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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.कोरोना और किसान
क्या आंदोलनकारी किसान कोरोना वायरस संक्रमण के पर्याय बन रहे हैं? आंदोलन जरूरी है अथवा देश को संक्रमण के जबड़ों से मुक्त कराना प्राथमिकता है? राजधानी दिल्ली और हरियाणा, पंजाब और उप्र में लॉकडाउन अब भी जारी है, तो दिल्ली की सीमाओं पर हजारों किसानों के जमावड़े की अनुमति क्यों दी गई है? किसी भी राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, विवाह और मृत्यु आदि जमावड़े या प्रदर्शनों पर पाबंदी है, तो किसान आंदोलन की आड़ में जो भीड़ जमा हो रही है, वह पाबंदियों से मुक्त क्यों है? पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का मानना है कि किसान आंदोलन का विरोध-प्रदर्शन कोरोना संक्रमण को अधिक फैला सकता है, लिहाजा आंदोलन को वापस लिया जाए। क्या किसानों के हुजूम कोविड के ‘सुपर स्प्रेडर’ साबित होंगे? तो इस संदर्भ में महामारी अधिनियम या आपदा प्रबंधन कानून के प्रावधान क्या कहते हैं या क्या कार्रवाई की जा सकती है?
क्या किसान कोरोना संक्रमण का विस्तार कर ‘अपराधी’ करार नहीं दिए जा सकते? चूंकि विपक्ष के 13 राजनीतिक दलों ने किसान आंदोलन के ‘काला दिवस’ आह्वान को समर्थन दिया है, लिहाजा सवाल उनसे भी किया जाना चाहिए कि क्या इनसानी जान की कीमत पर सियासत की जानी चाहिए? सवाल ढेरों हो सकते हैं। किसान और कृषि के प्रति देश की चिंताएं और सरोकार भी असंदिग्ध रहे हैं। भारत का औसत किसान बेहद गरीब और अनिश्चित है, फिर भी ‘अन्नदाता’ की भूमिका में है। किसान की औसत आय आज भी उतनी नहीं है, जिसके आधार पर दावा किया जा सके कि अगले साल 2022 तक उसकी आमदनी दुगुनी हो जाएगी। किसानों से जुड़े कानूनों, बंदोबस्तों, बीमा योजनाओं और कर्ज़ की व्यवस्थाओं में कई विसंगतियां हैं, नतीजतन आज भी किसान पर औसतन 1.5 लाख रुपए का कर्ज़ है। मौजूदा स्थिति में विवाद किसान और कृषि से जुड़े तीन कानूनों पर है। किसान संगठनों का एक मोर्चा उन्हें रद्द करने की मांग कर रहा है, जबकि भारत सरकार इन कानूनों पर 18 माह की रोक लगाकर अन्य संशोधनों पर विमर्श के पक्ष में है। किसानों का एक तबका इन कानूनों का समर्थन भी कर रहा है, क्योंकि खेती के लिए वह खुले बाज़ार का पक्षधर है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी कानूनों के अमल पर रोक लगाने का आदेश दिया था, लेकिन किसान आंदोलन की जिद ऐसी है कि जिस पर संवाद की गुंज़ाइश बेहद कम है, लिहाजा 22 जनवरी के बाद दोनों पक्षों में बातचीत नहीं हुई है। हालांकि संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिख कर बातचीत दोबारा शुरू करने का अनुरोध किया है, लेकिन मुद्दे पुराने ही हैं। सरकार ने अभी कोई सकारात्मक संकेत नहीं दिया है। अब 26 मई को आंदोलन के छह माह पूरे हुए हैं, लिहाजा उसके मद्देनजर किसानों ने देश भर में ‘विरोध दिवस’ या ‘काला दिवस’ मनाने का फैसला लिया है। फिलहाल कोविड के खतरे और जोखिम कायम हैं। विशेषज्ञ हमें जन-स्वास्थ्य के प्रति सचेत करते रहे हैं।
अब भी एक दिन में 1.96 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो रहे हैं। मौतें भी 3511 हैं और इसका कुल आंकड़ा 3 लाख को पार कर चुका है। यह स्थिति 70-75 फीसदी देश में लॉकडाउन या अन्य बंदिशों के बावजूद है। यदि देश को अनलॉक कर दिया जाए और हम एक बार फिर बेपरवाह होने लगें, तो कोविड की निरंतर लहरें भी देख सकेंगे। लेकिन किसान आंदोलन इस ‘विरोध’ के जरिए खुद को मजबूत करने पर आमादा है। किसान की रबी की फसल कट चुकी है और खरीफ फसल की बुवाई में अभी कुछ वक्त है, लिहाजा खेतों से मुक्त होकर किसान दिल्ली की सीमाओं पर जुटने लगे हैं। शिविर फिर से गुलजार होने लगे हैं। लंगर बनने लगे हैं। हजारों टै्रक्टरों की कतारें देखी जा सकती हैं और पंजाब, हरियाणा से वाहनों के आने का सिलसिला जारी है। जमावड़ों के ज्यादातर चेहरों पर मास्क नहीं हैं। ऐसे आंदोलनों में आपसी दूरी बेमानी होती है। गांव-गांव किसान एकजुट हो रहे हैं और आंदोलन को नए सिरे से गरमाने की कोशिशें की जा रही हैं। किसान मोर्चा खुद मानता रहा है कि उसके 470 किसानों की मौत हो चुकी है। उनमें कितने कोरोना ग्रस्त थे, यह डाटा नहीं दिया जा रहा, लेकिन इतना तय है कि किसान संक्रमण लेकर अपने गांव, कस्बा और घर लौटेंगे। यदि ऐसा ही रहा, तो देश में कोरोना वायरस के खात्मे की सिर्फ चर्चाएं ही होंगी।
2.वाहनों पर वीआईपी रुतबा
कोरोना पीरियड की मांग और मन्नत अलग-अलग मानदंडों पर नहीं हो सकती और न ही प्रयास और प्रशंसा साथ-साथ चल सकते हैं, इसलिए हिमाचल मंत्रिमंडल के फैसलों में विधायकों के वाहनों पर फ्लैग फहराने की उपलब्धि नहीं गिनी जा सकती। हिमाचल का मतदाता अपने वोट की शान को कम से कम कोविड काल में इस तरह प्रदर्शित नहीं करना चाहेगा कि जनप्रतिनिधि आम जनता से अलग हटकर कतार बनाने लगे। वाहनों पर विधायकों की झंडी आखिर साबित क्या करना चाहती, जबकि यह स्पष्ट है कि इससे वीआईपी कल्चर के अधिकृत मानदंड उपलब्ध हो जाएंगे। विडंबना यह भी है कि कोरोना काल में सौगात बांटने की तश्तरी कम नहीं हो रही। ऐसे वक्त में जबकि आम जनता अपनी जीवनशैली के उत्साह, उमंग और आवश्यकताओं को कुर्बान करके देश के साथ करबद्ध खड़ी है, हमारे जनप्रतिनिधि क्यों अपने वाहनों को वीआईपी रुतबे से चिन्हित करना चाह रहे हैं। सरकार को एक तरफ लगातार कर्फ्यू के पिंजरे में जनता को सुरक्षित रखने की जरूरत आन पड़ी है,तो दूसरी ओर विधायकों को इसी वक्त ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत कि वे आम इनसान से ऊपर और विशेषाधिकरों की छत्रछाया में दिखाई दें।
कौन सा योगदान बड़ा होगा। एक छोटे से जूता गांठने वाले की दिहाड़ी का खत्म होना बड़ा योगदान है या वाहनों पर फ्लैग लगाकर रुतबे को महान बनाने का योगदान। यह कर्फ्यू किसी गिनती में आए या न आए, लेकिन हकीकत यह है कि इसमें हजारों लोगों की दिहाडि़यां, रोजगार के अवसर, व्यापार के घाटे, बैंकों की उधारी, बस व टैक्सी संचालक में उम्र भर की कमाई तथा पर्यटन व्यवसायियों की सारी मेहनत कुर्बान हो रही है। कर्फ्यू के हर लम्हे की कीमत न जाने कितने चूल्हों को ठंडा करती है, जबकि कैद में बच्चों का भविष्य भी हर वक्त आंसू के घूंट पी रहा है। देश-प्रदेश को आत्मबल चाहिए और यह जनता की जीवटता और इसके संघर्ष की ही कहानी है। जिस समय मंत्रिमंडल विधायकों की गाडि़यों पर फ्लैग फहरा रहा था, ठीक दूसरी ओर इसी दिन 61 संक्रमितों के शवों पर आंसूओं से लबरेज कोई न कोई शख्स कफन ओढ़ा रहा था। यह विडंबना नहीं, राजनीतिक ख्वाहिशों की त्रासदी है कि आज शवों को भी कोई बारात के मानिंद देखने की हिमाकत कर रहा है। यह फैसला किसी स्वाभिमान के बजाय ऐसे अभिप्राय का प्रतीक बन रहा है जो हमारे लोकतंत्र में आम आदमी को आपदा में भी नीचा दिखाने की जुर्रत कर सकता है।
आम इनसान को बताया जा रहा है कि हमारे जनप्रतिनिधि ही उन्हें बचाएंगे या उनकी मेहरबानी से कोई इम्युनिटी किट हमारे घर को सुरक्षा कवच पहना देगी, जबकि इसी दौरान अव्यवस्था के बीच पिछले चौदह महीने खारिज हो चुके हैं। बहरहाल अपने दवाबों में कम से कम हिमाचल ने अपनी रूह को सेवाभाव में बदला और सरकार भी चिकित्सा के आयाम बदल रही है। मंत्रिमंडल के फैसलों में चिकित्सा की दृष्टि से कुछ संस्थाओं का स्तरोन्नत होना समय की मांग है और इससे यह भी प्रकट हो रहा है कि सरकार फिर से ग्रामीण ढांचे को पुख्ता करने के कारण समझ रही है। कोरोना काल में हिमाचल की चिकित्सकीय असफलताओं का ब्यौरा किसी श्मशानघाट में मिल जाएगा और यह सीधे-सीधे तमाम मेडिकल कालेजों की गुणवत्ता पर प्रश्न चस्पां कर रहा है। ऐसे में फिर से निचले स्तर पर चिकित्सकीय सेवाओं को सुदृढ़ करने की जरूरत में मंत्रिमंडल ने कुछ विभागीय पद भरने की स्वीकृति व कुछ संस्थानों को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के रूप में स्तरोन्नत करके एक अच्छी पहल की है। मंत्रिमंडल ने लैंड सीलिंग एक्ट 1972, की पुनर्व्याख्या करते हुए यह सुनिश्चित किया है कि आइंदा न तो धार्मिक ट्रस्ट दान में दी जमीन बेच सकेंगे और न ही चाय खेती के तहत जमीन की किस्म को बिक्री की छूट मिल सके।
- बेवजह का विवाद
किसी महामारी से जूझते हुए समाज में अगर चिकित्सकों को एक बेवजह के विवाद में उलझ जाना पडे़, तो इसे कोई अच्छा लक्षण नहीं माना जा सकता। योगगुरु रामदेव ने आधुनिक चिकित्सा पद्धति को लेकर जो बयान दिए, और उनसे जो विवाद खड़ा हुआ है, वह ऐसा ही विवाद है। रामदेव के आरोपों का जवाब आधुनिक चिकित्सकों के तमाम संगठनों ने दिया और यह मांग की कि वह माफी मांगें। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवद्र्धन ने, जो खुद एक ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर हैं, योगगुरु रामदेव से आग्रह किया और रामदेव ने अपने बयान पर खेद भी व्यक्त किया, लेकिन यह विवाद थमा नहीं है। इस वक्त अगर किसी पेशे के लोग सबसे ज्यादा खतरा उठा रहे हैं, तो वह डॉक्टर ही हैं, जो दिन में कई-कई घंटे कोरोना मरीजों के इलाज में जुटे रहते हैं। देश भर से कई सौ डॉक्टरों की कोरोना से मौत की खबरें आई हैं, बल्कि दुनिया भर में इस महामारी से बहुत डॉक्टर जान गंवा चुके हैं। ऐसी स्थिति में उनके या उनके काम के बारें में विवादास्पद बातें करने से बचा जा सकता था; बचने की जरूरत है। ऐसी बातें करना न सिर्फ डॉक्टरों के मनोबल को गिराना है, बल्कि मरीजों के मन में भी इनसे संदेह पैदा होता है।
भारत में पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का बहुत सम्मान है और उनके प्रति समाज में काफी गहरा विश्वास है। इसी वजह से भारत उन कुछ देशों में से एक है, जहां वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को भी मान्यता मिली हुई है। मगर यह भी सच है कि परंपरागत ज्ञान या अनुभव पर आधारित चिकित्सा पद्धतियों में बहुत कुछ मूल्यवान है, तो उनकी सीमाएं भी बहुत हैं, क्योंकि वे तब विकसित हुईं, जब सूक्ष्म जांच-परख के तरीके और उपकरण नहीं थे। आम तौर पर भारतीय जन इस बात को सहज रूप से जानता है, और यह समझता है कि कब उसे डॉक्टर या अस्पताल की शरण में जाने की जरूरत है। दूसरी तरफ, रामदेव जैसे योग व आयुर्वेद के प्रचारकों का प्रभाव भी समाज में काफी है, इसलिए जब वह सनसनीखेज दावे करते हैं या कोई आरोप लगाते हैं, तब उसका गलत असर हो सकता है। यह सही है कि कोरोना का अक्सीर इलाज आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में नहीं है, मगर चिकित्सा वैज्ञानिकों को यह भी मालूम है कि उनके ज्ञान की सीमा कहां है और वे उसके आगे बढ़ने की कोशिश लगातार कर रहे हैं। कोरोना के मरीजों के इलाज में पिछले एक साल में बहुत तरक्की हुई है। दूसरे, कोरोना के गंभीर मरीजों को बचा सकने का जितना भी सामथ्र्य है, वह आधुनिक चिकित्सा में ही है। अगर किसी मरीज का ऑक्सीजन का स्तर एक हद से नीचे चला गया, तो वह किसी काढे़ या प्राणायाम से नहीं ठीक हो सकता, उसे ऑक्सीजन ही देना होगा। कोरोना एक ऐसी बीमारी है, जिसमें नब्बे प्रतिशत से ज्यादा मरीज अपने आप ठीक हो जाते हैं, चाहे वे कोई भी इलाज करें या न करें। इसलिए इसके बारे में अवैज्ञानिक दावे करना आसान है। लेकिन हमें यह समझना जरूरी है कि सवाल किसी पद्धति या व्यक्ति-संस्था की प्रतिष्ठा का नहीं, लोगों की सेहत का है, इसलिए थोड़ा संयम बरतना ठीक होगा। फिर अतिरंजित दावों से आयुर्वेद या परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों की विश्वसनीयता कम ही होती है। इसलिए अपनी सीमाओं को समझना सबके हित में है।
4. श्रमिकों की सुध
सरकारों की संवेदनहीनता पर कोर्ट सख्त
लोकतंत्र में लोक कल्याणकारी सरकार होने का दावा करने वाली सरकारें कोरोना संकट के दौर में सबसे ज्यादा त्रस्त श्रमिकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन ईमानदारी से करती नजर नहीं आई हैं। यही वजह है कि देश की शीर्ष अदालत को स्वत: संज्ञान लेते हुए और जनहित याचिकाओं के संदर्भ में सरकारों को उनके दायित्वों का बोध कराना पड़ता है। सोमवार को शीर्ष अदालत ने कहा कि लॉकडाउन के चलते बेरोजगार हुए श्रमिकों को सूखा व पका खाना उपलब्ध कराना सरकारों का दायित्व है। साथ ही लॉकडाउन की वजह से फंसे श्रमिकों को उनके घर भेजने की व्यवस्था करने को भी कहा। इसके अलावा एक बार फिर कोर्ट ने श्रमिकों का डेटाबेस बनाने को कहा ताकि उन तक मदद पहुंचाने में कोई परेशानी न हो। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना संकट की दूसरी लहर के दौरान प्रवासी श्रमिकों के जीवनयापन से जुड़ी समस्याओं को गंभीरता से लेते हुए केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा उठाये गये कदमों की जानकारी मांगी। कोर्ट ने न केवल दिल्ली-एनसीआर बल्कि शेष राज्यों में मजदूरों के लिये मुफ्त ड्राई राशन, सामुदायिक रसोई के बाबत जानकारी मांगी। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार, दिल्ली, यूपी और हरियाणा सरकारों से उन प्रवासी श्रमिकों को उनके गांव भेजने के लिये यातायात के साधन मुहैया कराने को कहा था, जिनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया था। कोर्ट की यह संवेदनशील पहल असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की बेरोजगारी के दौर में समस्याओं को कम करने की दिशा में की गई है। कोर्ट ने कहा कि श्रमिकों को राज्य आत्मनिर्भर भारत योजना या अन्य योजना के तहत खाने का सामान उपलब्ध करायें। साथ ही सामुदायिक रसोई और अन्य योजनाओं का सूचना माध्यमों के जरिये प्रचार किया जाये ताकि जरूरतमंद इसका लाभ उठा सकें। दरअसल, देश में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की पुख्ता जानकारी नहीं है। वे या तो बड़ी संख्या में ठेकदारों के मातहत काम करते हैं या कम पढ़े-लिखे होने के कारण पंजीकरण की सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पाते।
दरअसल, एक वर्ष पूर्व कोरोना संकट की पहली लहर के दौरान केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने असंगठित क्षेत्रों के श्रमिकों को दर्ज करने के लिये एक राष्ट्रीय डेटाबेस बनाना शुरू किया था, जिसमें प्रवासी और निर्माण श्रमिक शामिल होंगे। आखिर जब तक डेटाबेस तैयार नहीं है तो केंद्र व राज्य सरकारों की कल्याणकारी योजना का लाभ श्रमिकों को देने का दावा किस आधार पर किया जाता है? दरअसल, वर्ष 2018 में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के पंजीकरण के लिये राष्ट्रीय पोर्टल बनाने व इसे राज्यों को उपलब्ध कराने के निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने दिये थे, जिसके बाद ही डेटाबेस बनाने का काम शुरू हुआ था। कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस बाबत प्रगति पर दो सप्ताह में रिपोर्ट देने को कहा है। निस्संदेह, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के हितों की निगरानी के लिये एक कारगर तंत्र विकसित करने की जरूरत है ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ वाकई जरूरतमंदों तक पहुंच सके। साथ ही अपने गांव लौटने वाले श्रमिकों को उनके कौशल के अनुरूप काम मिल सके। वैसे इस दिशा में कई राज्यों ने पहल भी की है। दिल्ली सरकार ने निर्माण श्रमिकों को नकद राशि के भुगतान की बात कही है। लेकिन स्वयंसेवी संगठन प्रवासी श्रमिकों, रिक्शा व रेहड़ी-पटरी वालों को भी ऐसे ही लाभ दिये जाने की वकालत करते रहे हैं। बिहार व उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में केंद्रीय श्रम मंत्रालय की ओर से बीस कंट्रोल रूम बनाये गये हैं, जो श्रमिकों की समस्या के निवारण में मदद करेंगे। बिहार समेत कई राज्यों में घर लौटे श्रमिकों को मनरेगा के तहत रोजगार दिया जा रहा है। उत्तराखंड सरकार ने भी पंजीकृत श्रमिकों को पिछले साल की तरह नकद राशि व खाद्यान्न किट उपलब्ध कराने की बात कही है। वहीं योगी सरकार ने भी पिछले साल की तरह श्रमिकों के खातों में पैसा व मुफ्त राशन देने की बात कही है। महाराष्ट्र की उद्धव सरकार ने भी कुछ वर्गों को नकद भुगतान देने की घोषणा की थी। लेकिन विभिन्न राज्यों में श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा का भरोसा न मिल पाने के कारण वे अपने गांवों की ओर लौट रहे हैं।