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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.आंकड़ों की खिचड़ी में भ्रम
माननीय उच्च न्यायालय के आदेश सिर्फ एक इबारत नहीं, बल्कि हिमाचल की खुशफहमी पर चोट हैं। पिछले कुछ दिनों में होश फाख्ता करने की सूचनाओं के बीच पर्वतीय प्रदेश के मजमून बिखर रहे हैं। हम भले ही मेक शिफ्ट अरेंजमेंट्स की फेहरिस्त पर इतरा लें, लेकिन भीतरी सच यह है कि हम माचिस की डिब्बियों पर महल बनाने की महारत दर्ज करते रहे हैं। संवेदना के यथार्थ में अगर हाई कोर्ट को यह कहना पड़ रहा है कि तीव्रता और नियमित रूप से हर दिन बीस से तीस हजार टेस्ट कराएं जाएं, तो यह हालात से जूझने की स्पष्टता भी होगी। आखिर कब तक मानवीय पिंजरे बना कर सरकारें इस खौफनाक स्थिति के सामने शुतुरमुर्ग बनी रहेगी। कर्फ्यूग्रस्त हिमाचल की तासीर में कोरोना की विकट परिस्थितियों का विवरण अभी सुधरा नहीं है और मौत के आंकड़े हमारी व्यवस्था की लाचारी को दर्ज करते हैं। ऐसे में अदालती आदेश सीधे प्रदेश की चिकित्सा प्रणाली में शामिल होकर रास्ता दिखा रहे हैं।
कोरोना काल के चौदह महीनों का हिसाब बता रहा है कि हमारी क्षमता कितनी असमर्थ और दावे कितने खोखले हैं। आश्चर्य यह कि इस दौर को लांघने के लिए अभी भी कार्य संस्कृति अपने पांव के नीचे कालीन ढूंढ रही है। चिकित्सकीय अव्यवस्था के लिए केवल मौजूदा सरकार ही दोषी नहीं, बल्कि प्रदेश ने कमोबेश हर सरकार के दौर में मात्रात्मक उपलब्धियों की शिनाख्त में गुणवत्ता की ओर ध्यान ही नहीं दिया। आंकड़ों की खिचड़ी में चुनावों को उबालते-उबालते आखिर हमने कैसी कार्य संस्कृति पैदा की है, इसका खुलासा, मौजूदा दौर के हर सबक के साथ चस्पां है। हिमाचल के पास फिर भी एक मौका है, जो शायद बाकी किसी राज्य के लिए सरल नहीं होगा। खासतौर पर टीकाकरण के अभियान में यह राज्य एक मॉडल बन सकता है, अगर केंद्र व हिमाचल सरकार इस दृष्टि से आगे भी काम करे। यह दीगर है कि दो डोज पूरी कर चुके लोगों की संख्या अभी छह फीसदी है, जबकि 18 से 44 साल के आयु वर्ग की मांग को पूरा करने के लिए कोई आशावान संकेत नहीं है। ऐसे में 31 लाख युवाओं के लिए बंदोबस्त की चुनौती अगर हासिल करनी है, तो यह हिमाचल सरकार के अलावा केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के दखल से ही संभव होगा, वरना सीरम इंस्टीच्यूट बूंद-बूंद डाल कर सारी मांग का उपहास उड़ाता रहेगा।
बेशक नड्डा और अनुराग कई तरह की पेशकश में अपने प्रदेश तक राहत व चिकित्सा सामग्री भेज रहे हैं, लेकिन असली परीक्षा तो वैक्सीनेशन के मुहाने पर होगी। अगर हम पूर्ण वैक्सीनेशन की दृष्टि से देखें, तो हिमाचल में महज छह फीसदी लोग ही यह सुरक्षा कवच हासिल कर पाए हैं, जबकि युवाओं के लिए प्रथम डोज भी ‘जलेबी रेस’ की तरह दिखाई दे रही है। इन हालात में प्रदेश की निर्भरता केंद्र पर बढ़ रही है और यह जिम्मेदारियों का ऐसा एहसास भी है जिसे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष व केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। संकट के इस दौर का सबसे बड़ा समाधान वैक्सीन ही है, ऐसे में अब सारे प्रयास एक ही दिशा में अग्रसर होने चाहिएं। जरूरत से ज्यादा आक्सीजन, विशेषज्ञ के बिना वेंटिलेटर और संवेदना के बिना अस्पताल का बिस्तर क्या करेगा। बढ़े हुए पॉजिटिविटी रेट को घर-घर में रोकने की तीमारदारी में सरकार की तैयारी देखी जाएगी, तो वैक्सीन की आपूर्ति में दिल्ली की दयालुता काम आएगी। यह दौर नए गणित का है, जहां हर पल का जमा और घटाव है। कुछ दिनों के लिए समाज को कर्फ्यू का उपचार, तो सरकार को काम करने का व्यवहार बदलना होगा। प्रदेश को इस वक्त मंत्रिमंडल के जरिए विकास के फैसले नहीं केवल उपचार की दृष्टि से विश्वास चाहिए।
2.देश बड़ा या सोशल मीडिया!
भारत में कोरोना और दूसरी गंभीर बीमारियां हैं। भारत में पाषाणकालीन, मध्यकालीन और अंधविश्वासी आबादी भी है। वह गरीब, अनपढ़, आदिवासी और पिछड़ी है। भारत विविध संस्कृतियों, भाषाओं और रीति-रिवाजों का देश है। भारत की बुनियादी ज़रूरत सोशल मीडिया नहीं है। हमारा परंपरागत मीडिया ही हमारे लिए पर्याप्त है। देश के ज्यादातर नागरिकों को यह भी जानकारी नहीं है कि उनके संवैधानिक, मौलिक अधिकार क्या हैं? ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्स एप और यू-ट्यूब सरीखे सोशल प्लेटफॉर्म इस देश की ज़रूरत और मजबूरी नहीं हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी और निजता के मंच कमोबेश ये नहीं कहे जा सकते। दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर व्हाट्स एप ने यही दलीलें दी हैं और भारत सरकार के नए आईटी नियमों को चुनौती दी है। बहरहाल अभिव्यक्ति तो हमारा मौलिक अधिकार है। सोशल मीडिया निरंकुश, मनमाना और दुष्प्रचारों का अड्डा है। गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी को राजधानी दिल्ली में जो उपद्रव मचाया गया था, वह कोई एकाएक नहीं था। उसके पीछे भी साजि़शाना रणनीति थी। हमारे ही किसान भाइयों को भड़काया गया था। पॉप गायिका रिआना और पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा आदि के भारत की आंतरिक गतिविधियों में क्या सरोकार हो सकते थे? उस दौरान के टूलकिट के मायने और संदर्भ क्या थे? ये सवाल आज भी अनसुलझे हैं। सोशल मीडिया की तत्कालीन टूलकिट के संदर्भ में भूमिका कानूनी कठघरे तक पहुंची हो, ऐसा कोई निष्कर्ष हमारे सामने नहीं है। अलबत्ता भारत के ‘जयचंदों’ के खिलाफ कानूनी जांच जरूर जारी है।
दरअसल सोशल मीडिया के मंचों पर हत्या और बलात्कार के ब्यौरे साझा किए जाते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को कोसा जाता है और उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे की पूजा वाले चित्र पोस्ट और लाइक किए जाते रहे हैं। देश के प्रधानमंत्री के लिए ऐसे शब्दों और कार्टूनों का इस्तेमाल किया जाता रहा है, जिन्हें हमारी नैतिकता लिखने से रोक रही है। बेशक ऐसी पोस्ट करने वाले भी ‘भारतीय’ हैं, लेकिन सोशल मीडिया कैसा देश बनाना चाहता है? दरअसल यह मीडिया हमें क्यों चाहिए? उन मंचों पर जन्मदिन या पुण्यतिथि की सूचनाएं साझा की जाती हैं। कोई शख्स अपनी भड़ास निकालने को कुछ भी लिख सकता है। भाषा की मर्यादा गायब रहती है। कई अश्लील फिल्मों या चित्रों के वीडियो मौजूद रहते हैं। कई राजनेताओं और हस्तियों की दिनचर्या ही सोशल मीडिया पर अनाप-शनाप पोस्ट करने से शुरू होती है। देश को खूब गालियां दी जाती हैं, मानो किसी सरकार विशेष का ही भारत है! आजकल कोरोना काल में हर सुबह मातम की ख़बरें ही देखने को मिलती हैं। सवाल यह है कि यदि सोशल मीडिया नहीं होगा, तो कौन-सा पहाड़ टूट गिरेगा? हम सोशल मीडिया से पहले भी अख़बारों, पत्रिकाओं, गोष्ठियों, आयोजनों और नुक्कड़ सभाओं में अपनी-अपनी बात साझा करते थे। जन्म-मौत तो अपरिहार्य हैं। उनकी सूचना के लिए हमारा सामाजिक और मैत्री तंत्र ही काफी है। अख़बारों में भी सूचनाएं छपती हैं। ट्विटर का विशेषाधिकार है कि वह किस पोस्ट को ‘मैनिपुलेटेड मीडिया’ करार दे और भारत-विरोधी चर्चाओं को जारी रहने दे।
सोशल मीडिया की विदेशी कंपनियां न तो भारत सरकार के निर्देश मानती हैं और न ही किसी कानूनी नोटिस की परवाह करती हैं, लेकिन अपना पक्ष रखने के लिए अदालत का दरवाजा जरूर खटखटाती हैं। आर्थिक संपन्नता और वैभव इसी देश से कमा रही हैं। सवाल है कि यह देश बड़ा है या सोशल मीडिया की विदेशी कंपनियां…! देश में ट्विटर के 1.75 करोड़, व्हाट्स एप के 53 करोड़, फेसबुक के 41 करोड़ और यू-ट्यूब के 44 करोड़ के करीब इस्तेमालकर्ता हैं। इसी डाटा के आधार पर ये कंपनियां दुनिया को लूट रही हैं। ये यूजर्स देश की एक जमात हो सकते हैं, जिनकी मानसिक खुराक सोशल मीडिया है, लेकिन वे संपूर्ण भारत नहीं हो सकते। इस देश में व्यापार करना है, तो आम नागरिक तथा अन्य कंपनी की तरह यहां के सिविल और आपराधिक कानून को स्वीकार करना होगा। यदि भारत सरकार ने आईटी कानून के तहत नए दिशा-निर्देश दिए हैं, तो उनका अक्षरशः पालन करना होगा। नहीं तो कंपनियों पर ताला लटकना तय है। कोई भी भारत देश से बड़ा और महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता। सरकार ने 25 फरवरी को जो दिशा-निर्देश दिए थे, उनकी मियाद और तारीख समाप्त हो चुकी है। भारत सरकार को सोशल मीडिया के इन मंचों पर तुरंत तालाबंदी थोप देनी चाहिए। क्षमा मांगें, तो हम उन संस्कारों के भी हैं, लेकिन कोई भी देश को धता बताने का दुस्साहस नहीं कर सकता।
3. तूफान दर तूफान
भारत के पश्चिमी तट पर आए तूफान ‘तौकते’ के तुरंत बाद बंगाल की खाड़ी में आए तूफान ‘यास’ ने भारत के पूर्वी तट पर आक्रमण किया है। यह गनीमत है कि यास का स्वरूप उतना भयानक नहीं हुआ, जितनी आशंका थी, लेकिन अब भी वह बहुत खतरनाक है। पश्चिम बंगाल और ओडिशा में उसने बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाया है, हालांकि जान का नुकसान बहुत कम हुआ है। हिंद महासागर में यह तूफान आने के मौसम की शुरुआत है। यह मौसम आम तौर पर नवंबर तक रहता है। जो लोग इस तूफान की मार से प्रभावित हुए हैं, उन्हें अच्छी तरह याद होगा कि पिछले साल इन्हीं दिनों इस क्षेत्र में तूफान ‘अंफान’ आया था, जो ज्ञात इतिहास के सबसे भयावह तूफानों में से एक था, जिसमें लगभग सवा सौ लोगों की जान गई थी और एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा के आर्थिक नुकसान का आकलन किया गया था। भारतीय उप-महाद्वीप के इतिहास में किसी तूफान से होने वाला यह सबसे बड़ा नुकसान है। उसके तुरंत बाद पश्चिमी तट पर भयावह तूफान ‘निसर्ग’ ने आक्रमण किया था। निसर्ग तूफान इसलिए अनोखा था, क्योंकि यह साल के उस वक्त में आया, जब पश्चिमी तट पर तूफान बहुत कम आते हैं। लेकिन पिछले साल निसर्ग के बाद इस साल तौकते का आना और भी ज्यादा अनोखा है।
मौसम का इतिहास बताता है कि इस साल कुछ छोटे-बडे़ तूफान और आ सकते हैं। अच्छा हो कि ज्यादातर तूफान छोटे हों और उनसे कम से कम नुकसान हो। महामारी के दौर में तूफानों का आना ऐसा लगता है, जैसे एक के बाद दूसरी आपदा टूट पड़ी हो, जैसी दुनिया भर के धार्मिक ग्रंथों और पौराणिक साहित्य में कहानियां मिलती हैं। यह सही है कि मनुष्य ने विज्ञान और टेक्नोलॉजी के जरिये आपदाओं से होने वाले नुकसान को काफी कम किया है, लेकिन एक हद के बाद प्रकृति के आगे मनुष्य निर्बल हो जाता है। तूफानों के मामले में पहले से चेतावनी देने और तैयारी करने की वजह से अब जान-माल का नुकसान काफी हद तक रोका जा सकता है, लेकिन यह भी सही है कि ग्लोबल वार्मिंग और मौसम के बदलते मिजाज की वजह से ऐसी आपदाएं ज्यादा और अप्रत्याशित रूप से आ रही हैं। ऐसे में, ज्यादा तैयारी और सावधानी की जरूरत है। न सिर्फ तूफान, बल्कि सूखा, अतिवृष्टि और बाढ़ की घटनाएं भी लगातार बढ़ रही हैं और उनसे नुकसान भी ज्यादा हो रहा है। पिछले महीनों में हिमालयी क्षेत्र में बेमौसम बादल फटने की कई घटनाएं मौसम के बदलते और अनिश्चित स्वरूप को ही दिखाती हैं।
तूफान की चेतावनी और उससे बचने के उपायों का जो तंत्र हमने विकसित किया है, उसमें सुधार की अभी बहुत गुंजाइश है, लेकिन वह काफी प्रभावी है। इससे हम उस दूसरी आपदा के मामले में सीख ले सकते हैं, जिसे अभी भुगत रहे हैं। कोरोना के कहर से यह सीख लेना जरूरी है कि बीमारियों की रोकथाम और उनसे बचाव के लिए एक मजबूत और कारगर सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र का होना जरूरी है, जो वक्त रहते खतरे का आकलन कर सके और उसकी रोकथाम के उपाय कर सके। मौसम का मिजाज जैसे बदल रहा है, उससे पैदा होने वाले खतरों का सामना सिर्फ एक प्रभावशाली और कारगर जन-कल्याणकारी प्रशासन तंत्र से ही संभव है।
4. सहमति से समाधान
सरकार व किसान लचीला रुख अपनाएं
ऐसे वक्त में जबकि देश में कोरोना महामारी की दूसरी मारक लहर का कहर थमा नहीं है, एक बार फिर किसान आंदोलन में तेजी चिंता बढ़ाने वाली है। यह संभव नहीं है कि छब्बीस मई को किसान आंदोलन के छह महीने पूरे होने पर काला दिवस मनाने और धरने -प्रदर्शन की गतिविधियां कोविड प्रोटोकॉल के तहत हुई होंगी। आवेश के माहौल में संयम की बात करना बेमानी है। दिल्ली की दहलीज पर हरियाणा, पंजाब व उत्तर प्रदेश के किसानों के जमा होने की खबरें चिंताजनक हैं। भले ही शहरों में कोरोना का कहर कम हो गया हो लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों, खासकर पंजाब से संक्रमण की चिंता बढ़ाने वाली खबरें आ रही हैं। इस संकट काल में ऐसे आयोजनों से संक्रमण की रफ्तार बढ़ने की आशंका है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले महीनों में राज्यों के चुनावों के दौरान आयोजित रैलियों व धार्मिक आयोजनों से स्थिति खराब ही हुई है। लेकिन तथ्य यह भी है कि किसान रबी की फसल की जिम्मेदारी से मुक्त है और खरीफ की बुवाई में अभी समय बाकी है। इस समय को किसान नेता ठंडे पड़े आंदोलन में प्राण फूंकने के अवसर के रूप में देख रहे हैं। जाहिर सी बात है कि कोरोना संकट से जूझने में लगी सरकार का ध्यान आंदोलन की वजह से भटकेगा। जिस तरह आनन फानन में बारह राजनीतिक दलों ने किसान आंदोलन को समर्थन देने की घोषणा की है, उसके राजनीतिक निहितार्थ समझे जाने चाहिए। ग्यारह दौर की वार्ता, सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमेटी बनाया जाना और किसान संगठनों द्वारा उसे गंभीरता से नहीं लेने जैसे घटनाक्रम किसान आंदोलन का हिस्सा रहे हैं। अब नये सिरे से वार्ता को अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश होनी चाहिए। जनवरी में खत्म हुई बातचीत से अब आगे बढ़ने की जरूरत है।
दरअसल, सरकार ने तीनों विवादित कृषि कानूनों को अगले अट्ठारह माह तक स्थगित करने की बात कही थी, लेकिन किसान इस बात पर अड़े रहे कि तीनों कानूनों को खत्म किया जाये। वे न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने तथा स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को पूर्ण रूप से लागू करने की मांग करते रहे हैं। बहरहाल, केंद्र सरकार को वक्त की नजाकत को समझते हुए अभिभावक की भूमिका निभानी चाहिए। ऐसे वक्त में जब देश की अर्थव्यवस्था ठीक नहीं है और किसानों को लगता है कि इन सुधारों से उनकी आय में इजाफा नहीं होगा, तो सरकार द्वारा उदारता का व्यवहार किया जाना चाहिए। साथ ही किसानों को भी ऐसे समझौते को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिससे यह संदेश न जाये कि सरकार हारी है। यानी फैसले किसी पक्ष की जीत-हार से इतर देश के हित में हों। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारों का भी नैतिक दायित्व है कि विरोध के स्वरों को भी तरजीह दी जाये। सरकार को भी जिद छोड़कर व्यावहारिक धरातल की चुनौतियों पर गौर करना चाहिए। यह आंदोलन पंजाब व हरियाणा में ज्यादा प्रभावी है, लेकिन इन मांगों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। अच्छे माहौल में दोनों पक्ष यदि लचीला रवैया अपनाएंगे तो जरूर कोई सम्मानजनक रास्ता निकलेगा। यह आंदोलन ऐसे वक्त में फिर उभरा है जब विपक्ष कोरोना संकट से निपटने में तंत्र की नाकामी बताकर हमलावर है। जाहिरा तौर पर विपक्षी दल किसान आंदोलन के सहारे राजनीति चमकाने की कोशिश करेंगे। मगर ऐसा न हो कि इस नाजुक वक्त में आंदोलन से कोरोना के खिलाफ हमारी लड़ाई कमजोर हो। वह भी तब जब स्वास्थ्य विशेषज्ञ तीसरी लहर आने की आशंका जता रहे हैं। यह भी हकीकत है कि किसानों को लोकतांत्रिक ढंग से शांतिपूर्ण आंदोलन करने का अधिकार है। सरकार को भी बंद बातचीत की प्रक्रिया को शुरू करके अनुकूल माहौल बनाने की दिशा में बढ़ना चाहिए। दोनों ही पक्षों की ओर से गंभीरता व जिम्मेदारी दिखाने की जरूरत है।