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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.फ्रंट लाइन वैक्सीनेशन
कोरोना के खिलाफ मानसिक उथल-पुथल और कर्फ्यू बंदिशों के परिदृश्य में हालात का मुआयना गिड़गिड़ाने लगा है। समझ से परे हालात पर हाथ बांधे खड़ा नहीं हुआ जा सकता है, लिहाजा नई चिंताओं के साथ सूबेदारी, पहरेदारी तथा कारगुजारी बदल रही है। इसी जवाबदेही से निकला डिमांड चार्टर कल तक जिसे महसूस नहीं कर पाया, अब नई जरूरतों में एक समाधान की तरह दर्ज होना चाहता है। हिमाचल में फ्रंट लाइन वर्कर या कोरोना योद्धा बनने की प्रासंगिकता अब एक अधिकार की तरह सामने आ रही है। विद्युत कर्मियों के बाद शिक्षकों को कोरोना योद्धा मानने की गुजारिश के अपने तर्क और परामर्श हैं। जाहिर है विद्युत कर्मियों के अलावा जलशक्ति विभाग के फील्ड वर्कर वास्तव में फ्रंट लाइन वर्कर हैं और जिन्हें न पहले लॉकडाउन की कठोर शर्तें हरा पाईं और न ही आज के कर्फ्यू के बीच ये थके हैं। कर्फ्यू के सन्नाटों के भीतर जिंदगी के दो बड़े पैगाम बिजली और जलापूर्ति से मिल रहे हैं, तो जाहिर तौर पर इस बड़े वर्ग को इतना सम्मान तो मिले कि उनका दायित्व फ्रंट लाइन वर्कर की हैसियत में देखा जाए।
दूसरी ओर शिक्षकों ने लॉकडाउन में भी न केवल शिक्षा के मनोबल को ऊंचा रखा, बल्कि अभिभावकों और बच्चों को इस दौरान निहारते रहे। हम कई तरह से इस वर्ग की आलोचना कर सकते हैं, लेकिन यह नहीं कह सकते कि कोशिश ही नहीं हुई। एक साल से भी अधिक समय से कोरोना काल बनाम शिक्षा के मध्य हर अनिश्चितता की ढाल बने शिक्षक ने पाठ्यक्रम को जिंदा रखा, बल्कि घर में कैद बच्चों को छात्र बनाए रखा। इस योगदान को कमतर इसलिए भी नहीं आंक सकते, क्योंकि उसने नए माध्यम यानी ऑनलाइन शिक्षा के अर्थ को शक्ति, संपर्क और साधना का प्रारूप दिया और साथ ही साथ छोटे बच्चों और उनकी माताओं के तकनीकी ज्ञान में इजाफा भी किया। ऐसे में उच्च शिक्षा निदेशक डा. अमरजीत कुमार शर्मा द्वारा उठाई गई यह मांग वाजिब है कि शिक्षकों को भी फ्रंट लाइन वर्कर की अहमियत के तहत तुरंत वैक्सीन लगाई जाए। न जाने कब शिक्षकों की उपलब्धता में कोरोना काल के कितने दायित्व इस वर्ग से जुड़ सकते हैं, इसलिए इन्हें समाज और शासन की अनेक भूमिकाओं का मुख्य किरदार मानना ही होगा। वैसे भी अध्यापक से किसी भी राष्ट्रीय अभियान का श्रीगणेश करने का तात्पर्य इसकी स्वीकार्यता में गांव-देहात से अभिभावकों के समर्थन तक निरूपित होता है। इसी बीच पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिनिधियों से मुख्यमंत्री जयराम का वर्चुअल संवाद हिमाचल के उस हिस्से का संबोधन है, जहां प्रदेश की 92 फीसदी आबादी बसी है।
गांव की ओर बढ़ते कोरोना के दंश पहले से कहीं अधिक घातक हैं, इसीलिए कुछ प्रधानों का सुझाव है कि बाजार ख्ुलने की सीमा एक घंटा और घटा दी जाए। ऐसे में पंचायती राज की नई भूमिका में कोरोना से निपटने का संकल्प फ्रंट लाइन वर्कर की एक नई श्रृंखला खड़ी कर रहा है और यही मांग अब आनी शुरू हो गई है। आशंकाएं गांव के डिपो धारक की भी इसलिए हैं क्योंकि वह मुफ्त व सस्ते राशन आबंटन की प्रमुख कड़ी है। बायोमीट्रिक मशीनों के जरिए राशन वितरण की औपचारिकताएं अपने आप में चुनौतीपूर्ण हैं, इसलिए तर्क की गुंजाइश में वे भी खुद को फ्रंट लाइन मान रहे हैं। यह सूची बढ़ती जाएगी और जब तक हर पात्र व्यक्ति को वैक्सीन नहीं लगती, सरकार से प्राथमिकता के आधार पर कोई न कोई गुजारिश करता रहेगा, लेकिन जिनके सहारे सभी बाहर आएंगे उनका चयन होना चाहिए। राष्ट्रीय सूचनाओं के आधार पर यह माना जा रहा है कि कोरोना के दुष्परिणामों का सबसे बड़ा चक्र गांव की ओर मुड़ रहा है, अतः पंचायत प्रतिनिधियों को जमीन पर उतारने के साथ-साथ वैक्सीनेशन पर भी जोर दिया जाए। इस बार अधिकतर प्रधान युवा हैं और उनका आयु वर्ग 18 से 44 वर्ष की प्रतीक्षा सूची में वैक्सीनेशन का ख्वाब पाल रहा है। हिमाचल करीब बीस लाख वैक्सीन डोज लगा चुका है जबकि अपने प्रयासों से 18 से 44 आयु वर्ग के लिए पहली खेप आने के बाद युवाओं को भी प्रतीक्षा सूची से मुक्ति मिलनी शुरू हो जाएगी। किसी भी प्रदेश के लिए वैक्सीनेशन के ये आंकड़े उत्साहजनक हो सकते हैं, लिहाजा अगले दौर के फ्रंट लाइन वर्कर में हर डोज का न्यायोचित आधार व दायरा बढ़ जाएगा।
2.टीके पर गुमराह राजनीति
मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री अथवा किसी विपक्षी दल का नेता होना और भ्रामक बयानबाजी करना बेहद आसान है, क्योंकि उसमें कोई जिम्मेदारी या जवाबदेही निहित नहीं है। संविधान में भी गलतबयानी के लिए सजा के प्रावधान नगण्य हैं अथवा कम प्रभावी हैं। जनादेश किसी भी वयस्क नागरिक को विधायक चुन सकता है। चूंकि बहुमत को भी सदन में वोट देने के लिए बंधक बनाने के नियम हैं, लिहाजा बहुमत वाली पार्टी का नेता, विधायक दल का नेता भी, चुना जा सकता है। यही हमारा लोकतंत्र है, लिहाजा वह नेता शपथ के बाद मुख्यमंत्री बन जाता है। अधिकतर मामलों में हमने देखा है कि मुख्यमंत्री को सरकारी और अंतरराष्ट्रीय नियमों, संधियों और दायित्वों की जानकारी नहीं होती, नतीजतन वे अनाप-शनाप बयानबाजी करते रहते हैं। यह भी राजनीति के तहत किया जाता रहा है। कोरोना वायरस का टीककरण भी ऐसे ही भ्रामक और सियासी बयानों का शिकार हुआ है। विडंबना यह है कि औसत नागरिक भी जान नहीं पाता कि कौन-सा पक्ष सच बयां कर रहा है और कौन झूठ बोल रहा है! नतीजतन सियासत यूं ही जारी रहती है और आम आदमी को पीडि़त होना पड़ता है।
बेशक हमारे देश में कोरोना टीकों का संकट है और वह स्वाभाविक भी है, क्योंकि उत्पादन सीमित है। इसके बावजूद हम अंतरराष्ट्रीय दायित्वों से मुंह नहीं मोड़ सकते। सबसे पहले कांग्रेस ने यह सवाल करना शुरू किया कि 6.5 करोड़ के करीब खुराकों का निर्यात क्यों किया गया? उसके बाद नए परिदृश्य में दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने अपने उप मनीष सिसोदिया और आम आदमी पार्टी के कुछ छुटभैया नेताओं को अग्रिम मोर्चे पर तैनात कर दिया। वे भी लगातार सवाल पूछने लगे कि इतने टीकों का निर्यात क्यों किया गया? पाकिस्तान तक को टीका दिया गया, जबकि केंद्र सरकार को पता था कि एक बड़ी आबादी का टीकाकरण किया जा सकता था। देश को गुमराह करने की राजनीति का सिलसिला तब भंग हुआ, जब भाजपा प्रवक्ता डा. संबित पात्रा ने तथ्यों का स्पष्टीकरण दिया और सच सामने आया कि सिर्फ 78.5 लाख खुराकें पड़ोस के सात देशों को भेजी गईं, ताकि उन सरहदों से संक्रमण हमारे देश के भीतर न आ सके। सिर्फ 2 लाख खुराकें संयुक्त राष्ट्र की ‘शांति सेना’ को भेजी गईं, जिस सेना में भारत के भी करीब 6600 सैनिक हैं। इसके अलावा, 5.5 करोड़ खुराकें अंतरराष्ट्रीय और व्यापारिक जिम्मेदारियों और करार के तहत, टीका कंपनियों को ही, विदेश भेजनी पड़ीं। मसलन-सीरम कोवीशील्ड टीके का उत्पादन कर रहा है, जिसकी मूल लाइसेंसधारी कंपनी एस्ट्राज़ेनेका है। उसे ब्रिटिश सरकार ने लाइसेंस दिया है। उस कंपनी ने उत्पादन के लिए सीरम के साथ समझौता किया है। क्या सीरम को करार के मुताबिक टीके एस्ट्राज़ेनेका को भेजने होंगे या नहीं? इसी तरह कच्चे माल और अन्य सेवाओं के लिए दूसरे देशों के साथ भी करार किए गए होंगे! यह टीकाकरण शुरू होने से पहले की स्थितियां हैं। हमें सिसोदिया और ‘आप’ के छुटभैयों के व्यावहारिक ज्ञान पर तरस आता है अथवा वे जानबूझ कर राजनीति खेल रहे हैं और मासूम, असहाय दिखना चाहते हैं?
3.मानव गरिमा का सवाल
प्रसिद्ध कन्नड़ उपन्यासकार स्वर्गीय यू आर अनंतमूर्ति के बहुचर्चित उपन्यास संस्कार की कहानी प्लेग की महामारी के दौरान मरे एक व्यक्ति के अंतिम संस्कार की दुविधा से शुरू होती है। 19वीं सदी के अंतिम दशक और 20वीं सदी के पहले दो दशकों में भारत में प्लेग का संक्रमण हुआ था। उस उपन्यास में महामारी की भयावहता और उसके जो सामाजिक, धार्मिक, निजी आयाम हमें देखने को मिलते हैं, किसने सोचा होगा कि उससे कई गुना बडे़ आकार में ये 21वीं सदी में देखने को मिलेंगे। पिछले कई दिनों से गंगा व कर्मनाशा नदियों में सैकड़ों की तादाद में शवों को बहा देने की खबरें आ ही रही हैं कि अब उन्नाव में गंगा के किनारे रेत में बड़ी संख्या में शवों को दफ्नाए जाने की विचलित करने वाली तस्वीरें और खबरें आ रही हैं। ऐसा लग रहा है कि शवों का बाकायदा दहन न कर सकने की वजह से लोग उन्हें रेत में गाड़कर चले जा रहे हैं। तस्वीरें देखकर लगता है कि उथली रेत में दफ्नाए गए शवों की संख्या काफी बड़ी है। सरकार ने इस बात की जांच के आदेश दिए हैं और इस पर कार्रवाई जरूर होगी, लेकिन यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह कोई कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है, बल्कि मानवीय समस्या है और इसका इलाज भी मानवीय आधार पर ही किया जाना चाहिए।
शायद कोई भी ऐसा नहीं चाहेगा कि उसके आत्मीय का अंतिम संस्कार गरिमा और रीति-रिवाज के साथ न हो। लेकिन पिछले दिनों ऐसी खबरें बहुत आई हैं कि उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों तक में कोरोना संक्रमण तेजी से फैल गया है। जब शहरों, कस्बों तक में जांच व इलाज को लेकर मारामारी है, तब गांव में तो इन बातों की उम्मीद करना ही बेकार है। जो लोग कोरोना से मर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर की मौत सरकारी आंकड़ों में दर्ज ही नहीं हो रही है। अगर कोरोना से उतने ही मरीज मर रहे होते, जितने सरकारी आंकड़ों में दर्ज हैं, तो श्मशानों, कब्रिस्तानों में ऐसी अफरा-तफरी की नौबत आनी ही नहीं चाहिए थी। उत्तर प्रदेश सरकार में कोरोना से मरने वालों के अंतिम संस्कार के लिए आर्थिक सहायता देने का वादा किया है, लेकिन अगर किसी की कोरोना जांच ही नहीं हुई, तो उसे कोरोना मरीज कैसे मान लिया जाएगा? ऐसे में, इस सहायता का फायदा शायद ही किसी को मिले। साफ है, अगर लोग शवों को रेत में दफ्ना रहे हैं या नदी में बहा रहे हैं, तो इसका मतलब है कि वे अंतिम संस्कार कर पाने में असमर्थ हैं। इसकी कई वजहें हो सकती हैं। श्मशानों में जगह नहीं है, लकड़ियां नहीं है, अंतिम संस्कार का खर्च इतना बढ़ गया है कि मरीज के इलाज में पहले ही लुट चुके लोग उस भार को भी उठा सकने में असमर्थ हैं। फिर इन दिनों गरमी भी बढ़ गई है, ऐसे में मृत देह को रखकर ज्यादा वक्त तक इंतजार भी नहीं किया जा सकता। इन शवों की वजह से कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं, बल्कि हो रही हैं। चील-कौए और कुत्ते इन शवों को नोच रहे हैं। जो शव उथली रेत में दफ्न किए गए हैं, वे बारिश में बहकर नदी में पहुंच सकते हैं और इनके सड़ने से कई बीमारियां फैल सकती हैं। लेकिन सबके ऊपर यह मानवीय समस्या है। यह हमारे समाज और प्रशासन के लिए कलंक है। हम इतने बदहाल तो नहीं हुए हैं कि अपने मृतकों को सम्मान के साथ आखिरी विदा न दे सकें। यह हमारी मानवीय गरिमा का सवाल है।
4.गांव को दो छांव
सरकार चुस्त हो, ग्रामीण जागरूक रहें
शहरों में कोहराम मचाने के बाद कोरोना संक्रमण ने अब गांवों को अपनी चपेट में ले लिया है। शहरों के मुकाबले गांवों से संक्रमण के ज्यादा मामले सामने आना निस्संदेह डराने वाला है। भय इसलिए भी क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा ढांचा कमोबेश सभी राज्यों में चरमराया हुआ है। ग्रामीण स्तर पर अपेक्षित जागरूकता नहीं लायी जा सकी है। हालांकि, हालात बदले जरूर हैं, मगर उम्मीदों के अनुरूप नहीं। अशिक्षा, रूढ़ियां और पुरातन सोच इसमें बाधक रही हैं। लेकिन ग्रामीण जनजीवन की सहजता-सरलता के चलते कोविड-19 से बचाव के उन उपायों का सख्ती से पालन नहीं हो पाया है, जिनसे संक्रमण की चेन तोड़ी जा सकती थी। ऐसे में जब देश का चिकित्सातंत्र भगवान भरोसे नजर आ रहा है, तब जागरूकता ही बचाव का पहला उपाय हो सकता है। हालांकि, हरियाणा सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना संकट के विस्तार के बाद कई उपाय किये हैं। शुरुआत में मनोहर लाल खट्टर सरकार ने निगरानी के लिये बारह आईएएस अधिकारियों को निगरानी-नियंत्रण की जिम्मेदारी दी। फिर आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को उपचार में आर्थिक मदद की घोषणा हुई। सरकार ने दावा किया कि राज्य के गांवों में तेजी से जांच व उपचार के लिये आठ हजार टीमें बनायी गई हैं, जिसमें डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी व आंगनवाड़ी कार्यकर्ता होंगे, जो घर-घर जाकर कोविड जांच करेंगे। हर गांव में आइसोलेशन सेंटर स्कूल, आंगनवाड़ी केंद्रों व चौपालों में बनाने की बात कही गई थी, जिसके लिये आबादी के हिसाब से गांवों को तीस से पचास हजार रुपये की मदद देने की बात कही गई थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि समय रहते इन घोषणाओं पर प्रभावी रूप से अमल हो, जिसमें ग्रामीणों की जागरूकता और स्वयं सहायता समूहों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। संसाधनों की मौजूदा स्थिति में बचाव ही उपचार है। महामारी के मुकाबले के लिये जागरूकता और वैज्ञानिक सोच होना भी जरूरी है।
जरूरी है कि संकट की इस घड़ी में ग्रामीण जीवनशैली और लोक व्यवहार के अनुरूप ही कोरोना से बचाव की पहल की जाये, जिसे ग्रामीण सहजता से स्वीकार करें और उसके क्रियान्वयन में सक्रिय भागीदारी निभाएं। याद रहे कि सहजता-सरलता का ग्रामीण जीवन सदियों से परम्पराओं व मान्यताओं से गहरे तक जुड़ा है। उसी के जरिये महासंकट का समाधान निकालें। पिछले साल भी मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की पहल पर ‘ठीकरी पहरा’ देने की कवायद शुरू हुई थी, जिसमें गांव के युवा-जागरूक लोग पहरा देकर संक्रमण की चेन को तोड़ने का प्रयास करते हैं। बाहर से आने-जाने वालों की निगरानी करते हैं। इसके सकारात्मक परिणाम सामने आये थे। सरकार फिर से ‘ठीकरी पहरा’ अनिवार्य बनाने की कोशिश में है। इस संकट में स्वयं सहायता समूहों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है जो ग्रामीणों को कोविड प्रोटोकाल के अनुपालन के लिये प्रेरित करें। गांव में ऐसी व्यवस्था करें कि संक्रमण से पीड़ितों के लिये प्राथमिक जांच व सामान्य उपचार की उपलब्धता सुनिश्चित हो। लक्षणों की जांच और स्थिति को गंभीर होने से बचाने के साथ ही स्थिति गंभीर होने पर निकटवर्ती अस्पताल में भर्ती करवाने का प्रयास कर सकते हैं। समय रहते उपचार व ऑक्सीजन की उपलब्धता से कई जीवन बचाये जा सकते हैं। साथ ही लोगों को कोरोना वैक्सीन लगाने के लिये वैक्सीनेशन केंद्रों तक ला सकते हैं। ध्यान रहे कि देश में हरियाणा नंबर एक राज्य है, जहां कोरोना वैक्सीन का सबसे ज्यादा अपव्यय हुआ। ऐसे संकट के वातावरण में भिवानी के बरवा गांव की पहल सारे हरियाणा के लिये अनुकरणीय है। जहां जागरूक लोगों ने ‘कोरोना सहायता समिति’ बनाकर, कोरोना संक्रमितों के उपचार का बीड़ा उठाया है। समिति ने चार चिकित्सकों की व्यवस्था की है, जो कोरोना संक्रमण के प्राथमिक उपचार में मदद करते हैं। निस्संदेह, मरीजों को अस्पताल में भर्ती न होना पड़े, इसके लिये पहले ही प्रयास किये जाने जरूरी हैं। इससे कई लोगों की जान बचाने के प्रयास सार्थक हो सकते हैं। साथ ही दूसरे लोगों को ऐसा करने की प्रेरणा मिल सकेगी। यह वक्त जांच बढ़ाने, आइसोलेशन केंद्र खोलने, चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने तथा टीकाकरण में तेजी लाने का है।