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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.सांसों की नई ‘संजीवनी’
कोरोना वायरस की घुटन से जिनकी सांसें उखड़ रही थीं, अब उन्हें जल्द राहत मिल सकती है, क्योंकि एक और ‘संजीवनी’ की तलाश सार्थक हो गई है। रक्षा मंत्रालय के डीआरडीओ के वैज्ञानिकों के प्रयोग और परीक्षण सफल रहे हैं, नतीजतन एक और संपूर्ण स्वदेशी दवा का आविष्कार हुआ है-2 डीजी। यानी 2 डीऑक्सी-डी-ग्लूकोज। चूंकि विशेषज्ञ समूह की अनुशंसा पर भारत सरकार के औषधि महानियंत्रक ने इस स्वदेशी दवा के आपात इस्तेमाल की मंजूरी दे दी है, लिहाजा डा. रेड्डी लैब के सहयोग से दवा का उत्पादन होगा और 7-10 दिनों के अंतराल में यह ‘संजीवनी’ बाजार में उपलब्ध हो सकती है। एक कोविड रोधी टीके के बाद कोविड रोधी दवा…! यकीनन यह हमारे वैज्ञानिकों के बौद्धिक अनुसंधान का करिश्मा है। 2-डीजी को जीवन-रक्षक औषधि माना गया है, क्योंकि इसके मानवीय परीक्षणों के निष्कर्ष हैं कि दवा के सेवन से आक्सीजन की निर्भरता कम होगी। कोविड के जिन मरीजों को लगातार 7 दिनों तक दवा का घोल पिलाया गया, उनकी आक्सीजन ठीक स्तर पर रही और उनकी आरटी-पीसीआर रिपोर्ट भी नेगेटिव आई। यह दवा ग्लूकोज की तरह पाउडर के रूप में उपलब्ध होगी।
इसे पानी में घोल कर सुबह-शाम मरीज को दिया जा सकता है। अलबत्ता अंतिम निर्णय डाक्टर का ही होगा कि वह कितनी डोज बताता है। दवा के रूप में इस महान उपलब्धि की शुरुआत अप्रैल,2020 में हुई, जब भारत में कोरोना संक्रमण आकार ग्रहण करने लगा था। देश भर में लॉकडाउन की स्थिति थी। औषधि का महत्त्वपूर्ण दूसरा परीक्षण मई-अक्तूबर के दौरान किया गया, जब सितंबर में कोरोना की पहली लहर अपना ‘चरम’ छू कर ढलान की ओर बढ़ने लगी थी। तीसरा महत्त्वपूर्ण परीक्षण दिसंबर,’20 और मार्च,’21 के दौरान किया गया, जिसका संजीवन रूप अब देश के सामने है। इतना ही नहीं, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, कर्नाटक, दिल्ली, उप्र आदि राज्यों के 27 अस्पतालों में कोविड मरीजों पर व्यापक परीक्षण किए गए। बताया जा रहा है कि नतीजे बेहद सुखद और सकारात्मक रहे। दरअसल यह कोविड की ‘किलिंग एजेंट’ दवा नहीं है। यानी वायरस को मारने का काम नहीं करती, बल्कि वायरस को शुरू में ही विस्तार से रोकती है। संक्रमित कोशिकाओं तक ही पहुंचना इस दवा की खासियत है। इससे मरीज में संक्रमण के लक्षण जल्दी खत्म हो जाते हैं। डीआरडीओ के नाभिकीय औषधि एवं संबद्ध विज्ञान संस्थान ने डा. रेड्डी लैब के सहयोग से यह दवा विकसित की है। फिलहाल यह दवा अस्पतालों को ही मुहैया कराई जाएगी।
उनके जरिए परीक्षण के जो डाटा सामने आएंगे, उन्हें अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल्स में प्रकाशित किया जाएगा। ऐसी प्रक्रिया से दवा की प्रभावशीलता को सत्यापित किया जा सकेगा। दवा के अनुसंधान से जुड़े वैज्ञानिकों का दावा है कि 2-डीजी कोविड की किसी भी नस्ल और रूप पर कारगर साबित होगी, लिहाजा दवा को अंतरराष्ट्रीय पहचान और बाजार भी मिलेंगे। फिलहाल डीआरडीओ-रेड्डी कंपनी का फोक्स भारत के कोविड मरीजों पर ही है,क्योंकि आक्सीजन का संकट एक संवेदनशील मुद्दा बनकर सामने आया है। आक्सीजन की कमी के कारण कई मरीजों की मौत भी हुई है। बेशक 2-डीजी आक्सीजन का विकल्प नहीं है, लेकिन प्राण वायु पर किसी भी बीमार की निर्भरता को बेहद कम करना भी मानवीय उपलब्धि होगी। कोरोना के त्रासद काल की यह दवा एक नई उम्मीद, ‘रामबाण, साबित हो सकती है। दावा यह भी किया गया है कि 42 फीसदी मरीजों की आक्सीजन निर्भरता तीसरे दिन ही खत्म हो गई। वैज्ञानिकों ने कोविड की पहली लहर के दौरान ही दवा के प्रयोगों को हैदराबाद की सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी की मदद से लैब में टेस्ट किया था। स्थापित मानकों पर मूल्यांकन करें, तो यह दवा लेने वाले मरीज दूसरे मरीजों की तुलना में अढ़ाई दिन पहले स्वस्थ हुए। बहरहाल 2-डीजी का स्वागत है। एक और स्वदेशी आयाम खुला है, जो यकीनन हमारी वैज्ञानिक सफलता का प्रतीक है।
2.बिना नहाए परीक्षा
प्रतीक्षा में परीक्षा और स्कूल की खामोश घंटियां, भविष्य की चादर ओढ़े शिक्षा के प्रमाण सो रहे हैं। यकायक टन सी आवाज में उद्घाटित घोषणा शिक्षा की सीढि़यां बदल देती है और तब समुद्र सरीखा ज्ञान एक सफा बन जाता है। मैट्रिक की परीक्षा बिना नहाए-धोए अब शिक्षा की गर्दन पर एक नोटिस चस्पां कर देती है और इस तरह साल भर का कोरोना काल बच्चों के संघर्ष को ऐसे पुरस्कृत कर देता है, जिसे कबूल करना गुनाह है या इससे बचना मना है। दीवारों के भीतर अटके ज्ञान का मूल्यांकन एक फेहरिस्त तो बना सकता है, लेकिन सफलता की सूचियों में अब कौन क्रांति लाएगा। शिक्षा भी एसओपी बन गई और वक्त ने अपने असहाय पन्नों पर एक उपाय जोड़ दिया। व्यक्तित्व निर्माण की कितनी ईंटें खिसक जाएंगी या पर्दे में शिक्षक की आबरू फंस जाएगी, किसने सोचा। शिक्षक तो लगातार कसरतें करता रहा और अपनी साधना में छात्र समुदाय भी जुटा रहा, लेकिन इस दरिया को पार करने में दोनों वर्ग कीचड़ में धंसे हैं।
हम शारीरिक और बौद्धिक कसौटियों पर कोरोना का मुकाबला कर रहे हैं, लेकिन मानसिक विकार की तलहटी पर बिखरी शिक्षा के हर पात्र के लिए यह समय जिंदगी की ऐसी क्षति से सराबोर है, जिसे परखने, पलटने व पूर्व स्थिति में लाने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं। यह दसवीं कक्षा से ग्यारहवीं का सीधा तिलक लगाकर भी आत्मग्लानि का बोध भर रहा है, तो यह कैरियर के युग का घाटा है। हम अपनी ही एक पीढ़ी की महत्त्वाकांक्षा को रौंदने को मजबूर हुए, इससे घातक पश्चाताप और क्या होगा। जिन्होंने देश के लिए इंजीनियर बनने की पिछले कई वर्षों से ठानी है या जो सेहत के मैदान पर योद्धा अंगीकार होने का स्वप्न पाले हैं, उनके भविष्य के आगे प्रश्नचिन्हों की फिरौती मांग रहा कोरोना काल, न जाने कहां तक हमें अभिशप्त करेगा। आश्चर्य के कोई मानवीय मानक गढ़े जाएंगे, तो इस दौर के बचपन से निकल कर जो शिशु स्कूल की अंगुली पकड़ रहे थे, उन्हें बार-बार देखा जाएगा। बाल्यावस्था में ऑनलाइन पढ़ाई का सबूत तो बचपन बन सकता है, लेकिन उसके साथ संवादहीनता के अनूठे प्रश्नों का उत्तर कौन बताएगा। तमाम गृहिणियां या पढ़ना सीख रहे बच्चों की माताएं, इस वक्त की धुंध से चाहे छोटा सा आसमान भी छीन लें, उन्हें मानवता प्रणाम करेगी। औपचारिक शिक्षा के लिए घर में चटाई बिछा कर, जो औरत अपने नन्हों की परवरिश कर रही है, वही कल संपूर्ण शिक्षा की कमाई होगी।
कोरोना काल का सबसे बड़ा गुरु घर में बैठा अपनी ही औलाद के तर्क, तेवर और तन्मयता का साक्षी है। मीलों दूर बैठा शिक्षक अगर यह समझता है कि रोज उसकी क्लास में पसीना बह रहा है, तो यह अभिभावकों में खास तौर पर किसी न किसी मां का श्रम है। छोटे बच्चों की माताओं को यह दौर नहीं भूल सकता, क्योंकि वे मां की भूमिका का विस्तार करते हुए कभी चिकित्सकीय चुनौतियों के बीच अपनी पलकों की पालकी में उन्हें संभाल रही हैं, तो कभी एक शिक्षक की तरह उनके व्यक्तित्व का सांचा बना रही हैं। ऐसे में पांचवीं कक्षा तक के बच्चों की माताओं के प्रति समाज की कृतज्ञता के अलावा शिक्षा विभाग को भी ऐसे योगदान को सम्मानित करना होगा। शिक्षा अपने खरे-खोटे अनुभव के संक्रमण काल से गुजर रही है। ऐसे में स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों के औचित्य पर छात्र व अभिभावक समुदाय की सोच बदल रही है। पढ़ाई के अनौपचारिक ढर्रे और सिकुड़ती कमाई ने पुनः सरकारी व निजी स्कूलों में अंतर पैदा किया है। हमीरपुर में 2166 छात्र निजी स्कूल छोड़कर सरकारी परिसर में प्रवेश ले रहे हैं, तो यह ट्रेंड पूरे हिमाचल में शिक्षा के प्रति आस्था बदल रहा है। शिक्षा विभाग इस दौर में फीस को लेकर प्रासंगिक दिखाई दे रहा है, तो इस अवसर में आगे चलकर बहुत कुछ पाने और बहुत कुछ संवारने की आवश्यकता रहेगी।
3.दवाओं की पड़ताल
दुनिया भर में कोविड महामारी से निजात पाने के लिए प्रभावशाली दवाओं की खोज लगातार जारी है। अब तक जो इलाज किया जा रहा है, वह मुख्यत: मरीज के शरीर के तंत्र को सहारा देने और नुकसान को सीमित करने पर आधारित है, ताकि शरीर का प्रतिरोधक तंत्र खुद वायरस से मुकाबला कर ले और वायरस जल्दी शरीर से चला जाए। जैसे बैक्टीरिया से मुकाबला करने के लिए कई प्रभावी एंटीबायोटिक दवाएं हैं, वायरस से होने वाले रोगों के खिलाफ हमारे पास बहुत सीमित दवाएं हैं, जो कुछ ही वायरस के खिलाफ कारगर होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पिछले साल ऐसी चार दवाओं का परीक्षण किया था, जिनके कोविड के खिलाफ कारगर होने की संभावना थी, लेकिन उनमें से कोई सचमुच प्रभावशाली नहीं साबित हुई। हालांकि, बाद में उनमें से एक रेमडेसिविर को सीमित आधार पर उपयोग की मान्यता दे दी गई । अब विश्व स्वास्थ्य संगठन तीन नई दवाओं का परीक्षण दुनिया के कई अस्पतालों में करने जा रहा है। हालांकि, इनमें से कोई वायरस को मारने वाली दवा नहीं है, बल्कि ये एक अलग सिद्धांत पर काम करती हैं, जो आम तौर पर अब तक कोविड के गंभीर स्वरूप के खिलाफ सबसे ज्यादा कारगर तरीका नजर आता है। देखा यह गया है कि अक्सर कोविड के मरीजों की गंभीर स्थिति इसलिए हो जाती है, क्योंकि उनके शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र कोरोना वायरस के खिलाफ इतने ज्यादा आक्रामक तरीके से हमला करता है कि उससे मरीज के फेफड़ों की कोशिकाएं ही क्षत-विक्षत हो जाती ंहैं, यानी कोरोना वायरस से ज्यादा नुकसान शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र करता है। ऐसा कई वायरल संक्रमणों में होता है। एच1एन1 वायरस से होने वाले इन्फ्लुएंजा में लगभग 80 प्रतिशत गंभीर मामले इसी वजह से होते हैं। यही कारण है, सौ बरस पहले स्पेनिश फ्लू से मरने वालों में ज्यादातर नौजवान थे। नौजवानों का रोग प्रतिरक्षा तंत्र ज्यादा मजबूत होता है, इसलिए उनके प्रतिरक्षा तंत्र ने ज्यादा नुकसान किया। कोविड में इस प्रक्रिया के बारे में ठीक-ठीक पता नहीं है, लेकिन यह प्रमाणित है कि प्रतिरक्षा तंत्र को दबाने वाली कॉर्टिकोस्टेरॉइड व अन्य दवाएं गंभीर मरीजों में काफी कारगर साबित हुई हैं। प्रतिरक्षा तंत्र से जुड़ी बीमारियों में उपयोगी दवाएं जैसे टॉकलिजुमाब का भी गंभीर बीमारी में उपयोग किया जा रहा है और उसके नतीजे भी काफी अच्छे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन अब जिन तीन दवाओं, इमेटिनिब, आर्टेस्युनेट और इन्फ्लिक्सिमैब का परीक्षण कर रहा है, वे शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र पर काम करती हैं। हम जानते हैं कि डेक्सामेथासॉन जैसे स्टेराइड और टॉकलिजुमाब जैसी दवाएं कारगर तो हैं, लेकिन सारे मरीजों में इनका एक सा असर नहीं देखने में आता। कुछ मरीजों को इन दवाओं से फायदा होता है, तो कुछ को बिल्कुल नहीं होता। अब कोशिश यह है कि इसी किस्म की कुछ अन्य दवाएं खोजी जाएं, जिनके प्रभाव का दायरा ज्यादा हो और जिनसे ज्यादा मरीजों को निश्चित रूप से लाभ मिल सके। जाहिर है, कोरोना की रोकथाम की दूरगामी रणनीति का आधार तो वैक्सीन ही हो सकता है, लेकिन जब रोग की लहर चल रही हो, तब उनमें से करीब चार-पांच प्रतिशत लोग गंभीर रूप से बीमार हो सकते हैं। इन लोगों के लिए प्रभावी इलाज खोजने की कोशिशें बहुत महत्वपूर्ण हैं। उम्मीद है कि यह कोशिश जल्दी कामयाब होगी।
4.अंधेरे में उम्मीद
ऑक्सीजन के नियमन को टास्क फोर्स
ऐसे वक्त में, जब देश कोरोना महामारी के संकट से कराह रहा है और तंत्र की विफलता उजागर हो रही है, संवैधानिक संस्था के रूप में न्यायपालिका लड़खड़ाते तंत्र को संबल देती नजर आई है। न्यायपालिका की सक्रियता आश्वस्त करने वाली है। आम लोगों के दु:ख-दर्द को संवेदनशील ढंग से महसूस करते हुए सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्टों ने सरकारों को फटकार लगाई है और व्यवस्था सुधारने के लिये चेतावनी दी है, जिससे नागरिकों का भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास बढ़ा है कि जब सरकारें उदासीन हो जाती हैं तो कोई संस्था तो है जो उनके दु:ख-दर्द बांटने वाली है। देश में मेडिकल ऑक्सीजन की भारी किल्लत और टूटती सांसों के बीच सुप्रीम कोर्ट ने इसके नियमन के लिये नेशनल टास्क फोर्स को हरी झंडी दी है जो ऑक्सीजन की उपलब्धता, आपूर्ति का आकलन और वितरण को लेकर सिफारिश करेगी। इस बारह सदस्यीय टास्क फोर्स में देश के चोटी के चिकित्सा विशेषज्ञों को शामिल किया गया है, जिसमें केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सचिव और टास्क फोर्स के संयोजक, कैबिनेट सचिव स्तर के अधिकारी शामिल होंगे। टास्क फोर्स न केवल मौजूदा संकट बल्कि भविष्य के लिये भी पारदर्शी और पेशेवर आधार पर महामारी के मुकाबले हेतु जानकारी देगी और रणनीति बनायेगी।
ऐसे वक्त में, जब देश की राजधानी से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में ऑक्सीजन के अभाव में अस्पताल में भर्ती कोविड मरीजों की मौत की खबरें आ रही थीं, यह खबर राहत देने वाली है। यानी मौजूदा संकट ही नहीं, भविष्य की चुनौतियों के मुकाबले के लिये भी इससे समय रहते रणनीति बनाने में मदद मिलेगी, जो देश में मौजूदा ऑक्सीजन के मूल्यांकन, जरूरत के आकलन और उसका न्यायसंगत वितरण में सहायक होगा। निस्संदेह देश के जाने-माने अस्पतालों के डॉक्टरों को शामिल करने से इसे व्यावहारिक बनाने में मदद मिलेगी। कोर्ट द्वारा नियुक्त पैनल ग्रामीण क्षेत्रों में भी आवश्यक दवाओं, मानवशक्ति और चिकित्सा देखभाल के मुद्दों पर एक सार्वजनिक स्वास्थ्य सिस्टम विकसित करेगा। इतना ही नहीं, महामारी प्रबंधन को लेकर टास्क फोर्स शोध भी करेगी और दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराएगी। जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ व जस्टिस एम.आर. शाह की खंडपीठ ने फिलहाल टास्क फोर्स का कार्यकाल छह माह रखा है। इस अवधि में कार्यबल अपनी रिपोर्ट व सिफारिशें तैयार करेगा। कार्यबल केंद्र के संसाधन का इस्तेमाल जानकारी व सलाह लेने के लिये कर सकता है। नीति आयोग, स्वास्थ्य मंत्रालय, राष्ट्रीय जनसांख्यिकी केंद्र, मानव संसाधन विकास मंत्रालय तथा उद्योग मंत्रालय के सचिव इसमें सहयोग करेंगे। कार्यबल क्षेत्रों के आधार पर एक से अधिक उप-समूह बना सकेंगे। कार्यबल देखेगा कि किस राज्य को वैज्ञानिक, तर्कसंगत व न्यायसंगत आधार पर कितनी ऑक्सीजन की जरूरत होगी। वहीं इसी बीच डीआरडीओ द्वारा विकसित कोविड की दवा 2-डीजी को औषधि महानियंत्रक द्वारा आपातकालीन उपयोग के लिये अनुमति दिया जाना सुखद खबर है, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि यह मरीजों को जल्दी ठीक करने और ऑक्सीजन की निर्भरता कम करने में सहायक होगी, जो कुछ सप्ताह में मिलनी शुरू हो जायेगी।