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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.हर गांव मलाणा बने
कुल्लू जिला के मलाणा गांव ने एक बार फिर विश्व की आंखों में अपनी चमक बिखेरते हुए यह सिद्ध कर दिया कि पुरातन सभ्यता की मर्यादा अगर ओढ़े रखें, तो जिंदगी कम से कम अपना विराम तो नहीं लिखेगी। पिछले पंद्रह महीनों में अपनी तरह और स्वयं निर्धारित लॉकडाउन में बसर कर रहा मलाणा के 2350 लोगों का समूह, अंततः इतना सफल है कि कोरोना संक्रमण का एक भी मामला सामने नहीं आया। वहां समाज की बुनियाद में इतनी नैतिकता, समर्थन व जागरूकता दिखाई देती है कि सभी नागरिकों ने धर्म की तरह, कोरोना के खिलाफ अपनी मान्यताएं गढ़ लीं। संभवतः देश ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह एकमात्र ऐसा गांव सिद्ध हुआ है, जिसने कोरोना के खिलाफ सामाजिक मान्यताओं को पहरे पर लगा दिया। इस दौरान बाहर से न किसी को आने की अनुमति रही और न ही स्थानीय नागरिकों ने स्वनिर्धारित संयम व शर्तों की कोई तौहीन की।
वर्ष भर गांव चला, लोगों की आजीविका भी चली तो यह मॉडल ऐसा है जिसकी प्रशंसा के साथ अनुसरण होना चाहिए। विडंबना यह है कि हिमाचल के करीब अस्सी फीसदी मामले गांव से निकल रहे हैं और इसकी वजह यही है कि हमने सामाजिक तौर पर निरंकुश होने का अहंकार पाल रखा है या ग्रामीण ढांचा अब सामाजिक संस्कारों से कहीं दूर छिटक कर बैठा है। गांव की मिट्टी या तो खेत से अलग हो कर निजी स्वार्थों का आलेप कर रही है या हम इतनी तरक्की कर चुके हैं कि मर्यादा की कोई सीमा हमें बांध नहीं सकती, अलबत्ता हमारे बीच का समाज इस महामारी में और मर रहा है। विडंबना यह कि होम आइसोलेशन में खुद और समाज को संक्रमण से बचा रहे लोगों के प्रति हमारी सामुदायिक निष्ठा भी समाप्त प्रायः है और ऐसे कितने ही गांव अपनी नकारात्मक दृष्टि के कारण इतने अभद्र दिखाई देते हैं कि अंतिम संस्कार के लिए कोविड मरीज की अर्थी को तिरस्कृत किया जा रहा है। रानीताल के एक मामले ने हमें घृणित परिदृश्य के मूक गवाह की तरह तसदीक किया है, तो अन्य उदाहरणों में मानवीय संवेदनाएं भी ऐसे तर्कों में उलझ गई हैं- जहां जिंदगी हारते लोगों को भी सामाजिक बाहिष्कार मिल रहा। यह दीगर है कि नकारात्मक शब्दों के बीच कई सामाजिक पहलू अपने किरदारों की वजह से आशा जगा रहे हैं। कई युवा टोलियां अपने कंधों पर कोरोना संक्रमितों की अर्थियां ढो रही हैं, तो कांगड़ा के विनय गुप्ता के परिवार ने अपने किरदार को कोरोना पीडि़तों के लिए समर्पित कर दिया है।
कांगड़ा के दो भाइयों ने पिछले महीनों में पांच सौ कोविड पॉजिटिव मरीजों का अंतिम संस्कार कर दिया, तो मानवीय रूह कहीं जिंदा है। बहरहाल मलाणा गांव की तस्वीर हमारे सामने गांव की दहलीज की पवित्रता को कायम रखने का आदर्श है। कोविड-19 के चरण दो में देश ने न केवल अपनी आत्मा खोई, बल्कि व्यवस्थागत खामियों के बीच सामाजिक आवरण भी विद्रूप हो गया। महामारी में आपातकाल की स्थिति का फायदा उठाते व्यापारी, फर्ज से विमुख होती स्वास्थ्य व्यवस्था और सामाजिक ताने बाने से गिरते लोग अंततः खतरों को ही बढ़ाएंगे। कुछ समय तक अगर समाज अपने दिखावे से हटकर इनसानी बराबरी पर आ जाए, पारिवारिक समारोहों से किनारा कर ले और अनावश्यक जरूरतों की अंगुली छोड़ते हुए मिल बांट कर जीना मरना सीख ले, तो व्यवस्थित होने में देर नहीं लगेगी। मलाणा के लोगों ने आपसी भाईचारे की जरूरत, जीने की एहतियात और समाज के संगठन को सशक्त किया, तो कोरोना का एक भी दंश वहां नहीं पहुंचा। अभी खतरे चरण दो से तीन तक पहुंचेंगे और नहीं सुधरे, तो यह दौर और भयानक होता जाएगा, इसलिए देश की आत्मा को गांव में फिर से स्थापित करने की जरूरत है। महामारी का अंत शहरों से नहीं गांव से होगा, इसलिए हर ग्रामीण इलाके को मलाणा सरीखा होना पड़ेगा।
2.संक्रमण ‘टूलकिट’ का!
यह भी एक अजीब किस्म का संक्रमण है। नफरत, पूर्वाग्रह और मोदी-विरोध का संक्रमण…! प्रधानमंत्री का विरोध असंवैधानिक नहीं है। यदि वह समय और देश की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, तो प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की नीतियों का खुलकर विरोध किया जा सकता है। लोकतंत्र में कमोबेश इतनी गुंज़ाइश जरूर है। यदि कोरोना महामारी की चपेट में देश है, हजारों नागरिक हररोज़ मर रहे हैं, अस्पतालों की अपनी दुकानदारी है, गरीब इलाज कहां से कराए, लिहाजा मौत ही उसकी नियति है, अंतिम संस्कार का सम्मान भी नसीब नहीं है, तो बेशक देश में नारकीय स्थिति है। चूंकि यह जानलेवा वायरस का दौर है, लिहाजा ऐसी राजनीति स्वीकार्य नहीं हो सकती। देश-विरोधी मंसूबे भी असहनीय हैं। अलबत्ता हमारी संस्कृति में तो ‘जयचंद’ हमेशा मौजूद रहे हैं। बहरहाल एक ‘टूलकिट’ विदेशी थी। उसमें भी भारत-विरोध का दुष्प्रचार था। साजि़शों की गंध भी थी, लेकिन वह ‘टूलकिट’ किसी निर्णायक और कानूनी उपसंहार तक नहीं पहुंच पाई। अब एक और ‘टूलकिट’ सामने आई है। भाजपा के गंभीर आरोप हैं कि यह ‘टूलकिट’ कांग्रेस ने जारी की है।
कांग्रेस ने उसे ‘फर्जीवाड़ा’ करार दिया है, लिहाजा दिल्ली पुलिस आयुक्त से आग्रह किया है कि उसकी शिकायत के आधार पर प्राथमिकी दर्ज की जाए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, पार्टी प्रवक्ता डा. संबित पात्रा, केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और संगठन महासचिव बी.एल.संतोष को आरोपित बनाया गया है। देखते हैं कि कानून किस तरह अपना दायित्व निभाता है? ‘टूलकिट’ कांग्रेस की है अथवा भाजपा ने कांग्रेस शोध विभाग के लैटरहैड का फर्जीवाड़ा कर यह ‘टूलकिट’ जारी की है, इस संदर्भ में हम कुछ भी दावा नहीं कर सकते, लेकिन ज्यादातर मुद्दों को कांग्रेस उठाती रही है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पार्टी सांसद राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी को जो पत्र लिखे हैं, उनमें ‘टूलकिट’ वाले मुद्दों का उल्लेख रहा है, लिहाजा इस कोशिश को ‘आपराधिक’ या ‘देशद्रोही’ करार नहीं दिया जा सकता। पूर्व प्रधानमंत्रियों-डा. मनमोहन सिंह और देवगौड़ा-ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखे हैं, तो उनमें कोरोना संबंधी बिंदुओं का जिक्र रहा है। यह सब कुछ राजनीति का हिस्सा है। इस पर भाजपा की बौखलाहट समझ से परे है। यदि पीएम केयर्स फंड से खरीदे गए खराब वेंटिलेटर्स, सेंट्रल विस्टा को ‘मोदी का घर’ या ‘महल’, अस्पतालों में बीमार लोगों की अनदेखी, बिस्तरों का न होना, दवाओं की जमाखोरी और कालाबाज़ारी, मरीजों की मौत और श्माशानघाट के आंकड़ों में गहरे फासले होना, गंगा नदी में लाशों को बहाना आदि मुद्दों का प्रचार ‘टूलकिट’ के जरिए किया जाना है, तो नई बात क्या है? विपक्ष ये तमाम मुद्दे उठाता रहा है। सबसे आपत्तिजनक बिंदु यह है कि विदेशी पत्रकारों और पत्रिकाओं से संपर्क किया जाए और प्रधानमंत्री को बदनाम करने वाले आलेख और ख़बरें छपवाई जाएं। बेशक इसकी तह में ‘जयचंदी मानसिकता’ है। वैसे ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’, ‘टाइम पत्रिका’, ‘द गॉर्जियन’, ‘द ऑस्टे्रलियन’ सरीखे अख़बार और पत्रिकाएं, ‘एपी’ जैसी न्यूज़ एजेंसी, ‘अल जजीरा’ और ‘सीएनएन’ सरीखे टीवी चैनल और वेबसाइट्स आदि भारत के कोरोना संक्रमण पर बेहद कड़ी टिप्पणियां करते रहे हैं।
उनके पीछे कांग्रेस की भूमिका नहीं है, हम इसका दावा कर सकते हैं, लेकिन यह प्रयास निंदनीय है कि प्रधानमंत्री को बदनाम किया जाए। यदि प्रधानमंत्री पर कीचड़ उछाला जाएगा, तो देश की छवि भी मलिन होगी, यह तय है। इसके अलावा, कोविड के नए म्यूटेंट को ‘इंडियन या मोदी स्टे्रन’ कहा जाए या प्रचारित किया जाए, यह भी देश-विरोधी कृत्य है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी ‘इंडियन’ नामकरण की कोशिशों को नकार चुका है। अधिकतर देश भी इसे नहीं मानते और म्यूटेंट के तकनीकी नाम का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। दरअसल यह जांच का विषय है कि ऐसे दुष्प्रचार के पीछे कौन है? कुंभ के मेले को ‘सुपर स्प्रेडर’ मानना और ईद को ‘हैप्पी सोशल गैदरिंग’ करार देने की हिंदू-मुस्लिम मानसिकता भी हमारे राजनीतिक दलों की पहचान है। कमोबेश उससे प्रधानमंत्री मोदी और देश की छवि खराब नहीं होने वाली है। यकीनन प्रधानमंत्री मोदी की छवि और कार्य-प्रणाली कोरोना-काल में सवालिया रही हैं, लेकिन उनकी तथा भारत की राष्ट्रीय साख पर कालिख नहीं पोती जा सकी है। दुनिया ने वैश्विक महामारी के दंश झेले हैं, लिहाजा सभी देश भारत की स्थिति को समझ रहे हैं, लिहाजा भरपूर मदद भी कर रहे हैं। विडंबना है कि हमारे देश में बीमारी और लाशों पर राजनीति की जाती रही है। भोपाल गैस कांड से बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता। कोरोना का दौर भी किसी युद्ध से कम नहीं है, लेकिन क्या करें? हमारे नेता और दल सिर्फ सिंहासन के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
3.बयान पर विवाद
भयावह संकट के इस दौर में राजनेताओं से यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि वे अपना ध्यान संकट से लोगों को उबारने में लगाएंगे और बेवजह के विवाद नहीं खडे़ करेंगे। दिख यह रहा है कि ऐसे विवाद अब भी कम नहीं हो रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ऐसा ही एक विवाद अपने बयान से खड़ा कर दिया है। उन्होंने बयान दिया कि कोरोना वायरस का सिंगापुर में आया नया रूप बच्चों के लिए बेहद खतरनाक बताया जा रहा है। भारत में यह तीसरी लहर के रूप में आ सकता है, इसलिए सिंगापुर से हवाई सेवाएं तुरंत रोकी जाएं और बच्चों के टीकाकरण की दिशा में तेजी से काम हो। इस बयान पर सिंगापुर सरकार ने तीखी प्रतिक्रिया की और भारत के उच्चायुक्त को तलब कर अपना विरोध जताया। इस पर भारत सरकार ने स्पष्ट किया कि दिल्ली के मुख्यमंत्री ने जो कुछ कहा है, वह भारत का आधिकारिक पक्ष नहीं है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने केजरीवाल के खिलाफ बयान दिया, तो दिल्ली के शिक्षा मंत्री ने मुख्यमंत्री का बचाव किया।
चूंकि महामारी और इससे जुडे़ कुछ पहलू मूलत: राजनीतिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक हैं, इसलिए इसी नजरिए से उन पर विचार करना जरूरी होगा। पहला मुद्दा यह है कि सिंगापुर में फिलहाल जो कोरोना मरीज मिल रहे हैं, उनमें वायरस का वही रूप देखने में आ रहा है, जो इन दिनों भारत में दिख रहा है। सिंगापुर में कोई नया रूप नहीं देखने को मिल रहा है। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने जिस खबर को आधार बनाकर बयान दिया था, उसके मुताबिक सिंगापुर में पिछले दिनों कुछ बच्चों के संक्रमित हो जाने के बाद वहां स्कूल बंद कर दिए गए। सिंगापुर में अब भी संक्रमित मरीजों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम है और ताजा लहर में भी तीस-चालीस लोगों के बीमार होने की खबर है, जिनमें बच्चे शायद चार-पांच हैं। वे सभी एक साथ किसी ट्यूशन में जाते थे। इन सभी बच्चों को मामूली लक्षण हैं। सिंगापुर में सरकार का मिजाज हमेशा से कुछ सख्त रहा है और कोरोना के खिलाफ भी उसने काफी सख्ती बरती है। शायद इसी मिजाज के चलते उसने स्कूल भी बंद किए और केजरीवाल के बयान पर भी सख्त प्रतिक्रिया दर्शाई।
यह साफ है कि सिंगापुर से कोरोना वायरस के किसी नए खतरनाक रूप के आने और उससे बच्चों के प्रभावित होने की कोई आशंका नहीं है। अभी तक कोरोना वायरस का कोई ऐसा रूप देखने में नहीं आया है, जो विशेष रूप से बच्चों को संक्रमित करता हो या उनके लिए ज्यादा खतरनाक हो। ब्राजील में जरूर बड़ी तादाद में बच्चे संक्रमित हुए हैं और उनकी मौत भी हुई है, पर वैज्ञानिक इसकी वजह सरकारी लापरवाही ज्यादा मानते हैं। जहां तक भविष्य में बच्चों के ज्यादा प्रभावित होने की बात है, तो वह आशंका शायद सही हो सकती है, लेकिन उसकी वजहें दूसरी होंगी। ज्यादा बड़ी वजह यह हो सकती है कि फिलहाल वैक्सीनेशन ज्यादातर जगहों पर सिर्फ वयस्कों का हो रहा है। इस तरह वयस्क जब प्रतिरोधक शक्ति हासिल कर लेंगे, तो बच्चे ही बचेंगे, जिन्हें कोरोना हो सकता है। इसीलिए जहां वैक्सीनेशन कार्यक्रम अच्छा चल रहा है, वहां बच्चों को टीका लगाने की योजना पर काम शुरू हो चुका है। इसलिए राजनीतिक बयानबाजी और सनसनी अपनी जगह, बच्चों को कोरोना से बचाने के लिए सोचना शुरू कर देना चाहिए।
4.राजनीति का खेला
महामारी से निपटना ही हो प्राथमिकता
लंबे और आक्रामक चुनाव अभियान के बाद ममता सरकार को अभी पूरी तरह कामकाज संभालने का मौका भी नहीं मिला था कि तृणमूल कांग्रेस के दो मंत्रियों व दो वरिष्ठ नेताओं की सीबीआई द्वारा की गई गिरफ्तारी ने नये विवाद को जन्म दे दिया। ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल चुनाव की कड़वाहट को भुला नहीं पा रहे हैं। इसका यह भी संकेत है कि आने वाले दिनों में टकराव लगातार चलते रहने वाला है। यानी कि पश्चिम बंगाल में राजनीति का खेला बदस्तूर जारी रहने वाला है। सवाल उठाए जा रहे हैं कि जब राज्य कोरोना की महामारी से जूझ रहा है तो इस राजनीतिक लड़ाई से किसका भला होने जा रहा है। जरूरत है कि इस संकट में राजनीति का पारा कम करके राज्य को कोरोना मुक्त करने में ऊर्जा लगायी जाये। भाजपा को भी राजनीतिक संयम का परिचय देना चाहिए तो तृणमूल सरकार को भी जनसरोकारों की प्रतिबद्धता दर्शाते हुए बड़प्पन का परिचय देना चाहिए। लेकिन लगता है कि चुनाव परिणामों के बाद भी राज्य अभी राजनीतिक कटुता से मुक्त नहीं हुआ है। चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा समर्थकों पर हुए हमलों को इसी राजनीतिक दुश्मनी की कड़ी के रूप में देखा गया था। बहरहाल, नारद स्टिंग मामले में टीएमसी के चार नेताओं की सीबीआई द्वारा यकायक हुई गिरफ्तारी ने पश्चिम बंगाल का राजनीतिक माहौल गरमा दिया है। इनमें से दो नेता फिरहाद हकीम और सुब्रत मुखर्जी तो बाकायदा ममता सरकार में मंत्री हैं। इन गिरफ्तारियों के बाद ममता बनर्जी एक बार फिर आक्रामक तेवरों में नजर आईं। उन्होंने सीबीआई दफ्तर में बाकायदा धरना दिया और अपनी गिरफ्तारी की भी मांग की। वहीं दूसरी ओर कोरोना संकट के बीच टीएमसी कार्यकर्ताओं का हुजूम निकल आया और विरोध प्रदर्शन करने लगा। जाहिर-सी बात है कि लॉकडाउन के बीच कोरोना प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़नी ही थीं। फिर सीबीआई कोर्ट से अभियुक्तों को जमानत तो मिली, लेकिन बाद में हाईकोर्ट से इनकी जमानत पर स्थगन आदेश मिल गया। कालांतर में मंत्रियों को बीमार होने की बात कहकर अस्पताल में भर्ती किया गया।
दरअसल, नारद स्टिंग ऑपरेशन 2014 में प्रकाश में आया था, जिसमें कुछ नेता कैमरे में रिश्वत लेते नजर आये थे। कालांतर वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव से पहले मामला पब्लिक डोमेन में लाया गया था। लेकिन इस मामले में प्राथमिकी 2017 में दर्ज की गई। फिर यह मुद्दा हालिया विधानसभा चुनाव में भी उछला, लेकिन इसका कोई प्रभाव चुनाव परिणामों पर नजर नहीं आया। ऐसे में गिरफ्तारियों की टाइमिंग को लेकर सवाल उठाये जा रहे हैं। यह भी कि विधानसभा अध्यक्ष की अनुमति के बिना राज्यपाल को मंत्रियों की गिरफ्तारी की अनुमति देनी चाहिए? सवाल यह भी कि दो पूर्व तृणमूल नेता शुभेंदु अधिकारी व मुकुल रॉय भी इसी मामले में वंछित तो थे तो अब भाजपा में शामिल होने के बाद उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की गई। जाहिरा तौर पर इस प्रकरण में सीबीआई की छवि को भी आंच आई है कि वह केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रही है। तो इस राजनीतिक खेला का एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आने वाले दिनों में राज्य में राजनीतिक टकराव यूं ही जारी रहेगा? यहां सवाल कोरोना संकट में राजनीतिक दलों की जनता के प्रति संवेदनशीलता का भी है। यानी उन्हें अपने दायित्वों का पालन भी करना चाहिए। बहरहाल, विकास की दौड़ में पिछड़े पश्चिम बंगाल के सामने तमाम तरह की चुनौतियां विद्यमान हैं। अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है। उस पर कोरोना संकट लगातार विकराल रूप लेता जा रहा है। ऐसे में राजनेता यदि टकराव की राजनीति का सहारा लेंगे तो न तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में है और न ही राज्य के हित में। निस्संदेह इससे राज्य के राजनेताओं की विश्वसनीयता भी दांव पर होगी। राजनीतिक दलों को चुनाव पूर्व की कटुता को त्याग कर राज्य के सर्वांगीण विकास के लिये रचनात्मक पहल करनी चाहिए। अब चुनावी राजनीति को पांच साल के लिये ठंडे बस्ते में डालकर सिर्फ राज्य के विकास की ही बात हो। यही देश व राज्य के हित में रहेगा।