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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.राजनीति में सामाजिकता
कोरोना काल राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय भूमिकाओं के अलावा समाज से संसार तक अनेक बदलावों की पृष्ठभूमि लिख रहा है। सारे बने बनाए खेल अगर सत्ता स्थापना के शिलालेख बदल रहे हैं, तो राजनीति को अपना चरित्र और चेहरा बदलने की आवश्यकता आन पड़ी है। जाहिर है राजनीति का एनजीओ करण होने लगा है। यह ट्रेंड हालिया नहीं है, लेकिन कोरोना काल ने इसे प्रोत्साहित किया है। युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बी. वी. श्रीनिवास ने पिछले साल से ही अपनी राजनीतिक भूमिका को एनजीओ की तर्ज पर विकसित किया, तो अब यह शख्स राजनीति से परे मानवता का सेवक बन गया। श्रीनिवास ने पिछले साल युवा कांग्रेस के 600 ऐसे सदस्य चुने जो साधन संपन्न होने के साथ-साथ समाज के लिए कुछ करना चाहते थे। अब यह समूह अपने एक हजार सदस्यों की बदौलत कोरोना काल में उल्लेखनीय सेवाएं देकर राजनीति में होने का अर्थ बढ़ा रहा है। दिल्ली में कोविड संकट में तहसीन पूनावाला और तजिंद्र बग्गा ऐसे दूसरे नाम हैं, जो राजनीति की पृष्ठभूमि को बदल रहे हैं। हिमाचल के हमीरपुर के सांसद अनुराग ठाकुर ने अपनी संसदीय परिपाटी को काफी पहले से चिकित्सा से जोड़ कर घर-घर की नब्ज पकड़ी। दरअसल कोरोना काल ने संस्थान को सेवाभाव में बदलने की अनिवार्यता बता दी है। पिछले साल से ही कई पंचायत प्रधानों ने अपनी बागडोर की नई तलाश में साबित किया, तो इस बार फिर लौट आए। हिमाचल में राजनीतिक एनजीओ करण के कई उदाहरण पिछले सालों से सामने आ रहे हैं।
देहरा के विधायक होशियार सिंह व जोगिंद्रनगर के विधायक प्रकाश राणा ने चुनाव लड़ने से पूर्व अपनी राजनीतिक इच्छा को सामाजिक कार्यों से पूरा किया। सुजानपुर के विधायक राजिंद्र राणा भी कमोबेश ऐसी ही सीढि़यों पर चलते हुए इतनी शक्ति जुटा पाए कि सामने घोषित मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को हराने में सफल रहे। बेशक चुनावी राजनीति के गुण व दोष हैं, फिर भी नए रिश्तों की सामाजिकता अब पेश हो रही है। हिमाचल में भी कांगे्रस की ओर से आए फैसले व जीएस बाली की अध्यक्षता में बनी रिलीफ कमेटी दरअसल खुद में सामाजिकता का भाव पैदा करने की चेष्टा है। बाली बनाम वीरभद्र गुट का टकराव दरअसल दो धाराओं के बीच का अंतर रहा। छह बार के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह की सियासत इतनी सरल नहीं थी कि अपने भीतर सामाजिक एकता एकत्रित करती, बल्कि यह शक्तियों का नियंत्रण रहा जो एक शासक को बांटने वाला बनाता है। कमोबेश हर मुख्यमंत्री या देश के प्रधानमंत्रियों ने आज तक केवल राष्ट्र के संसाधनों का बंटवारा करते हुए सत्ता और प्रशंसक बनाए। अब इसी राजनीति का दूसरा धु्रव पैदा हो रहा है जिसे कोविड सिंड्रोम भी कह सकते है। कोविड काल की परीक्षा में प्रयत्न कितना भी कर लें मूल्यांकन केवल राजनीति में सामाजिकता का ही होगा। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश से गंगा में बहती या उसी के किनारे बालू में दबी लाशों ने सामाजिक आवरण के भीतर पहली बार राजनीति की सांसें रोक दी हैं। यही वजह है कि कल तक राजनीति की सामान्य ठगी में कई राज्यों ने अपने आंकड़ों के गिरेबां में झांकने की कोशिश तक नहीं की, लेकिन आज कमोबेश हर पार्टी अपने आजू बाजू आक्सीजन सिलेंडर से इम्युनिटी किट ढो कर जनता के बीच सामाजिकता का शंखनाद कर रही है। इसे बदलाव न कहें, तो राजनीति से नाइंसाफी होगी, लेकिन अब भी व्यवस्था के छेद ढांपने के लिए पार्टियों को दिल से साफ नजर आना होगा। कोविड काल के बीच कई ऐसे फैसले केंद्र से हिमाचल तक हुए हैं, जिनसे सामाजिक अभिप्राय की संवेदना पर चोट लगी। जैसे सेंट्रल विस्टा परियोजना भले ही बजटीय प्रावधानों के तहत या अदालती सहमति को अभिव्यक्त करे, लेकिन इस वक्त सामाजिक दृष्टि में इसे शायद ही स्वीकारोक्ति मिले। इसी तरह भले ही हिमाचल सरकार ने कोविड संकट से जूझते हुए हर फैसले में गरिमा दिखाई, लेकिन विधायकों के वाहन पर आया झंडी लगाने का फैसला सामाजिक संवेदना को कहीं न कहीं नीचा दिखा गया। ऐसे में अब सरकारों को भी सामाजिक दृष्टि से ही फैसले लेने चाहिएं।
2.आईएएस नियमों को ठेंगा!
मुख्य सचिव से मुख्य सलाहकार बने वरिष्ठ आईएएस अधिकारी रहे अलपन बंदोपाध्याय की भूमिका एकदम बदल गई है। अब वह मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मुख्य सलाहकार के तौर पर काम करेंगे। हालांकि इस संदर्भ में केंद्र सरकार की अनुमति शेष है। ऐसा परिवर्तन अप्रत्याशित और अभूतपूर्व नहीं है, यदि अधिकारी ने नियमानुसार सेवानिवृत्ति प्राप्त की है। अलपन को लेकर भी केंद्र सरकार और बंगाल की मुख्यमंत्री के बीच टकराव का नया अध्याय खुल गया है। क्या कोई नौकरशाह इतना अपरिहार्य हो सकता है कि सरकारों के दरमियान ठन जाए और संघीय ढांचे की मनमानी व्याख्या की जाने लगे? अलपन बंदोपाध्याय को तीन महीने का सेवा-विस्तार दिया गया था। उसके लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री मोदी से अनुरोध किया था। बीती 24 मई को सेवा-विस्तार को मंजूरी दे दी गई। यानी जो सेवानिवृत्ति 31 मई को तय थी, वह तीन महीने आगे शिफ्ट हो गई। पेंशन और अन्य लाभ भी उसी के मुताबिक तय होने थे। लेकिन 31 मई को प्रधानमंत्री के जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही मुख्यमंत्री ने अचानक घोषणा की कि अलपन मुख्य सचिव के पद से रिटायर हो गए हैं, लिहाजा अब वह मुख्यमंत्री के मुख्य सलाहकार होंगे। उनका कार्यकाल तीन साल का होगा। उनके दायित्व पहले से ही तय हैं। इस प्रशासनिक फैसले में कई सवाल निहित हैं। क्या अलपन अपने आप ही रिटायर हो गए अथवा केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय की स्वीकृति और प्रक्रिया के अनुरूप सेवानिवृत्ति हुई? क्या राज्य सरकार मुख्य सचिव पद के अधिकारी को अपने ही स्तर पर रिटायर कर सकती है? तो सेवा-विस्तार के केंद्र सरकार के निर्णय का क्या होगा? यदि आईएएस अफसर को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों में असहमति की स्थिति है, तो क्या केंद्र सरकार का फैसला मान्य नहीं होना चाहिए? यदि अलपन अपने पद से इस्तीफा देते, तो उसे राष्ट्रपति ही स्वीकार या अस्वीकार कर सकते थे, इस नियम की जानकारी अलपन को जरूर रही होगी। अब क्या पूर्व मुख्य सचिव सरकार में मुख्य सलाहकार के पद पर कार्य कर सकते हैं, क्योंकि सेवानिवृत्ति की प्रक्रिया में विरोधाभास हैं? क्या सेवानिवृत्ति के बाद भी ऐसे अधिकारी के खिलाफ केंद्र सरकार कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकती है? सवाल एक आईएएस अधिकारी का नहीं है। सवाल संविधान और प्रशासनिक कानूनों का है। यदि एक अधिकारी के संदर्भ में अखिल भारतीय सेवा नियमों का सरेआम उल्लंघन किया जाता है, तो यह एक मनमानी परंपरा बन जाएगी और केंद्र-राज्यों के बीच नए टकराव पैदा होते रहेंगे! आईएएस और आईपीएस अधिकारी भी बलि का बकरा बनते रहेंगे। यदि वे राज्य में निर्वाचित मुख्यमंत्री के प्रति जवाबदेह हैं, तो प्रधानमंत्री को भी रपट करना उनका दायित्व है, क्योंकि वे अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी हैं। ऐसे अधिकारी केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय की परिधि में आते हैं और यह मंत्रालय सीधे ही प्रधानमंत्री के अधीन काम करता है। ऐसे अधिकारियों की सेवा पर अंतिम निर्णय भी केंद्र सरकार लेती है। हालांकि राज्यों की भी सलाह के प्रावधान हैं।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अलपन को दिल्ली बुलाने के आदेश को ‘एकतरफा’ और ‘असंवैधानिक’ करार दिया था। यह ममता का सियासी अहंकार और ‘हेट प्रधानमंत्री’ की रणनीति हो सकती है। बेशक ‘राजनीतिक मास्टर’ आईएएस के भी बॉस होते हैं, लेकिन उन अफसरों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने ‘मास्टर’ की सियासत का हिस्सा न बनें। कमोबेश यह ‘लालरेखा’ बीच में खिंची रहनी चाहिए, लेकिन इस रेखा को भी लांघा जाता रहा है। संघीय सहयोग और अखिल भारतीय सेवा देश के संवैधानिक ढांचे के आधार-स्तंभ हैं, लेकिन इन्हीं का उल्लंघन किया जा रहा है। अब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अलपन बंदोपाध्याय को ‘कारण बताओ’ नोटिस भेजा है, क्योंकि केंद्र सरकार के तलब करने के बावजूद वह दिल्ली नहीं आए और नॉर्थ ब्लॉक में रिपोर्ट भी नहीं किया। यह नियमों का घोर उल्लंघन है। इसके उलट प्रधानमंत्री को ‘हिटलर’ और ‘स्टालिन’ करार दिया जा रहा है। यह राजनीतिक लड़ाई भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच हो सकती है, पर नियमों-संविधान का पालन जरूरी है।
3.आर्थिक प्रोत्साहन जरूरी
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने वित्त वर्ष 2020-21 में अर्थव्यवस्था की स्थिति को लेकर जो आंकडे़ जारी किए हैं, वे लगभग उसी तरह के हैं, जैसी अपेक्षा की जा रही थी। इस वित्त वर्ष में जीडीपी की वृद्धि दर -7.3 प्रतिशत रिकॉर्ड की गई, फरवरी में जो अनुमान लगाया गया था, वह -8 प्रतिशत का था, लेकिन सरकारी खर्च में काफी बढ़ोतरी की वजह से यह कुछ बेहतर हो गई। दरअसल, आखिरी तिमाही में जीडीपी 1.6 प्रतिशत बढ़ी, और यह बढ़ोतरी विनिर्माण क्षेत्र में तेजी आने की वजह से है। लेकिन जैसा कि हम सब देख रहे हैं, उसके तुरंत बाद महामारी की दूसरी लहर आ गई। हालांकि, इस लहर के दौरान पिछली बार की तरह सख्त लॉकडाउन तो नहीं हुआ, लेकिन कमजोर अर्थव्यवस्था के लिए इतना झटका भी काफी भारी पड़ सकता है।
देश में कोरोना फैलने के पहले भी भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी। वित्त वर्ष 2019-20 में जीडीपी की विकास दर चार प्रतिशत के आसपास थी और अगर असंगठित क्षेत्र का भी अनुमान लगाया जाए, तो हालात गंभीर ही थे। कोरोना ने इसे और बिगाड़ दिया है। सीएमआईई की ताजा रपट के मुताबिक, कोरोना के दौर में 97 प्रतिशत भारतीय परिवारों की आय घटी है और सिर्फ दूसरी लहर में ही लगभग एक करोड़ नौकरियां खत्म हुई हैं। उदारीकरण के दौर में जितने परिवार गरीबी रेखा के ऊपर आए थे, उस किए-कराए पर पिछले कुछ वक्त में ही पानी फिर गया है। जाहिर है, सरकार में बैठे लोग भी इन मुद्दों पर सोच ही रहे हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि इस स्थिति से उबरने के लिए फिलहाल किसी अतिरिक्त कोशिश की जरूरत नहीं है। उनका कहना है कि बजट में अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए जो उपाय किए गए हैं, उनका असर देखना चाहिए। चूंकि इस वित्त वर्ष के अभी दो महीने ही गुजरे हैं, इसलिए इस बजट की योजनाओं का असर दिखना धीरे-धीरे शुरू होगा। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम का भी यह मानना है कि अर्थव्यवस्था तेजी से गति पकड़ सकती है, बशर्ते टीकाकरण बडे़ पैमाने पर हो सके। यह भी सही है कि फिलहाल सरकार के पास विकल्प बहुत कम हैं। उसके आगे एक बड़ी समस्या यह भी है कि महंगाई तेजी से बढ़ रही है। मौजूदा एनडीए सरकार के कार्यकाल में विकास दर तो कम होती गई, लेकिन एक सौभाग्य यह रहा कि महंगाई की रफ्तार भी काफी कम रही। लेकिन अब दोहरा संकट है- कम विकास दर के साथ बढ़ी महंगाई। ऐसे में, नकदी की उपलब्धता बढ़ाने पर महंगाई के और ज्यादा बढ़ने का खतरा पैदा हो सकता है, जो देश में सबसे संवेदनशील राजनीतिक मुद्दा बन जाता है। कई जानकारों का यह भी कहना है कि इस साल के बजट में अर्थव्यवस्था को गति देने के जो उपाय किए गए थे, वे तब सोचे गए थे, जब दूसरी लहर नहीं थी। दूसरी लहर ने पिछले सारे अनुमानों को बेअसर कर दिया है और नई परिस्थिति में अब नए लोगों को आर्थिक सहायता और प्रोत्साहन की जरूरत है। दूसरी लहर ने लोगों को कहीं ज्यादा सशंकित कर दिया है और इसकी वजह से बाजार में खर्च करने से वे अभी हिचकेंगे। इसलिए यही वक्त है, जब सरकार को नए नोट छापने और लोगों, खासकर देश के सबसे कमजोर वर्गों के हाथ में पैसे देने का फैसला करना चाहिए।
4.जागने का वक्त
जमीनी हकीकत के अनुरूप उठायें कदम
सोमवार को शीर्ष अदालत ने देश में वैक्सीन नीति से जुड़ी विसंगतियों और इससे जुड़े मुद्दों को लेकर केंद्र सरकार से सख्त लहजे में सवाल पूछे और तल्ख टिप्पणियां कीं। ये सवाल वैक्सीन की खरीद, वैक्सीन की उपलब्धता और इसके लिये पंजीकरण से जुड़ी दिक्कतों से भी जुड़े थे। दरअसल, अदालत कोरोना मरीजों की दवा, ऑक्सीजन और वैक्सीन से जुड़े मुद्दों पर स्वत: संज्ञान लेते हुए सुनवाई कर रही है। तीन सदस्यीय बेंच में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, एस. रवींद्र भट्ट और एल. नागेश्वर राव शामिल थे। बेंच के सामने केंद्र सरकार की ओर से उपस्थित सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से अदालत ने कड़े सवाल किये। बेंच ने कहा कि केंद्र सस्ते दाम में वैक्सीन खरीद रही है और राज्यों व निजी चिकित्सालयों के लिये कंपनियां कीमत तय कर रही हैं। ऐसा क्यों है? वैक्सीन खरीदने के लिये राज्य ग्लोबल टेंडर निकाल रहे हैं, क्या यह केंद्र की पालिसी का हिस्सा है? बेंच ने यह भी पूछा कि केंद्र सरकार डिजिटल इंडिया की दुहाई देती है, जबकि देश में गरीबी व निरक्षरता के चलते श्रमिक वर्ग कैसे कोविन एप पर पंजीकरण करा सकेगा? अदालत का मानना था कि देश में टीके की कीमत में एकरूपता होनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि सही-गलत का निर्धारण सिर्फ केंद्र सरकार ही कर सकती है। जनसरोकारों से जुड़े विषयों में अदालत को हस्तक्षेप करने के पूरे अधिकार हैं। सॉलिसिटर जनरल द्वारा यह कहने पर कि यह नीतिगत मामला है और कोर्ट के पास न्यायिक समीक्षा के अधिकार सीमित हैं, कोर्ट ने दो टूक कहा कि हम आपसे नीति बदलने के लिए नहीं कह रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार को जमीनी हकीकत से वाकिफ होना चाहिए। लोगों को सरकार की नीति से परेशानी नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने माना कि महामारी का संकट बड़ा है और हाल ही में विदेश मंत्री अमेरिका आवश्यक चीजों के लिये गये थे, लेकिन सरकार को अपनी कमियां भी स्वीकारनी चाहिए। साथ ही यह भी कहा कि यह सुनवाई सरकार को असहज करने के लिये नहीं है, कमजोरी स्वीकारना मजबूती की निशानी भी होती है।
दरअसल, शीर्ष अदालत की बेंच केंद्र सरकार से टीका नीति की वास्तविक स्थिति जानना चाहती है। न्याय मित्र जयदीप गुप्ता ने टीका नीति की विसंगतियों की ओर अदालत का ध्यान खींचते हुए कहा कि केंद्र सरकार ने राज्यों को टीका खरीद का करार करने को कहा है लेकिन एक तो विदेशी टीका निर्माता कंपनियां राज्यों से करार नहीं करना चाहतीं, वहीं हर राज्य की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह महंगी वैक्सीन जुटाने में सक्षम हो। हालांकि, टीके के दामों के बाबत पूछे जाने पर सॉलिसिटर जनरल का कहना था कि यदि हम टीकों के दामों से जुड़ी जांच की ओर बढ़ेंगे तो इससे टीकाकरण कार्यक्रम प्रभावित होगा। कोर्ट का मानना था कि देश की संघीय व्यवस्था के तहत बेहतर होता कि केंद्र वैक्सीन खरीद कर राज्यों को देता। लेकिन केंद्र राज्यों को अनिश्चय की स्थिति में नहीं छोड़ सकता। वहीं केंद्र सरकार की ओर से कहा गया कि उसे ज्यादा टीके खरीदने के कारण कम कीमत पर टीका मिला है। अदालत द्वारा तीसरी लहर की चुनौती में ग्रामीण क्षेत्रों व बच्चों के अधिक प्रभावित होने की आशंका को लेकर पूछे गये सवाल पर केंद्र की ओर जवाब दिया गया कि सरकार ने गंभीर विचार-विमर्श के बाद टीकाकरण नीति का निर्धारण किया है। यदि इसमें किसी तरह के बदलाव की जरूरत होगी तो सरकार सही दिशा में बदलाव को तत्पर रहेगी। अदालत ने यह भी जानना चाहा कि देश में टीका उत्पादन की क्षमता के अनुरूप क्या साल के अंत तक टीकाकरण के लक्ष्य हासिल कर लिये जाएंगे? इस पर केंद्र के प्रतिनिधि का कहना था कि टीकों की उपलब्धता के आधार पर ही लक्ष्य तय किये गये हैं। निस्संदेह शीर्ष अदालत ने देश के जनमानस को उद्वेलित कर रहे सवालों का ही केंद्र सरकार से स्पष्टीकरण चाहा है ताकि जनता में किसी तरह की ऊहापोह की स्थिति न बने। निस्संदेह जनमानस की आशंकाओं का निराकरण जरूरी है।