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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.पोस्टर फाड़ निकली कांग्रेस
हिमाचल कांग्रेस के भीतर पोस्टर फाड़ने की कला और वजह बता रही है कि यह पार्टी किस हद तक अपने नेतृत्व की कंगाली दर्ज कर रही है। शिमला में हुई घटना अब ऐसा घटनाक्रम बन सकती है, जो कंद्राओं में छिपे खोट को बाहर लाएगी। कोरोना रिलीफ के नाम पर पार्टी द्वारा खड़ा तामझाम अगर अपने ही मुख्यालय पर आकर बिखर गया तो इस हकीकत में बड़ा खलनायक कौन। क्या वीरभद्र सिंह का फील्ड रक्षण अभी भी इतना ताकतवर है कि जीएस बाली के होर्डिंग एक झटके में फट जाएं या कांगड़ा पहुंचते-पहुंचते उनके पोस्टरों की हालत बिगड़ जाए। शिमला से वीरभद्र के समर्थकों की बेचैनी की एक वजह पोस्टरों एवं होर्डिंग से वरिष्ठ नेता के चित्र न होने से हो सकती है, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि बाली का चित्र अब कांग्रेस अभियान में काफी बड़ा नजर आने लगा है। राजनीति में चित्र बड़ा करने की होड़ केवल कांग्रेस में ही नहीं, बल्कि भाजपा में भी यह संघर्ष तो रहता ही है। जाहिर तौर पर पिछले कई दशकों से कांग्रेस के प्रचार में एकमात्र छवि और छवि से बड़ा चित्र वीरभद्र सिंह का ही रहा है।
वीरभद्र के एकछत्र साम्राज्य ने अपने समर्थक तो पैदा किए, लेकिन अपने समांतर किसी अन्य नेता को खड़ा नहीं होने दिया। ठाकुर कौल सिंह हालांकि पार्टी के दो बार अध्यक्ष रहे, लेकिन वीरभद्र सिंह की बढ़ती उम्र के बावजूद उनकी हस्ती को पनपने का मुकाम हासिल नहीं हुआ। पंडित सुखराम की अमानत में कांग्र्रेस की संभावनाओं का अक्स हमेशा टकराव के साथ अस्त होने के कगार पर रहा, तो कौन कह सकता है कि हिमाचल विकास कांग्रेस बना कर उन्होंने बता दिया कि वह भी कम खिलाड़ी नहीं। पोस्टर फाड़ने के पीछे यही मंशा वीरभद्र सिंह को नायक बनाती है, लेकिन पार्टी की असफलताओं के लिए फिर कौन जिम्मेदार। क्या धूमल सरकार को पंडित सुखराम का साथ या शांता सरकार को मेजर मनकोटिया का साथ मिलना, कांग्रेस की ऐसी जिरह का अपवाद नहीं। मनकोटिया बनाम वीरभद्र या यही बनाम-बनाम करते-करते पार्टी आज पोस्टर फाड़ बन गई। इसका यह अर्थ भी है कि पिछले दौर में वीरभद्र सिंह के लिए चुनौती बने रहे जीएस बाली अब पार्टी के केंद्र बिंदु में बार-बार आ रहे हैं। कांग्रेस के मुख्य अभियान के केंद्र में जीएस बाली का विराजित होना, इतना सरल नहीं कि वीरभद्र समर्थक खुद को खारिज कर लें।
जाहिर है पार्टी अध्यक्ष कुलदीप राठौर के लिए फिर से यही प्रश्न उठ रहा है कि वह आगामी चुनाव से पूर्व नेताओं की वरिष्ठता, युवाओं की महत्त्वाकांक्षा और बिखराव तंत्र की धृष्टता के बीच सहमति कैसे पैदा कर पाते हैं। राजीव गांधी की पुण्य तिथि और कोरोना रिलीफ समिति के बहाने बाली जिस तरह सामने आ गए, इसे मामूली नहीं कह सकते। कांग्रेस के भीतर जितना संगठन बचा है, उसमें युवाओं की भागीदारी और खास तौर पर युवा कांगे्रस के चरित्र को बचाने की जरूरत बढ़ जाती है। दूसरी ओर यह भी किसी से छिपा नहीं कि कांग्रेस की सामूहिक ताकत अपने-अपने खेमों में प्रदर्शित हो रही है, तो क्या जीएस बाली का चेहरा आगे करके कोई जुंडली वीरभद्र सिंह गुट की ताकत को ललकार रही है। इस सारे घटनाक्रम के बीच वीरभद्र सिंह और बाली के बेटों के भविष्य के सवाल नत्थी हैं। पार्टियों के भीतर क्षेत्रवाद का द्वंद्व भी किसी से छिपा नहीं और यह वर्तमान सत्तारूढ़ दल में भी स्पष्ट है। यहां भी मंत्रिमंडल में विभागीय आबंटन और पार्टी में पदों का प्रदर्शन एकतरफा है। आश्चर्य यह कि कांग्रेस ने पिछले चुनाव से कुछ नहीं सीखा और खासतौर पर इस समय जबकि पार्टी को वीरभद्र सिंह के विकल्प में कोई चेहरा चाहिए, आपसी घमासान की सूरत में नुकसान तय है। बेशक वीरभद्र सिंह के चित्र को नदारद करना कोई भोलापन नहीं हो सकता, लेकिन एक दूसरे पर कालिख पोतने से पार्टी का हित भी तो नहीं हो सकता।
2.टीकाकरण के गलत गणित
विश्व स्वास्थ्य संगठन का आकलन है कि यदि भारत में टीकाकरण की मौजूदा गति ही जारी रही, तो इस साल के अंत तक 33 फीसदी आबादी का ही टीकाकरण किया जा सकेगा। हर्ड इम्युनिटी के लिए अपेक्षित टीकाकरण 3-4 साल में ही पूरा होगा। यदि यह गति भी कम हो जाती है, तो फिर भगवान ही बता सकते हैं कि भारत में पूर्ण टीकाकरण कब तक किया जा सकेगा? फिलहाल टीकाकरण का औसत 14-15 लाख खुराक प्रतिदिन रहा है, लेकिन 24 मई को 9.42 लाख लोगों को ही टीके लगाए गए। यह स्थिति इसलिए सामने आई है, क्योंकि देश की राजधानी दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू, पंजाब आदि राज्यों और बड़े शहरों में टीकाकरण केंद्र बंद करने पड़ रहे हैं। टीका ही उपलब्ध नहीं है। कई राज्यों में तो 18-44 साल वालों का टीकाकरण रोक दिया गया है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ सियासत ही खेली जा रही है, क्योंकि भाजपा शासित राज्यों में भी कोरोना टीके की किल्लत सुनी जा रही है। कोरोना टीकाकरण को चार माह से ज्यादा का वक्त बीत चुका है, लेकिन अभी तक 20 करोड़ खुराकें भी नहीं दी जा सकी हैं। जुलाई तक 60 करोड़ खुराकें देने का लक्ष्य तय किया गया था और टीकाकरण की गति और आंकड़े सुस्त होते जा रहे हैं।
बुनियादी कारण सिर्फ एक ही है-टीकों का सीमित उत्पादन और बढ़ती मांग के बीच का असंतुलन! अभी तो 45 पार की आबादी का ही टीकाकरण आधा-अधूरा है। साठ पार के बुजुर्गों, डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों सरीखे समूहों में भी टीकाकरण नहीं हुआ है। ये बेहद संवेदनशील और संक्रमण की चपेट में आने वाले समूह हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और बड़े देशों के वैज्ञानिक अध्ययन बार-बार दोहराते रहे हैं कि कोरोना संक्रमण और उसकी आने वाली संभावित, घातक लहरों से एक ही ब्रह्मास्त्र मानव सभ्यता की रक्षा कर सकता है-पूर्ण टीकाकरण! यानी औसतन एक व्यक्ति को टीके की दो खुराकें जरूर मिलनी चाहिए। लेकिन भारत में कोविड टीकाकरण का अभियान अभी तक कई भंवरों में फंसा है। हालांकि भारत सरकार ने फाइज़र, मॉडर्ना और जॉनसन एंड जॉनसन सरीखी विदेशी कंपनियों के टीकों को भी आपात् मंजूरी दे दी है, लेकिन आपसी करार में कई विसंगतियां हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि भारत सरकार ने क्षतिपूर्ति की शर्त रखी है। यदि विदेशी टीके से किसी भारतीय नागरिक की मौत हो जाती है अथवा गंभीर बीमारी या विकलांगता उभर आती है, तो उसका हर्जाना कंपनियों को भरना होगा। अदालत में भी चुनौती दी जा सकेगी। विदेशी कंपनियां ऐसी शर्तों पर सहमत नहीं हैं और न ही ग्लोबल टेंडर के तहत राज्य सरकारों के साथ करार करने को तैयार हैं। भारत के 8 राज्यों ने ग्लोबल टेंडर जारी करने की घोषणाएं की थीं, लेकिन एक भी विदेशी कंपनी ने आवेदन तक नहीं किया है। अमरीकी कंपनी मॉडर्ना ने तो साफ इंकार कर दिया है। उसने यह भी स्पष्ट किया है कि वह भारत सरकार के साथ ही अनुबंध करेगी। नतीजतन विदेशी टीकों की आमद भी अवरुद्ध है, बेशक विपक्षी दल कुछ भी चिल्ल-पौं करते रहें। हालांकि हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अमरीका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन से वाशिंगटन में मुलाकात की है और कोरोना टीके मुहैया कराने का आग्रह किया है।
देखते हैं कि विदेश मंत्री के अमरीका प्रवास का फल क्या मिलता है? दरअसल भारत में टीकाकरण सीरम इंस्टीट्यूट के कोवीशील्ड और भारत बायोटेक के कोवैक्सीन टीकों के ही भरोसे मंथर गति से चल रहा है। रूसी टीके स्पूतनिक-वी की कंपनी ने आश्वस्त किया है कि वह 30 लाख खुराकों से बढ़ा कर जुलाई तक उत्पादन 1.2 करोड़ प्रति माह करेगी। कोवीशील्ड और कोवैक्सीन को लेकर भारत सरकार ने टीकाकरण का जो गणित तय किया था, वह फिलहाल गलत और सवालिया साबित हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल केंद्र सरकार के हलफनामे के मुताबिक, कोवीशील्ड की 6 करोड़ और कोवैक्सीन की 2 करोड़ अर्थात् कुल 8 करोड़ खुराकें हर महीने उपलब्ध होंगी, लेकिन बीती 22 मई तक 3.6 करोड़ से भी कम खुराकें लोगों को दी गई हैं। यानी 16.2 लाख खुराकें हररोज़ का औसत है। मान लेते हैं कि 31 मई तक 5 करोड़ खुराकें कंपनियों ने मुहैया कराईं और उसी के आधार पर टीकाकरण किया जा सका। हालांकि टीकाकरण की औसत दर 13 लाख से भी कम हो गई है, लिहाजा सवाल किया जाना चाहिए कि कंपनियों के आश्वासन के मुताबिक शेष 3 करोड़ खुराकें कहां हैं? उत्पादन नहीं हुआ अथवा भारत सरकार को मुहैया नहीं कराई गईं? कंपनियां टीकों की खुराकों का असली आंकड़ा देश से साझा नहीं कर रही हैं। इस तरह लंगड़ाता हुआ टीकाकरण कब तक चलेगा? कोरोना संक्रमण अब भी खतरनाक स्थिति में हमारे देश में मौजूद है।
3.संक्रमण और किसान
यह खबर चिंताजनक है कि पिछले छह महीने से चल रहे किसान आंदोलन में अब 26 मई को राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन का कार्यक्रम भी शामिल हो गया है। इसके लिए आसपास के राज्यों से बड़ी संख्या में किसान दिल्ली की ओर कूच करने को तैयार हैं। देश में कोरोना संक्रमण की भयावह दूसरी लहर कुछ हल्की भले पड़ी हो, पर अभी थमी नहीं है। ऐसे में, यह अंदेशा होना स्वाभाविक है कि ऐसे विरोध प्रदर्शनों से फिर संक्रमण की रफ्तार बढ़ सकती है। यह देखा गया है कि किसान आंदोलन में कोविड से संबंधित सावधानियों के पालन में लापरवाही बरती जाती है, बल्कि ऐसे माहौल में सावधानी रखना लगभग नामुमकिन ही है। रैली, मेले, धरने-प्रदर्शन वगैरह में न तो सामाजिक दूरी का ख्याल रखना संभव होता है, न ही यह सुनिश्चित करना कि सभी लोग मास्क पहनें। यह बात निश्चित रूप से नहीं कही जा सकती कि इस आंदोलन की वजह से कोविड का कितना फैलाव हुआ, लेकिन ऐसे असुरक्षित माहौल से संक्रमण फैलना स्वाभाविक ही है। इसलिए बेहतर होगा कि सभी संबंधित पक्ष समझदारी दिखाएं।
किसान अपने आंदोलन के छह महीने पूरे होने के मौके पर यह विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। यह उनके लिए माकूल मौका इसलिए भी है कि रबी की फसल कट चुकी है और खरीफ की फसल की बुवाई में अभी वक्त है। फिर भी, कोरोना संकट के मद्देनजर संयम का परिचय देते हुए वे अपने विरोध प्रदर्शन को कुछ वक्त के लिए टाल दें, तो इससे आंदोलन को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा, और उनके प्रति समाज में सम्मान ही बढ़ेगा। देश के सभी प्रमुख विरोधी दलों ने किसानों के इस प्रदर्शन का समर्थन किया है और सरकार से यह आग्रह किया है कि वह जिद छोड़कर किसानों से बातचीत के लिए आगे आए। किसानों और सरकार के बीच बातचीत जनवरी में खत्म हो गई थी, जब आगे समझौते के आसार नहीं बचे थे। सरकार ने प्रस्ताव दिया था कि वह तीनों विवादित कृषि कानूनों को अगले अठारह महीने तक स्थगित कर देगी, पर किसान इनको खत्म करने, एमएसपी को कानूनन अधिकार बनाने व स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को पूरी तरह लागू करने पर अडे़ हुए हैं। जो भी स्थिति हो, समस्या का हल बातचीत से ही निकलेगा, और लोकतंत्र में आदर्श हल वही होता है, जिसमें किसी एक की जीत और दूसरे की हार नहीं होती। यह सरकार को भी समझना चाहिए कि अब तक जो बातचीत हुई है, उसमें लचीलेपन और एक-दूसरे को समझने की भावना की कमी थी और लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को नागरिकों के सामने बड़प्पन और उदारता दिखानी होती है। अगर किसान इस हद तक लड़ने पर आमादा हैं, तो इसलिए कि वे इसे जीवन-मरण का सवाल मानते हैं, सिर्फ सरकारी नीतियों में बदलाव या आर्थिक सुधार का नहीं। जब देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति कमजोर हो और किसानों या आम लोगों की आय नहीं बढ़ रही हो, तब वे हर ऐसे कदम को शक की नजर से देखते हैं। आर्थिक सुधारों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उन्हें किस वक्त पर और किस तरह से लागू किया जाता है, और इन सुधारों में सबसे बड़ी समस्या यही रही है। लेकिन अब भी बातचीत और सौहार्द से रास्ता निकल सकता है, और कोरोना के फैलाव के गैर-जरूरी अंदेशे को भी रोका जा सकता है।
4.आपदा में फायदा
चिकित्सा बिरादरी आत्ममंथन करे
पहले ही कोरोना महामारी से हलकान मरीजों को निजी चिकित्सालयों में उलटे उस्तरे से मूंडने की खबरें विचलित करती हैं। खबरें विचलित करती हैं कि क्यों ऐसे लोगों में मानवीय संवेदनाओं व नागरिक बोध का लोप हुआ है। लंबे-चौड़े बिल बनाना और दोहन के बाद बड़े सरकारी अस्पतालों के लिये रैफर कर देना आम है। ऐसे तमाम मामले सामने आये हैं, जिनमें मनमानी फीस उपचार हेतु वसूली गई। चिंता की बात यह है कि इलाज की रेट लिस्ट लगाने के बावजूद मोटी फीस मरीजों से वसूले जाने की खबरें मीडिया में सुर्खियां बनती रही हैं। दरअसल, जनसंख्या के बोझ और तंत्र की अकर्मण्यता से वेंटिलेटर पर गये सरकारी अस्पतालों से निराश लोग निजी अस्पतालों की ओर उन्मुख होते हैं। सरकारी अस्पताल सामान्य दिनों में ही रोगियों को उपचार देने में हांपते रहते हैं तो आपदा में उनसे उम्मीद करना कि वहां पर्याप्त इलाज मिल जायेगा, बेमानी ही है। ऐसे में ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी और कोरोना के गंभीर मरीजों की वेंटिलेटर की जरूरत के चलते निजी अस्पतालों की पौ-बारह हुई। लॉकडाउन और कई तरह की बंदिशों तथा कोरोना संकट से उपजे हालात में तमाम व्यवसायों व रोजगारों में भले ही आय का संकुचन हो, मगर देश का फार्मा उद्योग, जांच करने वाली लैब व निजी अस्पताल दोनों हाथों से कमाई कर रहे हैं। कुछ मामलों में शिकायतकर्ता सामने भी आये हैं और कुछ निजी अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई भी हुई है। लेकिन यह कार्रवाई न के बराबर है। हरियाणा-पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री उद्घोष करते रहे हैं कि मरीजों को लूटने वाले अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई होगी। होगी के क्या मायने हैं, होती क्यों नहीं है? कोई सरकार अस्पतालों की मनमानी के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करती। महज इसलिये कि ये अस्पताल धनाढ्य व राजनेताओं के वरद्हस्त प्राप्त लोगों के हैं। कई तरह के इंस्पेक्टर जो इनकी निगरानी के लिये तैनात होते हैं, वे क्यों जिम्मेदारी नहीं निभाते। क्यों स्थानीय प्रशासन स्वत: संज्ञान लेते हुए कार्रवाई नहीं करता। क्यों उनकी नींद भी अदालत की सक्रियता के बाद खुलती है।
यह निजी चिकित्सालयों के मालिकों के लिये भी आत्ममंथन का समय है। चिकित्सा का पेशा कभी कारोबार नहीं हो सकता। आज भी लोग डॉक्टर को भगवान का दूसरा रूप मानते हैं। ऐसे में जब लोग महामारी से टूट चुके हैं, आय के स्रोत संकुचित हुए हैं, लाखों के इलाज का खर्च आम आदमी कहां से उठा पायेगा? इस संकट के दौरान तमाम लोगों द्वारा घर-जमीन व जेवर गिरवी रखने के मामले सामने आते रहे हैं। कई लोग बैंकों से लोन लेकर अपनों को बचाने की जद्दोजहद में जुटे हैं। सर्वे बताते हैं कि देश में करोड़ों लोग कई गंभीर बीमारियों से अपनों का इलाज कराने की कोशिश में हर साल गरीबी की दलदल में डूब जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में विभिन्न रोगों के उपचार, बेड, जांच व टेस्ट के दामों के मानक तय हों। सत्ताधीशों की नाकामी है कि वे जनता का दोहन करने वाले अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करते। उन्हें फलने-फूलने का अवसर देते हैं। जबकि बड़े अस्पतालों को जमीन व अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका होती है। अस्पतालों का मुनाफा नियंत्रित होना चाहिए। खासकर आपदा के वक्त। जब निजी अस्पताल नागरिक बोध और मानवीय संवेदनाओं का ध्यान नहीं रखते तो उन्हें कानून की भाषा में समझाया जाना चाहिए। सरकारी अस्पतालों को भी इस लायक बनाने की जरूरत है कि लोग प्राइवेट अस्पतालों की मुनाफाखोरी से बच सकें। निस्संदेह, एक डॉक्टर पढ़ाई से लेकर एक अस्पताल बनाने में बड़ी पूंजी का निवेश करता है, जिसका मुनाफा भी वह चाहता है। लेकिन ये मुनाफा अनियंत्रित न हो। आपदा को लाभ में बदलना मानवीयता का धर्म तो नहीं ही है। इस बाबत देशव्यापी हेल्पलाइन व्यवस्था हो। न्यायालय की परिधि में आने वाले मामलों का निस्तारण भी समय रहते हो ताकि कानून का डर भी बना रहे। वह भी ऐसे दौर में जब मानवता महामारी के संकट में कराह रही हो। इनके लिये एक आचार संहिता भी लागू होनी चाहिए।