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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.कर्फ्यू से शिकायत
रहम की पलकें कर्फ्यू को इतना न खोल दें कि आंख का अंधा भी शिकायत करे। अब कर्फ्यू से ही यह शिकायत है कि यह छूट के आदेशों में करीने से सजा एक ऐसा डंडा है, जिसे देखा तो जा सकता है-उठाने की मनाही है। लोग पाबंदियां चाहते हैं और बाजार भी अपने आचरण में नसीहतें ओढ़ने का आदी हो चुका है, लेकिन न लॉकडाउन लगा और न ही कर्फ्यू बचा। इस कर्फ्यू के कई दरवाजे हैं और बचते-बचाते गुजर जाने की अदा भी। निर्माण क्षेत्र की खुली बाहों में आसमान को खोलने का तकाजा इतना मजबूर कैसे हो सकता कि कर्फ्यू की धारा 144 के बीच एक साथ दस-पंद्रह मजदूर काम कर लें, लेकिन सीमेंट-सरिया बेचने की मनाही में इकलौता दुकानदार घर बैठे। इस पर भी अचंभा यह कि ऊना जिला तो भवन निर्माण की सामग्री बेच ले, लेकिन कांगड़ा अपने प्रतिबंधों की वकालत में ऐसे दरवाजों को बंद रखे। कर्फ्यू के सामने दो बाजार नहीं हो सकते और न ही कोरोना के खिलाफ पाबंदियों के बीच दरवाजे हो सकते हैं।
बेशक इस समय ‘सेहत और संस्थान बचाने’ की तरजीह फैसले ले रही है। सरकार जनता के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए कड़े संदेशों की अहमियत के साथ-साथ यह भी साबित करना चाह रही है कि लॉकडाउन का पिछला दौर नहीं लौटेगा। काफी हद तक यहां सरकार सही भी हो सकती है, लेकिन कोरोना के खिलाफ मौजूदा कर्फ्यू अपने आप में उल्लंघन की तासीर पेश कर रहा है। एक बड़ा बाजार तसल्ली से कारोबार के लिए हाजिरी लगा रहा है, लेकिन दूसरी ओर कर्फ्यू के अनुबंध में पद्धति में असमंजस है। लोग मीट-मछली व मुर्गा खरीद सकते हैं, लेकिन मिठाई की दुकान सख्त पहरे में है। जनता की सुविधा के लिए दंत चिकित्सा को छूट है, लेकिन सैलून बंद रहेंगे। कपड़ा, इलेक्ट्रॉनिक गुड्स और बिजली का सामान नहीं बिकेगा, लेकिन वाहन कार्यशाला की जरूरत की आपूर्ति के लिए स्पेयर पार्ट्स की दुकानदारी होगी। बेशक शनिवार और रविवार की बंदिशें काफी अनुशासित दिखाई दीं, लेकिन कर्फ्यू की साख में औचित्य पर बट्टा लगा है। कहीं कारीगर को काम मिला, लेकिन पाबंदियों से उसका आशियाना उड़ गया। सड़क के किनारे रेहड़ी-फड़ी तो उजड़ गई, लेकिन किराने की बड़ी से बड़ी दुकान भी खुल गई।
आज की तारीख में किराने की दुकान नहीं, बल्कि यह ऐसा शो रूम है, जहां घर की जरूरत का सारा सामान सजा रहता है। ऐसे में स्टेशनरी तो बंद है, लेकिन किराने के शो रूम में स्टेशनरी से भी आगे बच्चों के खिलौने तक बिक सकते हैं। अगर सरकार का उद्देश्य मजदूर को दिहाड़ी दिलाना भी है, तो वर्कशॉप की व्याख्या में छूट मिलनी चाहिए क्योंकि मजदूरी तो मिठाई, गहने, फर्नीचर बनाने के अलावा हर व्यापारिक संस्थान में लगती है। दूसरी ओर कर्फ्यू की ध्वनि ने आम आदमी के जीने का सामान महंगा कर दिया है। सब्जी, फल और किराना की दरें किसी नियंत्रण के बाहर दिखाई देती हैं, अतः इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। कर्फ्यू के एहसास में दौड़ती जिंदगी के लिए सरकार ने काफी राहत प्रदान की है, लेकिन इसका सीधा मुकाबला उस उद्देश्य से भी है जिसे पिछले साल की तपस्या ने खो दिया। कोरोना श्रृंखला तोड़ने के लिए अगर शनिवार-रविवार के अवकाश को चार दिन तक बढ़ा देते या बाजारों को दिनों के हिसाब से बांट देते, तो भी कुछ प्रतिबंध दिखाई देते, लेकिन यहां तो बाजार खुले रहने के एहसास में व्यापार बंद है। क्यों न बाजार की सीमित अवधि घोषित करते हुए यह तय किया जाए कि सोमवार कपड़ा, मंगलवार इलेक्ट्रॉनिक वस्तु, बुधवार फर्र्नीचर, गुरुवार बिजली और शुक्रवार आभूषण तथा बाकी सामान की दुकानें खुलेंगी। इसके अलावा आवश्यक वस्तुओं के बाजार को हफ्ताभर सीमित अवधि के लिए खोलें। एक बार फिर जनता का सहयोग अभिलषित है, तो उसकी संवेदना के अनुसार कर्फ्यू का तात्पर्य पूरा भी तो होना चाहिए।
2.इलाज के अंतर्विरोध
कोरोना वायरस का आतंक और खौफ तो जारी है, लेकिन संक्रमित मरीज को कई स्तरों पर विरोधाभास, अंतर्विरोध झेलने पड़ रहे हैं। बेचारा मरीज भ्रमित है। उसके लिए सभी डॉक्टर ‘भगवान’ के ही रूप हैं, क्योंकि वे ही संक्रमण से निजात दिला सकते हैं और अंततः जीवन-दान तय कर सकते हैं। चिकित्सा और कोविड के इलाज पर भारत में कोई राष्ट्रीय नीति और दिशा-निर्देश भी नहीं हैं, लिहाजा डॉक्टर का निर्णय ही ‘ब्रह्मसत्य’ माना जाता है। राजधानी दिल्ली में देश के सबसे बड़े चिकित्सा-संस्थान एम्स के निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया ने टीवी चैनलों पर बार-बार दोहराया है कि कोविड के मरीज को सीटी स्कैन कराना जरूरी नहीं है। एक बार का स्कैन 300-400 चेस्ट एक्सरे के समान है, लिहाजा विकिरण (रेडिएशन) की कल्पना ही की जा सकती है। यह विकिरण, अंततः, मानवीय अंगों को क्षति ही पहुंचाता है। कोविड-काल में यह चलन बढ़ता जा रहा है कि मरीज खुद ही सीटी स्कैन कराने चले जाते हैं। यदि रोग बढ़ने पर अस्पताल जाना पड़ा, तो वहां के डॉक्टर 2-3 दिन पहले के सीटी स्कैन को खारिज कर देते हैं और मरीज को नया सीटी स्कैन कराने का आग्रह करते हैं। यानी दुगुना विकिरण और घातक प्रभाव…! इसके पीछे कारोबारी दृष्टि भी है, क्योंकि एक बार का सीटी स्कैन 6000-8000 रुपए में किया जाता है। इन पंक्तियों का लेखक यह दंश झेल चुका है।
जब बुखार न होने, ऑक्सीजन का स्तर 94 से अधिक होने, कोई खांसी अथवा सांस की समस्या न होने के बावजूद उसे रेमडेसिविर 100 एमजी के पांच इंजेक्शन दिए गए और सीरिंज के जरिए ही कई बार स्टेरॉयड दिया गया। ये दोनों दवाएं, कोविड के लिए, जीवन-रक्षक या राम-बाण नहीं हैं, यह विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ-साथ विश्व के प्रख्यात चिकित्सक और वैज्ञानिक भी शोधात्मक तौर पर स्थापित कर चुके हैं। भारत में फिर भी डॉक्टर इन दवाओं को लिख रहे हैं और जमकर कालाबाज़ारी की जा रही है। हम कोरोना के इलाज के अंतर्विरोधों पर तब विश्लेषण कर रहे हैं, जब खुद झेल चुके हैं। इसके अलावा, प्रख्यात चिकित्सकों डा. गुलेरिया, डा. अशोक सेठ, डा. नरेश त्रेहन, डा. अरविंद कुमार, डा. एम.वली, डा. राहुल भार्गव, डा. श्याम अग्रवाल आदि की चर्चाओं को हमने सुना है। उनकी स्थापनाओं के आधार पर हम जनता को जागरूक करना चाहते हैं कि रेमडेसिविर, स्टेरॉयड या घर में ही ऑक्सीजन सिलेंडर आदि का इस्तेमाल न करें। हर स्थिति में डॉक्टर की ही सलाह लें, बेशक उन पर भी विरोधाभास हों। गौरतलब यह भी है कि प्लाज़्मा थेरेपी के लिए भी मारा-मारी जारी है। कैंसर विशेषज्ञ डा. अंशुमान कुमार का मानना है कि सीटी स्कैन से कैंसर की संभावनाएं पुख्ता होती हैं। इसके लक्षण कुछ वक्त के बाद स्पष्ट होने लगते हैं। यदि कोविड के शुरू में ही स्टेरॉयड दिए गए, तो मरीज की जान भी जा सकती है। इन इलाजों के दुष्प्रभाव ये भी हैं कि हड्डियां क्षतिग्रस्त हो सकती हैं, शुगर का स्तर 300-400 तक बढ़ सकता है, एसिडिटी बहुत होने लगती है और आंखों पर भी असर होता है।
शुगर का दुष्प्रभाव यह लेखक भी झेल चुका है। गुजरात में 2000 से ज्यादा मामले सामने आए हैं, जो शुगर के रोगी नहीं थे, लेकिन स्टेरॉयड के बाद उन्हें शुगर का रोग लग गया है। दरअसल कोविड का जो मरीज मृत्यु-शैया पर अस्पताल में है, वह डॉक्टर को बाध्य कैसे कर सकता है कि उसे रेमडेसिविर, स्टेरॉयड या अमुक दवा न दी जाए, क्योंकि उसने प्रख्यात डॉक्टरों की चर्चाएं सुनी हैं? यह विडंबना भी है और भ्रमजाल भी है, क्योंकि ऐसी दवाओं के इस्तेमाल के बावजूद मरीज ठीक हो रहे हैं। अस्पतालों में डॉक्टर मरीज के परिजनों से आग्रह कर रहे हैं कि वे रेमडेसिविर और स्टेरॉयड या ऑक्सीजन सिलेंडर का बंदोबस्त कर लें। उसी के बाद इलाज शुरू किया जा सकेगा। यह कैसी व्यवस्था है हमारे देश की? चिकित्सकों के बीच इलाज के ये अंतर्विरोध भी क्यों हैं? प्लाज़्मा की कोई प्रामाणिकता नहीं है। हमने ऐसे कई मामलों में मरीज की मौत की ख़बर ही सुनी है। इस विश्लेषण में हमारा कोई दावा नहीं है, क्योंकि हम चिकित्सक नहीं हैं, लेकिन उनके मुताबिक जो भी यथार्थ है, उसे सार्वजनिक कर रहे हैं, ताकि मरीज गुमराह न हो। विदेशों से भी रेमडेसिविर की खेप आ रही हैं। आखिर क्यों…? या तो प्रमुख डॉक्टरों की चर्चाओं पर पाबंदी लगाए सरकार अथवा उनकी स्थापनाओं और मरीज को गंभीरता से लिया जाए! कोरोना के मरीज से खिलवाड़ की इजाजत कैसे दी जा सकती है?
3.टीके का इंतजाम
यह अब स्पष्ट हो गया है कि कोविड नियंत्रण में व्यापक टीकाकरण कार्यक्रम का महत्व सबसे ज्यादा है। वैज्ञानिक कह रहे हैं, अगर किसी देश में लगभग सत्तर प्रतिशत जनसंख्या को टीका लग जाए, तो यह लगभग तय है कि उस देश से कोविड का उन्मूलन हो जाएगा। कई देश इस दिशा में तेजी से बढ़ रहे हैं। कुछ देश जल्दी ही पूरी जनसंख्या को टीका लगाने का लक्ष्य पा लेंगे। ग्रेट ब्रिटेन ने तो लोगों को तीसरी खुराक देने की योजना बनाना भी शुरू कर दिया है। कई साधनहीन देश जरूर इस दौड़ में पिछड़ रहे हैं, क्योंकि साधन संपन्न देशों ने पहले अपने नागरिकों को टीके मुहैया कराने को प्राथमिकता दी है। भारत में हालांकि खुद दुनिया की सबसे ज्यादा वैक्सीन बनाने वाली संस्थाएं हैं, लेकिन इस दौड़ में यह काफी पिछड़ गया है। इसकी वजह यह रही कि हमारी सरकार ने वैक्सीन की जरूरत के मुताबिक योजना बनाकर पहले ऑर्डर नहीं दिए। अब जब भारत में कोरोना की ताजा लहर भयावह रूप ले चुकी है, तब तेजी से टीके लगाने की जरूरत और ज्यादा बढ़ गई है। सरकार ने यह एक अच्छा काम किया है कि दुनिया के कई टीकों को भारत में लगाने की मंजूरी दे दी है। अमेरिकी सरकार ने कोरोना की गंभीर स्थिति के मद्देनजर इस दौरान वैक्सीन को बौद्धिक संपदा अधिकार के दायरे से बाहर रखने की बात कही है। इन वजहों से भारत में टीकाकरण की रफ्तार तेज होगी, लेकिन इन सबका असर जमीन पर दिखने में अभी कुछ वक्त लगेगा। टीकों की भारत में उपलब्धता आसान करने के लिए सरकार एक और कदम उठा सकती है कि टीका निर्माताओं को टीकों के संभावित दुष्प्रभावों के लिए कानूनी बाध्यता से मुक्त कर दे। टीका निर्माताओं की हिचकिचाहट का एक बड़ा कारण इससे खत्म हो जाएगा। अगर किसी पर दुष्प्रभाव पड़ते हैं, तो उसके लिए सरकार अपने स्तर पर नुकसान भरपाई और मुआवजे का इंतजाम कर सकती है। इसके लिए सरकार चाहे, तो किसी बीमा कंपनी से करार कर सकती है। इस मामले में खतरे या फिक्र की बात इसलिए भी नहीं है कि दुनिया भर में करोड़ों लोगों को टीके लग चुके हैं और ऐसी कोई खबर नहीं आई है, जिससे किसी गंभीर खतरे का आभास हो। जाहिर है, कोई भी दवा या वैक्सीन शत-प्रतिशत निरापद नहीं होती, लेकिन अभी जो वैक्सीन लगाए जा रहे हैं, उनसे दुष्प्रभावों की संख्या नगण्य है। इसलिए वैक्सीन की सुरक्षा की गारंटी सरकार ले, तो उसमें कुछ भी गलत नहीं होगा ।
भारत जैसे देश में इस बात का ज्यादा महत्व इसलिए है कि यहां सरकार की विशेष विश्वसनीयता होती है। अगर लोग यह जानेंगे कि सरकार सुरक्षा की गारंटी ले रही है और किसी आकस्मिक मुश्किल के वक्त वह हमारी मदद करेगी, तो वैक्सीन के प्रति अगर कुछ हिचक है भी, तो वह कम होगी। वैसे भी आम भारतीयों के लिए किसी कंपनी के बजाय अपनी सरकार से शिकायत करना ज्यादा आसान होगा। इस तरह, यह स्थिति वैक्सीन निर्माताओं के लिए भी ठीक होगी और हमारे नागरिकों के लिए भी। यह देखा जा रहा है कि कोविड राहत से जुडे़ कई मामलों में बहुत छोटे-छोटे तकनीकी या प्रशासनिक मुद्दों की वजह से देर हो रही है, जो कि ऐसी आपात स्थिति में बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। इसीलिए सरकार को टीकों की उपलब्धता तेजी से बढ़ाने के लिए जो भी करना जरूरी हो, तुरंत करना चाहिए।
- चिकित्सा बिरादरी की सुध
फ्रंटलाइन वर्कर का मानसिक स्वास्थ्य भी देखें
एक साल से अधिक हो गया है, हमारे डॉक्टर, नर्स व अन्य स्वास्थ्य कर्मी लगातार काेरोना महामारी से जूझ रहे हैं, वह भी सीमित संसाधनों में। एक ऐसी बीमारी के खिलाफ जिसका अब तक कोई कारगर इलाज नहीं है। पहली बार किसी ऐसी बीमारी से जूझना पड़ रहा है, जिसके उपचार के लिये देश में कोई कारगर रणनीति नहीं बन पायी। शुरुआत में हमने उन पर फूल भी बरसाये और ताली-थाली भी बजायी। उन्हें कोरोना योद्धा की संज्ञा भी दी। लेकिन धीरे-धीरे बढ़ता रोग का दायरा उनकी मुश्किलें बढ़ाता गया। सिंतबर तक ऊंचाई चढ़ने के बाद कोरोना संक्रमण में गिरावट के बाद इस बिरादरी ने चैन की सांस ली थी कि महामारी को हमने हरा दिया। लेकिन कोविड-19 के बदले वेरिएंट ने देश में जो कहर बरपाया है, उसने चिकित्सकों व अन्य कर्मियों की मुसीबतों को चरम पर पहुंचा दिया। तेज संक्रमण और धड़ाधड़ बीमार पड़ते लोगों से अस्पताल पट गये। अस्पतालों में ऑक्सीजन बेड नहीं हैं, वेंटिलेटर नहीं हैं और सहायक दवाइयों का भारी अभाव है। जो संपन्न हैं, वे दोनों हाथों से लूट रहे निजी अस्पतालों की ओर उन्मुख हुए। गरीब और मध्य वर्ग सरकारी अस्पतालों के भरोसे लाचार हैं। जहां चिकित्सा साधनों का लगातार टोटा बना हुआ है। देश के सत्ताधीशों की नाक के नीचे बिना ऑक्सीजन के मरते लोगों की खबरें रोज आंकड़ा बढ़ा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट ऑक्सीजन की कमी से होने वाली मौतों को अपराध की संज्ञा दे रहे हैं। कोर्ट की बार-बार की जा रही टिप्पणियों के बावजूद सत्ताधीश मौन बने हुए हैं। इस संकट का सबसे बड़ा पहलू यह है कि लोगों की मौतों का गुस्सा डॉक्टरों व चिकित्सा स्टॉफ को झेलना पड़ रहा है। हालांकि, आपदा काल के कानून लागू हैं लेकिन डॉक्टरों को लगातार धमकाया जा रहा है और मारपीट तक की जा रही है। अपनी जान जोखिम में डालकर इलाज करने वाली बिरादरी इन हमलों से आहत है।
निस्संदेह, कोविड-19 की दूसरी लहर के सामने चिकित्सा सुविधाएं बौनी पड़ गई हैं। अस्पतालों में बेड, वेंटिलेटर, ऑक्सीजन व दवा की किल्लत तो है ही, साथ ही चिकित्सकों, नर्स तथा अन्य कर्मचारियों की भी कमी हो गई है। संक्रमण की भयावह स्थितियों में बढ़ते मौत के आंकड़े और उन्हें न बचा पाने की टीस के साथ चिकित्सा बिरादरी काम में जुटी है। वे भारी मानसिक तनाव में काम कर रहे हैं। वे संक्रमण के भय से अपने परिवार से भी सामान्य ढंग से नहीं मिल पाते। उनके घरों में बुजुर्ग व बच्चों को संक्रमण से मुक्त रखना उनकी बड़ी चिंता है। कोरोना के उपचार में लगे डॉक्टरों व नर्सों के साथ पड़ोसियों द्वारा अभद्रता की विचलित करने वाली खबरें भी आई हैं। बड़ी संक्रमित अाबादी के लिये पर्याप्त चिकित्सा व चिकित्सक न होने पर दिल्ली, बिहार समेत देश के कई भागों में डीआरडीओ द्वारा तैयार कोविड अस्पतालों की बागडोर सेना को सौंपी गई है। जहां कोविड प्रोटोकॉल के साथ मरीजों को राहत दी जा रही है। लेकिन सरकारी अस्पतालों में काम कर रहे फ्रंटलाइन वर्करों की शारीरिक व मानसिक परेशानियां लगातार बढ़ती जा रही हैं। इस दौरान देश में एक हजार के करीब चिकित्सकों ने कोरोना संक्रमण से जान गंवाई है। चिकित्सक भी संक्रमण के भय के बीच मरीजों को संभव इलाज देने का प्रयास कर रहे हैं। दोनों वैक्सीन लगने के बाद भी दिल्ली व लखनऊ में बड़ी संख्या में डॉक्टरों के संक्रमित होने के समाचार आये हैं। अस्पतालों में मौतों का अंतहीन सिलसिला उन्हें अवसाद व विवशता से भर देता है। ऐसे में फ्रंटलाइन वर्कर्स का मनोबल बढ़ाने और उन्हें अवसाद से बचाने की जरूरत है। चौबीसो घंटे महामारी की त्रासदी से जूझना उनकी नियति बन चुकी है। जरूरी है कि एक ऐसा मेडिकल कार्यबल बनाया जाये जो चिंता, अनिद्रा, अवसाद व हताशा से जूझ रही चिकित्सा बिरादरी को राहत दे सके। यह वक्त देश के चिकित्सा ढांचे में आमूलचूल बदलाव और चिकित्सा कर्मियों की सेवा शर्तों में सम्मानजनक वृद्धि करने का है।