश मांगा गया, लिहाजा अब उनके मुख्यमंत्री बनने में किसी भी तरह की नैतिकता नहीं ढूंढनी चाहिए। वह बेमानी और खोखली साबित होगी। ममता ही लगातार तीसरी बार बंगाल की मुख्यमंत्री बनेंगी। उन्होंने अपनी सरकार की प्राथमिकताएं भी घोषित कर दी हैं। कोरोना का टीकाकरण बंगाल में निःशुल्क होगा और गरीबों को बिन पैसे ही राशन मुहैया कराया जाएगा। ममता बनर्जी ने मुफ्त टीकाकरण का आग्रह केंद्र से भी किया है। उसके लिए वह अहिंसक धरना भी दे सकती हैं। उन्होंने ऐलान किया है कि सरकार का शपथ-ग्रहण समारोह बड़ा और भव्य नहीं होगा, क्योंकि यह कोरोना का संक्रमण-काल है। इतनी बड़ी जीत के बावजूद ममता ने एक साक्षात्कार में कहा है कि वह बिल्कुल नहीं बदलेंगी। सड़क पर संघर्ष करने वाली ‘योद्धा’ ही रहना चाहती हैं और बंगाल की अस्मिता की रक्षा करना चाहती हैं। यह जनादेश भी बंगाल, अस्मिता, देश और लोकतंत्र के नाम ही है।
3.संभलकर लॉकडाउन
कोविड संक्रमण की बेकाबू रफ्तार को देखते हुए कई विशेषज्ञ सरकार को यह सलाह दे चुके हैं कि वह संपूर्ण लॉकडाउन लगाने पर विचार करे। पिछले दिनों अमेरिकी सरकार के मुख्य स्वास्थ्य सलाहकार डॉक्टर एंटनी फौकी ने भी कहा है कि भारत में सरकार को कुछ वक्त के लिए लॉकडाउन लगाकर उस दरमियान अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने की तैयारी करनी चाहिए। अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों से कहा है कि वे लॉकडाउन लगाने पर विचार करें। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि लॉकडाउन के दौरान जनता के, खासकर कमजोर वर्गों पर इसके आर्थिक-सामाजिक असर से हम वाकिफ हैं। पहले ही उन्हें सहायता देने की तैयारी की जानी चाहिए।
महामारी को नियंत्रित करने के लिए लॉकडाउन एक प्रभावी उपाय है, लेकिन पिछले साल के लॉकडाउन का जो हमारा अनुभव रहा है, उसके मद्देनजर अब सरकारें लंबे वक्त तक पूरा लॉकडाउन करने से हिचकिचा रही हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जब देश को संबोधित किया, तो उनके संबोधन का एक महत्वपूर्ण मुद्दा यही था कि हमें लॉकडाउन से यथासंभव बचना है। पिछले साल लंबे लॉकडाउन की वजह से लोगों के लिए रोजी-रोटी का संकट हो गया, बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर गांवों की ओर लौटने लगे, परिवहन के साधन बंद होने के कारण कई मजदूर हजारों मील पैदल चलकर या तरह-तरह से कष्ट उठाकर लौट पाए। इसके अलावा देश की अर्थव्यवस्था पर भी इसका बहुत बुरा असर पड़ा। एक और संकट यह खड़ा हुआ कि शहरों की घनी बस्तियों में बंद रहे मजदूरों में कोरोना फैलता गया और जब वे लॉकडाउन के बाद अपने गांवों या कस्बों में लौटे, तो वहां कोरोना का विस्फोट हो गया। इसी वजह से अब लॉकडाउन एक डरावना शब्द बन गया है। ऐसा नहीं है कि भारत में ही ऐसा हुआ, दुनिया के कई देशों में जहां लॉकडाउन का अनुभव इतना कठोर नहीं था, वहां भी लोग लॉकडाउन से आजीज आ गए हैं। यूरोप के कई देशों में कोरोना की तीसरी लहर आने पर जब लॉकडाउन लगाया गया, तो लोग विरोध में सड़कों पर आ गए। हालांकि, जैसी परिस्थिति अभी भारत में है, उसे देखते हुए पाबंदियां बढ़ाना जरूरी हो गया है। कई राज्यों में अलग-अलग मियाद के लॉकडाउन लगाए जा रहे हैं, हालांकि, कहीं भी वैसी सख्ती नहीं है, जैसी पिछले साल थी। यह खतरा भी है कि पिछले साल भारी आर्थिक नुकसान झेल चुके लोग अब कारोबार बंद होने पर आक्रोशित हो सकते हैं, सरकार भी और आर्थिक नुकसान सहने की स्थिति में नहीं है। अनुभव यह है कि अगर सीमित लॉकडाउन लगाया जाता है, तो वह ज्यादा फायदेमंद होता है अच्छा यही होगा कि राज्य सरकारों को स्थानीय परिस्थितियों के मद्देनजर लॉकडाउन का फैसला करने दिया जाए।
लॉकडाउन की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए ही सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन के पहले लोगों को राहत देने का इंतजाम करने की सलाह दी है। अगर केंद्र सरकार अभी लोगों को राहत देने का कोई व्यापक कार्यक्रम शुरू करे, तो राज्य सरकारों को लॉकडाउन के उपाय करने में आसानी होगी और लोगों की भी तकलीफें कम होंगी। किसी व्यापक राहत कार्यक्रम से जो आश्वस्ति का माहौल बनेगा, वह इस दौर से निकलने में मददगार हो सकता है।
4.भारतीय राज्य की नाकामी
जीवन के मौलिक अधिकार की हो रक्षा
देश में कोविड संकट के बीच अपनों की जान बचाने को रोते-बिलखते और दर-दर की ठोकर खाते लोगों की पीड़ा को देश की अदालतों ने संवेदनशील ढंग से महसूस किया है और सत्ताधीशों को आड़े हाथों लिया है। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता के बीच लोगों के जीवन रक्षक साधनों के अभाव में होने वाली मौतों को भारतीय राज्य के रूप में विफलता बताया है। अदालत ने कहा कि राज्य का दायित्व है कि वह व्यक्ति के जीवन के मौलिक अधिकार की रक्षा करे। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-12 के अनुसार राज्य के अवयवों के रूप में केंद्र व राज्य सरकारें, संसद, राज्य विधानसभाएं और स्थानीय निकाय आते हैं। लेकिन इस संकट की घड़ी में एक आम आदमी को राहत पहुंचाने में राज्य तंत्र विफल ही साबित हुआ है। हाल ही में दिल्ली व अन्य राज्यों में कोविड मरीजों की मौत की घटनाओं ने इस विफलता की पुष्टि ही की है। न्यायमूर्ति विपिन सांघी और रेखा पल्ली को एक ऐसे मरीज की मौत की पीड़ा ने उद्वेलित किया, जिसने अपने लिये आईसीयू बेड की मांग की थी, लेकिन ऑक्सीजन की प्रतीक्षा में दम तोड़ दिया। विडंबना ही है कि पूरे देश से बड़ी संख्या में कोविड मरीजों की ऑक्सीजन न मिलने से मौत होने की खबरें लगातार आ रही हैं जो तंत्र की आपराधिक लापरवाही को ही उजागर करती है। यह हमारे स्वास्थ्य सिस्टम की ही विफलता नहीं है, राज्य संस्था की भी विफलता है कि मरीज प्राणवायु की तलाश में मारे-मारे घूम रहे हैं और कहीं से उनकी मदद नहीं हो पा रही है। कोरोना उपचार में काम आने वाली दवाओं के वितरण में कोताही और कालाबाजारी का बोलबाला लोगों की मुसीबत बढ़ा रहा है। केंद्र व राज्य सरकारों से पूछा जाए कि पिछले एक साल से अधिक समय से देश को अपनी गिरफ्त में लेने वाले कोरोना संकट से निपटने के लिये समय रहते कदम क्यों नहीं उठाये गये।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी कोविड संकट के दौर में केंद्र की कोताही पर कई सख्त टिप्पणियां की और इस संकट से राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाकर जूझने को कहा। शीर्ष अदालत में न्यायमूर्ति डी.वी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव व रवींद्र भट की पीठ ने सख्ती दिखाते हुए कहा कि अपनी मुश्किलों को सोशल मीडिया के जरिये व्यक्त करने वाले लोगों पर किसी कार्रवाई के प्रयास को न्यायालय की अवमानना माना जायेगा। उन्होंने कुछ राज्य सरकारों के ऐसे लोगों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की मंशा पर सवाल उठाये और कहा कि राज्यों की विफलता से उपजे आक्रोश को इससे हवा मिलेगी। कोर्ट ने चेताया कि सरकार व पुलिस नागरिकों को अपने दुख-दर्द सोशल मीडिया पर साझा करने के लिये दंडित करने का प्रयास न करे। कोर्ट ने सवाल उठाया कि क्यों मरीजों को दवा व ऑक्सीजन के लिये दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। इसको लेकर शासन-प्रशासन को परिपक्व व्यवहार करने की जरूरत है। सरकार को संक्रमण में काम आने वाली दवाओं के आयात व वितरण को नियंत्रित करना चाहिए। साथ ही चेताया कि सूचना क्रांति के दौर में सोशल मीडिया पर लगाम लगाई तो फिर अफवाहों को ही बल मिलेगा। दूसरी तरफ प्रशासन व पुलिस के निचले स्तर पर ऐसे अधिकारों का दुरुपयोग आम लोगों के उत्पीड़न में भी किया जा सकता है। शासन-प्रशासन सख्ती का उपयोग करके अपनी नाकामी पर पर्दा डालने के बजाय जनता से सूचना हासिल कर व्यवस्था सुधारने का प्रयास करे। अदालत ने माना कि संकट के दौरान सोशल मीडिया के जरिये सहायता व सूचना का समांतर तंत्र विकसित हुआ है जो एक मायने में प्रशासन का सहयोग ही कर रहा है। शासन-प्रशासन को 21वीं सदी के सूचना युग में 19वीं सदी के तौर तरीकों से समस्या से नहीं निपटना चाहिए। दरअसल, जनता को विश्वास में लेने से समस्या का समाधान तलाशने में मदद मिलेगी। विश्वास कायम होने से संकट से निपटने में आसानी होगी। जनता व सरकार का सहयोग ही समाधान निकालेगा। लोग तकलीफ में हैं, जिसे संवेदनशील ढंग से ही दूर किया जाना चाहिए।