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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.कहीं दबाव भी दवा होंगे
दबाव की हकीकत में कोरोना ने इतना तो सिखा दिया कि जिंदगी आगे बढ़ने का नाम है। कहीं दबाव भी दवा है और यह दवा नए दावों को जन्म दे रही है और देती रहेगी। जाहिर है दबाव की परिस्थितियों में देश-प्रदेश, शहर-गांव तथा गली-मोहल्ला अपने-अपने भीतर जीने का सामर्थ्य बदलेंगे जरूर और पिछले पंद्रह महीनों से हम बदलना चाहते हैं ताकि दबाव न रहे। राष्ट्रीय दबावों की अमानत में पैदा होते सबक कोई झील नहीं, बल्कि ठहरे हुए पानी को भी किनारे तोड़ना चाहते हैं। ऐसे अनेक लोग सामने आ रहे हैं जो दबावों से रंगी अपनी जिंदगी तक कुर्बान कर रहे हैं। करीब एक हजार डाक्टर अपने कर्म से कोरोना का पीछा करते-करते ईहलीला समाप्त कर चुके हैं, लेकिन चिकित्सा क्षेत्र पर आए हर दबाव का सामना योद्धा की तरह किया। हिमाचल में भी कमोबेश राष्ट्रीय दबावों का वही फलक उभर रहा है और इसलिए प्रश्नों की फेहरिस्त में व्यवस्था से लेकर हालात तक, अपनी शून्यता के दायरों में एक दूसरे को लांछित करते भ्रम या संदेह हैं।
बेशक सरकार अपने फैसलों की पलकें खोलकर जनभावनाओं व उमंगों की आंखमिचौली को स्पष्ट संदेश देना चाहती हो, फिर भी दबाव व तनाव की भूमि पर हम सभी खड़े हैं। कर्फ्यू कितनी देर खड़ा रह सकता है या डेढ़ टांग पर यह बाजार के हालात को कितना नर्वस करता रहेगा, इसका आर्थिक दबाव भी समझना होगा। बीबीएन की हैसियत में हिमाचल का घटता उत्पादन अगर सत्तर फीसदी क्षमता हार चुका है, तो औद्योगिक मायूसी का कर्ज कई भागीदारों को कंगाल करेगा। हिमाचल में आंकड़ों का दबाव पिछली मई और इस मई में कितना अंतर पैदा करता या कोविड मौत की असमर्थता में अपना ही चिकित्सकीय ढांचा कितना कसूरवार बनता है, यह चिंतनीय विषय है। हिमाचल में कोरोना से मृत्यु दर का दबाव, हर कोशिश को अभिशप्त कर रहा है, लेकिन बढ़ते आंकड़ों ने प्रशासनिक दक्षता, प्राथमिकता और रूटीन बदल दी। यह दबाव की भाषा और दबाव के आदेश हैं, जो हिमाचल के अस्पतालों में आक्सीजन की आपूर्ति सारे देश से बेहतर कर गए। यही दबाव कोविड अस्पतालों की गिनती और तैयारी बढ़ा गए। हिमाचल सरकार ने अपने दबाव को समझते जिस तरह वैक्सीन अभियान को गति दी, उससे यह दवा काम आ रही है। कोई भी राज्य अगर वक्त के दबाव को वैक्सीन की दवा से दूर कर पाया, तो उसके पक्ष में दुआएं असर करेंगी।
जाहिर तौर पर 31 प्रतिशत की दर से हिमाचल को यह श्रेष्ठता हासिल हुई है और अगर अठारह से 44 साल के आयु वर्ग में भी यही रफ्तार हासिल होती है, तो तमाम दबावों के जख्म सही हो जाएंगे। कल यही दबाव हमें याद आएंगे कि जब आफत मची थी, तो कौन सबसे पहले खंडित हुआ था। हिमाचल के वर्तमान दबावों ने हर वर्ग को पसीना-पसीना किया है, फिर भी निजी क्षेत्र अपने अस्तित्व की निगरानी में इसलिए संघर्ष कर रहा है ताकि कल फिर काम आ जाए, लेकिन इस दौरान सार्वजनिक क्षेत्र अगर काम नहीं कर पा रहा, तो कौन रहम करेगा। वीडियो पर वायरल होती मेडिकल कालेज, कोविड अस्पताल या प्राइवेट हॉस्पिटल की तस्वीरों ने जनता के विश्वास को छलनी किया है। मातम की घड़ी में सरकारी तामझाम की हिलतीं चूलें वर्षों तक याद रहेंगी कि जब परीक्षा हुई थी, तो अस्पतालों के अंबार उन्हीं राजनीतिक मंचों पर लगे थे, जो कतारों में मेडिकल कालेज खोल रहे थे। कोरोना के प्रभाव और दबाव केवल चिकित्सा विज्ञान की चुनौती नहीं, बल्कि नागरिक समाज से सरकार तक सभी को अपने-अपने गिरेबां में झांकना होगा।
2.बेरोजगार होते शहर-गांव
यदि भारतीय रिजर्व बैंक केंद्र सरकार को 99,122 करोड़ रुपए की मदद दे रहा है, तो अर्थव्यवस्था की पतली हालत समझी जा सकती है। दावे कुछ भी किए जाते रहें। मौजूदा वित्त वर्ष में हमारी आर्थिक विकास दर कितनी होगी, दुनिया की प्रमुख रेटिंग एजेंसियां आकलन कर रही हैं, लेकिन यथार्थ अनिश्चित है। इसी दौरान सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की ताज़ा रपट पूरी तरह निराशाजनक हालात का खुलासा करती है। हालांकि देश भर में लॉकडाउन लागू नहीं है, फिर भी 70-75 फीसदी देश में तालाबंदी और अन्य पाबंदियां जारी हैं। बहुत कुछ बंद है। नतीजतन शहर और गांवों में बेरोज़गारी दर बढ़ी है। जो बेरोज़गारी दर 9 मई को समाप्त होने वाले सप्ताह में 8.67 फीसदी थी, वह 16 मई वाले सप्ताह में बढ़कर 14.45 फीसदी हो गई। मार्च में रोज़गार का जो औसत 37.72 फीसदी था, वह अप्रैल में घटकर 36.8 फीसदी तक लुढ़क गया। बीते 50 हफ्तों में सबसे ज्यादा ग्रामीण बेरोज़गारी बढ़ी है। औसतन 100 में से 15 लोगों को भी रोज़गार नसीब नहीं है। इसी जनवरी से अप्रैल तक करीब एक करोड़ लोग बेरोज़गार हो चुके हैं।
सिर्फ अप्रैल में ही करीब 11 लाख मज़दूरों ने अपना दिहाड़ीदार रोज़गार गंवाया है, जबकि 75 लाख से अधिक नौकरीपेशा भी बेरोज़गार हुए हैं। यह वेतनभोगी वर्ग है। इसके अलावा, कृषि तक में रोज़गार घटे हैं। हालांकि बेरोज़गारी की राष्ट्रीय दर मार्च में 6.5 फीसदी थी, लेकिन अब 8 फीसदी तक पहुंच चुकी है। अलबत्ता 2020 के लॉकडाउन में यह दर 23-24 फीसदी तक उछल चुकी है। अर्थव्यवस्था की ऋणात्मक स्थिति हम देख चुके हैं। तालाबंदी के दौरान देश को एक दिन की कीमत औसतन 40,000 करोड़ रुपए चुकानी पड़ी। करीब 35 फीसदी परिवारों को एक दिन अथवा कई दिन तक खाना नसीब नहीं हुआ। करीब 23 फीसदी परिवारों को उधार मांग कर अपने घर चलाने पड़े। नौकरियां भी 12 करोड़ से ज्यादा गईं। यह दीगर है कि धीरे-धीरे 7-8 करोड़ नौकरियां दी गईं, लेकिन वे अपेक्षाकृत कम वेतन पर थीं अथवा अनुबंध पर दी गईं। हालांकि कोरोना वायरस की दूसरी लहर के दौरान मनरेगा के तहत 1.85 करोड़ लोगों को काम दिया गया। यह आंकड़ा केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का है। उसके बावजूद बेरोज़गारी की दर इतनी बढ़ चुकी है। मार्च माह में औसतन 37 फीसदी कम लोगों को रोज़गार मिल सका। बीते एक साल के दौरान 23 करोड़ से अधिक भारतीय ‘गरीब’ हुए हैं। यह बहुत मोटा आंकड़ा है, क्योंकि इससे ज्यादा लोग पहले से ही गरीबी-रेखा के नीचे जीने को अभिशप्त और विवश हैं। यदि कोविड महामारी की कमोबेश यही स्थिति आगामी दो सालों में भी रही, तो अर्थव्यवस्था, कारोबार और आम रोज़गार का क्या होगा? आज का यह सबसे अहम चिंतित सवाल है। ये तमाम आंकड़े सरकार या अर्द्धसरकारी नहीं हैं, बल्कि सैंपल के आधार पर सर्वेक्षण का निष्कर्ष हैं।
सीएमआईई एक लंबे अंतराल से भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन करता रहा है और अर्थशास्त्री उसकी पुष्टि और विश्लेषण भी करते रहे हैं। हालांकि भारत सरकार का श्रम विभाग और उसके नौकरशाह इस सर्वेक्षण को ‘वैज्ञानिक’ नहीं मानते, लेकिन भारत की फिलहाल आर्थिक और रोज़गारी तस्वीर यही है। रपट के मुताबिक, 41.5 फीसदी परिवारों की आमदनी बीते एक साल के दौरान नहीं बढ़ी है। तो अर्थव्यवस्था कैसे फल-फूल सकती है? हालात का सबसे बड़ा और अहम प्रभाव नागरिक उड्डयन, लघु उद्योग, पर्यटन, होटल और रेस्तरां उद्योगों पर पड़ा है। ये अर्थव्यवस्था का करीब 20 फीसदी हिस्सा हैं। फिलहाल तो अनिश्चित है कि यह महामारी कब तक जारी रहेगी। हमारी योजनाएं दूरगामी नहीं रहीं, लेकिन चीन ने इन हालात में भी प्रगति की है और उसकी अर्थव्यवस्था दौड़ रही है। कमोबेश इन उद्योगों पर ज्यादा फोकस सरकार को देना पड़ेगा। बाज़ार में मांग पैदा करने के मद्देनजर आम आदमी की जेब में नकदी डालनी होगी। यदि मांग नहीं उभर पाई, तो कारोबार के उत्पादन पर सीधा असर होना तय है। यदि उत्पादन ही ठप्प होता गया, तो कौन-सा देश 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना भी देख सकता है? हकीकत तो बहुत दूर की कौड़ी है। व्यापार भी बढ़े और नौजवान हाथों को रोज़गार भी मिले, मोदी सरकार को यह भी चिंता और व्यवस्था करनी है।
3.दांत और कोरोना
कोविड और उससे बचाव के बारे में धीरे-धीरे कई नई बातें सामने आ रही हैं। जैसे कई अध्ययनों से यह पता चला है कि दांतों और मसूड़ों की सफाई व उनके स्वास्थ्य का कोरोना संक्रमण से गहरा रिश्ता है। इस तरह के अध्ययन एक साल पहले से ही आने लगे थे, जिनसे यह मालूम चलता था कि मुंह की सफाई और आम माउथवाश के इस्तेमाल से कोरोना से बचाव हो सकता है। पिछले एक साल में कई और प्रमाण सामने आए हैं, जो मुंह व दांतों के स्वास्थ्य और कोरोना के बीच रिश्ते को स्पष्ट करते हैं। एक ताजा अध्ययन बताता है कि खराब मसूडे़ और दांतों की वजह से कोविड संक्रमण की आशंका 8.8 प्रतिशत बढ़ जाती है, जबकि अस्पताल में भर्ती होने की आशंका 2.5 फीसदी और मरीज के वेंटिलेटर पर जाने की आशंका 4.5 प्रतिशत बढ़ जाती है। अगर मरीजों के मुंह और दांतों की सफाई का ध्यान रखा जाए, तो कोरोना के बाद होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं में भी कमी हो सकती है। ब्लैक फंगस या म्यूकरमाइकोसिस से बचाव में भी इसकी बड़ी भूमिका है, क्योंकि यह बीमारी भी आम तौर पर मुंह में ही जड़ जमाती है।
मुंह की सफाई और कोरोना संक्रमण के बीच रिश्ते का मुख्य कारण यही है कि कोरोना वायरस मुंह और नाक के रास्ते ही शरीर में प्रवेश करता है। आज से करीब बीस साल पहले सार्स नामक जो घातक बीमारी फैली थी, उसी के वायरस का कुछ बदला हुआ रूप यह वायरस है। इसीलिए इसका वैज्ञानिक नाम सार्स कोव-2 रखा गया है। मूल सार्स वायरस और इस वायरस में एक फर्क यह है कि सार्स वायरस शरीर में घुसते ही सीधे फेफड़ों पर वार करता था। इससे वह ज्यादा घातक हो गया था। उसके लगभग दस प्रतिशत मरीजों की जान बचाई नहीं जा सकी। लेकिन इसी वजह से वह ज्यादा फैल नहीं पाया, क्योंकि उसके मरीज में संक्रमण होते ही फौरन लक्षण दिखाई देने लगते थे और उसे समूह से अलग कर सकना संभव होता था । इसके उलट मौजूदा कोरोना संक्रमण का वायरस शरीर में घुसकर कछ दिन मुंह, नाक और गले में रहता है, इन दिनों में या तो कोई लक्षण नहीं दिखता या हल्के लक्षण होते हैं। ज्यादातर मरीजों में तो वायरस का फैलाव यहीं तक सीमित रहता है और मरीज ठीक हो जाता है। लेकिन कुछ मरीजों में संक्रमण फेफड़ों तक पहुंचता है और गंभीर लक्षण हो जाते हैं। सार्स कोव-2 के इस गुण की वजह से गंभीर बीमारी और मृत्यु का प्रतिशत अपेक्षाकृत कम है, लेकिन बहुत ज्यादा लोग संक्रमित हो रहे हैं, क्योंकि जब तक इसके लक्षण प्रकट होते हैं, तब तक मरीज अपने आसपास के कई लोगों को संक्रमित कर चुका होता है। मुंह की सफाई या गरारे करने के पीछे तर्क यही है कि इससे वायरस को मुंह और गले के स्तर पर ही रोका जा सकता है और वह फेफड़ों तक नहीं पहुंच पाता। अगर मसूड़े खराब हों, तो उनकी सूक्ष्म रक्त वाहिनियों के जरिये कोरोना वायरस रक्त प्रवाह में पहुंच जाता है और उससे फेफड़े संक्रमित हो जाते हैं। इसी तरह, बीमार हो जाने के बाद जब शरीर का प्रतिरोधक तंत्र कमजोर होता है, तब मुंह और दांतों की देखभाल किसी अन्य बीमारी के आक्रमण से भी रक्षा कर सकती है। कोरोना न भी हो, तब भी मुंह और दांतों की सफाई एक अच्छी आदत है, पर इन दिनों तो इससे एक बड़ा अतिरिक्त लाभ मिल सकता है।
- नेपाल का गतिरोध
कोरोना संकट के बीच राजनीतिक अस्थिरता
नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी द्वारा शुक्रवार-शनिवार की मध्यरात्रि में संसद भंग करने तथा नवंबर में चुनाव कराने का फैसला इस हिमालयी राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की कहानी कहता है। इससे पहले संसद में प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली दस मई को बहुमत हासिल नहीं कर पाये थे। फिर राष्ट्रपति ने विपक्ष को 24 घंटे में बहुमत साबित करके सरकार बनाने को कहा था, लेकिन विपक्ष भी बहुमत का आंकड़ा जुटाने की कोशिश इतने कम समय में नहीं कर पाया। राजनीतिक पंडित आरोप लगाते रहे हैं कि राष्ट्रपति हर तरह से ओली को फायदा पहुंचाने की कोशिश में लगी रहती हैं। नेपाल की मुख्य विपक्षी पार्टी नेपाली कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति के फैसले को अलोकतांत्रिक बताया है और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है। देश में राजशाही के खात्मे और लोकतंत्र की बहाली के बाद उम्मीद जगी थी कि नेपाल को स्थायी सरकार मिल सकेगी, लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और निहित स्वार्थों के चलते नेपाल लगातार राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में धंसता जा रहा है। वह भी ऐसे समय में जब देश कोरोना की दूसरी लहर से घिरा है और स्वास्थ्य तंत्र का ढांचा धवस्त होने से मानवीय क्षति का सिलसिला जारी है। दरअसल, ताजा संकट की शुरुआत गत वर्ष दिसंबर में हो गई थी जब ओली की सीपीए (यूएमएल) और पुष्प कुमार दहल ‘प्रचंड’ के नेतृत्व वाले सीपीएन (माओइस्ट सेंटर) में अलगाव सामने आया था। इसके बाद ओली ने संसद भंग करके मध्यावधि चुनाव करने की घोषणा कर दी, जिसके खिलाफ विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट गये। शीर्ष अदालत ने फरवरी में सरकार भंग करने को असंवैधानिक करार देते हुए संसद को बहाल करने के आदेश दिये थे।
हालांकि, राष्ट्रपति कार्यालय ने कहा कि कार्यवाहक प्रधानमंत्री व विपक्ष द्वारा सरकार न बना पाने की स्थिति में संसद भंग करने का फैसला लिया गया। मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम ऐसे वक्त में हो रहा है जब देश के स्वास्थ्य विशेषज्ञ राजनेताओं से राजनीतिक तिकड़में छोड़कर लोगों की जिंदगियों को बचाने के लिये प्रयास करने को कह रहे हैं। वहीं विपक्षी नेपाली कांग्रेस ने राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी व प्रधानमंत्री ओली पर अपने संकीर्ण स्वार्थ के लिये पद का दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए राजनीतिक व कानूनी पहल करने की बात कही है। विपक्ष शुक्रवार व शनिवार की मध्यरात्रि के बाद कैबिनेट की बैठक के बाद राष्ट्रपति द्वारा संसद भंग करने और चुनाव कराने की घोषणा को लेकर सवाल उठा रहे हैं। इसे अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक बता रहे हैं। हालांकि, विपक्षी नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देऊबा ने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जताते हुए 149 सांसदों का समर्थन हासिल होने की बात कही थी। अब देऊबा कह रहे हैं इन्हीं सांसदों के हस्ताक्षर वाले समर्थन पत्र को लेकर वे अदालत जायेंगे। बहरहाल, नेपाल में लागू किये नये संविधान के जरिये भी अस्थिरता का मर्ज ठीक होता नजर नहीं आता। ओली की उच्च राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी मिलकर सरकार चलाने के रास्ते में बाधा बनती रही है।