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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.चीखों के बीच शंखनाद
क्या कबूतरों को उड़ा कर, आसमानी बाज़ का पीछा होगा। धरती का विकार हैं, ऊंचे युद्ध का नाद नहीं। जमीनी हकीकत के सिफर पन्नों पर लिखावट का सौंदर्य भी मजबूर है, क्योंकि यहां जब जरूरत थी तो मेहरबान नींद में थे। कुछ यही हाल है हिमाचल में स्वास्थ्य सेवाओं की तकदीर का और उस पर भी मलाल यह कि सारे संबोधन आलोचना को कुंद करना चाहते हैं। सारी स्थिति का जायजा लेते हमारे स्वास्थ्य मंत्री अब घूम रहे हैं या इन चीखों के बीच कोई नया शंखनाद होगा। वैज्ञानिक समाधान की तमाम संभावनाओं के बीच राजनीतिक इरादों की खनक को एक तरफ करके यह सोचें कि व्यवस्था क्यों मजबूर रही या हो रही। पिछले एक साल का महाभारत किसी सियासत की जीत हार के लिए नहीं था,बल्कि यह कोरोना को हराने का यत्न और प्रयत्न था। हम चले तो चौबे बनने, लेकिन दुबे भी नहीं बने। पिछले साल केंद्र से कुल 750 वेंटिलेटर मिले, जिनमें से ढाई सौ वापस करने के बावजूद हिमाचल अपनी क्षमता में पूरी सांसें नहीं भर पाया। आश्चर्य यह कि साल भर की करवटों में इतना दम भी नहीं रहा कि पांच सौ वेंटिलेटर पूरी तरह क्रियाशील हो जाते। आधे से कम वेंटिलेटर अगर आज चल रहे हैं, तो किस अस्पताल के आगे माथा रगड़ें या अपनी कृतज्ञता में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री का स्वागत करें। हर कोई सुर्खियां बटोरना चाहता है, लेकिन इस हमाम की इबारत बताती है कि भीतर कौन क्या है। हम अपाहिज व्यवस्था के मुखौटों पर नाज करते हैं और सरकारी तितलियों के भरोसे खुशी का इजहार करते हैं, जबकि हकीकत यह है कि सरकार के कान सिर्फ अपना कहा ही सुनते हैं। आश्चर्य यह कि हमने मरने वालों को भी भीड़ बना दिया और किसी लाश में लिपटे कफन की दास्तान तक नहीं सुनी। कितनी कहानियां स्वास्थ्य व्यवस्था के भीतर घूम रही हैं और कितने प्रभावशाली लोग प्रदेश के इसी ढांचे से बचने के लिए चंडीगढ़-जालंधर निकल गए, लेकिन जिन्हें आज भी सरकार के भरोसे जान बचानी है उन्हें उपकार नहीं, उपचार की दरकार है।
बढ़ते मामलों का प्रकोप और आंकड़ों का शोक जिस किसी घर की तलाशी ले रहा है, उन आहों का जिक्र भर बता देता है कि इन गलतियों से हम सीखे नहीं। बेशक व्यवस्था के बीच कोरोना की शहादतों में कई जाबांज योद्धा गिने जाएंगे, लेकिन इस युद्ध में कोई ताजमहल बनाने की कोशिश न करे, यह विनती अब जनता करने लगी है। किसी को तमाशबीन बनने का हक नहीं, चाहे नेता हों,या जनता। यह दीगर है कि जनता के सवाल जायज हैं, लेकिन ये सियासत का ईंधन नहीं। यहां सवाल उस सियासत से है, जो कुछ समय पहले स्थानीय निकाय चुनावों में यह भूल गई थी कि देश में कोरोना की दूसरी लहर पांव पसार चुकी थी। अपने सामाजिक समारोहों में हम भूल रहे थे कि हमारे बीच कोविड काल गुजर रहा था। बहरहाल अब यह देखना होगा कि हिमाचल के दोनों प्रमुख दल जो पंचायत चुनाव परिणामों के बाद अपने-अपने दावों की छाती पीट रहे थे, उनके कार्यकर्ता कहां हैं। विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के पन्ना प्रमुख अगर समाज में अपनी भूमिका तराशें, तो कोविड संक्रमितों को एंबुलेंस सड़क पर नहीं पटकेगी और न ही मृत्यु होने पर उस लाश को कचरे की गाड़ी में ढोया जाएगा। हिमाचल का हर विधायक व पूर्व विधायक इतनी हैसियत तो रखते होंगे कि वे फील्ड में उतर कर तमाम संक्रमितों को होम आइसोलेशन में मददगार हाथ साबित हों। बहुत सारे ऐसे दायित्व हैं जहां राजनीति अपने हाथियों से नीचे उतर कर समाज के साथ चलने की जरूरत को समझ सकती है। यह इसलिए कि हर संक्रमित को अस्पताल की जरूरत नहीं और अगर ऐसे नब्बे फीसदी लोगों का कुशलक्षेम पूछा जाए, तो न केवल व्यवस्था सुधरेगी, बल्कि जीवन बचाने में निचले स्तर तक सहयोग होगा।
2.कोरोना गांवों की ओर!
बेशक हमारे देश में कोरोना वायरस के मामले घट रहे हैं, लेकिन अभी संक्रमण में स्थिरता के आसार नहीं हैं। कोविड अब भी मौजूद है और स्थिरता की अंतिम स्थिति का इंतज़ार करना पड़ेगा। हालांकि भारत सरकार का विश्लेषण है कि 18 राज्यों में स्थिरता के रुझान स्पष्ट होने लगे हैं, लेकिन कोई दावा नहीं किया गया है। अब भी देश के 26 राज्यों में संक्रमण दर 15 फीसदी से अधिक है। 533 जिले ऐसे हैं, जहां संक्रमण दर औसतन 10 फीसदी से अधिक दर्ज की जा रही है। जाहिर है कि कोरोना संक्रमण लगातार फैल रहा है। देश में कुल 718 जिले हैं। एक और चिंतित आयाम सामने आया है कि बेशक शहरों में संक्रमित आंकड़े कम हो रहे हैं, लेकिन गांवों और कस्बों में कोरोना अब भी फैल रहा है। छत्तीसगढ़ की तस्वीर डराने वाली है, जहां करीब 89 फीसदी संक्रमित मामले ग्रामीण इलाकों से आए हैं। इसके अलावा हिमाचल, बिहार, ओडिशा, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, उप्र और जम्मू-कश्मीर के गांवों में 65 फीसदी से 79 फीसदी तक मामले दर्ज किए जाते रहे हैं और यह रुझान जारी है। यकीनन महाराष्ट्र, दिल्ली, उप्र आदि के शहरों में, बीते कुछ दिनों से, कोविड के मरीज घटे हैं। कम टेस्टिंग के बावजूद संक्रमण-दर बढ़ी है। देश में मंगलवार को 19 लाख से ज्यादा टेस्ट किए गए हैं। यह संख्या भी कम नहीं है।
लॉकडाउन, कर्फ्यू और अन्य पाबंदियां बुनियादी कारण हो सकते हैं कि संक्रमण को फैलने की वजह और जरिया कम मिल पा रहे हैं, लेकिन जिला स्तरीय डाटा स्पष्ट कर रहा है कि कस्बों और ग्रामीण इलाकों में कोविड लगातार फैल रहा है। देश के 24 में से 13 राज्यों में शहरों से अधिक संक्रमित मामले गांवों में मिले हैं। अन्य 11 राज्यों में भी गांवों में कोविड का विस्तार जारी है। यह स्थिति तब है, जब अधिकतर गांवों में टे्रसिंग, टेस्टिंग और ट्रीटमेंट की अपेक्षित सुविधाएं नगण्य हैं। अच्छे अस्पतालों की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती, बल्कि झोलाछापों की दुकानें फल-फूल रही हैं। पेरासिटामोल सरीखी दवा भी बेहद कम है। झोलाछाप पाउडर पीस कर मरीजों को जो भी दे रहे हैं, उसे स्वीकार करना ग्रामीणों की विवशता है। गांवों में कोविड के विस्तार की ख़बरें सुर्खियां बनी हैं, तो सरकारें सक्रिय हुई हैं। ग्रामीण इलाकों में मौतें भी खूब हो रही हैं, क्योंकि ग्रामीणों को कोरोना वायरस की पर्याप्त जागरूकता नहीं है। वे उसे ‘रहस्यमयी बुखार’ करार दे रहे हैं। ग्रामीण अब भी मलेरिया, टायफाइड आदि तक ही सिमटे हैं। हैरानी से सवाल करते हैं कि न जाने कैसा बुखार है, जो आसपास आने वालों को भी अपनी चपेट में ले लेता है और लोग मरने लगते हैं। गांववाले उस बुखार को कोविड नहीं मान पा रहे हैं।
यह है भारत में उप्र, मप्र और हरियाणा के गांवों का यथार्थ…! ऐसे कई राज्यों के गांवों से चौंकाने वाले आंकड़े मिल रहे हैं, नतीजतन सरकारें मुग़ालते में न रहें कि कोविड का ‘पीक’ अलग-अलग राज्यों में गुज़र रहा है और कोरोना के मामले घटने लगे हैं। अब भी कोविड के मामले 3.48 लाख रोज़ाना से ज्यादा हैं, लेकिन 3.55 लाख से अधिक मरीज स्वस्थ भी हुए हैं और मंगलवार के हिस्से ही 4200 से ज्यादा मौतें आई हैं। बेशक रोज़ाना का संक्रमण 4.14 लाख से कम हुआ है, लेकिन मौतें लगातार बढ़ रही हैं। विशेषज्ञ इसे चिंताजनक स्थिति मानते हैं। मौजूदा 24 घंटे का आंकड़ा 3.48 लाख भी अत्यधिक है, क्योंकि पिछली लहर में 97,000 से अधिक मामलों पर ‘पीक’ आ गया था। इस बार अलग-अलग आकलन सामने आ रहे हैं। सरकार का डाटा भी संदिग्ध है। यदि भारत के गांव कोविड-मुक्त नहीं हो पाए, तो देश की बेहतर कल्पना कैसे की जा सकती है? विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइन कहती है कि टेस्टिंग अधिक करो, तो संक्रमण पर उतनी जल्दी ही काबू पाया जा सकता है। भारत इस गाइडलाइन का भी पालन नहीं कर रहा है, क्योंकि सरकार के भीतर की ताकतवर शक्तियों के आदेश हैं कि संक्रमित मरीजों और मौतों के आंकड़े कम किए 87जाएं। बहरहाल यह स्थिति कहां जाकर थमेगी, फिलहाल कहना मुश्किल है। उसी के बाद व्याख्या की जा सकेगी कि देश में कोविड की हकीकत क्या है?.
3.बच्चों को वैक्सीन
भारत में वैक्सीन से संबंधित विशेषज्ञ समिति ने भारत बायोटेक की कोवैक्सीन का दो से 18 साल के बच्चों पर परीक्षण की मंजूरी दी है। इस वैक्सीन के तीन चरणों के परीक्षण में कुछ महीने लगेंगे और अगर यह परीक्षण में कसौटी पर खरी उतरी, तो संभव है कि बच्चों को भी टीका लगाने का काम शुरू हो सके। अभी तक सिर्फ अमेरिका में फाइजर मॉडर्ना वैक्सीन को बारह साल से बडे़ बच्चों को लगाने की शुरुआत हुई है, बाकी सभी जगहों पर कोरोना की सारी वैक्सीन सिर्फ वयस्कों को लग रही है। संभव है, और भी कई जगह बच्चों को वैक्सीन लगाने के लिए परीक्षण चल रहे हों, और कुछ अरसे में और देश भी बच्चों को टीका लगाना शुरू कर दें, लेकिन फिलहाल सबका ध्यान मुख्यत: ज्यादा से ज्यादा वयस्कों को टीका लगाने पर है।
जब कोरोना टीकों के लिए जगह-जगह परीक्षण चल रहे थे, तब वे सिर्फ वयस्कों पर ही किए जा रहे थे। इसकी वजह यह थी कि कोरोना महामारी का शिकार तब वयस्क ही ज्यादा हो रहे थे। बच्चों पर इसका असर बहुत कम हो रहा था और अगर उन्हें हो भी रहा था, तो उनका रोग प्रतिरक्षा तंत्र इस बीमारी का सामना बहुत मुस्तैदी से कर ले रहा था, इसलिए उन्हें बहुत मामूली लक्षण हो रहे थे। लेकिन कोरोना की बाद की लहर में बच्चे पहले से ज्यादा बीमार हो रहे हैं, हालांकि उनमें गंभीर लक्षण अब भी ज्यादा नहीं दिख रहे हैं। कुछ बच्चों में जरूर प्रतिरोधक तंत्र के अति सक्रिय होने के कारण गंभीर बीमारी के लक्षण हुए हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। फिर भी दूरगामी नजरिए से कोरोना के स्थाई नियंत्रण के लिए बच्चों को भी वैक्सीन लगाना महत्वपूर्ण होगा। खास तौर पर टीका लगवाने के बाद उनके स्कूल जाने, अन्य बच्चों के साथ घुलने-मिलने और खेलने-कूदने में दिक्कतें खत्म हो जाएंगी। भले ही बच्चे खुद बीमार कम हुए, लेकिन परोक्ष रूप से इस महामारी की मार उन पर कम नहीं पड़ी है। बढ़ती उम्र के बच्चों के लिए तो एक साल से ज्यादा वक्त से घर में कैद रहना, हमउम्र बच्चों के साथ खुली हवा में न खेल पाना बहुत बड़ी सजा है, और उनके विकास पर इसका बुरा असर होता है। टीका इन समस्याओं से निजात दिलाने में बहुत उपयोगी साबित हो सकता है। बच्चों के लिए वैक्सीन का परीक्षण करने की कुछ कठिनाइयां भी हैं और कुछ आसानियां भी। बच्चों के लिए वैक्सीन या किसी दवा का भी सही मात्रा का निर्धारण करना काफी नाजुक मामला होता है। जैसे सभी वयस्कों को लगभग एक ही मात्रा दे सकते हैं, वैसा बच्चों के साथ नहीं होता। अक्सर अलग-अलग उम्र और वजन के बच्चों के लिए अलग-अलग मात्रा की जरूरत होती है। बच्चों में दुष्प्रभावों को लेकर भी ज्यादा सचेत रहना होता है। दूसरी ओर, बच्चों का बेहतर रोग प्रतिरोध तंत्र वैक्सीन को ज्यादा प्रभावशाली बना देता है, इसीलिए बचपन में लगाए गए टीकों का असर बहुत अच्छा होता है। बच्चों में टीके का परीक्षण अच्छी खबर है, लेकिन फिलहाल हमारी समस्या वयस्कों के लिए टीकों की कमी है। वैसे हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि जब तक बच्चों के लिए टीके मंज़ूर होंगे, तब तक टीकों का उत्पादन भी बढ़ जाएगा और कुछ अन्य टीके भी भारत में आ जाएंगे। तब बच्चों को टीका लगवाना इतना कठिन नहीं होगा, जितना फिलहाल वयस्कों के लिए हो रहा है।
4.नाकामी पर तैरती लाशें
गांवों को तत्काल इलाज-आर्थिक पैकेज मिले
जीवनदायिनी कही जाने वाली गंगा व यमुना में तैरती लाशों ने पूरे देश को विचलित किया है। बक्सर और गाजीपुर के दृश्य हमारी तरक्की को झुठलाते हैं। ये हमें उस कालखंड में ले जाते हैं जब भारत में औपनिवेशिक साम्राज्य में भारतीय महामारी व अकाल के समय लाचार होकर अपनों को खोते थे। तब वे अंतिम संस्कार न कर पाने की स्थिति में अपनों को पास की नदी में प्रवाहित कर देते थे। बिहार के बक्सर में तैरती लाशें हमारे विकास के थोथे दावों को बेमानी बनाती हैं। हम चांद व मंगल पर जाने की बात तो करते हैं लेकिन गांवों को यह सुविधा नहीं दे पाते कि वे जांच कर सकें कि उन्हें कोविड-19 की महामारी ने डसा है या मामूली खांसी-जुकाम हुआ है। बक्सर के चौसा गांव के निकट गंगा में मिले शवों की गिनती को लेकर अलग-अलग दावे हैं। लेकिन मीडिया का दबाव बढ़ने के बाद चौसा गांव के निकट मिली 71 लाशों का पोस्टमार्टम हुआ है। शायद यह कभी न पता लग पाये कि इन लोगों की मौत की वजह क्या थी। दरअसल, शव क्षत-विक्षत थे। शवों का डीएनए संग्रहण जरूर किया गया है। इसको लेकर भी अलग-अलग दावे हैं। बिहार के अधिकारी इन शवों के उत्तर प्रदेश से बह कर आने की बात कर रहे हैं, कुछ लोग कहते हैं कि कोरोना काल में उपजे आर्थिक संकट के बीच काफी संख्या ऐसे लोगों की है जो अपने परिजनों के अंतिम संस्कार का खर्चा नहीं उठा पा रहे हैं। कुछ जगहों पर ग्रामीण कोरोना से मरे लोगों का अंतिम संस्कार श्मशान घाट में नहीं करने दे रहे हैं। बहरहाल, हाल ही में लखनऊ के श्मशान घाट पर सामूहिक चिताओं के लाइव प्रसारण के बाद टीन की चादरें लगाकर उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी मंशा जतायी थी। अब लाशों की फोटो खींचने वालों को भी गिरफ्तार करने की धमकी दी गई है। अधिकारी नदी के दोनों तरफ शवों को हटाने की कोशिश में लगे हैं। दरअसल, यूं तो वर्ष पर्यंत नदियों में शवों का प्रवाह रहता है जो ऐसी जगह में ठहर जाती हैं जहां नदी का किनारा चौड़ा होता है और पानी का वेग कम हो जाता है।
बहरहाल, ये हालात कोरोना संकट के भयावह होने की ओर इशारा करते हैं। शहरों में ऑक्सीजन संकट, बेडों के अभाव तथा दवाओं की कालाबाजारी के बावजूद कोविड के मरीजों को कुछ तो उपचार मिल जाता है, लेकिन ग्रामीण इलाकों के हालात डराने वाले हैं। इसी उत्तर प्रदेश में आम आदमी की तो बात छोड़िये, सत्तारूढ दल भाजपा के चार विधायकों को कोरोना लील गया है। ऐसे ही हालात में केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार ने पिछले दिनों मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को नाराजगी भरा पत्र लिखकर महासंकट में चिकित्सा अधिकारियों की उदासीनता, संसाधनों के अभाव तथा दवा व ऑक्सीजन सिलेंडरों की कालाबाजारी की शिकायत की थी। अन्य विधायक व सांसद भी पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं न होने की शिकायत करते रहे हैं। हालात बेकाबू हो रहे हैं और सरकार कह रही है कि हालात सुधर रहे हैं। जो बताते हैं कि सत्ताधीशों ने स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राथमिकता बनाने के बजाय राजनीतिक-धार्मिक एजेंडे को प्राथमिकता दी है। वैसे भी तमाम ज्ञात बीमारियों के लिये ही पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं मौजूद नहीं थीं, इस अज्ञात बीमारी के सामने तंत्र ने लाचार होना ही था। माना इस महामारी का पर्याप्त उपचार मौजूद नहीं है, लेकिन कम से कम मृतकों की अंतिम विदाई तो गरिमामय होनी ही चाहिए। महामारी से उपजी बदहाली में बेबसी दर्शाती स्थितियों से उबरने के लिये जरूरी है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आपात चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध कराई जायें। साथ ही केंद्र व राज्य सरकारें आर्थिक पैकेज उपलब्ध करायें, जिससे कोरोना प्रोटोकाल का सख्ती से पालन हो सके। अन्यथा ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी को काबू करना आसान नहीं होगा, जिसकी चेतावनी देश के चिकित्सा विशेषज्ञ और प्रधानमंत्री पहले ही दे चुके हैं। दरअसल गांवों में न तो पर्याप्त कोविड जांच की ही व्यवस्था है और न ही इलाज की, जिसका फायदा नीम-हकीम उठा रहे हैं।