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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.वोट नहीं, तो हत्या!
अभी तो ‘दीदी’ के ऐतिहासिक जनादेश के विश्लेषण किए जा रहे थे। उन्हें विपक्ष की लामबंदी का चेहरा भी माना जाने लगा था। उनकी चुनावी जीत में ‘भावी प्रधानमंत्री’ के बिम्ब भी दिखने लगे थे। यकीनन ममता बनर्जी की चुनावी जीत बहुत बड़ी है, लेकिन उसके भीतर दबी-छिपी मंशाएं विध्वंसकारी हैं। जनादेश के साथ ही हिंसा, हत्याओं, आगजनी और लूटपाट का दौर शुरू हो गया। ऐसा लगा मानो जनादेश की प्रतीक्षा की जा रही थी! पश्चिम बंगाल के कई हिस्सों में जंगलीपन और पाशविक व्यवहार का जो नंगा नाच किया गया है, वह कौन-सा बंगाल है? मुख्यमंत्री खुद एक महिला हैं, लिहाजा महिलाओं पर भी हिंसात्मक हमले कई सवाल उठाते हैं कि क्या ममता-राज में बहू-बेटियां भी सुरक्षित नहीं हैं? क्या पीडि़त और दुष्कर्म का शिकार हुईं महिलाएं ‘बंगाल की बेटियां’ नहीं हैं? क्या ममता ही ‘बंगाल की बेटी’ है, जिसके नारे पर वोट मांगे गए थे? तमाम आरोप ‘दीदी’ की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और हिंसा के सूत्रधारों पर चस्पा किए जा रहे हैं।
यह स्वाभाविक भी है। चुनाव प्रचार के दौरान खुद ‘दीदी’ ने बदला लेने की हुंकार भरी थी, लिहाजा अब उनके कार्यकर्ता बंगाल को ‘बदलापुर’ बनाने पर आमादा हैं। हैरानी किस बात की होनी चाहिए, क्योंकि राजनीतिक हिंसा बीते कई दशकों से बंगाल की नई संस्कृति बन गई है। अब तृणमूल कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने तांडव मचाया है और भाजपा समर्थकों को चुन-चुन कर हिंसा का शिकार बनाया है। एक भीड़ भाजपाइयों के घरों में घुसती है, जिनके हाथों में तृणमूल के झंडे हैं और लाठी-डंडे भी हैं। यह टीवी चैनलों पर बार-बार दिखाया गया है। भीड़ ने तबाही का खेल खेला। घरों में तोड़-फोड़, औरतों की इज़्जत नीलाम और करीब 15 हत्याएं…! भाजपा के दफ्तरों में भी आग लगाई गई। ममता इन हिंसात्मक दृश्यों को भाजपा की पुरानी शैली करार दे रही हैं और वीडियो भी पुराने बता रही हैं। ये स्पष्टीकरण बेतुके हैं, क्योंकि हिंसा जनादेश के साथ-साथ ही भड़की है। भाजपा के कई चेहरे जाने-पहचाने हैं, जिनकी निर्मम हत्या की गई। जनादेश और आज मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ममता बनर्जी संपूर्ण बंगाल की नेता हैं। वह लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी हैं। चाहे किसी ने वोट दिया अथवा नहीं दिया, समर्थन अथवा विरोध किया, लेकिन कुल जिम्मेदारी ‘दीदी’ की है। हिंसा और हत्याओं की यह नई संस्कृति भी ममता के लिए बड़ी चुनौती है, क्योंकि भीड़ किसी के सकारात्मक आह्वान नहीं सुना करती। हिंसा हुई है, तो बेशक तृणमूल के कार्यकर्ता भी घायल हुए होंगे या मौत को प्राप्त हुए होंगे। इनसे हासिल क्या हुआ?
गौरतलब आयाम यह है कि गुस्साए प्रधानमंत्री मोदी ने बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ को फोन कर बंगाल के ‘खूनी परिदृश्य’ पर चिंता और सरोकार जताया है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी रपट तलब की है। यदि खूनी सिलसिला यूं ही जारी रहा, तो केंद्र सरकार के पास अनुच्छेद 356 का संवैधानिक विकल्प भी मौजूद है, बेशक राज्य सरकार नई-नवेली हो। सर्वोच्च न्यायालय में भी जनहित याचिका दी गई है कि हिंसा और हत्याओं की सीबीआई जांच कराई जाए अथवा सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एसआईटी का गठन किया जाए। इन परिस्थितियों की जरूरत क्या थी? देश में लोकतंत्र, संविधान और कानून-व्यवस्था का राज है, लिहाजा बंगाल से भी अपेक्षाएं हैं। रक्तरंजित होने की गुंज़ाइश कहीं नहीं है। हालांकि कोरोना वायरस के खिलाफ युद्ध जैसी स्थितियों से निपटना बंगाल और ममता सरकार दोनों के दायित्व हैं। यह गंभीर चुनौती भी है, क्योंकि देश भर में संक्रमण की गति अब भी बहुत तेज है। कोरोना के संदर्भ में केंद्र सरकार से टकराव की मानसिकता से कुछ भी हासिल नहीं होगा, लिहाजा माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जल्द ही दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री मोदी से मिलेंगी। मुलाकात होगी, तो बंगाल के हिंसक और हत्याजीवी माहौल की भी चर्चा होगी। प्रधानमंत्री भी अपेक्षा करेंगे कि अब संविधान और कानून-व्यवस्था के जरिए ही काम किया जाए। चुनाव समाप्त हो चुका है। नई सरकार सामने है, लिहाजा आम नागरिक की दृष्टि से शासन चलाया जाना चाहिए। यदि बंगाल के ही बाशिंदे हिंसा के कारण पलायन कर असम या अन्य राज्य में जाने लगें, तो ऐसा जनादेश बेमानी है।
2.कर्फ्यू के पर्दे में
कोरे कागज पर लिखी हिदायतें फिर से चमक रही हैं, भले ही इस बार ‘लॉकडाउन’ का अंदेशा हामी भरे या न भरे, हिमाचल के दिन और रात अब गहन कर्फ्यू के पर्दे में रहेंगे। बढ़ते कोविड मामलों के सूत्रधार बने हिमाचल को अब औपचारिक व व्यावहारिक हिदायतें हैं ताकि भीड़ और आयोजनों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर रोक लगे। छह मई रात्रि बारह बजे से 16 मई तक पाबंदियों की नई शर्तें लागू हो जाएंगी। हालांकि पिछले साल के लॉकडाउन जैसी कठोरता प्राथमिक निर्देश में नहीं है, फिर भी इस संदेश के सदमे में बाजार और व्यापार तो रहेगा। हिमाचल पूरी तरह बंद रहेगा, तो सार्वजनिक परिवहन की सुविधा के बावजूद विराम को कौन तोड़ पाएगा। चारों तरफ फिर शटर गिरेंगे और खामोशी के आलम में सरकारी और निजी दफ्तरों की आमद की शून्यता किसी शूली पर लटक जाएगी। कोरोना मामलों को घटाने के लिए फिर कर्फ्यू की शरण में हिमाचल यह भी नहीं भूल सकता कि पिछले चौबीस घंटे में 3824 नए मरीज और एक दिन में 48 मौतों के कोहराम के बीच सख्त पहरों की अनिवार्यता रहेगी। राज्य अपने पिछले अनुभव से जो सीखा उसकी वजह से कुछ छूट बाजार से कारोबार तक रहेगी।
अति आवश्यक सेवाएं चलती रहेंगी और दूध-दही, मक्खन-पनीर से सब्जी-फलों तक उपभोक्ता की जरूरतें समझी जा रही हैं। इससे पहले सर्वदलीय बैठक में पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच कर्फ्यू तक पहुंचा मतैक्य अंततः मंत्रिमंडल की मंजूरी से अगले डेढ़ हफ्ते तक अमल में आ गया। सरकारी दफ्तर का सारा जत्था लौट कर घर पहुंच जाएगा, लेकिन निजी दफ्तर के लिए फिर अस्तित्व की चिंता शुरू होगी। व्यापार की गतिविधियों में एक बार फिर नीलाम होने की सूचना सरीखा है यह इम्तिहान। बाजार नपे तुले अंदाज में सिर्फ जीने के खुराक दे सकते हैं, लेकिन वहां एक बार पुनः आर्थिकी का आधार सिमट रहा है। लॉकडाउन न कहें, लेकिन कर्फ्यू का निरंतर मंजर व्यापार की बची-खुची वसंत को सुखा देगा। यह जीवन बचाने की अनिवार्यता है, लेकिन इसकी अदायगी में ढह जाने की त्रासदी भी है। चाहे सरकार बचते-बचाते कर्फ्यू की कलम से बंदिशें लिख रही है, लेकिन यहां भी साये और सन्नाटे से कई लोगों के घर का चूल्हा ठंडा होगा या छत फिर उड़ेगी।
ये बेडि़यां हैं और इन्हें इस बार समाज ने खुद भी पहना है। यह सार्वजनिक व्यवहार की खामियों में अटकी शान रही या सामाजिक शानोशौकत की पतवार रही कि हम पुनः उसी भंवर में अपनी-अपनी किश्ती पर सवार हैं। फिर अपनी ही खामोशियों से जंग और अपने ही उस्तरे से सिर मुंडाने की नौबत तो आ चुकी है। हम फिर गिरफ्त में हैं और पहले से गहरे फंसे हैं। अब तकदीर नहीं, तस्वीर की विकरालता में खुद को बचाने का ऐसा संघर्ष जिसे सौ फीसदी कबूल करना होगा। हमारे सामने थकी हारीं गलियां और टूटी तमाम जिरह तसदीक कर रही हैं कि देश-प्रदेश खतरे में है। इम्तिहान में अटकी हमारी एक पीढ़ी अपनी आत्मशक्ति के भंवर में इस कद्र कि अब सीढि़यां भी कर्फ्यू ढोने लगीं। एक साल की कब्र में दफन मेहनत पुनः चोटिल और सांसें रोक कर जमाने को खुद को दिखाना है। इसलिए पूरे साल दसवीं परीक्षा की तैयारी में उतरे बच्चों को अंततः अगली क्लास का रुतबा भी रहम से मिल गया। कितना रहम करें तेरी मंजिलों को वीरान देखकर। खुद को आगे बढ़ाने निकले थे, उन्होंने बिना चले ही कदम गिन लिए। यह कहानी दसवीं से ग्यारहवीं तक जाने की नहीं, बल्कि बंदिशों के बर्बाद पहलू में पसर जाने की हकीकत है। बचाव के लिए फिर यही रास्ता हमारा भविष्य है या भविष्य की ठोकरों में जो बचा, उसी को रास्ता बता दिया। इस कर्फ्यू के लिए बहुत सारी सिफारिशें या दरख्वास्ते हो सकती हैं, लेकिन जो सांसें रोककर उजड़ेंगे, उनके जीवन की यही मुराद तो नहीं थी। बहरहाल सरकार के इस कदम से कदम मिलाने की फुर्सत के सिवाय और कोई कार्य नहीं बचता, इसलिए आओ मिलकर खुद को खुद से ही अलग करके ताले में बंद कर लें।
3.बंगाल में हिंसा
पश्चिम बंगाल में चुनाव नतीजे आने के तुरंत बाद जो हिंसा भड़क उठी, वह निश्चय ही चिंताजनक है और उसे रोका जाना चाहिए था। इस हिंसा में 12 लोगों की जान गई है, जिनमें से ज्यादा भाजपा समर्थक हैं। हालांकि, अन्य पार्टियों के लोग भी मारे गए हैं। जाहिर है, ऐसी हिंसा के शिकार पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता और पैदल सिपाही ही होते हैं, क्योंकि वे सबसे ज्यादा असुरक्षित होते हैं। हर पार्टी के बडे़ नेता अपने लिए तो मजबूत सुरक्षा का इंतजाम कर लेते हैं, हालांकि, हिंसा भड़काने या उसका माहौल तैयार करने में उनकी बड़ी भूमिका होती है। इन चुनावों के बाद हिंसा होना बहुत तय माना जा रहा था, क्योंकि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का रक्तरंजित इतिहास है और ये चुनाव जितने आक्रामक और जहरीले माहौल में लड़े गए थे, उनसे इस हिंसा के लिए मजबूत नींव तैयार हो गई थी। चुनाव में दोनों पक्षों की ओर से जैसी तीखी और हिंसक भाषा का प्रयोग किया गया, उससे पक्का हो गया था कि यह हिंसा देर-सवेर व्यावहारिक स्तर पर भी प्रकट होगी। चुनावों के पहले भी हिंसा कम नहीं हुई है, जिसमें तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के कई कार्यकर्ता जान गंवा बैठे या जख्मी हुए। कांग्रेस या वाम दलों की उपस्थिति चूंकि कमजोर थी, इसलिए इस हिंसा में उनकी हिस्सेदारी भी कम थी। चुनावों के दौरान चूंकि प्रशासन चुनाव आयोग के पास था और केंद्रीय बलों की भी मौजूदगी थी, इसलिए हिंसा बहुत कम हुई, लेकिन जैसे ही नतीजे आए, हिंसा भड़क उठी। लेकिन ममता बनर्जी का यह तर्क सही नहीं है कि इस हिंसा को रोकने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की थी, क्योंकि जब चुनाव नतीजे आ जाते हैं और यह तय हो जाता है कि सत्ता किसे मिलने वाली है, तब प्रशासन भी यह समझ लेता है कि अब उसका स्वामी कौन है, और किसकी बात सुननी है। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास नक्सलबाड़ी आंदोलन और उसे कुचलने के दौर से जुड़ा है। बाद में वाम दलों ने सुनियोजित हिंसा को अपनी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा बनाया। वाम मोर्चे की आक्रामक रणनीति का मुकाबला जहां कांग्रेस नहीं कर पाई, वहां अपेक्षाकृत शांति बनी रही। फिर कांग्रेस की जुझारू नेता ममता बनर्जी ने पार्टी छोड़कर अपनी नई पार्टी बनाई और वाम हिंसा का मुकाबला उसी आक्रामक अंदाज में करना शुरू किया। ममता बनर्जी ने वाम मोर्चे को अपदस्थ करने के लिए उन्हीं के तरीके अपनाए। इससे वाम मोर्चे की ताकत बिखर गई, उनके कुछ लोग नए सत्ता तंत्र का हिस्सा बन गए, कुछ लोग नई उभरती हुई ताकत भाजपा के साथ हो लिए। इस तरह जब ताकत के दो केंद्र बन गए, तब उनके बीच फिर हिंसक टकराव शुरू हो गए। जाहिर है, हिंसा रोकने की मुख्य जिम्मेदारी ममता बनर्जी की है और यह अच्छा है कि सत्ता संभालते ही उन्होंने इसके लिए कदम उठाने की घोषणा की है, बल्कि उन्हें गंभीरता से बंगाल की राजनीति से हिंसा की यह अपसंस्कृति खत्म करने के लिए काम करना चाहिए, क्योंकि हिंसा से किसी का भला नहीं होता। साथ ही, यह भी साफ है कि यह विशुद्ध रूप से राजनीतिक हिंसा है, इसका कोई सांप्रदायिक कोण नहीं है। अगर सारे पक्ष जिम्मेदारी और परिपक्वता का परिचय दें, तो बंगाल के उजले दामन से ये ख़ून के धब्बे स्थाई रूप से मिटाए जा सकते हैं।
- ममता की चुनौती
हिंसा रोकना सभी दलों की जिम्मेदारी
आखिरकार ममता बनर्जी ने तीसरी बार पश्चिम बंगाल की बागडोर थाम ही ली। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही उन्होंने कोरोना संकट को प्राथमिकता मानते हुए लॉकडाउन जैसी पाबंदियों की घोषणा कर दी है। ममता ने ऐसे समय पर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है जब राज्य में व्यापक हिंसा सामने आई; जिसको लेकर भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के लोगों द्वारा भाजपा कार्यकर्ताओं पर हमला करने का आरोप लगाया, जिसको लेकर पीएमओ से लेकर गृहमंत्रालय तक हरकत में आया। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा स्वयं पीड़ितों से जाकर मिले हैं। राज्यपाल ने भी शपथ ग्रहण के बाद मुख्यमंत्री के सामने कानून व्यवस्था को प्राथमिकता देने की नसीहत दी है। दरअसल, पश्चिम बंगाल में चुनाव के पहले और बाद में राजनीतिक हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। यूं तो राजनीतिक हिंसा चुनाव से पहले होती रही है, लेकिन इस बार उसके बाद हुई है। जाहिर है हिंसा मतदान की दिशा को प्रभावित करने की कोशिश में की जाती रही है। दरअसल, इस बार केंद्र ने समय रहते केंद्रीय सुरक्षा बलों को पश्चिम बंगाल में तैनात कर दिया था, जिसके चलते चुनाव से पहले और दौरान तो हिंसा नहीं हो पायी लेकिन अब चुनाव परिणाम आने के बाद सबक सिखाने के मकसद से विपक्षी भाजपा के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया जा रहा है। हालांकि, सोमवार को ममता बनर्जी ने टीएमसी समर्थकों से हिंसा रोकने की अपील तो की लेकिन साथ इसके लिये भाजपा को जिम्मेदार बता दिया। कोरोना संकट के दौरान इस तरह के आरोप-प्रत्यारोपों से बचने की जरूरत है। इसे रोकने की दोतरफा पहल करने की जरूरत है। दोनों दलों को मिलकर अपने कार्यकर्ताओं से संयम बरतने और हिंसा का सहारा न लेने को बाध्य करना चाहिए। साथ ही समर्थकों में स्पष्ट संदेश भी जाना चाहिए कि यदि किसी ने लक्ष्मण रेखा लांघने की कोशिश की तो कानून अपना काम करेगा। दरअसल, ऐसे हमले करने वालों को राजनीतिक संरक्षण मिलने से ही समस्या विकट होती है। जैसा कि ममता बनर्जी कह रही हैं कि पश्चिम बंगाल एकता का राज्य है, तो वह एकता राजनीतिक व्यवहार में नजर आनी चाहिए।
ऐसी स्थिति में जब पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिदृश्य साफ हो गया है और ममता बनर्जी ने शपथ भी ले ली है, इस तरह की अप्रिय घटनाओं को रोकने के लिये सख्त कदम उठाये जाने की जरूरत है। दो दर्जन से अधिक लोगों की हत्या के बाद प्रधानमंत्री ने भी राज्य की बिगड़ती कानून व्यवस्था के बाबत राज्यपाल जगदीप धनखड़ से नाराजगी जतायी है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी हिंसा पर रिपोर्ट मांगी है। अजीब बात है कि देश के तीन अन्य राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में हाल में चुनाव हुए लेकिन कहीं से बड़ी हिंसा की कोई खबर नहीं आयी। जाहिर है पश्चिम बंगाल की धरती पर स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं के विकास में राजनीतिक दल चूके हैं। जाहिर बात है कि यदि किसी राज्य में चुनाव के दौरान हिंसा होती है तो स्वतंत्र मतदान को प्रभावित करने का प्रयास बलपूर्वक किया जाता है। अपने आकाओं के पक्ष में मतदान करने के लिये मतदाताओं को डराने धमकाने का प्रयास किया जाता है। चुनाव के बाद की हिंसा भी यही बताती है कि लोगों ने उनकी इच्छा के अनुसार मतदान नहीं किया। यूं तो यही हिंसा कांग्रेस के शासनकाल में होती थी, फिर वही स्थिति वामदलों की सरकार के दौरान देखने को मिली। तब ममता वाम दलों की सरकार पर हिंसा फैलाने का आरोप लगाती थी। अब ऐसे ही आरोप उनकी पार्टी पर लग रहे हैं। राजनीतिक दल बदले हैं लेकिन राजनीति का चरित्र वही रहा। यदि राजनीतिक दल ईमानदारी और सख्ती से ऐसी हिंसा को रोकने का प्रयास करें तो कोई वजह नहीं है कि ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश न लग सके। निस्संदेह कानून व्यवस्था बनाने की पहली जिम्मेदारी सरकार की है, लेकिन इसमें राजनीतिक दलों का सहयोग भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ममता सरकार के शासन की कुशलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह कितनी जल्दी ऐसी राजनीतिक हिंसा पर रोक लगाती हैं। उन्हें याद रहे कि उनकी पहली लड़ाई कोरोना से है।