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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.केजरीवाल राजनयिक नहीं
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल मासूमियत या उत्तेजना की राजनीति करते रहे हैं, लिहाजा उन्होंने अपनी संवैधानिक सीमाएं भी लांघी हैं। भावुकता भी उनकी सियासत का एक अहम हिस्सा रही है। वह जनता का बेटा और भाई बनकर जनमत हासिल करते रहे हैं। बेशक उनकी ऐसी सियासत कमोबेश कामयाब रही है, लेकिन एक मुख्यमंत्री और राजनेता की मर्यादा भी होती है। चुनाव में जीतने के मायने ये नहीं हैं कि आप निरंकुश हो जाएं और तमाम विशेषाधिकारों पर कब्जा कर लें। भारत के संविधान ने सरकारों की भूमिका की एक स्पष्ट लकीर भी खींच रखी है। मसलन-विदेश, वित्त, रक्षा और संचार संबंधी मामलों के अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार के पास हैं। केजरीवाल की दिल्ली महज एक अर्द्धराज्य है। उसकी अपनी विधानसभा जरूर है, लेकिन वह पूर्ण राज्य नहीं है। उपराज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासनिक मुखिया हैं। मुख्यमंत्री को सीमित अधिकार दिए गए हैं। ज़मीन और पुलिस के प्रभार भी दिल्ली सरकार के अधीन नहीं हैं। कूटनीति और राजनयिक मामलों का महत्त्व इनसे अधिक संवेदनशील और नाजुक है। अंतरराष्ट्रीय मैत्री सबसे ताकतवर और सम्पन्न देश अमरीका की भी मजबूरी है, लिहाजा कोरोना वायरस के ‘सिंगापुर वेरिएंट’ को लेकर केजरीवाल ने जो बयान दिया था, वह उनकी छद्म महत्त्वाकांक्षा का हिस्सा हो सकता है, लेकिन बच्चों की चिंता उनकी इकलौती नहीं है। केजरीवाल न तो राजनयिक हैं और न ही विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हैं। उन्हें भारत के आधार पर बोलने या बयान देने को भी अधिकृत नहीं किया गया है।
देश अराजकता या उच्छृंखलता से नहीं चला करते। विदेश मंत्री होना तो फिलहाल बहुत दूर की कौड़ी है। केजरीवाल को यह जनादेश भी हासिल नहीं है कि वह वैश्विक स्तर पर ‘भारत की आवाज़’ बन सकें, लिहाजा विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने तुरंत स्पष्टीकरण जारी किया कि मुख्यमंत्री केजरीवाल का बयान भारत का बयान नहीं है। उन्हें कोरोना वायरस और नागर विमानन नीति पर भी बोलने का अधिकार नहीं है। बहरहाल भारत और सिंगापुर के प्राचीन रिश्तों में खटास और दरारें पैदा होने तक की नौबत नहीं आई और मामले का पटाक्षेप करने की कोशिश की गई है। बेशक सिंगापुर, भारत की तुलना में, एक चिंदी-सा देश है, लेकिन वह भारत में सबसे बड़ा निवेशक है। कोरोना के संक्रमण काल में जब हमें ऑक्सीजन की किल्लत महसूस हुई, तो उसने प्राण-वायु की आपूर्ति की और क्रायोजैनिक टैंकर भी भेजे। उनके जरिए दिल्ली को भी ऑक्सीजन मुहैया कराई जा सकी। एक लंबे अंतराल से सिंगापुर हमारा सहयोगी और समर्थक देश रहा है। फिर ऐसे अनर्गल बयानों की गुंज़ाइश कहां है? गौरतलब तो यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन स्पष्ट कर चुका है कि कोरोना के किसी भी स्टे्रन या वेरिएंट, प्रकार या नस्ल, को उसके देश के नाम से संबोधित न किया जाए। यह भी निर्देश दिया गया है कि भारत में सक्रिय कोरोना के रूप को ‘इंडियन’ करार न दिया जाए। कोरोना वेरिएंट के तकनीकी और वैज्ञानिक नामकरण का ही उल्लेख किया जाए। इसके अलावा, सिंगापुर में कोरोना का जो प्रकार मिला है, वह बी.1.617.2 है और वह 44 अन्य देशों में भी फैला है।
अमरीका तक में इसके 494 मामले पाए गए हैं। भारत के मौजूदा भयावह संक्रमण की एक बुनियादी वजह भी यही वायरस बताया जाता रहा है। फिर केजरीवाल किस आधार पर दावा कर रहे हैं कि यह वायरस तीसरी लहर का बड़ा कारण बन सकता है। बच्चों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है, लिहाजा सिंगापुर से आने वाली उड़ानों को रद्द कर दिया जाए। मुख्यमंत्री होते हुए भी केजरीवाल को यह जानकारी नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय उड़ानें मार्च, 2020 से बंद हैं। सिंगापुर के साथ एयर बबल भी नहीं है। यह स्पष्टीकरण नागर विमानन मंत्री हरदीप पुरी ने दिया है। बेशक बच्चों में संक्रमण समूचे देश की बड़ी चिंता है, लिहाजा 2-17 साल के बच्चों पर टीके के परीक्षण को मंजूरी दी गई है। एक सप्ताह में वह कवायद भी शुरू हो सकती है। बेशक मानवीय परीक्षण और उसके डाटा संग्रह में 3-5 माह लग सकते हैं। चूंकि कोरोना की पहली लहर में भी 12 फीसदी बच्चे संक्रमित हुए थे और इस बार कुछ ज्यादा हैं, लिहाजा चिंता स्वाभाविक है कि तीसरी लहर में बच्चे निशाने पर होंगे। तब तक देश की बड़ी आबादी में टीकाकरण हो चुका होगा और बच्चे बिना किसी सुरक्षा-कवच के होंगे। इस संदर्भ में अकेला सिंगापुर ही ‘खलनायक’ नहीं माना जा सकता। अभी तो यह भी स्पष्ट नहीं है कि यह वेरिएंट बच्चों पर कितना प्रभाव डालेगा? केजरीवाल महोदय आप दिल्ली की चिंता करें और प्रधानमंत्री को पत्र लिखते रहें। राजनयिक मामले भारत सरकार पर ही छोड़ दें। यह उसी की जवाबदेही है।
2.कितने सबक, कितने जख्म
कोविड आंकड़ों की बढ़ती कहानियों में सीखें तो सबक हैं, देखें तो जख्म हैं। कम से कम हिमाचल सरकार केंद्र से इसलिए भिन्न प्रतीत हो रही है क्योंकि गलतियों में स्वीकार्यता और कार्रवाई में अनुपालन कुछ हद तक हो रहा है। हम इसे कम या अधिक आंक सकते हैं, लेकिन कोशिश में कमी नहीं है। कोविड मृतकों की संख्या में स्वास्थ्य बुलेटिन की खामियों पर जब खबरें आईं, तो चूक पर जांच का आदेश हुआ, लेकिन पद्धति को सही करने का अमल जरूर देखा जाएगा। यह इसलिए कि हर दिन सोशल मीडिया में कोविड मरीजों की कहानियां जिस तरह सामने आ रही हैं, उनमें चिकित्सा विभाग के संस्थान ही नहीं, बल्कि अब तो निजी अस्पताल भी आरोपों के घेरे में हैं। ऐसे में प्रदेश की उच्च स्तरीय बैठकों की फेहरिस्त का गुणात्मक पक्ष तो यह होगा कि ऐसे संदेहास्पद मामलों पर कड़े कदम सामने आएं। बेशक मुख्यमंत्री जयराम अपनी मौजूदगी से सरकार की संवेदनशीलता प्रकट करते हुए शिमला से कभी मंडी, कभी धर्मशाला या कभी किसी अन्य जिला मुख्यालय में पहुंच रहे हैं, लेकिन इन करवटों में कुछ कड़े फैसले अगर दर्ज हों तो यही संवेदना कार्य संस्कृति की प्रमुख भूमिका में नजर आएगी।
मसलन शिकायतों के अंबार या जिनके प्रियजन पीपीई किट में शव बनकर रह गए, उनसे पूछा जाए या जो बता पा रहे, उस पर कार्रवाई की जाए तो इस दौर में सुशासन की यह सबसे बड़ी कड़ी होगी। फैसलों की तीमारदारी में इस वक्त का हर लम्हा देख रहा कि जब जरूरत है तो सरकार का कौन सा पहलू सक्रिय भूमिका निभा रहा है। इस दृष्टि से कमोबेश हर जिला के जिलाधीश साबित कर पाए कि उन्होंने हर मुश्किल से सबक सीखा और क्षमता निर्माण की चुनौतियों को नए सिरे से रेखांकित भी किया। यही वजह है कि अठारह से 44 साल तक के वैक्सीन कार्यक्रम की अनसुलझी गुत्थियों में अब युवा पीढ़ी के उत्साह को सार्थक बनाने का सुधार हो रहा है। पहले चरण के पंजीकरण में अस्पष्टता रही थी, लेकिन अब दिन व समय तय करके प्रशासन ने फिर खुद को नए तरीके से पेश किया है। कोरोना अपने आप में बोध का काल भी है और इस तरह देखें तो पुलिस बल के सामर्थ्य में सहजता और संयम के नए आदर्श हर चौक-चौराहे से वैक्सीनेशन सेंटर तक देखे जा सकते हैं। इसके विपरीत शिकायतों के बीच स्वास्थ्य विभाग को अपनी भूमिका और छवि में सुधार लाने की बेहद जरूरत है। कोविड मरीजों की आंतरिक व्यवस्था में नालायकी को नजरअंदाज किया जा सकता है, लेकिन घोर उपेक्षा के बीच विभाग ही संवेदनहीन हो जाए तो यह गहन सदमा है।
हाल ही में कोविड मौतों के बीच पीडि़त-दुखी परिवारों के अनुभव से सीखते हुए चिकित्सा विभाग को बाकायदा फ्लाइंग स्क्वायड का गठन करना चाहिए। स्वास्थ्य निदेशालय में पदवियां व तिलकधारण किए आला अधिकारियों के नेतृत्व में प्रदेश में कम से कम चार छापा दस्ते बना कर मुख्यमंत्री कार्यालय को दैनिक रिपोर्ट हासिल करते हुए कार्रवाई करनी चाहिए, वरना बड़े अस्पतालों के बंद कान व आंखें पूरी तरह नहीं खुलेंगी। ऐसे दस्तों में मंत्री, विधायक व विपक्षी नेता भी जोड़े जाने चाहिएं। मुख्यमंत्री भले ही अपनी सक्रियता में यह बता रहे हैं कि किस तरह प्रदेश अपनी खामियों से बाहर निकल रहा है, लेकिन यह वक्त सरकारी कार्य संस्कृति को सुधारने का भी है। सरकार ने भले ही कोविड बिस्तरों की संख्या पांच हजार कर दी, आक्सीजन आपूर्ति दोगुना पहुंचा दी या आईजीएमसी व टीएमसी में आईसीयू बेड बढ़ा दिए, लेकिन इस व्यवस्था के बावजूद अस्पताल प्रबंधन नहीं सुधरा तो लापरवाही के चंद लम्हे भी घातक होते रहेंगे। यह अवधारणा बनती जा रही है और मौत के बढ़ते आंकड़ों का एक तर्क भी यही है कि अस्पताल पहुंच रहे मरीज व्यवस्थागत उपेक्षाओं के कारण काल कवलित हो रहे हैं। सबक जनता के सामने भी हैं और अगर सरकार शादी व अन्य पारिवारिक समारोह आयोजित न करने की सलाह दे रही है, तो यह मानवीय दायित्व है। आश्चर्य यह कि होटलों में जन्मदिन पार्टियां तक रोकने के लिए अगर प्रशासन को सेंधमारी करनी पड़ रही है, तो जनता के ऐसे कसूर भी माफ नहीं होंगे।
3.फंगस ने बढ़ाई चुनौती
केंद्र सरकार ने राज्यों से कहा है कि ‘ब्लैक फंगस’ को वे महामारी कानून के तहत अधिसूचित करें और एक-एक मामले की रिपोर्ट की जाए। केंद्र ने आम जनता के लिए कोविड संबंधी जो दिशा-निर्देश जारी किए हैं, उनमें कहा गया है कि कोविड संक्रमण हवा में दस मीटर तक फैल सकता है। इससे बचने के लिए डबल मास्क लगाना चाहिए और बंद जगहों पर ताजा हवा के इंतजाम किए जाने चाहिए। धीरे-धीरे वैज्ञानिक इस बात को मानने लगे हैं कि कोविड के फैलने को लेकर जो समझ पहले थी, उसमें सुधार की जरूरत है। शुरुआत में माना गया था कि कोरोना वायरस हवा में दूर तक नहीं फैलता और मरीज के छींकने या खांसने से जो छोटी-छोटी बूंदें गिरती हैं, उन्हीं से यह बीमारी फैलती है। यह भी माना जा रहा था कि ऐसी बूंदें किसी सतह पर पड़ी रहें, तो वे संक्रमण के फैलने का जरिया बन सकती हैं। इसीलिए शुरू में एक मीटर की दूरी बरतने का निर्देश जारी किया गया था और सतहों को न छूने और उनको कीटाणुरहित करने पर जोर था।
यह कोई विचित्र बात नहीं है। हवा से किसी वायरस या बैक्टीरिया के नमूने एकत्र करना और उनके खतरों का मूल्यांकन बहुत मुश्किल होता है। टीबी और खसरा जैसी बीमारियों के साथ भी यही हुआ था। लंबे दौर तक यह माना गया था कि ये बीमारियां हवा से नहीं, सिर्फ बूंदों से फैलती हैं, बाद में यह आकलन गलत साबित हुआ। कोरोना वायरस के बारे में भी ऐसे असंदिग्ध तथ्य नहीं मिले हैं, जिनसे ठीक-ठीक बताया जा सके कि कोरोना हवा में कितनी दूर तक फैलता है और उसका खतरा कितनी देर तक रहता है, लेकिन अब यह लगभग आम सहमति है कि कोविड का संक्रमण मुख्यत: हवा से होता है, सतहों को छूने से होने वाले संक्रमण की मात्रा बहुत कम है, इसलिए बार-बार उनको साफ करने की कोई खास जरूरत नहीं है। एक और खास बात जो उभरकर आई है, वह है ताजा हवा की जरूरत। पाया गया है कि बंद कमरों में या ऐसी जगहों पर, जहां हवा के आने-जाने का इंतजाम नहीं है, कोरोना का वायरस देर तक रह सकता है। इसलिए जहां एयर कंडिशनिंग जरूरी भी है, वहां बार-बार ताजा हवा के आने का इंतजाम जरूरी है। कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि खुली जगहों पर कोविड संक्रमण के प्रसार की आशंका कई गुना कम हो जाती है। कुछ वैज्ञानिकों का जोर है कि जैसे 19वीं सदी में साफ पानी पर जोर दिया गया था और उससे कई बीमारियों पर नियंत्रण हो गया, वैसे ही अब यदि हवा की गुणवत्ता को मुद्दा बनाया जाए, तो बहुत सारी बीमारियों से मुक्ति मिल सकती है। कोविड ने बीमारियों के फैलने में हवा के महत्व को फिर रेखांकित किया है। दस मीटर यानी काफी बडे़ कमरे में कोरोना हवा के जरिए फैल सकता है। यह दस मीटर भी कोई पत्थर की लकीर नहीं है। इससे सिर्फ यही पता चलता है कि काफी दूर तक कोरोना का वायरस हवा में जा सकता है और इसी नजरिए से बचाव के उपाय करने होंगे। वैक्सीनेशन से बचाव को पाने में अभी वक्त लगेगा और वह भी शत-प्रतिशत नहीं होगा। इसलिए बचाव के असली उपाय वही सावधानियां हैं, जिनके पालन में लोग लापरवाही कर जाते हैं। मास्क का सही इस्तेमाल, शारीरिक दूरी का ख्याल और खुली हवा का इंतजाम जैसे तरीके अभी सबसे कारगर बचाव हैं। ब्लैक फंगस ने वैसे भी चुनौती बढ़ा दी है।
4.रक्षकों की रक्षा
तभी कोविड से लड़ाई में कामयाबी
इसमें दो राय नहीं कि सीमित संसाधनों व पर्याप्त चिकित्सा सुविधा के अभाव में भी देश के डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी प्राणपण से कोविड-19 की महामारी से जूझ रहे हैं। पहले से पस्त चिकित्सातंत्र और मरीजों की लगातार बढ़ती संख्या के बीच स्वास्थ्यकर्मियों पर दबाव लगातार बढ़ रह है। इतना ही नहीं, मरीज को न बचा पाने पर उपजी तीमारदारों की हताशा की प्रतिक्रिया भी डॉक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों को झेलनी पड़ती है। जब पहली लहर में पीपीए किट व संक्रमणरोधी मास्क न थे, तब भी फ्रंटलाइन वर्कर सबसे आगे थे। कृतज्ञ राष्ट्र ने तब इनके सम्मान में ताली-थाली भी बजाई। दीये भी जलाये। हवाई-जहाजों व हेलीकॉप्टरों से फूल भी बरसाये। निस्संदेह इन कदमों का प्रतीकात्मक महत्व है। लेकिन इससे कठोर धरातल की हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। हमारी चिंता का विषय यह भी होना चाहिए कि देश के एक-चौथाई स्वास्थ्यकर्मियों का अभी टीकाकरण नहीं हो पाया है। कोरोना महामारी के खिलाफ कारगर लड़ाई लड़ने वाले उच्च जोखिम समूह को जनवरी से वैक्सीन लगाने में प्राथमिकता मिली थी। लेकिन तब कई तरह की शंकाएं इस बिरादरी में थी। लेकिन दूसरी मारक लहर ने तमाम नकारात्मकता के बीच वैक्सीन लगाने के प्रति देश में जागरूकता जगाने का काम जरूर किया है। अब राज्यों के मुखियाओं से लेकर आम आदमी तक में वैक्सीन लगाने की होड़ लगी है। बहरहाल, इसके बावजूद बकौल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी आईएमए, इस साल अब तक 270 डॉक्टरों ने महामारी की दूसरी लहर में दम तोड़ा है, जिसमें अनुभवी व युवा चिकित्सक भी शामिल हैं। इनमें देश में स्वास्थ्य जागरूकता अभियान चलाने वाले व पद्म पुरस्कार विजेता डॉ. के.के अग्रवाल भी शामिल हैं जो कोविड संक्रमित होने के बावजूद रोगियों के साथ टेली-कंसल्टिंग कर रहे थे। ऐसे अग्रिम मोर्चे के नायकों की लंबी सूची है, जिसमें डॉक्टर-स्वास्थ्यकर्मी अपने परिवार को जोखिम में डालकर रोज कोविड मरीजों को बचाने के लिये घर से निकलते हैं।
विडंबना यह है कि देश के नीति-नियंताओं ने सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने को कभी भी अपनी प्राथमिकता नहीं बनाया। वहीं जनता के स्तर पर यही कमी रही है कि वे छोटे हितों के जुमले पर तो वोट देते रहे, लेकिन जनप्रतिनिधियों पर इस बात के लिये दबाव नहीं बनाया कि पहले चिकित्सा व्यवस्था को ठीक किया जाये। यह विडंबना है कि देश में डाक्टर व रोगी का अनुपात एक के मुकाबले 1700 है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित एक अनुपात 1100 से बहुत कम है। ऐसे में संकट के इस दौर में अनुभवी डॉक्टरों की मौत हमारा बड़ा नुकसान है, जो पहले से चरमराती स्वास्थ्य प्रणाली के लिये मुश्किल पैदा करने वाला है। निस्संदेह जब तक स्वास्थ्यकर्मियों को हम वायरस के खिलाफ सुरक्षा कवच उपलब्ध न करा पाएंगे, तब तक जीवन रक्षक ठीक तरह से काम नहीं कर पायेंगे। बकौल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन इस साल मरने वाले डॉक्टरों में बमुश्किल तीन फीसदी को टीके की दोनों डोज लगी थीं। निस्संदेह अधिकारियों को स्वास्थ्यकर्मियों के टीकाकरण हेतु व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बीते साल कोरोना संक्रमण की पहली लहर के दौरान देश में 748 डॉक्टरों की मौत हुई थी। ऐसे में यदि सब के लिये टीकाकरण का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जाता तो इस साल यह संख्या बढ़ भी सकती है। इसकी वजह यह है कि दूसरी लहर में संक्रमण दर में गिरावट के बावजूद मृत्युदर बढ़ी हुई है। आशंका जतायी जा रही है कि तीसरी लहर और घातक हो सकती है। इस संकट के दौरान उच्च जोखिम वाले समूह में श्मशान घाट पर काम करने वाले लोग भी शामिल हैं, जिनकी केंद्र-राज्य सरकारों ने अनदेखी की। पीपीए किट के बिना दैनिक वेतन पर काम करने वाले ये लोग कोविड पीड़ितों के शवों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। पिछले दिनों हिसार में तीन सौ से अधिक पीड़ितों का अंतिम संस्कार करने वाले एमसी सफाई कर्मचारी प्रवीण कुमार की मौत इस भयावह खतरे को दर्शाती है। ऐसे लोगों के लिये मुआवजा नीति बननी चाहिए।