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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.सहयोग-सहमति का दौर
कोरोना के वीभत्स चरण में कौन कितना आलोच्य हो सकता है, इस पर गौर करते हुए लोकतांत्रिक अधिकारों का विवेचन करेंगे या मानवता के सवालों का अर्थ खोज पाएंगे। यह टेढ़ी फकीरी है, जहां लंगर और लंगोट हार रहे हैं, फिर भी हम उन्मादी बनकर कोरोना को परास्त नहीं कर पाएंगे। यह प्रतिकूलता के बीच इनसानी संयम का संघर्ष साबित होगा, अतः आलोचना की अनिवार्यता भी यह हिदायत दे रही है कि कुछ कदम साहस, विश्वास, सहयोग व सहमति से लिए जाएं। हिमाचल में एक वायरल वीडियो का तहलका किसके कान खोल रहा है या खोल पाएगा, यह तो कहा नहीं जा सकता, लेकिन धमकियों का यह अंदाज गैर जरूरी है। वीडियो में जिस तरह की भाषा से चिकित्सा अधिकारी को डराया-धमकाया जा रहा है, उसे कानूनी व वर्तमान स्थिति के अनुरूप नहीं माना जा सकता है।
बेशक अव्यवस्था की चीख सुनकर संवेदशीलता की पुकार आक्रोश में आ सकती है या जन पीड़ा का संवेग सारे बंधन तोड़कर मुखातिब होना चाहेगा, फिर भी यह वक्त धीमे चलने का है, दौड़ने-भागने का नहीं। कुछ इसी तरह के हाल सोशल मीडिया के भी हो सकते हैं, जहां अधूरी जानकारियों की गति से भ्रम और आलोचनाओं का माहौल तीव्रता से फैल रहा है। पिछले दिनों डोनाल्ड ट्रंप और अमिताभ बच्चन के नाम से हासिल फर्जी प्रवेश पत्रों पर फजीहत किसकी हुई। व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने के अवसर बढ़ा कर दखेंगे, तो सरकार का हर फैसला नापसंद किया जा सकता है, लेकिन यह कोरोना काल है इसलिए पहले से भांप कर भी तो दीवारें खड़ी नहीं की जा सकतीं। जनता के लिए सबसे बड़ी राहत तो सुशासन की कसौटी पर होगी और इसके लिए सरकार को हर फीडबैक को सकारात्मक रूप से लेना होगा, लेकिन प्रदेश का हर नागरिक या नेताओं की कोई टोली ही तो सलाहकार नहीं हो सकती है। देखा जा रहा है कि हर दिन कोई न कोई एक्सपर्ट पैनल या तो सोशल मीडिया के जरिए, कोरोना के खिलाफ प्रयत्न की खिल्ली उड़ा रहा होता है या कोई वरिष्ठ नेता बिना किसी प्रशासनिक ज्ञान के सलाह के दंड पेल रहा होता है। नाजुक दौर में डिजिटल मीडिया भी अपनी आंखों में नजारे भरने की कोशिश में यह भूल न कर दे कि कहीं, वायरल वीडियो का प्रसारण अविश्वास का प्रलाप बन जाए।
ऐसे में सरकार का यह दायित्व है कि सूचनाओं के तत्त्व में स्वास्थ्य संबंधी बुलेटिन तैयार करवाए। जनता सुनना चाहती है कि प्रदेश किस तरह संक्रमण के खिलाफ बंदोबस्त कर रहा है, यही वजह है कि कर्फ्यू की घोषणा को नागरिकों ने अपने जीवन का आदर्श बनाया और अब लॉकडाउन सरीखे प्रतिबंधों पर भी सहमति के उद्गार सामने हैं, लेकिन अपने ही किंतु-परंतु के बीच सरकारी आदेश भ्रम पैदा करते हैं। कुछ जिलाधीश मीडिया से नियमित संबोधित हो कर तमाम जानकारियों से जनता की क्षुधा शांत करने में अवश्य ही सफल हुए हैं। मौजूदा हालात को देखते हुए जनता ने कर्फ्यू की हर परिभाषा का सम्मान किया है और यह किसी भी सरकार के लिए सुशासन की अहम कड़ी बन रही है। ऐसे में सुझावों का पुलिंदा बनाने के बजाय फैसलों पर अमल करना होगा, जबकि दूसरी ओर प्रशासनिक हेल्पलाइन को जवाबदेह होना पड़ेगा। हमारा मानना है कि रिटायर्ड नेताओं को भी नित नए सुझाव देने के बजाय सामाजिक असमंजस को दूर करने का नेतृत्व करना होगा। कोरोना के लिए कर्फ्यू दरअसल वैयक्तिक अनुशासन का प्रबंधन व संयम की सीमा रेखा सरीखा कर्त्तव्य है और इसके प्रति हम सभी जवाबदेह हैं। आश्चर्य यह कि वर्तमान परिस्थितियों की सीमित परिधि में भी, आवश्यक वस्तुओं की बिक्री में कुछ लोग अपनी नैतिक जिम्मेदारी भूल रहे हैं। अनावश्यक रूप से फल-सब्जियों और किराने के दामों में उछाल की वजह बाजार की गंदगी है और इस पर नियंत्रण होना ही चाहिए।
2.मौत का पूर्वाग्रही आकलन
हम अभी तक ‘द लांसेट’ को प्रख्यात वैज्ञानिक और चिकित्सीय शोध पत्रिका मानते थे। अब भी असंख्य लोगों का अभिमत यही होगा, लेकिन हमारी धारणा एकदम चकनाचूर हुई है। बड़ा विस्फोटक मोहभंग हुआ है। हमें एहसास है कि ‘लांसेट’ के अस्तित्व और स्वीकार्यता पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन मोहभंग छोटे-छोटे कंकर-पत्थर होते हैं, जो एकाएक ‘रामसेतु’ के रूप में अवतरित होते हैं। ‘लांसेट’ अपने अंतरराष्ट्रीय अहंकार में चूर, बेशक, रहकर ऐसे मोहभंगों की परवाह न करे, लेकिन विराट, विविध और व्यापक भारत भी ‘लांसेट’ की संपादकीय टिप्पणी को खारिज करता है। इसका बुनियादी कारण है कि पत्रकारिता इस स्तर पर भी दुराग्रहों से सनी हुई है। भारत का अपना अस्तित्व है, गौरव-सम्मान है, हैसियत है और दुनिया की सहस्त्र भुजाएं सुरक्षा चक्र की तरह उसके चौगिर्द मौजूद हैं। कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के मद्देनजर भारत के अपने यथार्थ हैं। खामियां भी हैं, तो कामयाबियां भी हैं। जिन विदेशी अंचलों ने ‘लांसेट’ की ताजपोशी की है, उनमें से कोई भी देश, भारत के एकमात्र राज्य उप्र से, बड़ा और विविध नहीं है।
भारत के लोग उस राज्य में भी कोरोना से लड़ रहे हैं, लथपथ हैं, लेकिन पराजित नहीं हुए हैं। नतीजतन आज उस राज्य में मरीज कम और ठीक होने वालों की संख्या अधिक है। हालांकि हम इसे भी निर्णायक स्थिति नहीं मानते। अभिप्रायः यह है कि ब्रिटेन और यूरोपीय देश, भारत के साथ तुलना, कैसे कर सकते हैं? हाहाकार और लाशों के अंबार तो दुनिया के सबसे ताकतवर और संपन्न देश अमरीका ने भी देखे हैं और चिंताजनक आंकड़ों के सिलसिले अब भी जारी हैं। यूरोपीय देशों में भी अस्पतालों के भीतर की दुर्दशा और अव्यवस्था तथा सड़कों पर मरते लोगों को दुनिया ने देखा है। वे सभी खुद को घोर विकसित देश मानते रहे हैं, लिहाजा ‘लांसेट’ का राजनीतिक विश्लेषण भारत के प्रधानमंत्री मोदी को ही ‘कोरोना का खलनायक’ कैसे करार दे सकता है? ‘लांसेट’ को दुनिया का टीकाबाज तय नहीं किया गया है। तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर पत्रकारिता समीक्षा कर सकती है। यह स्वतंत्रता हमें लोकतंत्र देता है, लेकिन ‘लांसेट’ के संपादकीय में जो आंकड़े दिए गए हैं, भारत उन्हें झेल चुका है और लगातार कई दिनों तक 4 लाख से अधिक संक्रमित मामलों को देख चुका है। ताजातरीन आंकड़े घटकर करीब 3.67 लाख रोजाना पर आ चुके हैं, लेकिन करीब 3.53 लाख ठीक होकर अपने घरों को लौट भी चुके हैं। मौतों की संख्या पूरे कोरोना काल के दौरान अब भी 2.5 लाख से कम हैं और ‘पीक’ के विभिन्न आकलन सामने आ रहे हैं। उनके मद्देनजर भारत में कोविड से मौतों की संख्या 10 लाख तक पहुंचना ‘लांसेट’ का एक पूर्वाग्रही आकलन है। वह भारत को बीमार और कोरोना के लिहाज से सबसे असुरक्षित और खतरनाक देश चित्रित करना चाहता है। शायद इस विश्लेषण के पीछे भी हमारे ही कुछ राजनीतिक दल होंगे, क्योंकि ‘जयचंद’ की परंपरा आज भी भारत में है।
भारत में, उसके प्रधानमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री और अन्य जिम्मेदार चेहरों को, जवाबदेही के लिए मीडिया ने लगातार कठघरे में खड़ा किया है। यह भारत और उसके नागरिकों का विशेषाधिकार है, लेकिन कोई विदेशी पत्रिका अकेले प्रधानमंत्री पर ही ठीकरा फोड़ने की कोशिश करेगी, तो कमोबेश वह भारत को स्वीकार्य नहीं होगा और भारत उसे खारिज भी करेगा। ‘जयचंद’ अपनी साजिशें जारी रखें। पत्रकारिता की तटस्थता का धर्म यह है कि ‘लांसेट’ अमरीका, ब्रिटेन, यूरोपीय देशों और चीन के राष्ट्राध्यक्षों (राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री) को भी, कोविड की अनियंत्रित और जानलेवा स्थितियों के लिए, कठघरे में खड़ा करती। पत्रिका में यह जानने की भी कोशिश करनी चाहिए थी कि इन देशों के नेताओं ने भारत की स्थिति पर क्या बयान दिए हैं और कितनी मदद मुहैया करवा रहे हैं, लेकिन कोरोना के सबसे बड़े अपराधी देश, चीन, को ‘लांसेट’ ने लगभग हरी झंडी दिखा दी। यह कैसी पत्रकारिता और कैसा विश्लेषण है। ‘लांसेट’ ने भारत में टीकाकरण अभियान की धीमी गति की बात कही है और सुझाव भी दिया है कि कोरोना के खिलाफ टीका ही सबसे मजबूत सुरक्षा चक्र है। ऐसे सुझावों का स्वागत है, लेकिन भारत के लोकतंत्र और संविधान में कोई प्रधानमंत्री किसी का भी गला घोंटने की कोशिश नहीं कर सकता। कानून की धाराएं प्रधानमंत्री को भी लपेट सकती हैं। भारत में प्रधानमंत्री को भ्रष्टाचार के एक मामले में ‘अभियुक्त’ तक घोषित कर दिया गया था और अदालती कार्रवाई का भी फैसला ले लिया गया था। बहरहाल ‘लांसेट’ को भारत की गरिमामय परंपराओं की जानकारी कैसे होगी? बेहतर होगा कि पत्रिका विज्ञान और चिकित्सा के डाटा छापने तक ही सीमित रहे।
3. तर्कसंगत वैक्सीन नीति
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि कोविड के टीकाकरण के मामले में वह सरकार को नीतियां बनाने दे और कोई दखल न दे। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ओर से ही इस मामले का संज्ञान लेते हुए कहा था कि पहली नजर में टीकाकरण की मौजूदा सरकारी नीति संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित जन-स्वास्थ्य के अधिकार का उल्लंघन है। अदालत की नजर में सरकार की यह वह नीति है, जिसके मुताबिक, वैक्सीन निर्माता कुल वैक्सीन उत्पादन का आधा केंद्र सरकार को देंगे और आधा जो बचेगा, उसमें से आधा-आधा राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों को दिया जाएगा। इस नीति में यह भी गौरतलब है कि केंद्र सरकार, राज्य सरकार और निजी अस्पताल, तीनों के लिए अलग-अलग कीमतें तय की गई हैं और तीनों में काफी फर्क है। केंद्र सरकार को जिस कीमत पर वैक्सीन मिलेगी, राज्य सरकार को उससे लगभग दोगुने दाम पर और निजी क्षेत्र को चौगुने दाम पर मिलेगी। इसी के साथ 18 से 44 की उम्र के लोगों को टीका लगाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को अपने कोटे से ही पूरी करनी है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी भेदभाव को लेकर सवाल उठाया है। सरकार भले ही कह रही है कि उसने तमाम विशेषज्ञों से विचार-विमर्श करके यह नीति बनाई है और सुप्रीम कोर्ट में दो सौ आठ पन्नों का हलफनामा भी दिया है, पर सुप्रीम कोर्ट के अलावा कई अन्य जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी इस नीति को लेकर सवाल उठा रहे हैं। यह अब भी स्पष्ट नहीं होता है कि एक ही वैक्सीन की तीन कीमतें क्यों और किस आधार पर तय की गई हैं? अगर सीरम इंस्टीट्यूट कोविशिल्ड वैक्सीन अब तक 150 रुपये में बेच रहा था और आइंदा भी केंद्र को इसी दाम पर बेचेगा, तो राज्यों या निजी अस्पतालों से दोगुने, चौगुने दाम वसूलने का क्या तर्क है? सरकार का तर्क सैद्धांतिक रूप से सही है कि कार्यपालिका को अपना काम करने की आजादी होनी चाहिए, लेकिन अगर मामला जन-स्वास्थ्य का हो और महामारी से लाखों लोग पीड़ित हों, तब प्रथम दृष्टया भेदभावपूर्ण नीति पर सवाल खड़ा करना न्यायपालिका का भी कर्तव्य है।
इस नीति के साथ कई सारे सवाल खड़े हो सकते हैं और हो रहे हैं। जब वैक्सीन निर्माता किसी ग्राहक को वही वैक्सीन चार गुना दाम पर बेच सकते हैं, तो वे कम दाम देने वाले ग्राहक को क्यों बेचेंगे? केंद्र सरकार तो अपने रसूख का फायदा उठाकर अपना हिस्सा हासिल कर लेगी, पर राज्यों के हिस्से में तो गड़बड़ी करना संभव होगा, फिर राज्य सरकारों पर 18 से 44 आयु वर्ग के लोगों के टीकाकरण की अतिरिक्त जिम्मेदारी है। इसके नतीजे दिखने लगे हैं, अभी से राज्य सरकारों के पास वैक्सीन की कमी होने लगी है। निजी अस्पतालों को मिलने वाली सारी वैक्सीन भी बड़े कॉरपोरेट अस्पताल समूह जुटा ले रहे हैं, छोटे अस्पतालों तक वैक्सीन पहुंच ही नहीं रही। बडे़ अस्पताल वैक्सीन की कीमत और अपना खर्च ज्यादा दिखाकर मनमाने दाम वसूल रहे हैं। हमारे यहां वैक्सीन दुनिया में सबसे ज्यादा महंगी बिक रही है। लोकतंत्र में यह जरूरी है कि सरकार के फैसले न्यायपूर्ण और पारदर्शी हों, उन फैसलों के तर्क को जनता के साथ साझा किया जाए। अब भी वक्त है, सरकार सुप्रीम कोर्ट के साथ मिलकर एक ज्यादा सरल और तर्कसंगत वैक्सीन नीति बनाए। कोरोना से लड़ने के लिए यह बहुत जरूरी है ।
4. टीके का समाजवाद
वैश्विक सहयोग से महामारी का मुकाबला
ऐसे वक्त में जब भारत समेत दुनिया के तमाम देश कोरोना महामारी की दूसरी-तीसरी लहर से जन-धन की व्यापक क्षति उठा रहे हैं, वैक्सीन को अंतिम सुरक्षा कवच के रूप में देखा जा रहा है। इसकी एक वजह यह भी है कि यदि टीकाकरण में देरी होती है तो बहुत संभव है कि वायरस नये वैरिएंट के रूप में कहर बरपाने लगे। वैश्वीकरण के इस दौर में किसी एक देश की वायरस से होने वाली बुरी स्थिति पूरी दुनिया को प्रभावित कर सकती है। यही वजह है कि मानवता की रक्षा के लिये इस वायरस के खिलाफ साझी लड़ाई की जरूरत महसूस की जा रही है। विडंबना यह है कि दुनिया के देशों को महामारी ही नहीं मार रही है, गरीबी भी मार रही है। साम्राज्यवादी ताकतों के उपनिवेशों से मुक्त हुए देशों को गरीबी विरासत में मिली है। यही वजह है कि दुनिया के तमाम देशों का संरचनात्मक ढांचा और वैज्ञानिक कौशल उस स्तर का नहीं है कि इस महामारी से जोरदार तरीके से लड़ा जाये। यही वजह है कि दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन उत्पादक देश भारत अपनी वैक्सीन खोजने के बावजूद बड़ी आबादी को टीके का सुरक्षा कवच अभी तक नहीं दे पाया है। इस चुनौती के मद्देनजर बीते साल भारत ने अमेरिका व यूरोपीय यूनियन से मांग की थी कि कोरोना वैक्सीन को बौद्धिक संपदा कानून के दायरे से मुक्त किया जाये, जिससे गरीब देश भी वैक्सीन उत्पादन की दिशा में उन्मुख हो सकेंगे और दुनिया को तबाही के कगार पर ले जाने को आमादा कोविड-19 की महामारी को खत्म किया जा सके। लेकिन तब अमेरिका तथा अन्य विकसित देशों ने भारत की तर्कपूर्ण बात को कान नहीं दिया था। लेकिन अब भारत व दक्षिण अफ्रीका आदि की अपील पर अमेरिका ने कोविड वैक्सीन पर पेटेंट के दावे को अस्थायी रूप से वापस लेने का फैसला किया है। निस्संदेह इससे उन गरीब मुल्कों को फायदा होगा जो अपनी आबादी को सस्ता टीका उपलब्ध कराने की आकांक्षा रखते हैं।
निस्संदेह यदि ये कोशिशें सिरे चढ़ती हैं तो सस्ता और मुफ्त टीका चाहने वाले देशों को बड़ी राहत मिलेगी। साथ ही उन देशों को फायदा होगा जो अपने देश में टीका बनाना चाहते हैं। हालांकि, अभी इस प्रक्रिया के सिरे चढ़ने से जुड़ी तमाम तरह की पेचीदगियां मौजूद हैं। अमेरिका की टीका उत्पादक कंपनियां तथा अनुदारवादी अमेरिकी बाइडेन प्रशासन को आंखें दिखा रहे हैं। विडंबना यह है कि महामारी दुनिया के तमाम देशों को समान रूप से अपना शिकार बना रही है, लेकिन अब तक बनी कुल 83 प्रतिशत वैक्सीन केवल अमीर व मध्यम आय वाले देशों में लग चुकी है। विसंगति देखिए कि महामारी से बचाव के लिये जहां अमेरिका अपनी 44 फीसदी आबादी को टीका लगा चुका है वहीं अफ्रीका में यह प्रतिशत एक ही है। अच्छी बात यह है कि अमेरिका के बाद यूरोपीय यूनियन ने भी इस मामले में सकारात्मक प्रतिसाद दिया है। ऐसे वक्त में जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं चौपट हो रही हैं और स्वास्थ्य विशेषज्ञ लगातार वैक्सीनेशन पर जोर दे रहे हैं, इसमें अमीर मुल्कों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। हालांकि, इस फैसले को तार्किक परिणति तक पहुंचाने में वक्त लग सकता है लेकिन अच्छी शुरुआत को आधी सफलता माना जाता है। अब बिना किसी कानूनी झंझट और मुकदमेबाजी के दुनिया की फार्मास्यूटिकल तथा वैक्सीन उत्पादक कंपनियां वैक्सीन बनाने के अभियान को अमलीजामा पहना सकेंगी। अधिक व सस्ते टीकों से कोरोना महामारी को समय रहते जीता जा सकेगा। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि अमेरिका व यूरोपीय यूनियन के देश गरीब मुल्कों को वैक्सीन उत्पादन के लिये तकनीकी और कच्चे माल की सहायता किस सीमा तक करते हैं। फिर भी यह अच्छी बात है कि दुनिया की महाशक्तियां इस घातक वायरस से मुकाबले के लिये राष्ट्रीय हितों से ऊपर उठकर मानवता के कल्याण की दिशा में अग्रसर हुई हैं। यह वक्त की मांग भी है कि हम इस संकट के खिलाफ साझा लड़ाई लड़ें।