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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.बाजार में शटर कितना उठे
इस धमकी की वजह और समाधान दोनों ही कठिन हैं, इसलिए कोरोना काल के नए पड़ाव में हिमाचल के व्यापारियों की जिरह को समझना होगा। हिमाचल प्रदेश व्यापार मंडल वर्तमान कर्फ्यू की शुरुआत से ही सरकार को सुझाव देता रहा है, लेकिन दूसरा चरण आते-आते अब टकराव की स्थिति पैदा हो रही है तो इन तर्कों को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। हिमाचल व्यापार मंडल का मानना है कि बाजार को जिस तरह खोला जा रहा है, उससे व्यापारियों का एक वर्ग खुद को शोषित, उपेक्षित एवं अपमानित समझ रहा है। व्यापारी चाहते हैं कि शटर उठें तो सभी तरह के दुकानदारों और व्यापारियों के उठें, वरना वे अवज्ञा करके खुद ही समाधान लिख देंगे। व्यापारी बाजार खुलने की सीमा चार घंटे बढ़ाने के अलावा यह सुनिश्चित करवाना चाहते हैं कि हर तरह के ग्राहक को सामान उपलब्ध कराने के लिए बाजार खोले जाएं। अभी तक शांत व सरकार के समर्थन में चल रहा व्यापार मंडल दरअसल उस फैसले से आजिज है जिसके तहत हार्डवेयर की दुकानों को दो दिन खोलने की छूट मिली है, जबकि दो-तिहाई बाजार पूरी तरह बंद रखा जा रहा है। हिमाचल व्यापार मंडल के अध्यक्ष सोमेश कुमार शर्मा ने बाकायदा अल्टीमेटम देते हुए यह घोषणा कर दी है कि बुधवार से ही नौ से एक बजे तक पूर्ण बाजार खुलेगा, इसलिए सरकार स्वयं इसकी घोषणा कर दे, वरना दुकानदार अवज्ञा पर उतर आएंगे। दरअसल अपने निर्णयों की बैसाखी पर सरकार ने जो ढोया है, उसका तार्किक पक्ष असंवेदनशील नजर आता है। कर्फ्यू और लॉकडाउन में अंतर भी यही है कि जिंदगी और जिंदा रहने का सफर चलता रहे। बेशक कर्फ्यू की पहली खेप में सरकार ने कुछ ऐसा भी हासिल किया होगा जो आगे चलकर कोरोना संक्रमण के दौर को सीमित करेगा, लेकिन ऐसे फैसलों में आजू-बाजू पैदा होंगे, तो वांछित समर्थन नहीं मिलेगा।
अब तक सरकारी रुकावटों के समर्थन में खड़ा व्यापार मंडल कुछ ऐसा नहीं चाहता जिससे कर्फ्यू की अवहेलना हो, लेकिन कर्फ्यू की भावना में व्यापारियों का एक वर्ग भूखा भी तो नहीं रह सकता। बाहरी कामगार के लिए निर्माण कार्य और निर्माण सामग्री के लिए अगर दुकान खुल सकती है, तो इसी तर्ज पर मिठाई, बेकरी, सर्राफा, दर्जी तथा मोची के कार्यों में कितने मजदूरों की दिहाड़ी बंद हो रही है। इसके अलावा दुकानों के जरिए रोजगार पाने वाले युवाओं के लिए यह काफी महत्त्व रखता है कि उपभोक्ता जरूरतों से जुड़े अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान भी खुलें। विडंबना यह है कि लॉकडाउन को कर्फ्यू बना देने से निजी वाहनों की कतार नहीं रुकी और यह भी कि ग्रामीण हट्टी पर कोई रोक नहीं रही। पिछले दरवाजों से अगर कुछ धंधा हो रहा है, तो सीमित अवधि के लिए इसे नियमित करके कम से कम ग्राहक को अनावश्यक परेशानियों से बचाया भी तो जा सकता है। ऐसे में व्यापार मंडल के सुझावों पर गौर करते हुए सरकार को उचित कदम उठाने होंगे। यह वक्त तकरार के बजाय सहमति से कट जाए तो अच्छा है। व्यवस्थागत एसओपी बनाते हुए यह तय किया जा सकता है कि मंदे में धंधे की शर्तें क्या हैं। सरकार अगर सामाजिक सहमति से लोगों के मंगल कार्यों को रुकवाने को पुण्य कार्य मान रही है, तो रोजी-रोटी के लिए बाजार की कुछ सांसें खोलने से भी यही होगा। यह दीगर है कि प्रमुख बाजारों को अनुशासित रखने के लिए स्थानीय स्तर पर हर व्यापार मंडल को प्रमुख भूमिका निभानी होगी। खास तौर पर इस दौर में जिस तरह महंगाई पैदा की जा रही है, उस पर नैतिक अंकुश केवल व्यापारिक संस्थाएं ही लगा सकती हैं।
2.मदद और मंशा
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि राजनेताओं को जरूरी दवाओं की जमाखोरी राजनीतिक उद्देश्य से नहीं करनी चाहिए। अदालत ने कहा कि अगर वे जनता की मदद करना चाहते हैं, तो दवाओं को केंद्रीय स्वास्थ्य सेवा निदेशालय को सौंप सकते हैं, ताकि सरकारी अस्पतालों में उनका इस्तेमाल हो सके। पूर्वी दिल्ली से सांसद और पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी गौतम गंभीर ने यह घोषणा की थी कि एंटीवायरल दवा फेविपिराविर या फैबिफ्लू उनके कार्यालय में उपलब्ध है और लोग वहां से मेडिकल परची दिखाकर इसे ले सकते हैं। दिल्ली पुलिस ने अदालत को बताया कि वह दवा जब्त कर ली गई है और उसे सीजीएचएस को सौंप दिया जाएगा। ऐसे और भी उदाहरण हैं। गुजरात भाजपा अध्यक्ष ने यह घोषणा की थी कि रेमडेसिविर इंजेक्शन सूरत में पार्टी कार्यालय में मिल सकता है। उनके विरुद्ध भी मामला गुजरात हाईकोर्ट में उठा है। महाराष्ट्र में भी कई नेताओं पर आरोप लगे कि उन्होंने रेमडेसिविर अपने रसूख से हासिल किए और बांटे। दरअसल, रेमडेसिविर इंजेक्शन की कोरोना संक्रमण में बहुत मांग है और देश भर से इसे पाने के लिए मारामारी की खबरें आ रही थीं। इसी वजह से केंद्र सरकार ने इसका वितरण अपने हाथों में ले लिया और यह तय किया कि इसे सिर्फ सरकारी तंत्र के जरिये ही बेचा जाएगा।
यह राजनेताओं की जिम्मेदारी होती है कि वे मुसीबत में लोगों की यथासंभव मदद करें और तमाम नेता कमोबेश ऐसा करते भी हैं। कुछ नेता तो सचमुच मन से और पूरी ताकत से मददगार बनने की कोशिश करते हैं, कुछ काम कम करते हैं, और प्रचार ज्यादा करते हैं। इस महामारी के दौर में भी तमाम राजनेता अपने-अपने तरीके से मदद कर रहे हैं या मददगार दिखने की कोशिश कर रहे हैं। चूंकि महामारी के जोर से व्यवस्था चरमराई हुई है, संसाधनों की कमी है, इसलिए समर्थ लोगों से मदद की दरकार भी ज्यादा है। कई मददगार लोगों की कहानियां इस वक्त लोगों की जुबान पर हैं और समाज में उनके प्रति कृतज्ञता का भाव भी है। पर यही बात उन लोगों के बारे में नहीं कही जा सकती, जो दुर्लभ दवाएं बांटकर मददगार होना या दिखना चाह रहे हैं। अगर उनमें से कुछ की नीयत भली भी रही हो, तब भी उनका तरीका गलत था। जैसे, गौतम गंभीर की आलोचना होती रही कि जब दिल्ली में कोरोना का कहर जोरों पर था, तब वह आईपीएल में कमेंट्री करने में व्यस्त थे। फिर अचानक उन्होंने फैबिफ्लू बांटने का फैसला किया। यह वायरस-रोधी दवा है, पर कोरोना में इसके इस्तेमाल का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, न ही किसी मान्य चिकित्सा संगठन ने कोरोना में इसके इस्तेमाल को सही ठहराया है। ऐसी दवा को बांटने से मरीजों का कुछ भला नहीं होना था, और यह कानूनन भी सही नहीं था। इसके बजाय गौतम गंभीर किसी विशेषज्ञ डॉक्टर से सलाह लेकर उस पैसे को अन्य काम में लगाते, तो हर तरह से बेहतर होता। रेमडेसिविर के निजी वितरण पर सरकार जब रोक लगा चुकी थी, तब तो नेताओं को इसे बांटकर लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश करनी ही नहीं चाहिए थी। ज्यादा अच्छा यह होता कि वे अपने रसूख का इस्तेमाल रेमडेसिविर की आपूर्ति बढ़ाने और उसका वितरण व्यवस्थित करवाने के लिए लगाते। मदद करने के और भी तरीके हैं। जो सबसे चमकीला हो, वह अक्सर सबसे अच्छा नहीं होता।
3.उम्मीद और शंकायें
गांव केंद्रित नीति हो प्राथमिकता
देशव्यापी कोरोना संकट के बीच सोमवार को उम्मीद जगाने वाली खबर आई कि देश में संक्रमितों की संख्या तीन लाख से कम रही। यह संख्या पिछले 27 दिनों में सबसे कम रही और दो लाख इक्कासी हजार नये मामले सामने आये। ठीक होने वालों का आंकड़ा संक्रमितों से अधिक रहा। चिंता की बात यह है कि देश में मरने वालों का आंकड़ा चार हजार से अधिक रहा। अब तक मरने वालों की संख्या पौने तीन लाख के करीब हो चुकी है और कुल संक्रमितों की संख्या ढाई करोड़ हुई है। अभी भी 35 लाख लोग कोविड-19 का उपचार करा रहे हैं। इसी के साथ एक अच्छी खबर सोमवार को यह भी रही कि कोरोना वायरस के सभी वेरिएंट्स के खिलाफ असरदार डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन यानी डीआरडीओ द्वारा विकसित पहली दवा बाजार में बिक्री के लिये आ गई। जिसके बाबत स्वास्थ्य मंत्री और रक्षा मंत्री ने मीडिया को जानकारी दी। इस एंटी कोविड ड्रग 2-डीजी का पहला दस हजार डोज का बैच जारी किया गया। इसे डीआरडीओ के इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर मेडिसिन एंड अलाइड साइंसेज ने विकसित किया है। इसका व्यावसायिक उत्पादन हैदराबाद स्थित डॉ. रेड्डीज लेबोरेटरी करेगी। इसे कोरोना वायरस पर असरकारी बताया जा रहा है और इसके प्रभाव से ऑक्सीजन संकट से उबरा जा सकता है। बहरहाल, फिलहाल देश की चिंता कुछ राज्यों के ग्रामीण इलाकों में तेजी से फैल रहा संक्रमण है। विडंबना यही है कि देश में कोरोना संक्रमण की पहली लहर से ही सारी सुविधाएं शहरों पर केंद्रित रही हैं। गांवों में चिकित्सा ढांचा पहले ही चरमराया हुआ है। ऐसे में यह उम्मीद करना बेमानी है कि इस विश्वव्यापी महामारी के दौर में ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचा इस चुनौती का मुकाबला कर सकेगा। यही वजह है कि आईसीएमआर के निर्देशों के अनुसार केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने गांवों में संक्रमण रोकने के लिये नये दिशा-निर्देश जारी किये हैं। कहना कठिन है कि लगातार गंभीर होती जा रही स्थिति में ये दिशा-निर्देश किस हद तक कारगर साबित होंगे।
केंद्र सरकार ने रविवार को ग्रामीण इलाकों के लिये जो एसओपी यानी दिशा-निर्देश जारी किये हैं, उसके अनुसार प्रत्येक ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तथा उप-जिला अस्पतालों में कोविड केंद्रित उपचार केंद्र बनाये जायें। जिनमें कम से कम तीस बिस्तरों की व्यवस्था की जाये, जिसे आवश्यकता पड़ने पर बढ़ाया जा सके। साथ ही सभी स्वास्थ्य केंद्रों पर रैपिड एंटीजन टेस्ट किट उपलब्ध होनी चाहिए। इसमें संक्रमितों व संदिग्ध मरीजों को अलग रखने की व्यवस्था पर जोर दिया गया है। साथ ही ग्रामीण मरीजों की स्वास्थ्य जांच में आशा वर्कर व आंग्ानवाड़ी कार्यकर्ताओं की भूमिका पर भी बल दिया गया, जिससे मरीजों के तापमान व ऑक्सीजन की मात्रा की जांच हो सके। साथ ही चिकित्सा परामर्श व गंभीर मरीजों को भर्ती कराने के बाबत भी दिशा-निर्देश दिये गये हैं। इसके साथ ही पृथकवास में रहने वाले मरीजों के लिये किट व परामर्श उपलब्ध कराने पर बल दिया गया है ताकि समय रहते उन्हें उपचार मिल सके। निस्संदेह, यह उपक्रम केंद्र व राज्य सरकारों के आग लगने पर कुआं खोदने वाली प्रवृत्ति को ही दर्शाता है। ऐसे वक्त में जब नदियों में तैरते शवों व गंगा के तट पर सामूहिक रूप से दफनाए गये शवों के चित्र हर संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर रहे हैं, ये प्राथमिक उपाय क्या गंभीर होती स्थिति में मददगार होंगे? जो व्यवस्थाएं हमें पिछली लहर के दौरान करनी चाहिए थीं, वो हम दूसरी लहर के पीक पर आने पर कर रहे हैं। चिंता इस बात की भी है कि केंद्र सरकार के वैज्ञानिक तीसरी लहर के आने की बात भी कर रहे हैं। पहले ही लॉकडाउन व मंदी से त्रस्त आम आदमी की आर्थिक हालत वैसे ही खराब है और जीवनरक्षक दवाओं व साधनों की शहरों में ही किल्लत है तो ग्रामीण इलाकों में क्या हकीकत होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। वक्त की जरूरत है कि समय रहते ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे को इतने पुख्ता ढंग से तैयार किया जाये ताकि उसके सामने तीसरी-चौथी कोई भी लहर आए, जन धन की हानि न हो।